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नवनीत (मक्खन) आदि पदार्थ लाया हुआ चतुर्थ प्रहर तक नहीं रखना चाहिए, किन्तु किसी विशेष-गाढ़े कारण के उपस्थित होने पर वह रखा भी जा सकता है । इनके अतिरिक्त अपवादोत्सर्ग रूप एक भेद और होता है । वैसे गौण भेद कई प्रकार के हो जाते हैं । जैसे-समास सूत्र, आख्यात सूत्र, तद्धित सूत्र और निरुक्त सूत्र इत्यादि ।
अस्तु, किसी भी सूत्र का अध्ययन, उसके भेद और उपभेदों के ज्ञान सहित करना चाहिए । इन भेदों के ज्ञान से सूत्रार्थ समझने में सरलता आ जाती है । सच्चे सदाचार के जिज्ञासु को सूत्र और अर्थ दोनों का भली भांति बोध करना चाहिए तभी वह अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर सकता हे । हम पहले भी लिख चुके हैं कि बिना उपयोगपूर्वक स्वाध्याय के कोई भी उस विषय में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । अतः सूत्र और अर्थ दोनों का ठीक-२ ज्ञान कर स्वाध्याय करना ही विशेष फल प्राप्ति का साधन हो सकता
माङ्गलिक विचार यदि किसी व्यक्ति के चित्त में यह जिज्ञासा उत्पन्न हो जाय कि इस सूत्र के आदि में मङ्गलाचरण किया गया है कि नहीं । उसको सबसे पहले यह बात न भूलनी चाहिए कि सब शास्त्रों के मूल-प्रणेता श्री अर्हन् भगवान् ही हैं । उनके प्रणीत होने से वे सब मङ्गलरूप ही हैं । मङ्गलाचरण इष्टदेव की आराधना के लिए किया जाता है । जहां प्रणेता ही स्वयं इष्टदेव हैं, वहां अन्य मङ्गल की क्या आवश्यकता है । यह शंका उपस्थित हो सकती है कि ठीक है, मूल-प्रणेता श्री भगवान् ही हैं । किन्तु सूत्रों की रचना तो गणधरों ने की है, फिर उनको तो अवश्य ही मङ्गलाचरण से अपने इष्ट देव का स्मरण करना चाहिए था? ठीक है, किन्तु यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गणधरों ने केवल श्री भगवान् के प्रतिपादित अर्थरूप आगम का ही सूत्ररूप में अनुवाद किया है । अतः उन्होंने भी यह आवश्यक नहीं समझा कि भगवान् के प्रतिपादित अर्थ को ही प्रगट करने के लिए किसी प्रकार से मंगल किया जाय ।
अथवा यह शास्त्र अंग और पूणे से उद्धृत किया हुआ है । अतः इसका प्रत्येक अक्षर मंगल-रूप है । ऐसी शंका फिर भी उपस्थित हो सकती है कि यदि गणधरों को स्वयं इसकी कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं तो उनको शिष्टजनोचिताचार और शिष्य-परम्परा की शिक्षा के लिए तो आदि, मध्य और अन्त में कुछ न कुछ मंगल अवश्य करना चाहिए
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