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पद्मचरित में प्रतिपादित
भारतीय संस्कृति
[ अखिल भारतवर्षीय दि० जैन शास्त्रि परिषद् द्वारा ११०१ २० के
१९७३ चाँदमल पाण्ड्या पुरस्कार से पुरस्कृत ]
लेखक
डॉ. रमेशचन्द जैन एम० ए०, पी-एच-डी०, डी० लिट्, जैनदर्शनाचार्य
प्रवक्ता संस्कृत विभाग वर्द्धमान कालेज, बिजनौर
प्रकाशक
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा
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परम पूज्य पितामह
श्री सिंघई भागचन्द जैन सोरया
के करकमलों में
सादर समर्पित
जिनको
हार्दिक प्रेरणा एवं मृदुल स्नेह पाकर मैं अपने जीवन पथ में
आगे बढ़ सका
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आभार श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के अध्यक्ष श्री निर्मलकुमार जी सेठी (जन्म ४ जुलाई, १९३८) तिनसुफिया के सुप्रसिद्ध व्यवसायी एवं उद्योगपति स्व० श्री हरकचन्द जी सेठी के ज्येष्ठ पुत्र है। उन्होंने अल्पकाल में हो औद्योगिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्रों में विशेष प्रतिष्ठा अर्जित कर ली है। ___ सिल्चर, गोरखपुर, सीतापुर व लखनऊ में आपकी आटा-चावल मिलें है तथा तिनसुकिया, गोहाटी व दिल्ली में व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं ।
आप उ० प्र० रोलर फ्लोर मिलर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे हैं, कई सरकारी समितियों के सदस्य हैं व सरकारी डेलीगेशनों में विदेशों की यात्रा भी कर चुके हैं । आपका आचार-विचार अत्यन्त कुद्ध एवं निर्मल है तथा धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में आप सदा ही अग्नणी रहते हैं । वर्ष १९८१ में महासमा का अध्यक्ष पद ग्रहण करते ही प्रत्येक प्रान्त में महासभा के अधिवेशन आयोजित कराकर तथा प्रान्तीय समितियां गठित कराकर आपने जैन जगत् में एक नवीन चेतना का संचार किया है।
दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रों के जीर्णोद्धार विकास के लिए आपको उत्कट लगन है तथा देश भर के अनेक तीर्थ क्षेत्रों पर आपने मुक्त हस्त से दान देकर अपने द्रव्य का सदुपयोग किया है। आप उत्तरांचल दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के महामंत्री, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी को कार्यकारिणी के सदस्य, अयोध्या तीर्थ क्षेत्र के अध्यक्ष तथा अन्य कई तीर्थ क्षेत्रों के संरक्षक अध्यक्ष है।
धर्म साहित्य एवं धार्मिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में आपकी विशेष रुचि है। डॉ. रमेपाचन्द जन की पी० एच. डी० उपाधि के भोष प्रबन्ध "पन चरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति" के प्रकाशन में आपने आर्थिक सहयोग दिया है । जिसके लिए श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा का साहित्य प्रकाशन विभाग आपका विशेष आभारी है। डॉक्टर साहब संस्कृत साहित्य के लम्घ प्रतिष्ठत विद्वान् है तथा वर्तमान में बिजनौर स्नातकोत्तर कालेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष है।
राजकुमार सेठी मंत्री-साहित्य प्रकाशन-विभाग, श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा
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प्राक्कथन
महादेश भारतवर्ष की प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि विभिन्न प्राचीन एवं मध्ययुगीन भाषाओं में प्राप्त जैन परम्परा का पुराण साहित्य पर्याप्त विपुल, विविध एवं श्रेष्ठ कोटि का है । सुदूर अतीत से ही शिष्ट साहित्यिक भाषा के रूप में संस्कृत का सर्वोपरि महत्त्व रहता आया है और संस्कृत भाषा का भी जन पुराण साहित्य भाषा-सौष्ठव, कायोचित गुणों, आकार-प्रकार आदि किसी भी दृष्टि से अन्य परम्परागों के पुराण साहित्य की अपेक्षा तनिक भी हीनस्तरोय नहीं है।
अद्यावधि उपलब्ध संस्कृत भाषा की और पुरानी कार्य रविषणात पद्मपुराण या पदमचरित सर्वप्राचीन है । सात महाधिकारों, १२३ पों और १८००० श्लोकों में निबद्ध इस महान् पुराण अन्य की रचना आचार्य ने महावीर निर्वाण के छ: मास अधिक १२०३ वर्ष व्यतीत होने पर, अर्थात सन् ६७६ ई. के वैशास्त्र मास के शुक्ल पक्षारम्भ में, सम्भवतया अक्षय तृतीया के दिन, पूर्ण की थी । ग्रन्थ के इस सुनिश्चित रचमाकाल के विषय में किसी भी आधुनिक विद्वान ने कोई शंका नहीं उठाई है। रविषेण दिगम्बर आम्नाय के अनुयायी थे, यह तथ्य निर्विवाद है, किन्तु उस परम्परा के किस संघमाण-गच्छ से वह सम्बद्ध थे, इसकी कोई सूचना नहीं है। केवल यही ज्ञात है कि वह सन्ममि लक्ष्मणसेन के शिष्य थे, जो स्वयं महम्मुनि के शिष्य और दिवाकर पति के प्रशिष्य थे और मह दिवाकर यति इन्द्र गुरु के शिष्य थे।
जन परम्परा में इक्ष्वाकुवंशी अयोध्यापति दाशरथि रामचन्द्र का अपरनाम 'पद्म' विशेष प्रसिस रहा है, अतएव पद्मपुराण या पदमचरित से आशय रामचरित, रामकथा या रामायण का होता है। भारतीय पुराण पुरुषों में श्री राम का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उनका चरित्र या कथानक प्रायः सर्वाधिक लोकप्रिय रहता आया है और उसका प्रभाव देश एवं काल की सोमामों का अतिक्रमण करके अतीक व्यापक रहा है । ब्राह्मण परम्परा में वाल्मीकीय रामायण रामचरित्र का मूलाधार माना जाता है। बौद्ध परम्परा में उसका आधार दशरथजातक है। और जैन परम्परा में केवलिजिन प्रणीत द्वादशांमश्रत के बारहवें अंग दृष्टिप्रवाद के तृतीय विभाग, 'प्रथमानुयोग' में वर्णित प्रेसपालाका पुरुषों का चरित उसका भूल खोत माना जाता है। आचार्य रविषेण के अनुसार पद्मचरित (रामचरित्र) का वह मूल कथानक इन्द्रभूति. सूधर्मा
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आदि फेवलियों और प्रभव आदि श्रुतकेवलियों के माध्यम से प्रवाहित होता हमा अन्ततः अनुत्तरवाग्मी कीर्तिधर नामक आचार्म को प्राप्त हुआ और उक्त कीतिघर के ग्रंथ को देखकर रविषेण ने अपना पद्मपुराण रचा है। रविषण के परवर्ती अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू ने भी अपनी रामायण या पद्मचरित (लगभग ७९० ई०) में यही बात कही है, साथ ही कीतिघर के उपरान्त रविषेण का भी नामोल्लेख किया है। अतः इन दोनों विद्वानों के सम्मुख आचार्य कीर्तिधर का रामचरित्र विद्यमान था, जो अब कहीं उपलब्ध नहीं है। दूसरी ओर, विमलार्य कृत प्राकृत पद्मचरित का जिसका रचनाकाल विभिन्न विद्वान् प्रथम शती ई. से पांचवीं शती ई० पर्यन्त किसी समय रहा अनुमानित करते है, कोई भी नामोल्लेख रविपेण और स्वयंभू ने नहीं किया, यद्यपि उसके साथ इन दोनों के ग्रन्थों की तुलना करने पर अनेक साम्य लक्षित होते हैं। अब या तो जिसे भाज विमल रिकृत पदमचरित्र के रूप में जाना जा रहा है, उसे ही रविषेण और स्वयंभू कोतिधर की कृति के रूप में जानतं थे, अथवा उन तीनों का ही मुल स्रोत वह कोई अन्य ग्रन्थ रहा है जिसके विषय में आज कुछ ज्ञात नहीं है। उन तीनों में भी परस्पर भाषा, शैली, संकोच, विस्तार आदि के अनेक अन्तर है, तथापि वे जैन रामकथा की उस एक घारा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जो गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराण (त०८५० ई०) में प्राप्त धारा से भिन्न है। परवतों लेखकों में से कुछ ने एक धारा का अनुसरण किया, कुछ ने दुरारी का, तथापि गुणभद्रीय धारा को अपेक्षा रविपणीम धारा ही अधिक लोकप्रिय रही। रामकथा या तत्संबंधी प्रसंगों अथवा प्रकरणविशेषों को लेकर जैन लेखकों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचित साधिक दो सौ रचनाएं उपलब्ध है, उनमें से लगभग डेढ़ सौ का आधार रविषणोय पद्मपुराण ही है।
हमने लगभग तीस वर्ष पूर्व रविषेणकृत पद्मचरित के सन्दर्भ में लिखा था कि वह प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी तथा रामकथा की विभिन्न जैनाजन धाराओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। वस्तुतः प्रत्येक साहित्यकार को कृति में उसके समसामयिक समाज की सभ्यता एवं संस्कृति अल्पाधिक प्रतिबिंबित होती ही है, भले ही उसका वर्ण्य कथानक उससे सैकड़ों या सहस्रों वर्षों पूर्व घटित घटनाओं एवं व्यक्तियों से सम्बन्धिल रहा हो। अतएव इधर विश्वविद्यालयों के शोधछात्रों द्वारा ग्रन्थपरक सांस्कृतिक अध्ययन अनेक किये जा रहे हैं। डॉ. रमेशचन्द जैन का पी-एच. डी० उपाधि के लिए स्वीकृत प्रस्तुत शोध प्रबन्ध 'पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति' भी उसी कड़ी की शोष-ओजपूर्ण कृति है। ई० सन् की छयी-सातवीं शताब्दियों के आसपास की भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं
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जनजीवन से सम्बन्धित जो विपुल सामन्नो रविणाचार्य की इस पुराण में संचित है, उसका सम्यक् आलोगन करके, बड़े श्रमपूर्वक एवं सूझबूम के साथ कॉजैन ने अपनी इस पुस्तक में उजागर किया है, जिसके लिए वह् साधुवादाह हैं । चयनित सामग्री का व्यवस्थित आकलन, तुलनात्मक विवेचन, उपर्युक्त सन्दर्भ, यथावस्यक पादटिप्पणियों, समीक्षक दृष्टि, उपयोगी परिशिष्टों आदि से समन्वित माह शोषप्रबन्ध ज्ञानवर्वक, प्रामाणिक एवं पठनीय है, और तद्विषयक पोष-खोज में सहायक होने की क्षमता से युगत है। रामकथा के विभिन्न पक्षों तथा ततिषयक विभिन्न साहित्यिक कृतियों पर गत पचास-साठ वर्षों में जो अनेकों शोधखोजपूर्ण विवेचन प्रकाश में आये है, और नित्य आ रहे है, उनमें डॉ. जैन के इस रविषेगोय पदमचरित दिषयक सांस्कृतिक अध्ययन को भी गणना होगी।
ज्यो प्रसाद जैन ज्योति निकुञ्ज, चारबाग, लखनऊ-१९ वित्तांक २१-१०-१९८३ ई०
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दो शब्द
" पपचरित और उसमें प्रतिपादित भारतीय संस्कृति" ग्रन्थ विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा वर्ष १९७२ ई० में पी-एच. डी उपाधि हेतु स्त्रीकृत किया गया था । इस ग्रन्थ की रचना में अनेक विद्वानों की कृतियों का यत्र-तत्र उपयोग हुआ है | श्रद्धेय डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा अनूदित तथा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पद्मनारत के प्रामाणिक संस्करण का उपयोग लेखक ने ग्रन्थ निर्माण में किया है। पूज्य गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, डॉ० हीरालाल जी, सिद्धान्ताचार्य, डॉ० फूलचन्द्र शास्त्री, डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री, डॉ० दरबारीलाल कोठिया, प्रो० उदयचन्द्र जैन, प्रो० अमृतलाल शास्त्री एवं डॉ० कोमलचन्द जैन की रचनाओं अथवा सुक्षात्रों से मैं विशेष लाभान्वित हुआ । श्रद्धेय पं० जम्बू प्रसाद जी शास्त्री समय-समय पर सत्परामर्श देते रहे । शोध प्रबन्ध के निर्देशक होने के कारण डॉ हरीन्द्रभूषण जैन ( महामन्त्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद् ) एवं भूतपूर्व रोडर संस्कृत अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ) से पर्याप्त दिशा निर्देश प्राप्त होता रहा | अखिल भारतवर्षीय दि. जैन शास्त्रिपरिषद् के कर्णधार डॉ० लालबहादुर शास्त्री तथा वाणीभूषण पं० बाबूलाल जैन जमादार ने उक्त ग्रन्थ पर श्रीमान् राय साहब चांदमल पाण्ड्या पुरस्कार के अन्तर्गत १९७३ का एक सहल एक सौ एक रुपये का पुरस्कार दिलाकर लेखक का उत्साहवर्द्धन किया है । महावीर प्रेस वाराणसी के मालिक बाबूलाल जैन फागुल्ल ने समाज को अनेक प्रत्यरत्न भेंट किए हैं, इसी परम्परा में यह प्रेस में मुद्रित होकर जन साधारण के समक्ष आ रहा है । इन सब महानुभावों के प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। श्रीमान् सेठ निर्मलकुमार जी सेठी, सीतापुर इस अन्य के प्रकाशन में महासभा की ओर से अपना बार्षिक योग दान न दिलाते तो यथाशीघ्र इस ग्रन्थ का सबके समक्ष आना कठिन था, अतः मैं अ. वि. जैन महासभा तथा उसके अध्यक्ष सेठी सा के प्रति आभार व्यक्त करता है । पमान कॉलिज बिजनौर तथा जैन मन्दिर, बिजनौर के ग्रन्थागारों में उपलब्ध ग्रन्थों से मैं लाभान्वित हुआ, अतः इनके तत्कालीन पदाधिकारियों डॉ० श्रीराम त्यागी, डॉ० राजकुमार अग्रवाल एवं आदरणीय बाबू रतनलाल जैन के प्रति में अपना धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। आशा है, जन समुदाय एवं विमण्डली में इस ग्रन्थ का समादर होगा ।
सुन्दर मुद्रण कर
ग्रन्थ भी उन्हीं के
जैन मन्दिर के पास बिजनौर, उ० प्र०
विद्वद्गुणानुरागी रमेशचन्द जैन
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विषयानुक्रमणिका
अध्याय १ पद्मपरित का परिचय
१-३४ पद्मचरित के कर्ता-(आचार्य रविषेण) १, पद्मचरित का समय १, पद्मचरित की कथावस्तु का आधार १, पद्मचरित की कथावस्तु ५, कथानक रूढ़ियों १०, पथचरित की भाषा और शैली १४, पद्मचरित : एक महाकाव्य २४, जनकथा साहित्य और पामचरित २८, पनवरित में संकेतित ब्राह्मण धर्म ३० ।
आरय २
सामाजिक व्यवस्था
३५-११३ ऐतिहासिक विकास ३५, परिवार. ३५, नारी की स्थिति ३७, विवाह प्रथा ३८, स्नान ३९, स्नान में प्रयुक्त पात्र ३९, भोजन पान ४०, अन्न भोजन ४०, फलभोजन ४१, पक्वान्न भोजन ४२, शाक भोजन ४३, पेयपदार्थ-मदिरा ४३, मधु ४४, दूध एवं दूध के बने पदार्थ ४४, इक्षरस ४४, पुष्ट ४५, भोजन सम्बन्धी पदार्थों के प्रकार-भक्ष्य ४५, भोज्य ४५, पेय ४५, लेस ४५, वृष्य ४५, भोजनशाला में प्रयुक्त पात्र ४५, विद्या ४६, विद्या प्राप्ति के लिए आवश्यक बातें ४६, गुरु का महत्व ४६, विद्या प्राप्ति का स्थान ४७, लिपि- अनमत्त ४७, विकृत ४७, सामयिक ४७, नैमित्तिक ४७, विद्या प्रदाता ४८, विद्याओं के प्रकार-व्याकरण विद्या ४८, गणित शास्त्र ४९, घमुर्वेद ४९, आरण्यक शास्त्र ४९, ज्योतिष विद्या ५०, वेद ५०, वेदान्त ५१, बौद्ध दर्शन ५१, निमित्त विद्या ५१, शकुन विद्या ५१, प्राणियों में शुभाशुभ सूचक दर्शन एवं क्रियाओं से प्राप्त शकुन ५२, प्राकृतिक तत्वों से प्राप्त शकुन ५४, शारीरिक लक्षणों से प्राप्त शकुन ५४, स्वप्नों से प्राप्त शकुन ५५, ग्रहोपग्रहों से प्राप्त शाकुन ५६, विविध णकुन ५६, शकुन का कारण ५६, अपशकुनों की निवृत्ति के उपाय ५७, मारोग्य-शास्त्र ५७, कामशास्त्र ५८, संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी आदि भाषा ५८, संगीत विद्या ५८, नृत्यविद्या ५८, काव्यशास्त्र ५८, अर्थशास्त्र ५९. नोतिशास्त्र ५९, नाट्य-शास्त्र ५९, गान विद्या ५९, गान के चार प्रकार ५९, मान की उत्पत्ति ५९, अश्वविद्या ५९, लोकशता ६., लोक के प्रकार ६०. मंत्र शक्ति से प्राप्त विद्यायें ६०, अन्य विद्यायें ६२, वर्ण व्यवस्था ६२, क्षत्रियादि त्रिवर्ण
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की प्रसिद्धि ६३, ब्राह्मण वर्ण और उसका इतिहास ६३, वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं ६४, जातिवाद का खण्डन ६४, ब्राह्मण कोन ६५, भृत्यवृत्ति और उसको निन्दा ६६, विभिन्न आतियाँ या वर्ग ६७, वस्त्र और आभूषण ७४, वस्त्रअंशुक ७४, पट्टांशुक ७५, कंचुक ७५, दुकूल ७५, वासस् ७६, वस्त्र रखने के पात्र–पटल ७७, आभूषण-शिरोभूषण ७७, शेखर ७७, मीमन्त मणि ७८, चूड़ामणि ७८, कर्णाभूषण-कुण्डल ७८, अवतंस ७८, बालिका ७८, तलपत्रिका ७९, काठाभूषण-हार ७९, सक ८०, हाटक ८०, रनटित स्वर्ण सूत्र ८०, कराभूषण-केयूर ८०, कटक ८०, मिका ८१, कदि आभूषण-कायी ८१, पैरों के आभूषण-नूपुर ८१, आर्थिक जीवन-वाणिज्य ८२, कृषि ८३, पशुपालन ८४, अन्य उग्राम ८५, आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा ८५, जन जीवन ८७, धन की महत्ता ८८, त्रिवर्ग ८८, प्राकृतिक सम्पदा-वृक्षादि वनस्पति ८९, लतायें ९०, पुष्प ९०, उद्यान ९१, वन ९१, सरोवर ९१; नदियां ११, पर्वत ९२, समुद्र ९४. पा पक्षी आदि जीव जन्तु ९४, नगर-माम ९८, लौकिक मान्यतायें व प्रथाय १०५, भूत प्रेतों में विश्वास १०५, वट वृक्ष की पूजा १०६, पाकून में विश्वास १०६, ज्योतिष पर विश्वास १०६, शस्त्र पूजा १०६, आचारभ्यवहार ।
अध्याय ३ मनोरंजन
११४-१३७ ____ कोड़ा-कीड़ा के भेद ११४, क्रीड़ा श्राम ११४, जलक्रीड़ा ११५, वन क्रीड़ा ११७, चूत क्रीड़ा १२०, दोला विलास १२०, पर्वतारोहण १२१, गोष्ठी १२१, कथा १२२, कथा के भेद १२३, इन्द्रजाल १२४, युद्धकोड़ा १२५, पारिवारिक उत्सव १२६, पंच कल्याणक महोत्सव १२७, वसन्तोत्सव १३०, आष्टातिक महोत्सव १३२, मदनोत्सव १३३, विद्या निर्मित कीड़ाये १३४, विविध मनोरंजन १३५ ।
अध्याय ४ कला
१३८-२०० कलाओं का वर्गीकरण १३८, नाट्यकला १३९, संगीतकला १३९, स्वर १४०, वृति १४०, मूच्र्छना १४०, लय १४४, ताल १४५, जाति १४६, जातियों के भेव १४७, धैवती १४७, आर्षभी १४७, षड्न १४७, षडबोंदीच्या १४८, निषादी १४८, गांधारी १४८, षड्जकैशिकी १४८, षड्जमध्यमा १४८, गांधारोदीच्या १४९, मध्यम पंचमी १४९, गांधार पंचमी १४९, रक्त गांभारी १४९, मध्यमा १४९, आन्धी १४९, मध्यमोदीष्या १४९, कारवी १४९, नम्पनी
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१५०, कोशिकी १५०, संगीत की अभिव्यत्रित १५०, संगीत के चार पद १५०, स्थायी पद के अलंकार १५०, संचारी पद के अलंकार १५०, आरोही पद के अलंकार १५०, अवरोही पद के अलंकार १५०, ग्राम १५०, नृत्यकला-सुन्दर नृत्य के लिए आवश्यक बातें १५१, नृत्य की मुद्रायें ५५२, नृत्य के भेद १५२, पायों के चार भेद-तत १५३, अवनद्ध १५३, सुषिर १५३, घन १५३, तन्वी १५४, अवनद्भवाद्य- मृदङ्ग १५४, पटह १५५, ढक्का १५५, पणिघ १५६, घनवाद्यताल १५६, चित्रकला-१५६, चित्र के भेद १५७, शुष्कचित्र, आर्द्रचित्र, शुष्कचित्र के भेद १५७, भाई मित्र के भेद १५७, चित्र के चार भेद १५७, मूर्तिकला-१५८, जिनप्रतिमा १५१, शासनक्षेप १६०, रविमूर्ति १६०, मुनिमूर्ति १६०, प्रतीहार मूर्ति १६१, पशुमूर्तियाँ १६१, वास्तुकला-नगर वास्तुनगर प्रभेद १६२, दुर्ग १६३, देशपयन १६३, मार्ग विनिवेश १६४, राजमार्ग १६५, रम्या १६५, विकचत्वर १६६, जिनालय १६६, उधान १६७, रक्षासंविधान १६७, वप्र एवं परिखा १६७, प्राकार १६८ अट्टाल १६९, गोपुर १६९, भवन निवेश-जन्म एवं विकास १७०, शालाभवन या शालभवन १७२, यशाला १७२, चतुःशाला १७२, द्वार १७३, स्तम्भ १७४, आस्थान मण्डप १७४, अन्य मण्डप १७४, भयन रचना १७५, सय १७७, गेह १७७, गृह १७७, वैश्म १७८, अागार १७८, भालय १७९, शालभक्षिका १८२, प्रासाद १८३, हमे १८४, मन्विर १८४, सभा १८४, दीपिका १८६, गवाक्ष १८६. क्रीडमक स्थान १८७, प्रपा १८८, कूटगृह १८८, समवसरण १८८, जिनेन्द्रालय १८९, चैत्य १९१, विमान १९२, नरयान १९३, सिंहासन १९३, शय्या १९४, विविध कलायें-दिन कौशलकला १९४, चक्ति कोशल के भेद-स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, रामानार्थता, भाषा, लेख तथा मातृकायें १९४-१९६, पुस्तकर्म-क्षम जन्य पुस्तकर्म १९६, उपचयजभ्य पुस्तकर्म १९६, संक्रमजन्य पुस्तकर्म १९६; यन्त्र १९६, निर्यन्त्र १९६, सच्छिन्द्र १९६, निश्छिद्र. १९६, प्रत्रम्छेद क्रिया १९६, पत्रच्छेद के भेद-बुषिक्रम, छिन्न तथा अफ्छिन्न १९७, माला निर्माण की कला-माला निर्माण के प्रकार, आई, शुष्क, तन्मुक्त तथा मिष १९७, गन्धयोजना-गन्धयोजना के मङ्ग-योनिद्वन्य, मधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म तथा कौशल १९७-१९८, गन्धयोजना कला के भेद १९८, संवाहन कला १९८, संवाहन कला के प्रकार-कर्म संघया १९८, शम्योपचारिका १९९, कर्म संशया के भेद-मदु अथवा सुकुमार, मध्यम, उत्कृष्ट तथा मनःसुखसंवाहन १२९, कर्मसंश्रया संवाहन कला के भेष १९९, शय्योपचारिका १९९, शोभास्पद संवाहन १९९, वेश कौशल फला २९९, केप्यकला १९९।
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अध्याय ५ राजनैतिक जीवन
२०१-२३२ राज्य की उत्पत्ति २०१, राजा का महत्त्व २०२, राजा के गुण २०३, दुराचारी राजा और उसके दुपए २.४. राज्य के मंग २०, मा. २०४, जनपद २०६, नगर २०७, नगर निवासी २०८, पत्तन २०८, प्राम २०९, संवाह २०९, मटम्ब २०९, पुटभेदन, २१०, घोष २१०, प्रोणमुख २१०, मेट २१०, कर्षट २११, दुर्ग २११, कोश २११, सेना २१२, सेना के भेष-पत्ति, सेना, सेनामुख, गुल्म, बाहिनी, पृतना, पम्, अनीकिनी तथा अक्षौहिणी २१२२१३, हस्तिसेना २१३, अश्वसेना २१३, रयसेमा २१४, पदातिसेना २१४, विद्याधर सेना २१४, शिविकासेना २१५, अस्त्र-शस्त्र' २१५, मित्र २१८, राणा का निर्वाचन २१९, राज्याभिषेक २१९, प्रजापालन २२०, गुप्तचर तथा दूत एयवस्था २२१, सामन्त २२२, लेम्बवाह २२३, लेखक २२३, पुस और उसके कारण २२३, गुण सिद्धान्त २२४, सन्धि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय तया द्वैधीभाव २२५, युद्ध की प्रारम्भिक स्थिति २२५, वाद्यों का प्रयोग २२६, युद्ध को विधि २२७, सैनिक उत्साह २२८, युद्ध वर्णन २३०, सैनिकों का विश्राम २३१, युद्ध का फल २३२ ।
अध्याय ६ धर्म-दर्शन
२३३-३०२ धर्म का लक्षण २३२, धर्म का माहात्म्य २३२, उत्कृष्ट धर्म २३४, धर्म के भेद-सागार धर्म, अन्नमारधर्म २३४, गृहस्थ धर्म-पांच अपव्रत-स्थल हिंसा का त्याग, स्थूल असत्य का त्याग, स्थूल परमब्यापहरण का त्याग, परस्त्री का त्याग तथा अनन्त तृष्णा का त्याग २३४-२३६, चार शिक्षावत-सामायिक, प्रोषम्रोण्यास, अतिथि विभाग तथा सल्लेखना २२६, तीन गुणवत २३७, प्रत और उसकी भावनायें-अहिंसावत की भावनायें, सत्पात की भावनायें, अचौर्यप्रत की भावनायें, ब्रह्मचर्यव्रत की भावनायें तथा परिग्रह त्यागवत की भावनायें २३७-२३९, नियम २३९, अनगार धर्म (मुनिधर्म) २४०, पांच महावत २४२, पांच समिति २४२, गुप्ति २४३, परिषह जय २४३, अट्ठाईस मूल गुग २४३, साप्त भय २४३, आठ मदों का त्याग २४३, पारिष सामायिक छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सापराम तथा यथाख्यात-२४४, धर्म २४४, अनुप्रेजा २४५, मोक्ष प्राप्ति का उपाय—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् पारित्र २४५, सम्यग्दर्शन की महिमा २४६, जिनपूजा २४७, जिमपूजा की विधियाँ २४८, दान २४९, चार प्रकार के छान २४९, पात्र और उसके गुण २४९, प्रशंसनीय दान २४९, निन्दनीय दान २५०, दान का फल २५१, तोपरत्व
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की प्राप्ति २५१, सोलह भावनायें २५१-२५३, आठ प्रातिहार्य २५३, बाँतीस अतिशय २५३, द्रष्य निरूपण-धर्म २५४, अधर्म २५४, आकाश २५५, लोकरचना--अधोलोक २५५, मध्यलोक २५५, कज़लोक २५७, सिद्धक्षेत्र २५८, काल २५९, जीव २५९, ज्ञानोपयोग २६०, दर्शनोपयोग २६०, जीव के भेद २६०, गति २६०, इन्द्रिय २६०, काय २६०, योग २६१, वेद २६१, लेश्या २६१, कषाय २६१, ज्ञान २६१, दर्शन २६१, चारित्र, २६२, गुणस्थान २६२, निसर्गज एवं अधिगमज सम्यग्दर्शन २६२, नामादि न्यास २६२, नाम निक्षेप २६२, स्थापना निक्षेप २६२, द्रव्य निक्षेप २६२, भाव निक्षेप २६३, अनुयोग २६३, सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्सर, भाव तथा अल्पबहुत्व २६३, भव्य जीव और अभय जीव २६३, सिद्धजीव २६४, संसारी जीवों का जन्म २६५, गर्भ, जन्म, जरायुज, अण्डज, पोत, उपपाद जन्म, शरीर, औदारिक, वक्रिमिक, आहारक तथा कामप:--६६. समोर उडी मार्थकता २६६, चारों मतियों में परिभ्रमण २६७, कर्म सिद्धान्त २६९, आठ कर्मशानापरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, पुद्गल २६९, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय' २६९-२७०, पाति तथा अधाति कर्म २७०. प्रमाण और नयप्रमाण २७७, नम २७०, अनेकान्त २७१, सप्तमंमी २७१, सर्वज्ञसिद्धि २७२, सुष्टि कर्तृत्व निषेध २७५, यज्ञ का प्रचलन २७६, यज्ञ की उत्पत्ति २७७, यश की पुष्टि में शास्त्र प्रमाण २७९, वेद के अपौरुषेयत्व का निषेध २७९, वेद शास्त्र नहीं है २८०, अपूर्व धर्म का निषेत्र २८१, यज्ञ सम्बन्धी विविध युक्तियों का खण्डन २८१, मनुन्य देवों की मान्यता का निषेध २८२, विविध धार्मिक मान्यतायें-तापस २८३, पृथ्वी पर सोने वाले २८५, भोजन त्यागी २८४, पानी में डूबे रहने वाले २८४, भृगुपाती २८४, शरीर शोषिणी क्रिया करने वाले २८४ तीर्थ क्षेत्र में स्नान करने वाले, दान देने वाले तथा उपवास करने वाले २८४, शिर मुंडाना, स्नान तथा अनेक प्रकार का घेष धारण करना २८४, अग्नि प्रवेश करने वाले २८४, कुलिङ्गी २८५, मस्करी २८५, कृतान्त, विवि, देव तथा ईश्वर को मानने वाले २८५, अधार्मिक क्रियायें २८५, कुकृस-सुकृत २८५, मुक्ति कासाधन २८६ ।
अध्याय ७ उपसंहार ___ पनचरित का सांस्कृतिक महत्व २८५, भारतीय कथा साहित्य में पमचरित का स्थान २८७-२९४, पनचरित का परवर्ती साहित्य पर प्रभाव-पपचरित और हरिवंशपुराण २९४, पनवरित और पउपमरिउ २९९-३०२ । सहायक ग्रन्थ सूचि
३०३-३०८ शबानुक्रमणिका
३०९-३२७
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अध्याय १
पद्मचिरत का परिचय पद्मचरित के कर्ता
पद्मचरित के कर्ता आचार्य रविषेण है। इन्होंने अपने किसी संघ, गणगन्दा का टाकेन्द्र नहीं क
स्नातलो चर्चा भी की है। अपनी गुरु परम्परा के विषय में इन्होंने स्वयं लिखा है कि इन्द्र गुरु के शिष्य दिवाकर यति थे, उनके शिष्य अर्हद' यति थे, उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ। पं० नाथूराम प्रेमी ने रविषण के सेनान्त नाम से अनुमान लगाया है कि ये शायद सेन संघ के हों और इनकी गुरुपरम्परा के पूरे नाम इन्द्रसेन, दिवाकर सेन, अर्हत्सेन और लक्ष्मण सेन हों। इनके निवास स्थान, माता-पिता आदि के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है । पद्मचरित का समय
पद्मचरित की रचना के विषय में रविषेण ने लिखा है--जिनसूर्य श्री बर्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने के बाद एक हजार दो सौ तीन वर्ष छ: मास बीत जाने पर श्री पद्ममुनि (राम) का यह परित लिखा गया है। इस प्रकार इसकी रचना ७३४ विक्रम (६६७ ई०) में पूर्ण हुई। पद्मचरित की कथा वस्तु का आधार
पद्मचरित की कथावस्तु के आधार के विषय में रविषेण ने लिखा है कि श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रमति नामक गणधर को प्राप्त हुआ, अनन्तर धारणीपुत्र सुधर्मा को प्राप्त हुआ, अनन्तर प्रभाव को प्राप्त हुआ, प्रभव के अनन्तर कीतिधर आचार्य को प्राप्त हुआ। कीतिघर आचार्य के अनन्तर अनुत्तरवाग्मी आचार्य को प्राप्त हुआ तथा अनुत्त ग्वाम्मी आचार्य का
- - १. आसो दिन्द्रगुरोदिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चाहन्मुनि-।
स्तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् || पद्म ० १२३।१६८ २. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८८ । ३. द्विशताम्यधिक समासहस्रं समतीतेऽर्द्ध चतुर्थवर्षयुक्त ।
जिनभास्करबर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ।। पद्म० १२३।१२८
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२ पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
लिखा हुआ प्राप्त कर यह रविषेण का प्रयत्न प्रकट हुआ है ।" ग्रन्थ के अन्तिम पर्व में इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है ।" तदनुसार समस्त संसार के द्वारा नमस्कृत श्री भान जिनेन्द्र ने पद्मभूमि का जो भारत कहा या वहीं इन्द्रभूति ( गौतम गणधर ) ने सुधर्मा और जम्बूस्वामी के लिए कहा । वही जम्बूस्वामी के प्रशिष्य उत्तरवाग्मी आचार्य के द्वारा प्रकट हुआ। ये उत्तरवाग्मी कौन थे ? इसके विषय में अभी तक कोई जानकारी नहीं प्राप्त हुई। इनके द्वारा लिखित राम कथा भी आज उपलब्ध नहीं है ।
रामकथा सम्बन्धी प्राकृत की सबसे प्राचीन रचना विमलभूरि कृत पउमपरियं है। पउमचरियं तथा पद्मचरित को मिलाकर देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दोनों का कथानक सर्वथा एक है। दोनों को परस्पर देखने से इसमें कोई सन्देह नहीं रहता कि व एक दूसरे के भाषात्मक रूपान्तर मात्र हैं ।" किसने किसका अनुवाद किया, यह यहाँ विचारणीय हैं। रविषेष ने अपनी रचना विक्रम सं० ७३४ में पूर्ण की, इसका उन्होंने ग्रन्थ में ही उल्लेख किया है । इस पर किसी को विवाद नहीं है। विमल सूरि ने वीर नि० सं० ५३० या वि० सं० ६० के लगभग पउमचरियं की रचना की " इसके विषय में विवाद हैं। डॉ० हर्मन जैकोबी उसकी भाषा और रचना शैली पर से अनुमान करते हैं कि वह ईसा की तीसरी चौथी शताब्दी की रचना है । डॉ० की, '
1
४. वर्तमान जिनेन्द्रोक्तः सोऽयमथों गणेश्वरम् ।
:
इन्द्रभूर्ति परिप्राप्तः सुधर्म धारणीभवम् || पद्म० १ । ४१ । प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनुत्तरवाग्मिनम् ।
लिखितं तस्य सम्प्राप्य रथेर्यत्नोऽयमुद्गतः । पद्म० १।४२ ।
५. निर्दिष्टं सकलैर्नतेन भुवनेः श्री वद्ध' मानेन यत् ।
तएवं वासवभूतिना निगदितं जम्बो प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोतरवाग्मिता प्रकटितं पद्मस्य वृतं मुनेः ।
श्रेयः साधुसमाधिकिरणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् || पद्म० १ ३२१६७ ॥ ६. जैन साहित्य और इतिहास ( नाथूराम प्रेमी), पृ० १०२-१०८ ।
७. पंचेन वासया दुसमाए तीसबरम संजुत्ता |
बीरे सिविए सभी निवद्ध इमं चरियं ॥
पउमचरियं (जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८७) ८. एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलिजन एण्ड ईथिक्स, भाग ७, पृ० ४३७ और
मार्बन रिव्यू दिस० सन् १९१४ ।
९. कीच संस्कृत साहित्य का इतिहास |
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पद्मचरित का परिचय : ३ डॉ० बुलर आदि इसे ईसा की तीसरी शताब्दी के लगभग की या उसके बाद की रचना मानते हैं, क्योंकि उसमें दीनार शब्द का और ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी कुछ ग्रीक शब्दों का उपयोग किया गया है। दो० ब० केशवराव घुष उसे और भी अर्वाचीन मानते हैं । इस ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देश के अन्त में जो गाहिणी, शरम आदि छन्दों का उपयोग किया गया है वह उनकी समझ में अर्वाचीन है । गीति में यमक और सर्गान्त विमल शब्द का आना भी उनकी दृष्टि में अर्चाचीनता का घोतक है ।" डॉ० मिटर निरज, डॉ० लॉयमन आदि विद्वान् वीर नि० ५३० को ही पउमचरिय का रचनाकाल मानते हैं । १२ उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला में जो वि० सं० ८३५ में समाप्त हुई थी, विमल १३ के विमलांक (पउमचरिथ) रवि के ता है इससे निश्चित रूप से इतना तो अवश्य ही सिद्ध होता है कि पउमचरिय वि० सं० ८३५ से पूर्व की रचना है | पं० नाथूराम प्रेमी पद्मचरित को प्राकृत पउमचरिय का पल्लवित छायानुवाद मानते हैं । इसकी पुष्टि के लिए उनके प्रमुख तर्क निम्नलिखित " है ।
६
1
१. दोनों ग्रन्थकर्ताओं ने अपने-अपने ग्रन्थ में रचनाकाल दिया है। उससे स्पष्ट है कि पउमचरिय पद्मचरित से पुराना है ।
२. पद्मचरित में विस्तार और पउमचरिय में संक्षेप पाया जाता है ।
३. दोनों का कथानक बिल्कुल एक है और नाम भी एक है ।
४ पर्वा या उद्देशों के नाम प्रायः एक से हैं ।
५. पउमचरिय के अन्तिम पद्य में विमल और पद्मचरित के पर्व के अन्तिम पद्य में रवि शब्द आता है ।
६. पद्मचरित में जगह-जगह प्राकृत आर्याओं का शब्दश: संस्कृत अनुवाद दिखलाई देता है ।
१०. इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत |
११. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ११ ।
१२. वही, पृ० ११ ।
१३. जारसियं विमलको विमलको तारिसं लहइ अत्यं । अमयम इयं च सरसं सरसं चिय पाइअं जस्स || १४. जेहि कर रमणिज्जे वरंग पउमाणचरियचित्थारे । कण सलाहणिजे ते करणो जड़िय रविसेणौ ॥ - जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८८ ।
१५. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८९-९० ।
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४ : पदमपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ७, माहण शब्द की उत्पत्ति की जो कथा (मा हनन कार्कः - हनन मत करोपदम० ४।१२२) पद्मपरित में मिलती है उससे उसके प्राकृत स्रोत का ही
तृमान होता है। संस्था प्राण दही मलित है। ब्राह्मण वान्द
से इस प्रकार की व्युत्पत्ति नहीं निकाली जा सकती 1 ८, प्राकृत से संस्कृत किये जाने के अनेक उदाहरण जैन साहित्य में मिलते हैं ।
संस्कृत से प्राकृत में अनुवाद किये जाने का एक भी उदाहरण नहीं मिलता।
इससे यह बात सिद्ध होती है कि रविर्षणाचार्य ने इसे पउमरिय के आधार से जैसा का तैसा रख दिया है, किन्तु पदमचरित में पसमचरिय मा उसके कर्ता का कहीं भी नामोल्लेख न किया जाना उपर्युक्त मत के स्वीकार करने के बीच एक बहुत बड़ी वाघा है। हो सकता है ये दोनों प्रम्य एक दूसरे के छायानुवाद न होकर किसी अन्य पूर्ववर्ती प्राचार्य के छायानुवाद या पल्ल बित अनुवाद हों और उनकी यह रचना आज अनुपलब्ध हो। इस दृष्टि से पदमचरित में जिन अनुत्तरवाग्मी मनिराज का उल्लेख आता है तथा जिनका लिखा रविषेण को प्राप्त हुआ, उन्हीं अनुत्तरवाग्मी मनि प्रणीत अन्य के आधार पर दोनों ने अपनी रचना की हो, यह भी हो सकता है। पदमचरित के आधार पर कवि स्वयम्भू ने अपभ्रंश में पउमचरित की रचना लगभग आठवीं सदी के प्रथम चरण में की। इस रचना का मूल स्रोप्त स्वयम्भ ने भी वही माना, जो कि रविण ने माना था । इतना विशेष है कि कि इन्होंने अपनी रचना रविषण के पद्मचरित के आधार पर की थो, अतः अन्त में रविषेण का नाम भी दे दिया। इससे भी उपर्युक्त मन्तव्य की पुष्टि होती है।
दोनों ग्रन्थों के अध्ययन से इतना अन्तर अवश्य जाप्त होता है कि जब रविषेण की कृति पूरी तरह दिगम्बर परम्परा की है सब विमलसूरि को कृति में कुछ बातें दिगम्बर परम्परा के अनुकूल है, कुछ श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल
१६. पद्म १।४२ । १७. डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन : पउभचरिउ (हिन्दी अनुवाद प्रस्तावना सहित) । १८. बक्षमाणमुहहर विणिग्गय | रामकहा णइएह कमागम || १ ॥
एस रामकहरि सोहन्ती ! गणहर देवहि दिछ वहन्ती ॥ ६ ॥ पच्छाइ इन्दभूइ आयरिएं । पुणु घम्मेणगुणालंरिए ।। ७ ।। पुणु पहवें संसाराराएं फित्ति हरेण अणुत्तरवाएं ॥ ८॥ पुणु रविसेणायरिय पसाएं। बुद्धिए अथगाहिय फहराएं ।। ९ ॥
-पउमपरिज, पृ० ६१
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पद्मचरित का परिचय : ५
हैं और कुछ दोनों के प्रतिकूल होकर तीसरी परम्परा की ओर संकेत करती हैं । इसके कुछ उदाहरण भारतीय ज्ञानपीठ के सम्पादक डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये तथा डाँ० हीरालाल ने दिये हैं । ११ पं० पन्नालाल साहित्यचार्य ने भी इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। इसे दुहराना यहाँ पिष्टपेषण ही होगा । पद्मचरित की कथावस्तु
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पद्मचरित की कथावस्तु १२३ पर्वो में विभक्त है। इनमें कुछ पर्वतो बहुत बड़े-बड़े हैं और कुछ छोटे हैं, कुछ न बहुत बड़े हैं न बहुत छोटे । प्रथम पर्व में मङ्गलाचरण, सज्जन दुर्जन प्रशंसा तथा ग्रन्थ की संक्षिप्त कथावस्तु वर्णित है । द्वितीय पर्व में राजा श्रेणिक का विपुलाचल पर भगवान् महावीर के समवसरण में जाने का वर्णन है । तृतीय पर्व में राजा श्रेणिक का गौतम गणधर से रामकथा के विषय में जिज्ञासा प्रकट करना गौतम द्वारा कथा सुनाने का मादवासन, कुलकरों की उत्पत्ति, ऋषभदेव का जन्म तथा उनके दीक्षा कल्याणक आदि का वर्णन है । चतुर्थ पर्व में ऋषा यह
और आहार लेना, भगवान् को कैवल्य की प्राप्ति होना, भरत बाहुबली युद्ध तथा ब्राह्मणवर्ण की सृष्टि विषयक चर्चा है। पंचम पर्व में चार महावंशों की बंधावलि, अजितनाथ भगवान् का वर्णन तथा सगर चक्रवर्ती का वर्णन है । पर्व में वानरवंश का विस्तृत वर्णन है। सप्तम पर्व में रथनूपुर के राजा इन्द्र का वर्णन तथा राक्षस वंश में दशानन की उत्पत्ति और प्रभाव वर्णित है। नवम पर्व में बालि, सुग्रीव, नल, नील आदि की उत्पत्ति, रावण द्वारा कैलाश पर्वत का उठाया जाना तथा बालि के प्रभाव की चर्चा है । दशम पर्व में सुग्रीव का सुतारा से विवाह, रावण का दिग्विजय के लिए निकलना तथा राजा सहस्ररश्मि की जलक्रीड़ा, दीक्षा आदि का वर्णन है । ११वें पर्व में हिसायज्ञ का इतिहास दिया गया है । १२ में रावण द्वारा इन्द्र की पराजय तथा १३वें पर्व में इन्द्र का दीक्षा लेने, निर्वाण प्राप्त करने का वर्णन है। १४वें पर्व में अनन्तबल मुनिराज का केवलज्ञान तथा रावण द्वारा जो परस्त्री मुझे नहीं चाहेगी, मैं उसे बलात् नहीं चाहूँगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण का उल्लेख है । १५ पर्व में पचनज की उत्पत्ति और उसका अंजना के साथ विवाह वर्णित किया गया है । १६ वें पर्व में रावण का वरुण के साथ युद्ध, पवनजय का उसमें जाना, अंजना के प्रतिविद्वेष श्याम तथा संभोग श्रृंगार का अंजना का गर्भ धारण करना, अपमानित कर घर से
१९. पद्मपुराण, पू० ७ ( प्रस्तावना) । २०. वही, पृ० २८-३० ( प्रस्तावना ) |
वर्णन है । १७वें पर्व में निकाला जाना तथा हनु
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६ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मान् की उत्पत्ति की कथा कही गयी है। १८चे पर्व में पवनंजय तथा अंजना के मिलाप का वर्णन है। १९वें पर्व में वरुण के विरुद्ध होने पर रावण का सब राजाओं को आमन्त्रण देना, हनुमान का उसमें जाकर पराक्रम दिखाना वर्णित है। २०वें पर्व में चौबीस तीर्थङ्करों तथा अन्य शलाका पुरुषों का वर्णन है। २१वें पर्व में मुनिसूयतनाथ तथा उनके वंश का वर्णन, इक्ष्वाकु वंका के प्रारम्भ का वर्णन तथा कीतिघर और सुकोमल मुनि की दीक्षा आदि का उल्लेख है। २२वें पर्व में की सिघर तथा सुकोशल मुनि का तप, उनकी सदगति तथा सौदास की कथा कही गई है। २३वे पर्व में नारद द्वारा राजा दशरथ और जनक को रावण के दुर्विचार का संकेत तथा विभीषण द्वारा दशरथ और जनक के पुतलों के सिर काटे जाने का वर्णन है। २४वे पर्व में कैकया और उसकी कलाओं का विस्तृत परिचय, दशरथ का काकया के साथ विवाह पणित है। २५वें पर्व में राजा दशरथ के चार पुत्रों की उत्पत्ति का वर्णन है। २६ पर्व में राजा जनक के विदेहा से सोता और भामण्डल को उत्पत्ति, भामण्डल का अपहरण तथा चन्द्रगति विद्याधर । यहाँ उसके वृद्धि को प्राप्त होने का वर्णन है । २७वें पर्व में म्लेच्छ राजाओं द्वारा जनक के देश में उपद्रव करने तथा दशरथ द्वारा राजा जनक की सहायता किये जाने के कारण म्लेच्छों की पराजय तथा जनक का दशरथ के पुत्र राम के लिए अपनी पुत्री सीता देने का निश्चय अंकित । पर्व में नारद के कारण भामण्डल को सीता के प्रति आमक्ति, जनक का मायामयी घोड़े द्वारा हरा जाना तथा जनक द्वारा यदि राम वसावर्त धनुष चढ़ा देंगे तो सीता ले सकेंगे अन्यथा भामण्डल लेगा इस प्रतिज्ञा का वर्णन है। २९३ पर्व में ददारथ द्वारा आष्टान्हिक महापर्व का मनाया जाना तथा सर्वभूतहित मुनि के आगमन का वर्णन है। ३० पर्व में भामण्डल का सौता तथा जनक से मिलन बतलाया गया है। ३१वें पर्व में शरण के पूर्वभव, राम के राज्याभिषेक की घोषणा, कैक्रया को वर प्रदान, भरत का राज्याभिषेक तथा राम लक्ष्मण तथा सीला का वन गमन वर्णन प्रमुख विषय है। ३२वें पर्व में केकया और भरत का राम को लौटाने का प्रयास तथा निराश होकर भरत का राज्यशासन संभालना वणित है। ३३३ पर्व में वनकर्ण को रक्षा तथा सिंहोदर-वचकर्ण को मैत्री कराकर राम-लक्ष्मण के आगे बढ़ने का कथन किया गया है । ३४खें पर्व का प्रतिपाद्य विषय राम-लक्ष्मण द्वारा म्लेच्छ राजा को आज्ञाकारी बनाकर बालखिल्य को बन्धनमुक्त कराना है। ३५३ पर्व में पक्षपति द्वारा राम-लक्ष्मण के निवास के लिए रामपुरी की रचना तथा राम का उसमें निवास करना वणित 21 ३६वें पर्व में लक्ष्मण का वनमाला से विवाह होता है। ३७ पर्व में रामलक्ष्मण नर्तकी के वेष में जाकर अतिवीर्य को बन्धन में बांधकर मुक्त करते है
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पद्मपरित का परिचय : तथा अतिवीर्य दीक्षा ग्रहण करता है। ३८वे पर्व में लक्ष्मण का जितपद्मा के साथ विवाह होता है। ३९वें पर्व में गम-लक्ष्मण देवभूषण कुलभूषण मुाने का उपसर्ग निवारण करते है। ४० पर्व में वंशस्थलपुर के राजा सुरप्रभ राम का अभिवादन करने हैं। राम दण्डक बन को प्रस्थान करते है । ४१३ पर्व में राम लक्ष्मण तथा सीता का जटायु से मिलन होता है । ४२वें पर्व में पात्र दान के प्रभाव से राम-लक्ष्मण रत्न तथा स्वर्णादि से युक्त होकर इच्छानुसार दण्डक बन में घूमते हैं । ४३३ पर्व में लक्ष्मण द्वारा शम्बूक वध तथा उन्हें सूर्यहास खड्ग की प्राप्ति होती है। ४४३ पर्व में राम-लक्ष्मण का खरदूषण के साथ गुद्ध होता है । खरदूषण की सहायता के लिए गयण आप्ता है। छल से वह सीता को हर ले जाता है । ४५३ पर्व में राम सीता के वियोग में दुःखी होते हैं उनको विराषित से मैत्री होती है । ४६ पर्व में रावण सीता के साथ लंका पहुँचता है । मंदोदरी बहुत रामझाती है लेकिन वह नहीं मानता। ४७वे पर्व में राम कृषिम सुग्रीव ( साहसगति ) को मारते हैं तथा यथार्थ सुग्रीव की तरह कन्याओं से विवाह करते हैं। ४८३ पर्व में रत्नजटी बतलाता है कि सीता को रावण हर ले गया है। ४९वें पर्व में लक्ष्मण कोदिशिला उठाते है। वानर लक्ष्मण की पाक्ति का विश्वास कर युद्ध करने के लिए तैयार होते है । ४९ पर्व में हनुमान सीता के पास राम का मंदेश भेजने के लिए लंका जाते हैं। ५०३ पर्व में हनुमान बलपूर्वक राजा महेन्द्र को परास्त करते है। ५१वे पर्व में राम को गन्धर्व कम्यामों की प्राप्ति होती है । ५२वें पर्व में हनुमान लंका के मायामयी कोट को ध्वस्त कर लंका सुन्दरी के साथ विवाह करते हैं। ५३वे पर्व में हनुमान लंका में जाकर विभीषण से मिलते है। बाद में सीता को गम का सन्देश सुनाते हैं। अनन्तर बन्धनब होने पर वे रावण के समक्ष जाकर बन्धन तोड़ लंका को नष्ट-भ्रष्ट कर वापिस आ जाते हैं । ५४थे पर्व में हनुमान् राम को सीता की दयनीय स्थिति का निरूपण करते हैं। विद्याधर राम को माप ले लका की ओर प्रस्थान करते हैं । ५५वे पर्व में विभीषण रायण से तिरस्कृत · होकर राम से आ मिलता है। ५६वे पर्व में राम की सेना का वर्णन है। ५७वें पर्व में लंका निवासिनी सेना की तैयारी तथा उसका लंका से बाहर निकलने का वर्णन है। ५८वें पर्व में नल और नील के द्वारा हस्त और प्रशस्त मारे जाते है। ५९ पर्व में हस्त-प्रहस्त और नल नील के पूर्व भषों का वर्णन है। ६०३ पर्व में अनेक राक्षस मारे जाते हैं। राम-लक्ष्मण को दिल्यास्त्र तथा सिंहवाहिनी
और गरुडवाहिनी विद्यायें प्राप्त होती है। ६१वें पर्व में सुग्रीव तथा भामण्डल नागपाश से बाँधे जाकर राम लक्ष्मण के प्रभाव से बन्धनमुक्त होते हैं। ६२वें पर्व में वानर और राक्षसर्वशी योद्धाओं का युट होता है तथा लक्ष्मण को शक्ति
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८: पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति लग जाती है। ६३३ पर्व में शक्तिनिहत लक्ष्मण को देख राम विलाप करते है। ६४ पर्व में एक अपरिचित मनुष्य विशल्या द्वारा लक्ष्मण की शक्ति दूर होने का उपाय बतलाता है। ६५३ पर्व में विशल्या लक्ष्मण की शक्ति दूर करती है तथा लक्ष्मण का विशल्या के साथ विवाह होता है । ६६ पर्य में रावण का दूत राम के दरबार में आकर रावण के पक्ष का समर्थन करता है। यहाँ दूत को किसी फल की प्राप्ति नहीं होती है । ६७ पर्व में रावण बहरूपिणी विधा सिद्ध करता है। ६८में पर्व में दोनों सेनायें आष्टालिक पर्व मनाती है। ६९वें पर्व में रावण शान्तिजिनालय में विद्या सिद्ध करने के लिए बासनारूत होता है। ७० पर्व में अंगद आदि योद्धा विघ्न उपस्थित कर रावण को विचलित करने का यत्न करते हैं । ७१३ पर्व में रावण को विद्या सिच हो जाती है । ७२खें पर्व में सीता का मन विचलित करने का रावण अनेक उपाय करता है। अन्त में सीता को दीनदशा देखकर रावण दुःखी होता है किन्तु वह युद्ध से विमुख नहीं होता है। ७३३ पर्व में रायण के मंत्री तथा पत्नी मन्दोदरी जसे समझाते हैं। ७४बें पर्व में रावण और लक्ष्मण का भीषण युद्ध होता है । ७५वें पर्व में रावण लक्ष्मण पर चकरन चलाता है। पर वह तीन प्रदक्षिणायें देकर लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है। ७६न पर्व में लक्ष्मण चक्ररत्न चलाकर रावण का अन्त कर देते हैं। ७७वे पर्व में रावण का बना पायव प्राधिकरण विकाते हैं। ७८वें पर्व मे इन्द्रजित्, मेघवाहन, कुम्भकरण तथा भय आदि राजामण निर्ग्रन्थ दोक्षा धारण करते है । मन्दोदरी तथा चन्द्रनखा आदि रानिया आपिका के व्रत ग्रहण करती है । ७९वें पर्व में राम और सीता का मिलन होता है। ८० पर्व में राम लंका में छः वर्ष तक रहते हैं। ८१वें पर्व में नारद लंका में पहुँचकर राम के सापने कौशल्पा, सुमित्रा आदि के दुःख का वर्णन करते हैं। ८२ पर्व में राम, लक्ष्मण तथा सोता इष्ट मित्रों के साथ अयोग्या आते है। ८३वें पर्व में भरत के निर्वेद का तथा त्रिलोक मण्डन हाथी का वर्णन है । ८४वें पर्व में विलोकमण्डन हामी व्रत धारण करता है। ८५वे पर्व में देशभूषण तथा कुलभूषण केवली हाथी और भरत के भवान्तरों का वर्णन करते है। ८६वें पर्व में भरत दोक्षा धारण कर लेते हैं। केकया ३०० स्त्रियों के साथ आर्यिका जान जातो है। ८७वें पर्व में विलोकमण्हन हाथी समाधि धारण कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव होता है | भरत का निर्वाण होता है । ८८वें पर्व में राम-लक्ष्मण का राज्याभिषेक होता है। राम-लक्ष्मण अन्य राजाओं को देशों का विभाग करते है । ८९वें पर्व में शत्रुध्न मथुरा का राज्य माँगकर मधु से युद्ध करते हैं । घायल मधु मुनि दीक्षा धारण कर लेते हैं। ९०वें पर्व में घमरेन्द्र कुपित होकर मधुरा में रोग फैलाता है। शत्रुघ्न अयोध्या वापिस आ जाते हैं। ९१३ पर्व में
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पद्मचरित का परिचय : ९
शत्रुघ्न के पूर्वभवों का वर्णन है । ९२वें गर्व में सप्तर्षियों (सात मुनियों) को सीता आहार देती है । ९३ पर्व में राम को श्रीदामा और लक्ष्मण को मनोरमा कन्या की प्राप्ति होती है । ९४वें पर्व में राम-लक्ष्मण का अनेक विद्याधर राजाओं का वश में करना तथा लक्ष्मण की अनेक स्त्रियों और पुत्र का वर्णन है । ९५वें पर्व में सीता स्वप्न देखती है। द्वितीय स्वप्न कुल अनिष्टकारक जान उसकी शान्ति के लिए जिनेन्द्रार्चन करती है । ९६वें पर्व में प्रजा राम से सीता के लोकापवाद की चर्चा कहती है । ९७वें पर्व में कृतान्तवक सेनापति जिन मदिरों के दर्शन कराने के बहाने जीवा की जंगल में ले जाकर छोड़ आता है । ९८ पर्व में जंघ सीता को धर्म बहिन समझकर सान्त्वना देता है । ९९ पर्व में सोता को वजंघ बड़ी विनय के साथ अपने यहां रखता है। कलान्तवक्र सेनापति लौटकर राम को सीता का संदेश सुनाता है। १०० पर्व में सीता के गर्भ से अनङ्गलवण और मदनाङ्कुश की उत्पत्ति होती है । १०१ वें पर्व में वञ्चजंत्र अपनी बत्तीस पुत्रियां यण को देने का निश्चय करता है। पृथु की पुत्री कनकमाला का अङ्कुश से विवाह होता है। दोनों पुत्र दिग्विजय को निकलते हैं । १०२वें पर्थ में राम-लक्ष्मण के विषय में जानकारी प्राप्त कर दोनों पुत्र सेना सहित जाकर अयोध्या को घेर कर घोर मृद्ध करते हैं । १०३ पर्व में पितापुत्रों का मिलन होता है १०४ में पर्व में सोता की अग्नि परीक्षा के लिए अग्निकुण्ड बनाया जाता है। १०५ वें पर्व में सीता की अग्नि परीक्षा तथा उसका चिराग वणित है । १०६ वें पर्व में राम, लक्ष्मण और सीता के भवान्तरों का विधेचम है । १०७ पर्व में कृतान्तक्क सेनापति दोक्षा ले लेता है । १०८वें पर्व में सीता के दोनों पुत्र लवण और अङ्कुश के चरित्र का निरूपण है । १०९ पर्व में सीता का तैंतीस दिन सल्लेखना धारण कर स्वर्ग में प्रतीन्द्र होने का वर्णन है । ११० पर्व में राजा का चन्द्ररश्र की दो पुत्रियों क्रमणः लवण और अंकुश का वरण कर लेती हैं । १११वें पर्व में मामण्डल की वज्रपात से मृत्यु हो जाती है । ११२ पर्व में हनुमान् का विराग, दीक्षा धारण करना । ११४वें पर्व में सोधर्मेन्द्र द्वारा यह बन्धनों में स्नेह बन का टूटना सरल नहीं, वर्णित है । मुख से राम की मृत्यु का झूठा समाचार सुनकर लक्ष्मण का ११६ वें पर्व में लक्ष्मण के निष्प्राण शरीर को ११७ वें पर्व में सुग्रीव, विभीषण आदि राम को समझाते हैं । ११८ पर्व में कृतान्तवक्र सेनापति के जीव देव के समझाने पर राम लक्ष्मण का दाह संस्कार कर देते हैं । ११९वें पर्व में राम अनज लवण को राज्य दे दीक्षा ले लेते हैं । १२० में पर्व में राम का चर्या के लिए नगरी में आने वया नगरी में क्षोभ हो
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११३वें पर्व में हनुमान् का कहा जाना कि सब ११४वें पर्व में देवों के
निधन हो जाता है। राम गोदी में लिये फिरते
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१० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जाने के कारण लौट जाने तथा १२१ वें पर्व में वन में राम को बहार लाभ होने का वर्णन है । १२२ पर्व में सीता का जीव राम को तपस्या से गाने का प्रयत्न करता है । ९२३वें पर्व में मीता का जीव नरक में जाकर लक्ष्मण तथा रावण को संबोधता है। राम का निर्वाण होता है । अन्त में रविषेण ने अपनी प्रशस्ति लिखी है ।
कथानक रूढ़ियाँ
पद्मचरित में कथानक रूढ़ियों को ग्रहण किया गया है। ये कथानक रूड़ियाँ रविषेण को पूर्ववर्ती रचनाओं ( लोकप्रचलित रामायण, पउमचरिय या अन्य आचार्यकृत ग्रन्थों, जिनका उन्होंने नाम निर्देश किया है ) तथा लोकमानस से प्राप्त हुई होंगी। इनमें रूप परिवर्तन या यथेच्छानुसार रूप बनाना । जैसेचपलखेण नाम का विद्याघर सीता का हरण कर स्थनूपुर ले गया था ), २१ देवी शक्तियों का सहयोग ( विभिन्न देवीय शस्त्रास्त्रों आदि का सहयोग), अदभुतकृश्य ( रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाया जाना, माया निर्मित अनेक शीश, २३ अद्भुत पदार्थ (पुष्पक विमान २४ आदि), प्रेमी के विरह में प्राण स्माग करने के दृढ़ संकल्प के समय प्रेमिका को प्रेमी की प्राप्ति २५ आदि कथानक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है ।
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राम कथा का एक दूसरा रूप
जैन राम कथा का एक दूसरा रूप हमें गुणभद्र (८९७ ई० ) कुस उत्तर-पुराण में मिलता है | गुणभद्र को राम कथा का संक्षिप्त कथानक इस प्रकार हैराजा दशरथ वाराणसी के राजा थे। राम की माता का नाम सुत्राला और लक्ष्मण की माता का नाम केकयी था। भरत, शत्रुघ्न अन्य किसी रानी से उत्पन्न हुए, जिसका नाम नहीं दिया है। दशानन विनमि विद्याधर वंश के पुलस्त्य का पुत्र है। किसी दिन वह अमितवंग की पुत्री मणिमती को तपस्या करते देखता है और उसपर आसक्त होकर उसको साधना में विघ्न डालने का प्रयत्न करता है, मणिमती निदान करती है कि मैं दशानन की पुत्री होकर उसे माऊँगी | मृत्यु के पश्चात् वह रावण को रानी मन्दोदरी के गर्भ में आती हूं । भष्यवक्ताओं ने यह कहा कि यह कन्या आपका नाश करेगी । अतः रावण उसे मंजूषा में रखवाकर मरीचि के द्वारा जमीन में गड़वा देता है । हल की नोक से उलझ जाने के कारण वह मंजूषा दिखलाई देती है और लोगों द्वारा जनक के पास ले जाई जाती है । जनक मंजूषा को खोलकर एक कन्या को देखते
२१. पद्म० २८/६०-९९ ।
२३. वही, ७५/२३, २४, २५ ॥ २५. वही, ३६।३५-४९ ।
२२. पद्म० ९/१३६, १३७ । २४. वही, ४४८४
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परित का परिचय : ११
और उसका नाम सीता रखकर उमे पुत्रो की तरह पालने हैं। जब वह विवाह योग्य होती है तब जनक चिन्तित होकर एक राज करते हैं। यज्ञ की रक्षा के लिए जनक राम-लक्ष्मण को बुलाते हैं । यज्ञ समाप्त होने पर राम और सीता का विवाह होता है। यज्ञ के समय रावण को निमंत्रण नहीं भेजा गया था अतः वह क्रुद्ध हो जाता है। नारद के मुख से सीता की अत्यधिक प्रशंसा सुनकर वह उसको हर लेने का विचार करता है ।
वाटिका में विहार
दूर ले जाता है ।
कि मैन मूंग को आशा देता है।
जब राम और सीता वाराणसी के निकट चित्रकूट को करते हैं तब मरीचि स्वर्णमृग का रूप धारण कर राम को इतने में रावण राम का रूप धारण कर सीता से महल में भेजा है और वह सीता को पालकी पर यह पालकी पुष्पक है, जिसके द्वारा वह सीता को लंका ले जाता है । रावण सीता का स्पर्श नहीं करता, क्योंकि पतिव्रता के स्पर्श से उसको आकाशगामिनी विद्या नष्ट हो जाती है। दशरथ को स्वप्न द्वारा ज्ञात होता है कि रावण ने सीता का हरण किया है, वह राम के पास यह समाचार भेजते हैं। सुग्रीव और हनुमान् बालि के विरुद्ध सहायता मांगने पहुँचते हैं। हनुमान लंका जाकर सीता को सान्वना देने के बाद लौटते हैं। इसके बाद लक्ष्मण बालि बत्र करते हैं और सुग्रीव को राज्य का उत्तराधिकारी बनाते हैं । वानरों और राम की सेना विमान से लंका पहुॅचाई जाती है। युद्ध में लक्ष्मण चक्र से रावण का सिर काट देते हैं । राम परीक्षा किये बिना सीता को स्वीकार करते हैं। इसके बाद दोनों दिग्विजय करते हैं। कुछ वर्ष बाद राम-लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्त को राज्य देकर वाराणसी लौट आते हैं। सीता के अपवाद का और उसके कारण उसे निर्वासित करने का इसमें उल्लेख नहीं है । लक्ष्मण एक असाध्य रोग से मरकर नरक जाते हैं। राम, लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वीसुन्दर को राज्य देकर और मीता के पुत्र अजितंजय को युवराज बनाकर अनेक राजाओं और सीता के साथ जिनदीक्षा धारण कर लेते हैं। राम तथा हनुमान् अन्त में मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस प्रकार उत्तरपुराण की कथा में निम्नलिखित होता है
वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर
१. इसमें सोता को रावण तथा मन्दोदरी की पुत्री माना है ।
२. दशरथ अयोध्या के राजा न होकर वाराणसी के राजा है ।
३. सीता के लोकापवाद तथा उसके निर्वासित करने का इसमें उल्लेख नहीं है ।
कहता है चढ़ने की
२६. नाथूराम प्रेमी जैन साहित्य और इतिहास, पू० ९३-९४ ।
बुल्के : राम कथा, पृ० ७७, ७८, ७९ ।
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१२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ४. लक्ष्मण की मृत्यु राम की मृत्यु के समाचार के कारण न होकर किसी
असाध्य रोग से बतलाई गई है । ५. कैकयी के हठ करने तथा राम को वनवास देने का इसमें कोई कथन
नहीं है। ६. स्वर्णमृग के पीछे राम के दौड़ने के बाद रावण राम का वेष धारण कर
सीता को पालकी में बैठाकर ले जाता है। ७. लक्ष्मण के द्वारा यहाँ बालि बघ होता है। ८. सीता के आठ पुत्र थे। इनमें लव-कुश का उल्लेख नहीं है ।
पदमचरित और उत्तरपुराण की कथाओं में इस प्रकार भेद क्यों पड़ा। इसके विषय में विचार करते हुए पं. नाथूराम प्रेमी ने अपने जैन साहित्य और इतिहास में लिखा है कि पलमचरिय और पद्मपरित की कथा का अधिकांश वाल्मीकि के ढंग का है और उत्तरपुराण की कथा का जानकी जन्म विष्णुपुराण के ढंग का है। दशरष बनारस के राजा थे, यह बात बौद्ध जातक से मिलतीजुलती है। उत्तरपुराण के समान उसमें भी सीता निर्वासन, लव-कुश जन्म आदि नहीं है अर्थात् भारतवर्ष में रामक्रया की जो तीन परम्परायें है ये जैन सम्प्रदाय में भी प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। पचमचरिय के कर्ता ने कहा है कि उस पद्मचरित को मैं कहता हूँ जो आचार्यों को परम्परा से चला आ रहा है और नामावली निबद्ध है। इसका अर्थ यह है कि रामचरित उस समय नामावली रूप में था अर्थात उसमें कथा के प्रधान पात्रों के, उनके माता, पिताओं और स्थानों भवान्तरों आदि के ही नाम होंगे । वह पल्लवित कथा के रूप में न होगा और उसी को विमल सूरि ने विस्तृत चरित के रूप में रचना की होगी । इस प्रकार गुणभद्र की रामकथा के आधार के विषय में पं० नाथूराम प्रेमी इस प्रकार लिखते है-'हमारा अनुमान है कि गुणभद्र से बहुत पहले विमलसरि के समान किसी अन्य आचार्य ने भी जैनधर्म के अनुकूल स्रोपपत्तिक और विश्वसनीय स्वतन्त्र रूप से राम कथा लिखी होगी और वह गुणभद्राचार्य को गुरु परम्परा द्वारा मिली होगी ।२५ गुणभद के गुरु जिनसेन ने अपना आदिपुराण कवि परमेश्वर की गद्यकथा के आधार से लिखा था। गुणभद्र की गुरुपरम्परा के दो और नाम कन्ना भाषा के कवि चामुण्डराय की रचना में मिलते
--" -- - - २७, पामावलियनिबद्धं आयारियपरंपरागय सम्छ । बोच्छामि पउमचरिय अहाणुपुत्रिय समासेण ।। ८ ।।
नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ९५ । २८. वही, पृ० ९५ ।
२९. वही, पृ. ९६ ।
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पद्मचरित का परिचय : १३ है। चामुणराय त्रिषष्ठिलमण महापुरुष के लेखकों की सूची निम्नलिखित देते है- कूचिभट्टारक, नन्दिमुनीश्वर, कवि परमेश्वर, जिनसेन, गुणभद्र ।
पद्मचरित के दूसरे पर्व में राजा श्रेणिक अपने मन में विचार करता है कि ओ जिनश्चम के प्रभाव से उत्तम गनुष्य थे, उच्चकुल में उत्पन्न हुए थे, विद्वान् पे और विधाओं के द्वारा जिनके मन प्रकाशमान थे, ऐसे रावण आदि लौकिक अन्यों में चर्वी, मधिर तथा मांस का भक्षण करने वाले रसमस सुने जाते हैं।" रावण का भाई कुम्भकरण महाबलवान था और घोर निद्रा से युक्त होकर छ: माह तक निरन्तर सोता रहता था ।२२ यदि मदोन्मत हाथियों के द्वारा भी ससका मदन किया जाय. तपे हा तेल के कड़ाहों से उसके कान भरे जावें और मेरी और शवों का बहुत भारी पब्द किया जाय तो भी समय पूर्ण न होने पर वह जागृत नहीं होता था ।२३ बहुत बड़े पेट को धारण करने वाला वह कुम्भकरण जब जागता था तह भूख और प्यास मे इतना व्याकुल हो उठता था कि माने जो भी शादि दिखाई में हें समा इस प्रकार वह बहुत ही दुदर था ।" तिथंच मनुष्य और देवों के द्वारा तप्ति कर पुनः सो जाता था। उस समय उसके पास कोई अन्य पुरुष नहीं ठहर सकता था ।५ कितने आश्चर्य की बात है कि पापवर्द्धक खोटे ग्रन्थों की रचना करने वाले मुर्ख कुकवियों ने उस विद्याधर कुमार का कैसा बीभता चित्रण किया है ?३६ जिसमें यह सब परित्र चित्रण किया गया है, वह अन्य रामायण के नाम से प्रसिद्ध है और जिसके विषय में यह प्रसिद्धि है वह सुनने वाले मनुष्यों के तत्क्षण समस्त पाप नष्ट कर देता है ।२७ पद्मचरित के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उसके समय वाल्मीकीय रामायण या उस जैसी कोई दूसरी रामायण अवश्य प्रसिद्ध रही होगी, जिसमें उपयुक्स मान्यताओं का वर्णन रविषेण को मिला होगा।३८ पद्मचरित में आये वर्णनों से यह तो अवश्व सिद्ध होता है कि रविषेण द्वारा दो मई कथा के बहुत से अंश बाल्मीकीय रामायण से मिलते-जुलते है। आधुनिक अन्वेषकों ने महा'भारत के द्रोणपर्व, शान्तिपर्व तथा अन्य निर्देशों से अनुमान लगाया है कि बाल्मीकि रामायण से पूर्व भी रामकथा सम्बन्धी आख्यान प्रचलित थे जिनके
३०. रामकथा-पृ. ७७-७८ (ले० बुरूके)। ३१, पद्म २।२३०२३१ । ३२. पद्मचरित २०२३२ ।
३३. पद्म० रा२३३-२३४ । ३४. पद्म० २।२३५ ।
३५. पद्म० २।२३६ । ३६. वही, २।२३७ ।
३७. वही, २२२३८ । ३८. पन्द्रशेखर पाण्डेय तथा वाान्तिकुमार नानूराम व्यास : संस्कृत साहित्य की
रूपरेखा, पृ० १२ ।
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१४ पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
आधार पर वाल्मीकि ने अपनी रामायण की रचना की। हो सकता है इन्हीं आख्यानों से रविषेण ने भी अपनी कथावस्तु का बहुत कुछ अंश ग्रहण किया हो ! इसके अतिरिक्त उसके सामने जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित परम्परा भी रही होगी जिसमें रावण मादि को उत्तम उच्चकुल में उत्पन्न विद्वान् और विद्या से युक्त कहा गया होगा । विद्वानों का विचार है कि वाल्मीकि मुनि से भी पहले सूतों और कुशीलवों द्वारा प्रवर्तित प्रचारित राम सम्बन्धी कथाओं का संकलन कर किसी दूसरे ही मुनि महर्षि ने रामायण काव्य की रचना की। उसका नाम सम्भवतः भार्गचच्यवन था। इसका विशेष विवरण हमें महाभारत देता है और साथ ही महाभारत से हमें यह भी विदित होता है कि भार्गवच्यवन भृगु महर्षि का पुत्र था। बौद्ध महाकवि अश्वघोष के बुद्धचरित से हमें महाभारतकार के उक्त कथन की सत्यता इस रूप में मिलती हैं कि व्यवन महर्षि जिस रामकथा की रचना में सफलकाम हो सका था, उसको वाल्मीकि ने पूरा किया। यही कारण है कि बाद में च्यवन और वाल्मीकि को भ्रमवशात् एक मान लिया गया । हिन्दुओं के अष्टादश महापुराणों में रामकथा की सबल वर्षाएँ है और उन चर्चाओं के अति प्राचीन होने का इतिहास मिलता है। इन चर्चाओं में बाल्मीकि रामायण के पूर्वापर अनेक रामायण ग्रन्थों की रचना का निर्देश पाया जाता है । ४५
४०
पद्मचरित की भाषा और शैली
पद्मचरित संस्कृत महाकाव्य का एक अच्छा प्रतीक है। इसकी शैली सरल, प्रभावशाली और शान्त है। यह मङ्गलाचरण तथा वस्तुनिर्देश पूर्वक प्रारम्भ होता है । इसमें अनेक पर्व हैं। वन, पर्वत, नदियों तथा ऋतुओं आदि के प्राकृ तिक दृश्यों, जन्म विवाहादि सामाजिक उत्सवों एवं रसों, श्रृंगारात्मक हाव-भाव, विलासों तथा सम्पत्ति विपत्ति में सुख दुःखों के उतार चढ़ावों का कलात्मक हृदयग्राही चित्र इसमें उपस्थित किया गया है । यथास्थान इसमें धार्मिक उपदेशों का भी समावेश किया गया है। बीच-बीच में प्रसंगानुसार अनेक कथायें जोड़कर इसे अधिक रोचक बनाया गया है। ये कथायें नियत ढंग से प्रारम्भ होती हैं और उनके वर्णन भी नियत ढंग से चलते हैं । उपदेश की दृष्टि से कथाओं में सुन्दर सुन्दर विचार पायें जाते हैं। ऐसी कथायें जिनका साक्षात् उद्देश्य मनो रंजन के स्थान पर उपदेश है, पद्मचरित में पाई जाती है। नैतिकता और
३९ पद्म० २।२३०, २३१ ।
४०. वाचस्पति गैरोला संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १५७ । ४१. वही, पृ० १५८ |
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पद्मचरित का परिचय : १५
घामिफप्ता के प्रति इनमें झुकाव है। स्वार्थपरक इच्छाओं का त्याग, सार्वभौम क्रियाशील परोपकार की भावना, कल्याण से युक्त आकर्षक दर्शन का वर्णन, व्याख्यान सौर उपदेश हमका प्रधान होय है। इसके अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होता है कि प्राणियों के कर्म फलों को दिखलाने में रविषेण अधिक रुचि रखते थे। उनमें सामने पल बिता का शु दर्श नहीं पा : अपने वर्णनों में भाषा की जटिलता को दूर करने के साथ-साथ वे अपनी प्रतिभा तथा भाषा पर अधिकार प्रदर्शित करने के लिए उच्यत रहते हैं। उनका उद्देश्य अभिव्यक्ति की अथार्थता तथा अर्थ की स्पष्टता है। प्रायः बड़े-बड़े समासों का उन्होंने प्रयोग नहीं किया है। इनकी शैली को साधारण काव्य की उत्कृष्ट दौली कहा जा सकता है। ये कर्णफट ध्वनियों तथा अत्युक्ति अथवा शम्दाडम्बर से भी बचना चाहते हैं । अलङ्कारों की अपेक्षा अर्थ पर अधिक ध्यान देना उनकी विशेषता है, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि पद्मचरित में अलङ्कार है ही नहीं। पद्मचरित में अलङ्कारों का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में हुआ है। यह ग्रन्छ उपमा, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, रूपक, इलेप आदि अलंकारों का भाण्डार है। महदेवी का वर्णन करते हुए उत्प्रेक्षा का सहारा लेकर रविषेण कहते हैं
'वह (मएदेवी) दुसरे के मनोगत मात्र को समझने वाली थी, इसलिए ऐसी जान पड़ती थी, मानों आत्मा में ही उसके स्वरूप को रचना हुई हो। उसके कार्य तीनों लोकों में व्याप्त थे इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानों मुक्त जीव के समान ही उसका स्वभाव या । १२ उसकी प्रवृत्ति पुण्यरूप थी इसलिए ऐसी जान पढ़ती थी मानों जिनवाणी से ही उसकी रचना हुई हो। यह तृष्णा से भरे भृत्यों के लिए धनवृष्टि के समान थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी, मानों अमृतस्वरूप ही हो ।'४५ राजा णिक का श्लेषमय वर्णन करते हुए कवि कहता है
वृषघातीनि नो यस्य चरितानि हरेरिव । नैश्वर्थचेष्टितं दक्षवतापि पिनाकिवत् ॥ २०६१ गोत्रनाशकरीचेष्टानामराधिपतेरिव । नातिदण्डग्रहप्रीतिक्षिणाशाविभोरिव ।) २१६२
४६. निर्मितारमस्वरूपेव परचित्तप्रतीतिषु ।
मिद्धजीवस्वभावेव त्रिलोकव्याप्तकर्मणि ।। पद्मा ३।९७ । ४३. पुण्यवृत्तितमा जन्या श्रुत्येव परिकलिगता ।
अमृतात्मैव तृष्यत्सु भृत्येषु वसुवृष्टिवत् ।। पद्म० ३३९८ ।
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१६ : पदमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
हरि अर्थात् विष्णु की चेष्टायें तो पृषघाती अर्थात् वृषासुर को नष्ट करने बाली थी पर उसकी चेष्टा वृषघाती अर्थात् धर्म का घात करने वाली नहीं थी। इसी प्रकार महादेव जी का वैभव दक्षबर्गतापि अर्थात राजा दक्ष के परिवार को सन्ताप पहुँचाने वाला था परन्तु उसका वैभव दक्ष वर्गतापि अर्थात् चतुर मनुष्यों के समूह को सन्ताप पहुँचाने वाला नहीं था। जिस प्रकार इन्द्र की चेष्टा गोवविनाशकारी अर्थात् पर्वतों का नाश करने वाली थी उसी प्रकार उसकी बेष्टा गोवनाशकारी भर्थात् वंश का नाश करने वाली नहीं पी और जिस प्रकार दक्षिणदिशा के अधिपति यमराज के अतिदण्डप्रीति अर्थात दण्डधारण करने में अधिक प्रीति रहता है उसी प्रकार उसके अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् बहुत भारी सजा देने में प्रोति नहीं रहती थी।
स्त्री के रूप सौन्दर्य का चित्रण करने में कषि की कल्पना मे कमाल दिखाया है। उदाहरणार्थ अंजना के शारीरिक सौन्दर्य के विषय में कवि की करुपना देखिए
'अंजना सुन्दरी अपने मुख रूपी पूर्ण चन्द्रमा को किरणों से भवन के भीतर जलने वाले दीपकों को निष्फल कर रही थी तथा उसके सोद काले और लाललFini को कालिस दिशा २-fait हो रही थी । यह स्थूल, उन्नत एवं सुन्दर स्तनों को धारण कर रही थी, उससे ऐसो जान पड़ती यो मानों पति के स्वागत के लिए शृङ्गार रस से भरे हुए दो कलश ही धारण कर रही थी।४१ नवीन पल्लवों के समान लाल-लाल कान्ति को धारण करने वाले तथा अनेक शुभलक्षणों से परिपूर्ण उसके हाथ और पैर ऐसे जान पड़ते थे मानों नल रूपी किरणों से सौन्दर्य को ही उगल रहे हों ।। उसकी कमर पतली तो थो ही ऊपर से स्तनों का भारी बोना पड़ रहा है इसलिए वह कहीं टूट न जाय इस भय से ही मानो उसे त्रिनलि रूप रस्सियों से उसने कसकर बांध रस्त्रा पा। वह अंजना जिन गोलभाोल जांघों का धारण कर रही श्री वे कामदेव के
४४. सम्पूर्णवक्त्रचन्द्रांशुविफलीकृतदीपिकाम् ।
सितामितारुणच्छायचक्षुःसरितदिङ्मुखाम्' ।। पद्म० १५।१४० । ४५. आभोगिनो समुत्तुङ्गी प्रियाय हरिणो कुचो ।
कलशाविव बिभ्राणां शृङ्गाररसपूरितो ।। पद्म० १५।१४१ । ४६. नवपल्लचसमझायं पाणिपाद सुलक्षणम् ।
समुगिरदिवाभाति लावण्यं नखरश्मिभिः ॥ पद्म० १५।१४२ । ४७. स्तनभारादिवोदारामध्यं भङ्गाभिशङ्कया ।
त्रिथलोदामभिबद्धं वपती तनुतामृतम् ॥ पदम० १५५१४३ ।
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तरकस के समान अथवा मद और काम के सौन्दर्य रूपी जल को बढ़ाने वाली नदियों के
पद्मचरित का परिचय : १७
बाँधने के स्तम्भ के समान अथवा समान जान पड़ती थीं । ४
अंजना की मूर्तिमती रात्रि के रूप में कवि की यह कल्पना कितनी सुन्दर और साकार है
'उसकी ( अंजना) की कान्ति नील कमलों के समूह के समान घी, यह मुक्काफल रूपी नक्षत्रों से सहित थी तथा पतिरूपी चन्द्रमा उसके पास विद्यमान भा इसलिए वह मूर्तिधारिणी रात्रि के समान जान पड़ती थी ।४९
सौन्दर्य के विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए किसी लेखक ने कहा हैदेखा जाता है कि बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होने पर हमारे जातीय संस्कार तथा वैयक्तिक रुचियों अनजाने ही अपनी मधुकरी वृत्ति से तिल-तिल चुन-चुनकर अनेक वस्तुओं की तिलोत्तमा अथवा आदर्श प्रतिमायें हमारे मानस में बना लेसी है और जो बाहरी वस्तु हमारी बनाई उस ( वस्तु) की मानस प्रतिभा से जितना अधिक सादृश्य रखती हूँ यह हमें उतनी ही सुन्दर तथा प्रिय लगती है क्योंकि उसके रूप रंग आदि हमारे अन्तःकरण के घटक सरच के आनन्दांश को उसके ज्ञानांश की अपेक्षा अधिक उत्तेजित कर देते हैं । वस्तुतः हमारे हृदय का यह आनन्दांश ही सोन्दर्य है जो किसी वस्तु के साक्षात् दर्शन या उसके ध्यान से उबुद्ध होकर हमें तन्मय कर देता है और उस वस्तु पर पड़कर उसे सुन्दर तथा प्रिय बना देता है ।५० सौन्दर्य का यह रूप रविषेण की अंजना में हमें साकार दिखाई देता है
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'बहू (अंजना) ऐसी जान पड़ती थी मानों तीन लोक की सुन्दर स्त्रियों का रूप इकट्ठा कर उसके समूह से ही उसकी रचना हुई थी। उसकी प्रभा नील कमल के समान सुन्दर थी, हस्त रूप गल्लब अत्यन्त प्रशस्त थे, चरण कमल के भीतरी भाग के समान थे, स्तन हाथी के गण्डस्थल के तुल्य धे । उसकी कमर पतली थी, नितम्ब स्थूल थे, जंधायें उत्तम घुटनों से युक्त थीं, उसके शरीर में शुभ लक्षण थे, उसकी दोनों भुजलतायें प्रफुल्ल मालती की माला के समान
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४८. तूणी मनोभुवः स्तम्भ बन्धनं मक्कामयोः ।
सुवृत्तौ विभ्रतीभूरू नदी लावण्यवाहिनी || पद्म० १५।१४४ ।
४९. इन्दीवरावलीकायां युक्तां मुक्ताफलोहुभिः ।
आसक्तां प्रियचन्द्रेण मूत्रमिव विभावरीम् । पद्म० १५।१४५ । ५०. वागीश्वर विद्यालंकार : कालिदास और उसकी काव्य कला, पु० १७३ ।
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१८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति कोमल थीं। कानों तक लम्बे एवं कान्तिरूपी मूठ से युक्त उसके दोनों नेत्र ऐसे जान पड़ते थे मानों कामदेव के सुदूरगामी बाण ही हों ।'५१
प्रकृति को मानवीय रूप देने में रविण ने अपनी प्रतिभा तथा काल्पनिक शक्ति का अच्छा परिचय दिया है । नर्मदा का वर्णन करते हुए वे कहते है
'वह नर्मदा तरंग रूपी भकूटी के रिलास से मुक्त थी, आवर्त रूपी नाभि से सहित थी, तैरती हुई मछलियाँ की उसके नेत्र थे, दोनों विशाल तट ही स्थूल नितम्म थे, नाना फूलों से वह व्याप्त थी और निर्मल जल ही उसका वस्त्र था ! इस प्रकार उत्तम नायिका के समान थी । (ऐसी नर्मदा को देख रावण महाप्रीति को प्राप्त हुआ)
मर्मदा की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करते हुए वे कहते है---
वह नर्मदा कहीं तो उन्न मगरमच्छों के समूह से व्याप्त होने के कारण गम्भीर थी, कहीं वेग से बहती थी, कहीं मन्द गति से बहती थी, कहीं कुण्डल को तरह टेढ़ी-मेढ़ी चाल से बहती थी । नाना चेष्टाओं से भरी हुई थी, तथा भयंकर होने पर भी रमणीय थी।५३
छन्द योजना की दृष्टि से पद्मचरित की रचना अधिकांश अनुष्टुप्५४ श्लोकों में हुई है। अनुष्टुप् के अतिरिक्त इसमे शादूलविक्रीडित," मालिनी,
४
५१. ...."त्रैलोक्यसुन्दरीरूपसन्दोहेनैव निर्मिता । पम० १५।१६ ।
नीलनीरजनिर्भासा प्रशस्तकरपल्लवा । पद्मगभिचरणा कुम्भिकुम्प निभस्तनी ।। पद्म १५॥१७ । तनुमध्या पृथुश्रोणी सुजानूरू: सुलक्षणा । प्रफुल्लमालसीमालामृदुबाहुलतायुगा ॥ पद्म० १५:१८ । कर्णान्तसंगते काम्सिकृतपुङले सुदरी ।
इषू ते कामदेवस्य ननु तस्या विलोपने ॥ पद्म १६६१९ । ५२. तरङ्गभ्रूविलासात्यामावर्तोत्तमनाभिकाम् ।
बिस्फुरकफरीनेषां पुलिनोस्कलत्रिकाम् ।। नानापुष्पसमाकोणी विमलोदकवाससम् ।
पराङ्गनामिवालोक्य महाप्रीतिमुपागतः ।। पद्म० १०॥६१, ६२ । ५३, उग्रनक्रकुलाकान्ता गभीरा वेगिनी क्वचित् ।
पषिमन प्रस्थित मन्दं क्यचित्कुण्डलगामिनीम् ।। नानाचेष्टितसम्पूर्णी कौतुकव्याप्तमानसः ।
अवतीर्णः सतां भीमां रमणीयां च सादरः ॥ पद्म० १०१६३, ६४ । ५४. पद्म० १०७।६८। ५५. पद्मः ११.२। ५६. पद्मा २२५४ ।
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पद्मपरित का परिचय : १९ शालिनी, आर्या,५८ वसन्ततिलका,५९ मन्दाक्रान्ता,° द्रुतविलम्बितवृत्त," रथोद्धतावृत्त, शिखरिणी,१३ दोधकवृत्त.१४ वंशस्थवृत्त, ५ पृथिवीच्छन्द," उपजातिवृत्त, उपेन्द्रवज्ञा," सन्धरा,१९ इम्नवना, भुजङ्गपमातम्, मन्दाक्रान्ता, वियोगिनीवृत्त, पुष्पिताप्रावृत्त, ४ इन्दुवदनावृत्त,५ चण्डी
छन्द," तोटकच्छन्द,७७ प्रमाणिकावृत्त, विधुम्मालायत्त,७१ वजिरायत, कोकिल कच्छन्द, अश्वललितच्छन्द, २ भद्रकमहम्द, बंशपत्रपतितम्,४ हरिणीवृत्त,८५ चतुष्पदिकावृत्त, मतमयूर, रुचिरावत,५ अपरयन्त्र, प्रहर्षिणी,१° पुष्पिताया,५ प्रतिरुचिरा,१२ अज्ञातच्छन्द. तथा आयांगीति९४ छन्दों का व्यवहार किया गया है।
भवरसों में से शान्त, वोर, करुण, द्धि तथा शृगार रस का चित्रण प्रमुख रूप से हुआ है । १२२ पर्व में रावण और इन्द्र के पीच हुए युद्ध में योद्धाओं की वीरता देखते ही बनती है
"किसी (योद्धा) की भुजा आलस्य से भरी थी (उठती ही नहीं थी) पर अब शत्रु ने उसमें गदा की चोट मारी तब वह क्षणभर मे नाच उठा और उसकी भुजा ठीक हो गई। कोई एक भयंकर योद्धा अपनी निकलती हुई आँतों को बायें हाथ से पकड़कर तथा दाहिने हाथ से तलवार उठा बड़े देश से शत्रु के
५७. पद्म० ३।३३८ । ५८. पद्म ४।१३२। ५९. पद्मः ५।४०५ । ६०. वही, ६।५७१। ६१. वही, ८५३० । ६२. वही, ९।२२४ । ६३, वह्नी, १२।३७५। ६४. वही, १३।११०। ६५. वही, १४।३८० । ६६. वही, १६।२४२ । ६७. वही, १९६९२ । ६८. वही, १९।१०३ । ६९. वही, २०१२४८। ७०. वही, २१६१५३ । ७१. वही. २४।१३१ । ७२. वहीं, २९५११५। ७३. वहीं, ३११९४ 1 ७४. वही, ३६।१०३ । ७५. वही, ३९।२३५ । ७६. बही, ४२४४८ । ७७. वही, ४२।५० । ७८. वही, ४२१४९1 ७९. वही, १२।५६ 1 ८०, वही, ४२१५८ । ८१. वही, ४२०५९। ८२, वही, ४२६२ ।। ८३. नही, ४२।६३ । ८४. वही, ४२१६६ । ८५, वही, ४२।६७३ ८६. वही, ४२१६९ । ८७. वहीं, ४२।७१ । ८८, वही, ४२।७२ । ८९. वहीं, ४२१५३ । ९०. वही, ४२१७४ । ९१, वहीं, ४२१८२। ९२. वहीं, ४४।१०५ । २३. वही, ११२।९५ । ९४. वही, १।२७४ । ९४.१ अलसः कस्यचिदाहराहतो गदया द्विषा ।
वभूध विषदोऽत्यन्तं क्षणनर्तनकारिणः ।। पदम १२२७४ ।
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२० : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सामने जा रहा था ।" जो ओठ जाम रहा था तथा जिसके नेत्रों की पूर्ण पुतलियt दिख रहीं थी ऐसा कोई योद्धा अपनी ही आंतों से कमर को मजबूत कसकर शत्रु की ओर जा रहा था ।९६
शृङ्गार की वियोग और संयोग दोनों अवस्थाओं का चित्रण करने में रवि श्रेणको फललाई है। पद्मचरित का १६व पर्व है। पति द्वारा परित्यक्त अंजना की अवस्था का वर्णन करते हुए रविषेण कहते हैं
९७
"उसने एक ही बार तो पति का रूप देखा था, इसलिए बड़ी कठिनाई से यह उनका चित्र खींच पाती थी उतने पर मो हाथ बीच-बीच में काँपने लगता था, जिससे तुलिका छूटकर नीचे गिर जाती थी । वह इतनी निर्बल हो चुकी श्री कि मुख को एक हाथ से दूसरे हाथ पर बड़ी कठिनाई से ले जा पाती थी । उसके अंग इतने कुरा हो गये थे कि उनसे आभूषण ढीले हो-हो कर शब्द करते हुए नीचे गिरने लगे थे । १८ उसकी लम्बी और गरम सांस से हाय तथा कपोल दोनों ही जल गए थे। उसके शरीर पर जो महीन वस्त्र था उसी के भार से वह वेद का अनुभव करने लगी थी । १
इसी पर्व (१६) के अंत में अंजना - पवनंजय के समागम का कवि ने सांगोपोग वर्णन प्रस्तुत किया है। इसमें आलिंगन-पोडन, १०० १०१ चुम्बन, नीवीविमोचन, १०२ नितम्ब आस्फालन, १०३ सीत्कार, १०४
१०५
नखक्षत,
'दन्ताघात १०३
९५. कश्चित् करेण संरुष्य वामेनान्त्राणि सद्भटः ।
तरसा खड्गमुद्यम्य ययौ प्रत्वरि भीषणः । पद्म० १२१२८५ ९६. कश्चिन्निजैः पुरीतद्भिर्बद्ध्वा परिकरं दृढम् ।
वष्टष्ठोऽमिययो शत्रु दृष्टाशेषकर्नीनिकः । पद्म० १२२८६ |
९७. सदस्पष्टदृष्टस्याच्चित्रकर्माणि कृच्छ्रतः । लिखन्ती वेपथुग्रस्तहस्तप्रच्युतवर्तिका
९८, संचारमन्त्री कृष्ण वदनं करतः करम् ।
कृशीभूतसमस्ताङ्गस्लथरचनभूषणा
|| पद्म० १६।६ ।
।। पद्म० १६।७ ।
९९. दीर्घतरनिश्वा सदग्धपाणिकपोलिका
1
अंशुकस्यापि भारेण वेदमङ्गेषु विभ्रती । पद्म० १६४८ १
१०० पद्म० १६।१८३ ।
१०२. वही, १६।१८९ । १०४. वही, १६।१९६ । १०६. वही, १६।२०२
१०१. पद्म० १६ १८७ । १०३. वही, १६ १९४ १०५. वही, १६।१९७ ।
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१०८
पद्मचरित का परिचय : २१ आदि कामकलायें चित्रित की गई हैं। रविषेण के इस चित्रण पर वात्स्यायन का प्रभाव स्पष्ट रूप से है । शृङ्गार प्रधान कविता के लेखकों के लिए प्राचीनकाल में कामशास्त्र का ज्ञाता होना अत्यावश्यक समझा जाता था अतः जो कवि बनना चाहते थे वे व्याकरण, अलंकार और कोष के समान ही इस कामसूत्र का भी अध्ययन करते थे । १०:७ कुछ लोगों ने पद्मचरित के उपर्युक्त वर्णन को अश्लील कहा है । पर यह भी न भूलना चाहिए कि सुचि तथा कुरुचि और भौचित्य के मानदण्ड प्रत्येक देश तथा जाति में एक से नहीं होते। एक ही देश और जाति में भी वे समय-समय पर बदलते रहते है । ऐसे साहित्य का अध्ययन मनोवैज्ञानिक या किसी समस्या के समाधान की दृष्टि से करना चाहिए। शरीर के जिन अंगों का खुला प्रदर्शन समाज में शोभन नहीं माना जाता, एक कलाकार के कला भवन और शबच्छेदन की टेबल पर उन्हें क्रमश: सुन्दर और आवश्यक समझा जाता है । यह भी जान पड़ता है कि बीसवीं सदी के बहुत से साहित्यकारों पर फॉयड की छाप को तरह किसी युग में संस्कृत साहित्य के प्राचीन कदियों पर वात्स्यायन के कामसूत्र का गहरा प्रभाव पड़ गया था। साथ ही सदा से काव्य का एक प्रयोजन व्यवहार ज्ञान भी माना जाता रहा हूँ, इसीलिए कालिदास तथा उसके परवर्ती भारवि माघ, श्रीहर्ष आदि कवि अपनी रचनाओं में इस विषय को अधिकाधिक महत्त्व देते चले गये । ત रविषेण भी इसका अपवाद कैसे हो सकते थे । अतः उनकी रचना में भी ये तत्त्व समाहित हैं ।
करुण रस का चित्रण करने में भी कवि ने यथेष्ट सफलता पाई है। सप्तदश पर्व में सास-ससुर द्वारा परित्यक्ता अंजना की करुण स्थिति का चित्रण करते हुए कवि कहता है
"अंजना सहारा पाने की इच्छा से सखी के कन्धे पर हाथ रखकर चल रही थी पर उसका हाथ सखी के कन्धे से खिसककर बार-बार नीचे आ जाता था । चलते-चलते जब कभी डाभ की अनी पैर में चुभ जाती थी तब बेचारी आँख भीचकर खड़ी रह जाती थी ।११० वह जहाँ से पैर उठाती थी दुःख के भार से
१०७. कालिदास और उसको काव्यकला, पृ० १११ ।
१०८. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ९१ । ( नाथूराम प्रेमी )
१०९. फालिदास और उसकी काव्यकला, ५० १५३ ।
११० ततः सख्यं सविभ्यस्त विलंसिकर पल्लवा ।
दर्भसूचीमुख स्पशंकूणितेक्षणकोणिका
।। पद्म० १७।९९ ।
2
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२२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१११
विपट आती थीं। अतः
चीखती हुई वहीं फिर पैर रख देती थी |999 वह अपना शरीर तो कठिनता से धारण कर रही थी । वह कभी अपनी निन्दा करती थी तो कभी भाग्य को बार-बार दोष देती थी। लतायें उसके शरीर में ऐसा मालूम पड़ता था कि दया से वशीभूत होकर मानो उसका आलिंगन ही करने लगती थीं । ११२ उसके नेत्र भयभीत हरिणी के समान चंचल थे 1 थकावट के कारण उसके शरीर में पसीना निकल आता था, कोटेदार वृक्षों में वस्त्र उलझ जाता था तो देर तक उसे ही सुलझाती खड़ी रहती थी। उसके पैर रुधिर से लाल लाल हो गये थे, अतः ऐसे जान पड़ते थे मानो लाख का महावर ही उसमें लगाया गया हो । शोकरूपी अग्नि की दाह से उसका शरीर अत्यन्त सविला हो गया था। पत्ता भी हिलता तो वह भयभीत हो जाती थी। उसका शरीर कपिने लगता था, भय के कारण उसकी दोनों जांघें अकड़ जाती थीं और बंद के कारण उनका उटामा कठिन हो जाता था। अत्यन्त प्रिय वचन बोलने वाली सखी उसे बार-बार बैठाकर विश्राम कराती थी। इस प्रकार दुःख से भरी अंजना धीरे-धीरे पहाड़ के समीप पहुँची। वहाँ तक पहुँचने में इतनी अधिक थक गई थी कि शरीर सम्भालना भी दूभर हो गया। उसके नेत्र से आंसू बहने लगे और वह भारी खेद के कारण राखी को बात सुनकर बैठ गई । कहने लगी अब तो मैं एक डग भी चलने के लिए समर्थ नहीं है, अतः यहीं ठहरी जाती हूँ । यदि यहाँ मरण भी हो जाय तो अच्छा है ।११३
१११ तत्र तत्रैव भूदेशे न्यस्यन्ती चरणो पुनः 1
स्तनन्ती दुःखसंभाराद्देहं कृच्छ्रेण बिभ्रती ॥ पद्म० १७ १०० । ११२. निन्दन्ती स्वमुपालम्भं प्रयच्छन्ती मुहुविधेः ।
कारुण्यादिव वल्लीभिः श्लिष्यमाणा खिलाङ्गिका ॥ पद्म० १७।१०२ । प्रस्तसारङ्गजावाशी श्रमजस्वेदवाहिनी | कारुण्यादिव वल्लीभिः श्लिष्यमाणा खिलाङ्गिका ।। क्षतजेनाश्विती पायी लाश्रिताविव बिभ्रती । शोकाग्निदाहसंभूता श्याम दधती पराम् ।। मुविश्रम्यमानाया नितान्त प्रियवाक्यया । गिरेः प्रायोजना मूलं शनकैरिति दुःखिता || तস धारयितुं देहमसक्ता साघुलोचना | अपकर्ण्य सखीवाक्यं महास्वादुपाविशद् ।। जगाद च न शक्नोमि प्रयातुं पदमप्यतः । तिष्ठाभ्यत्रैव देशेऽहं प्राप्नोभि मरणं वरम् ।।
-पद्म० १७।१०२-१०८ १
+११२.
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पक्ष्मचरित का परिचय : २३
शान्तरस के वर्णनों से पूरा पद्मचरित भरा पड़ा है। भोग से त्याग की और मनुष्य की वृत्तियों को उन्मुस्न कराने के लिए ही यह पूरा ग्रन्थ लिखा गया है। आत्मशुद्धि ही जीवन का मूलमन्त्र और मूललक्ष्य होना चाहिए । जिस प्रकार इंधन से अग्नि तृप्त नहीं होती और जल से समुद्र तप्त नहीं होता उसी प्रकार जब तक संसार है तब तक सेवन किये हुए विषयों से यह प्राणी तुप्त नहीं होला । इसी भावना के वशीभूत हुआ भरत सुन्दर स्थानों में भी बर्य को प्राप्त नहीं होता हुआ इस प्रकार चिन्तन करता है
मन्ष्य' पर्याय बड़े दुःख से प्राप्त होती है, फिर भी पानी की बूंद के समान अचल है, यौवन फैन के समान भंगुर तथा अनेक दोषों स संकटपूर्ण है।१४ भोग अन्तिम काल में रस से रहित हैं, जीवन स्वप्न के समान है और भाई बन्धुओं का सम्बन्ध पक्षियों के समागम के समान है ।११५ जो मूर्ख मनुष्यों को प्रिय है, अपबाद अर्थात् निम्दा का कुलभवन है एवं सन्ध्या के प्रकाया के ममान विनश्वर है ऐसे नवयौवन में क्या राम करना है ?९११ जो अवश्य ही छोड़ने योग्य है, अनेक श्याधियों का फूलभवन है और रजवीर्य जिसका मूलकारण है ऐसे इस शरीर स्पी यन्त्र में क्या प्रीति करना है ?११७ जिनका आकार गलगण्ड के समान है तथा जिनसे निरन्तर पसीना झरता रहता है ऐसे स्तन नामक मांस के घुणित पिण्डों में क्या प्रेम करना है ?१८ जिनका शरीर अपवित्र वस्तुओं से सम्मय है तथा जो कंवल चमड़े से आच्छादित है ऐसे स्त्रियों से उनकी सेवा करने पाले पुरुष को क्या सुख होता है ?११९ मूखमना प्राणी मलभूत घट के समान
१९३. पद्म ८३।५२ । ११४. लम्यं दुःखेन मानुष्यं घपलं जलबिन्दुवत् ।
यौवनं फेनपुम्न सदृशं दोषसङ्कटम् ।। पद्म ८३।४७ । ११५. समाप्तिविरसा भोगा जीवितं स्वप्नसन्निभम् ।
सम्बन्धो बन्धुभिः साई पक्षिसलमनोपमः ।। पद्म० ८३।४८ 1 ११६. यौवनेऽभिनवे रागः कोऽस्मिन् मूढकवल्लभे ।
अपषाबकुलायासे सन्थ्योद्योतमिनश्वरे ।। पद्म० ८३।५० । ११७. अवश्यं त्यजनीये च नानाध्याधिकुलालये ।
शुक्रशोणितसम्भूते देहयन्त्रेऽपि का रतिः ।। पद्म० ८३३५१ । ११८, गलगण्डसमानेषु क्लेदप्तरणकारिषु ।।
स्तनालयमांसपिण्डेषु बोभत्सेषु कथं रतिः ।। पदमः ८३१५४ । ११९. पक्ष्म० ८३।५८ ।
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२४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति अत्यन्त लज्जाकारी संयोग को प्राप्त हो, मुझे सुख हुआ है, ऐसा मानता
है । १२०
पद्मचरित : एक महाकाव्य
महाकाव्य की सबसे अधिक स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा १५वीं शताब्दी में विश्वनाथ ने अपने अन्य माहित्यदर्पण१२१ में दी है। तदनुमार. पद्यबन्ध के प्रकारों में जो मर्गबन्धात्मक काव्य प्रकार है वह महाकाव्य कहलाता है ।
१२०. विद कृष्मदितम् गोत्वा संयोगगतिलज्जनम् ।
विमूढमानमः लोक: सुग्नमित्यभिमन्यते ।। पद्म ८.३०५९ । १२१. समबद्धो महाकाव्यं तत्रको नायक: मुरः ।
सद्मशः क्षत्रियों वापि धीरोदात्तगुणान्वित: ॥ एकत्रंशभवा भूपाः कुलजा बहनोऽपि वा । श्रृंगारवीरशान्तानामेकोऽङ्गी रस इष्यते ।। अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः । इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यदा मज्जनाश्रयम् । चत्वारस्तस्य वर्गाः म्युस्तष्वक च फलं भवेत् ।। आदी नापस्क्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एवं वा। क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुण कीतनम् ॥ एकवृत्तमयैः पद्यरवसानेऽन्यवृत्तक । नातिस्वल्पा नातिदीर्घा मर्गा अष्टाधिका इह ।। नानावृत्त पयः नापि सर्गः कश्चन दृश्यते । सर्गान्त नाविसर्गस्य कथावाः सूचनं भवेत् ।। गन्ध्यासूर्येन्दुरजनोप्रदोषमान्तवासराः । प्रातमध्याह्नमृगयाशैलतुवनमागराः ।। संभोगविप्रलम्भां च मुनिस्वर्ग पुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्र पुत्रोदयादयः ।। वर्णनीया यथायोग सांगोपांगा अमी इह । कवर्धत्तस्य वा नाम्ना नायकस्तरस्य वा ! तामास्य सर्गोपादेव कथया सर्गनाम तु । सन्ध्यङ्गानि प्रथालाभमत्र विधेयानि ।। अवमानोऽन्यवृत्तकैः इति बहुवचनविवक्षिप्तम । सांगोपांगा इति जल केलिमधुपानादयः ।।
-विश्वनाथ : साहित्यदर्पण, ३१५।३१६-३२४ ।
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पत्मचरित का परिषय : २५
(चरित्रवर्णम की दृष्टि से) इस सर्गबन्ध रूप महाकाव्य में एक ही नायक का परित चित्रित किया जाता है। यह मायक कोई विशेष पा पक्ष्यात राणा होता है। यह धीरोदात्त मायक के गुणों से युक्त होता है। किसी-किसी महाकाव्य में एक राजवंश में उत्पन्न अनेक कुलीन राजाओं की भी चरित्र चर्चा दिखाई देती है। (रसाभिव्यंजन की दृष्टि से) क्षार, वीर और शांत रमों में से कोई एक रस प्रधान होता है । इन तीनों रसों में से जो रस भी प्रधान रखा जाय उसकी अपेक्षा अन्य सभी रस अप्रधान रूप से अभिव्यक्त किये जा सकते है। संस्थान रचना की दृष्टि से) नाटक की सभी सन्धिया महाकाव्य में आवश्यक मानी गई है । (इतिवृत्त योजना की दृष्टि में) कोई भी ऐतिहासिक अथवा किसी महापुरुष के जीवन से सम्बद्ध कोई लोकप्रिय वृस यहाँ वर्णित होता है। (उपयोगिता की दृष्टि से) महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थचतुष्टय का काग्यात्मक निरूपण होता है, किन्तु उत्कृष्ट फल के रूप में किसी एक का ही सर्वतोभद्रनिमन्ध युक्तियुक्त माना जाता है। महाकाव्य का प्रारम्भ मंगलात्मक होता है। यह मंगल नमस्कारात्मक, आशीर्वादात्मक या वस्तु निर्दे। शारमक होता है। किसी-किसी महाकाव्य में खलनिन्दा और सज्जन प्रशंसा मी उपमिबद्ध होती है। इसमें न बहुत छोटे, न बहुत बड़े आठ से अधिक सर्ग होते है। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द होता है किन्तु (मर्ग का) अन्तिम पद्य मिन्न छन्द का होता है। कहीं-कहीं सर्भ में अनेक छन्द भी मिलते हैं। सर्ग के अन्त में अगली कथा की सूचना होनी चाहिए । इसमें सन्ध्या, सूर्य, रात्रि, प्रदोष, अम्बकार, दिन, प्रातःकाल, मध्यान, मगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संयोग, पियोग, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, विवाह, यात्रा, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए । इसका नाम कवि के नाम से पा चरित्र के नाम से, अथवा चरित्र नायक के नाम से होना चाहिए। सर्ग का वर्णनीय कया से सर्ग का नाम लिखा जाता है। संषियों के अंग महाँ यथासम्भव रखने चाहिए । जलक्रीड़ा, मधुपामाधि सांगोपांग होने चाहिए ।
महाकाव्य के ये उपर्युक्त लक्षण न्यूनाधिक रूप में पदमचरित में घटित होते है। इसे पर्यों में विभाजित किया गया है जोकि सर्ग का ही दूसरा नाम है । काव्य के प्रारम्भ में ऋषभजिनेत्र से लेकर मुनिसुव्रत जिनेन्द्र को नमस्कार करने के साथ-साथ गणधरों सहित अन्यान्य मुनिराजों को मन, वचन, काम से नमस्कार किया गया है । १२२ इस के बाद कवि ने 'पद्मस्य चरितं वक्ष्ये' अर्थात् राम का
१२२. पदमः १५१-१५ ।
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२६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति चरित्र कहूँगा, ऐसा कहकर वस्तुनिर्देश किया है । २१ इसकी रचना राम जैसे उत्कृष्ट महापुरुष की कथा के आधार पर हुई है, जिनके विषय में कवि ने स्वयं कहा है कि अनन्त गुणों के गृहस्वरूप, उवार चेष्टाओं के धारक उमका परित्र कहने में श्रुतकवली ही समर्थ है । १२४ यह काव्य शान्त रस प्रधाम है। आयश्यकतानुसार इसमें शृंगार,२५ भीर,१२५ सामानों परिपक हुआ है। ___इस कथा से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप विभिन्न प्रयोजनों की सिधि होती है, जिसकी ओर रविषेण ने १२३वें पर्व में स्वयं संकेत किया है ।१२८ इस कथा का प्रमुख उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होना ही है । जैसा कि कहा गया है-हे विद्वज्जनो J यत्नपूर्वक एक प्रमुख आत्मपद को तथा नाना प्रकार के वियाफ से परिपूर्ण कर्मों के स्वरस को भली प्रकार जानकर सदा उसी की प्राप्ति में रमण करो। हमने (रविषेणाचार्य ने) इस ग्रन्थ में परमार्थ की प्राप्ति के उपाय कहे हैं, उन्हें काम में शक्तिपूर्वक लाओ जिससे संसार रूपी सागर से पार हो सको ।' १२५ ग्रन्थ के आरम्भ में सज्जनों की प्रशंसा और दुर्गनों की निन्दा की गई है-'जिस प्रकार घूध और पानी के समूह में से हंस समस्त दूध को प्रहण कर लेता है उसी प्रकार सत्पुरुष गुण और दोषों के समूह में से गुणों को ही ग्रहण करते है । जिस प्रकार काक हाथियों के गण्डस्थल से मुक्ताफलों को छोड़कर केवल मांस ही ग्रहण करते है उसी प्रकार दुर्जन गण और दोषों के समूह में से केवल दोषों को ही ग्रहण करते है। जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्य की मूर्ति को तमाल पत्र के समान काली-काली देखते है उसी प्रकार दुष्ट पुरुष
१२३. पद्म० १२१६ ! १२४. अनन्तगुणगेहस्य तस्योक्षरविचेष्टिनः ।
गदितु परितं शक्तः केवलं श्रुतफेवली ।। पद्म ११७ । १२५. पद्म ३।१०६-११०, १५१४१-१४५ । १२६. वही, १२।२६५, २९२, २९३, २८५, २८६ । १२७, वही, १७१९९-१०८।। १२८. वही, १२३।१५७-१६५ । १२९. बहुधा गदिसेन किन्न्धनेन पदमेकं सुमृषा निबुध्य यत्नात् । बहुभेदविपाककर्मसूक्तं तदुपायाप्तिविधी सदा रमश्वम् ।।
--पदम० १२३३१७९ । उपायाः परमार्थस्प कपितास्तत्वतो बुधाः । सेय्यन्तां शक्तितो येन निष्क्रामत भवार्णवात् ।। पदम० १२३३१८० ।
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पद्मचरित का परिचय : २७ निर्दोष रचना को भी दोषयुक्त देखते हैं। जिस प्रकार किसी सरोवर में जल आने के द्वार पर लगी हुई जाली जल को तो नहीं रोकती किन्तु कूड़ा कर्कट को रोक लेती है उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य गुणों को तो रोक नहीं पाते किन्तु कूड़ा कर्कट के समान दोषों को ही रोककर धारण करते हैं । १३०
१३१
पद्मचरित में १२३ पर्व ( सगं ) हैं । प्रत्येक पर्व में अनुष्टुप छंद का प्रयोग किया गया है, किन्तु पर्थ के अन्त में अनुष्टुप से भिन्न अन्य छन्दों का प्रयोग किया गया है। प्रकरणानुसार इस काव्य में रात्रि विवाह, १३२ नदी, १५० युद्ध, नगर, १४५ संयो १४२
173
૧૪૭
१३४
१३५
१३३
१३७
यात्रा,
१४४
प्रातःकाल, तथा
यज्ञ
ऋतु, वन, पर्वत, १३८ वियोग, १४५ मुनि, स्वर्ग, १४४ १४६ आदि का सांगोपांग वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त जल क्रीडा १४७ तथा मधुपानादिक' का भी इस काव्य में सांगोपांग निरूपण किया गया है ।
१४८
१३०. गुणदोषसमाहारे गुणान् गृह णन्ति साधवः ।
अभ्युदय, पुत्र,
१४५
क्षीरवारिसमाहारे हंसः क्षीरमिवाखिलम् ॥ पद्म० ११३५ । गुणदोषसमाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः |
मुक्ताफलानि सन्त्यज्य काका मन द्विपात् ।। ० १३६ । अदोषामपि दोषावतां पश्यन्ति रचनां खलाः । रत्रिमूर्तिमिवोलुकास्तमालदल कालिकाम् ।। पदुम ० १ ३७ । सरो जलागमद्वारजालकानीव दुर्जनाः ।
धारयन्ति सदा दोषान् गुणवम्धनयजिताः । पद्म० ११३८ । १३१. पम० २/२००-२१८ । १३२. पद्म० अष्टम पर्व ।
१३३. वही १०५९-६४, ४२१६१-७४ । १३४, वही, १२१८१-२१९, ५०११४-३३ । १३५. बहो, ३५।४५-६५ ।
१३६. वही, ३५/३५-३८, ४३।१-१५ ।
१३७, वही, ४१।३-४, ४२/१-५१ ।
१३९. वहीं, ७ १९-३२ ।
१४१, वही पर्व २३, २४, दशरथ और जनक की यात्रा ।
९१४२. दही, १६।१०७-२१३ ।
१३८. पद्म० ४२।६० ।
१४०. वही, २०९ ३८५ ।
१४३. वही, १२३ प ८७९-१४ । १४४. पद्म० १०९।२०-२५ ।
१४५. वही, ३।१४२-१४८ ।
१४६. वही, ११।१०६-११० ।
१४७, वही ४० १९-२३, ८ ९०-१०० ।
"
१४८. वही, ७३ १३९, १३६-१४५ ।
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२८ : पमवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
इन सब विशेषताओं के कारण पद्मर्धारित की गणना संस्कृत के उत्कृष्ट महाकाव्यों में की जा सकती है। सातवीं शती ई० के आचार्य दण्डो ने अपने काव्यादर्श में महाकाव्य के जो लक्षण निर्धारित किये हैं। पद्मचरित उन लक्षणों के आधार पर भी महाकाव्य सिद्ध होता है ।
जैन कथा साहित्य और पद्मचरित
१४९
१९८
जेनकथा साहित्य बहुत विशाल हैं। प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और बाधुनिक भारतीय भाषाओं में इस प्रकार का साहित्य प्रचुर मात्रा में रचा गया । इनमें पद्मचरित का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । संस्कृत जैन कथा साहित्य का यह आद्यग्रंथ है । १५० सं० १८१८ में दौलतराम ने इसका भाषा ( पुरानी हिन्दी) में अनुवाद किया जा हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होने से यह के घर-घर में पढ़ा जाता है। उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर पद्मचरित विमलसूरि की प्राकृत रचना पउमचरिय के आधार पर लिखा गया सिद्ध होता है, लेकिन रविषेण ने अपनी नैसर्गिक काव्यात्मक प्रतिभा के द्वारा इसको खूब पस्लवित किया है, इस कारण इसका आकार प्राकृत पउमचरिय से ड्योढ़ा हो गया। बाद में इसके आधार पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई । ४० रेवरेंड फादर कामिल बुल्के ने अपने शोध प्रबन्ध 'रामकथा' (उत्पत्ति और विकास) में 'पउमचरिय के आधार पर रचे गये ग्रंथों की सूची ' प्रस्तुत की है। चूंकि पद्मचरित भी इसी परम्परा का है अतः इसका भी इन सब पर अमिट प्रभाव है । बारहवीं सदी ईस्वी में हेमचन्द्र ने त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित ग्रंथ लिखा ! इसके अन्तर्गत दी गई रामकथा का रूप रविषेण के पद्मचरित से मिलताजुलता है। हेमचन्द्र द्वारा की गई योगशास्त्र की टीका के अन्तर्गत दिया गया 'सीता रावण कथानकम् मी पद्मचरित के आधार पर लिखा गया । १५वीं सदी ई० में इसके आधार पर जिनवास ने रामायण अथवा रामदेव पुराण की रचना की । सोलहवीं सदी ई० में पद्मवेव विजयमणि ने रामचरित लिखा । इसी समय सोमसेन ने रामचरित नामक ग्रन्थ की रचना की । आचार्य सोमप्रभ लघुत्रिका पुरुष चरित में तथा विजयगणिवर (१७वीं सदी ई०) कृत
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१४९. इस प्रकार के ग्रन्थों को बहुत कुछ जानकारी डॉ० हीरालाल जैन ने अपने भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान नामक ग्रंथ में दी है । विशेष जिज्ञासु को वहीं से देख लेना चाहिए ।
१५०. वाचस्पति गैहरोला संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, ५० २७१ । १५१. रामकथा (बुल्के), पू० ६८ ।
१५२. बही, पृ० ६८, ६९ ।
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पदमचरित का परिचय : २९ लधुत्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित को गमकमा भी रविषेण से मिलती है। इन रचनाओं के अतिरिक्त जिनरत्नकोध में धर्मकीति चन्द्रकीति, चन्द्रसागर, श्रीचन्द्र, पमनाथ आदि द्वारा रचित विभिन्न पदमपुराण अथवा रामचरित नामक ग्रन्थों का उल्लेख है। सीता चरित्र के सीन रचयिताओं के नाम मिलते है-ब्रह्म नेमिदत, शांतिसूरि तथा अमरदास । अधिकांश सामग्री अप्रकाशित है। दसवीं शताब्दी के हरिषेणकृत कथाकोष में रामायण कथानकम तथा सीवा कथानकम् पाया जाता है। इस अन्तिम रचना में विमालसरि तथा रविषेण के अनुसार सीता की अग्नि परीक्षा वर्णित है, लेकिन रामायणकथानकम् अधिकांश में वाल्मीकीय कथा पर निर्भर है । पृण्याश्रब कयाकोष में लव कुश की जो कचा मिलती है वह भी विमलसूरि की परम्परा पर निर्भर है । हरिभद्रकृत धूख्यिाम (८वीं सदी ई०) तथा अमितगति कृत धर्मपरीक्षा (११वीं सदी ई.) में वाल्मीकि रामायण में घणित हनुमान के समुद्रलंघन जैसी घटनाओं को हास्यास्पद बताया गया है । शत्रुजय माहात्म्य (१२वीं सदी ई०) के न सर्ग में रामकथा विमलसूरि तथा रविषेण के अनुसार है, किन्तु कैकयी, राम और लक्ष्मण दोनों के वनवास का वर मांग लेती है। __ अपभ्रंश साहित्य में सर्वप्रथम स्वयंभूदेव ने पचमचरित की रचना की। इसकी रचना पूरी तरह से रविषेण के पद्मचरित के आधार पर की गई । अपने ग्रन्थ की पक्कमो संघि (प्रथम संधि) में स्वयम्भू देव ने रविषेषाचार्य द्वारा दी गई आचार्य परम्परा के अन्त में रविषेण का नाम जोड़कर उनका नाम स्मरण करने के साथ-साथ उनके अन्य के आधार पर अपनी ग्रन्थ रचना करने की बात कही है। स्वयम्भू को महापण्डित राहुल सांकृत्यायम ने विश्व का महाकवि माना है। उनके मतानुसार तुलसी रामायण स्वयम्भू रामायण से बहुत प्रभावित रही है। स्वयम्भू और उनकी रामायण के विषय में एक जगह वे लिखते हैं- स्वयम्भू कविराज कहे गये है किन्तु इतने से स्वयम्भू की महत्ता को नहीं समझा जा सकता । मैं समझता हूँ ८वीं शताम्दी से लेकर २०नौं शताब्दी तक की १३ शताब्दियों में जितने कवियों की अपनी अमर कृतियों से हिन्दी कविता साहित्य को पूरा किया है, उनमें स्वयम्भू सबसे बड़े कवि है । १५४ राहुल जी ने यह भी अनुमान लगाया कि तुलसी बाबा ने स्वयम्भू रामायण को जरूर देखा होगा । तुलसीदास जी के 'ते प्राकृत कधि परम सयाने । जिन भाषा हरिचरित बखाने' उक्ति से यह प्रमाणित होता है । राहुल जी की समझ में तुलसी बाबा ने
१५३. पदमचरित-पढमो संधि ६-११ । १५४. महावीर जयन्ती स्मारिका, पृ० २१ (अप्रैल, १९६४) ।
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३० : पदमवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
'क्वचिदन्यतोऽपि' से स्वयम्भ रामायण की ओर संकेत किया है । ५५ राहुल जी के कथन का इतना प्रभाव अवश्य हुआ कि तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने वाले विद्वान् सीधे वाल्मीकि की ओर न देखकर स्वयम्भ के 'परामचरिउ' की ओर देखने लगे। मानस के अध्ययन के लिए पण्डितों को संस्कृत रामायण की अपेक्षा अपभ्रंश को इस रचना में भाषा, भाव, काम्य, रूप कथानक, रूदि और अभिप्राय (मोटिफ्स) आदि की दृष्टि से अधिक निकटता का अनुभव हुआ । १५. रामचरित मानस पर स्वयम्भू के इस प्रभाव को देखते हुए अप्रत्यक्ष रूप से 'पद्मचरित' का भी प्रभाव पड़ा कहा जा सकता है, क्योंकि स्वमम्मू ने पदमचरित के आधार पर ही पउमरिउ की रचना की घो। १५वीं सदी में महाकवि राधू ने पद्मपुराण अथवा बलभद पुराण की रचना की । रहधू की इस रचना पर स्वरभू का प्रभाव नहीं । पद्मचरित में संकेतित ब्राह्मण धर्म
पद्मचरित के अध्ययन से पता चलता है कि रविषेण को ब्राह्मण धर्म का गम्भीर ज्ञान था। पद्मचरित में समय-समय पर संकेतित पौराणिक आख्यानों, वृत्तों, घटनाओं तथा पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थापित दार्शनिक सिद्धान्तों से रविपण का ब्राह्मण धर्म तथा दर्शन सम्बन्धी गम्भीरतम ज्ञान प्रकट होता है। पद्मचरित की रचना ही इसलिए हुई कि ब्राह्मण धर्म के ग्रन्थों (रामायण आदि) में राक्षस आदि का जो स्वरूप तथा कार्यकलाप आदि निर्धारित किया गया था वह रविषेण को अपनी पार्मिक और पौराणिक मान्यता के अनुसार अभीष्ट नहीं पा ।'५ अभीष्ट म होने का कारण रविषेण के अनुसार इस कथानक का युक्तिपूर्ण न होना ही था।५८ रामायण की इस मान्यता की ओर ध्यान बाषित करते हुए लोगों ने कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से देव के अधिपति इन्द्र को पराजित किया था, रविषेण आलोचना करते हुए कहते है कि कहाँ तो देव का स्वामी इन्द्र और कहाँ यह तुच्छ मनुष्य जो कि इन्द्र को चिन्तामात्र से भस्म की राशि हो सकता था । १५९ जिस के ऐरावत हाथी था और वन जैसा महान् पास्य पा एवं जो सुमेरु पर्वत और समुद्रों से सुशोभित पृथ्वी को अनायास ही उठा सकता था ऐसा इन्द्र अल्पशक्ति के धारक विद्याधर के द्वारा, जोकि एक साधारण मनुष्य ही था कैसे पराजित हो सकता था ।१५० रामायण में यह भी १५५. काव्यधारा अवतरणिका, पृ० ५२ । १५६. महावीर जयन्ती स्मारिका, प. ४७ (अप्रैल, सन् १९६२) । १५७. पद्म० २।२३०-२४९ । १५८, पद्म, २२४९ । १५९. वही, २।२४१-२४३ ।
१६०. वहीं, २२४४-२४५ ।
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पद्मचरित का परिचय : ३१
लिखा है कि राक्षसों के राजा रावण ने इन्द्र को अपने बन्दीगृह में पकड़कर रखा था और उसने बन्धन से बद्ध होकर चिरकाल तक लंका के बन्दीगृह में निवास किया था । ऐसा काहना मगों के द्वारा मिह का वध होना, तिलों के द्वारा पिलाओं का पोसा जाना, पनियां सौंप के द्वारा नाग का मारा जाना और कुत्ता के द्वारा गजराज का दमन होने के समान है ।१५१ वत के घारक राम ने स्वर्णमृग को मारा था और स्त्री के पीछे सुग्रीव के बड़े भाई बालि को जोकि उसके पिता के समान था, मारा था । वह सब कथानक युक्तियों से रहित होने के कारण श्रद्धान के योग्य नहीं है । ६२.
ब्राह्मणों की माम्यता के विषय में अश्रद्धा का भाव होते हए भी काव्य में अलंकार आदि के द्वारा रसात्मकता उत्पन्न करने के लिए रविण ने पौराणिक ब्राह्मण आख्यानों और मान्यताओं का निर्देश पर्याप्त रूप से किया है, यह उनको सहिष्णुता का परिचायक है। द्वितीय पर्व में राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कवि कहता है
राजगृह नगर धर्म अर्थात् यमराज के अन्तःपुर के. पान संभाग अपनी ओर खींचता रहता है क्योंकि जिस प्रकार यमराज का अन्तःपुर के शर से युक्त शरीर को धारण करने वाली हजारों महिषियों अर्थात् भैसों से मुक्त होता है उसी प्रकार राजगृह नगर भी केशर से लिप्त शरीर को धारण करने वाली हमारों महिषियों अति रानियों से सुशोभित है ।१५३ ___राजगृह नगर की स्त्रियों का वर्णन करता हुआ कवि "गौर्यश्च विभवाश्रयाः१५ पद का प्रयोग करता है जिसका तात्पर्य यह है कि उस नगर की स्त्रियाँ ''गौरी" अर्थात् पार्वती होकर भी "विभवाश्या' अर्थात् महादेव के माश्रय से रहित यों (पस में--गौर्यः अर्थात् गौर वर्ण होकर विभवाश्रयाः अर्थात् सम्पदाओं से सम्पन्न थी)।
एक स्थान पर राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कवि कहता है
"वह नगर (राजगृह) मानों श्रिपुर नगर को ही जीतना चाहता है क्योंकि जिस प्रकार त्रिपुर नगर के निवासी मनुष्य 'ईश्वरमार्गणः' अर्थात् महादेव के माणों के द्वारा किये हुए सन्ताप को प्राप्त है उस प्रकार उस नगर के मनुष्य
१६१. पदम २।२४६-२४७ । १६२. पदम० २१२४८-२४९ । १६३. महिषीणां सहस्र यस्कुलमाञ्चितविग्रहः।
धर्मान्तःपुरनिर्भासं पत्ते मानसकर्षणम् ।। पद्म २।३४ । १६४. पदम० २१४५ ।
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३२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति 'ईश्वरमार्गणः' अर्थात् धनिकवर्ग की याचना से प्राप्त सन्ताप को प्राप्त नहीं थे--११५ सभी सुखी थे।"
राजा ग्रेणिक का वर्णन करते हुए रविर्षेण विष्णु, महादेव, इन्द्र और यमराज की चेष्टाओं का सल्लेख करते हैं
'हरि अर्थात् विष्णु की चेष्टायें तो वृषघाती अर्थात् वृषासुर को नष्ट करने बाली थीं, पर (राजा श्रेणिक की) पेष्टायें वृषघाती अर्थात् धर्म का घात करने बाली नहीं थीं। महादेव जी का वैभव दक्षवतापि अर्थात् राजा दक्ष के परिवार को सान हुंचा पाला या परन्तु उसका संभव दक्षधर्मतापि अर्थात् चार मनुष्यों के समूह को सन्ताप पहुँचाने वाला नहीं था ।
"जिस प्रकार इन्द्र की चेष्टा गोत्रनाशकारी अर्थात् पर्वतों का नाश करने वाली थी उसी प्रकार उसकी चेष्टा गोत्रनाशकारी अति वंश का नाश करने वाली नहीं थी और जिस प्रकार दक्षिण दिशा के अधिपति यमगज के अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् दण्च धारण करने में अधिक प्रीति रहती है उसी प्रकार उसके अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् बहुत भारी सजा देने में प्रोति नहीं रहती थी ।१५७
अज्ञ का जैन परम्परा में निषेच किया गया है। इसी की पुष्टि करते हुए रविषेण कहते हैं--या की कल्पना से कोई प्रयोजन नहीं है (यज्ञ की कल्पना करना ही व्यर्थ है) अदि कल्पना करना ही है तो हिसायज्ञ की कल्पना नहीं करना चाहिए. 1१५८ बस्कि धर्मवज्ञ की कल्पना करनी चाहिए। इस धर्मयज्ञ का जो स्वरूप रविषेण ने निर्धारित किया उसे वास्तव में वैदिक यज्ञ का जैनीकरण ही किया जाना कहना चाहिए। तदनुसार आत्मा यजमान है, शरीर वंदी है, सन्तोष साकल्य है, स्पाम होम है, मस्तक के बाल कुशा है, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान (उत्कृष्टध्यान) प्राणायाम है, सिद्धपद की प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्न है, ता अग्नि है, चंचल मन पशु है और इन्द्रियों समिधायें हैं। इन सबसे यज्ञ करना चाहिए, यही धर्मयज्ञ कहलाता
--- - ---- १६५. सन्तापमपरिप्राप्तः कृतमीश्वरमार्गणः ।
मनुजैर्यत्करोतीव त्रिपुरस्य जिगीषुताम् ।। पदम० २।३६ । १६६. वृषघातीनि नो यस्य चरितानि हरेरिव ।
नैश्चर्य चेष्टितं दशवर्गतापि पिनाकिवत् ।। पद्म० २०६१ । १६७. गोत्रनाशकरी चेष्टा नामराधिपतेरिष ।।
नाति दण्डग्रहप्रीतिर्दक्षिणाशा विभोरिघ ।। पद्म० २।६२ । १६८. वही, ११।२४१ ।
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पद्मचरित का परिचय : ३३ है।११ ज्ञानाग्नि दर्शनाग्नि और जठराग्नि शरीर में सदा विद्यमान रहती है, विद्वानों को उन्हीं में दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और माहवनीयाग्नि इन तीन अग्नियों की स्थापना करनी चाहिए । १७०
७६ पर्व में लक्ष्मण के द्वारा छोड़े गये चक्र को रोकने में उद्यत रावण की उपमा हिरण्यकशिपु से की गई है___ "जिस तरह पूर्व में नारायण के द्वारा चलाए हुए धक्र को रोकने के लिए हिरण्यकशिपु उद्यत हुआ था, उसी प्रकार कोष से भरा रावण बाणों के द्वारा चक्र को रोकने के लिए उद्यत हुआ ।"१७१
८२वें पर्व में साहसगति विद्याधर को वुत्र का नाती कहा गया है । १७१
९७३ पत्र में सीता के रथ का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस पर राम रूपी इन्द्र की प्रिया-इन्द्राणी मारूद थी, जिसका वेग मनोरथ के समान तीन था और जिसके बोड़े कृतान्तवका रूपी मातलि के द्वारा प्रेरित थे ऐसा वह रण अत्यधिक सुमित हो रहा था ।१७३
(सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्मा है इस प्रकार) ब्रह्मतावाद में मूढ़ तथा पशुओं की हिसा में आसक्त रहने वाले दो बाह्मणों की (१०९वा पर्व में) हंसी उड़ाते हए कहा गया है कि इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक समस्त प्रजा को लूट डाला है । १७४ प्राह्मणों का जैन दृष्टि से लक्षण देते हुए कहा गया है कि यथार्थ में वे ही ब्राह्मण कहलाते हैं जो अहिंसावत को धारण करते हैं । ७५ पो महावत रूपी लम्बी चोटी धारण करते हैं, जो श्रमा रूपी यज्ञोपवीत से सहित है, जो ध्यान रूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शान्त है तथा मुक्ति के सिम करने में तत्पर
१६९. यजमानो भवेदात्मा शरीरं तु वितदिका ।
पुरोडाशस्तु संतोषः परित्यागस्तथा हविः ।। मूर्धजा एव दर्भाणि दक्षिणा प्राणिरक्षणम् । प्राणायामः सितं ध्यानं यस्य सिद्धपदं फलम् ।। सत्यं यूपस्तपो वह्निमनिसंसपलं पशुः ।
समिधाच हषीफाणि धर्मयज्ञोऽयमभ्यते । पदमः ११०२४२-२४४ । १७०. पद्म० ११५२४८ । १७१. हिरण्यकशिक्षिप्तं हरिणेव तदायुधम् ।
निवारयितुमुद्युक्तः संरधो रावणः शारः ॥ पद्म ७६।३० । १७२. १०० ८२।४५ । १७३. पम० ९७४८० । १७४, वही, १०९/७९ ।
१७५. वही, १०९५८० ।
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३४ : पदमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
हैं वे हो ब्राह्मण कहलाते है । इसके विपरीत जो सब प्रकार के बारम्भ में प्रवृत्त है तथा निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं ये केवल यह कहते है कि हम ब्राह्मण हैं, परन्तु क्रिया से ब्राह्मण नहीं हैं । १७७ जिस प्रकार कितने ही लोग सिंह, देव अथवा अग्नि नाम के धारक हैं उसी प्रकार व्रत से भ्रष्ट रहने वाले ये लोग भी ब्राह्मण नाम के धारक है, इनमें वास्तविक जाह्मणत्व कुछ भी नहीं है। १७८ जो ऋषि, संयत, धीर, शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय हैं ऐसे में मुनि हो धन्य है तथा वास्ततिम पहाण है। १७१
सामान्यतः परिव्राजक शब्द से ब्राह्मण धर्म के अनुयायी विशेष प्रकार के साघुओं का ही बोध होता है लेकिन पद्मचरित के अनुसार जो परिग्रह को संसार का कारण समझ उसे छोड़ मुक्ति को प्राप्त करते है वे परिवाजक कहलाते हैं। यथार्थ में निम्रन्थ मुनि ही परिणामक है, ऐसा जानना चाहिए । १८०
८५३ पर्व में वैदिक धर्म द्वारा उपदिष्ट पशुहिंसा के संकल्प का दुष्परिणाम बतलाया गया है ।१८९
चतुर्थ पर्व में ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन कर दीक्षा से च्युत भृगु, अंगिशिरस, वन्हि, कपिल, अत्रि, विद आदि अनेक साधुओं का निर्देश किया गया है, जो अज्ञानवश वल्कलों को धारण करने वाले तापसी हुए थे । १८२ इन सबके नाम वैदिक ऋषियों की परम्परा में मिलते हैं। सप्तम पर्व में इस प्रकार के मनुष्यों को क्रियाओं के विषय में कहा गया है कि भले ही पृथ्वी पर सोबे, चिरकाल तक भोजन का त्याग रख्ने, रात-दिन पानी में डूबा रहे, पहाड़ की चोटी से गिरे और जिससे मरण भी हो जाये ऐसी शरीर सुलाने वाली क्रियायें करे तो भी पुण्यरहित जीव अपना मनोरथ सिद्ध नहीं कर सकता । १८५
एकादश पर्व दार्शनिक विवेचन की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है इसमें हिंसामय पज्ञ की उत्पत्ति, अनेक यज्ञों तथा उनमें की जाने वाली क्रियाओं का उल्लेख, यजों का खण्डन, सर्वज्ञ नहीं है, इसका उपस्थापन पूर्वक सर्वश सिद्धि, पाहाणादि चार वर्षों के विषय में जन्मना मान्यता का विरोध, सृष्टि कर्तृत्व के विषय में पूर्वपक्ष की स्थापना तथा उसका खण्डन आदि महत्वपूर्ण विषय वर्णित हैं। इसके माध्यम से जैनधर्म और ब्राह्मण धर्म को मान्यतायें तथा उनके विभेद को अच्छी तरह समझा जा सकता है।
१७६. पद्मः १०९।८१ । १७८. घही, १०९६८३ । १८.. दही, १०९।८६ । १८२. वही, ४१२६ ।
१७७. पदमः १०९८२ । १७९. वही, १०९८४ । १८१. वही, ८५।५७-६२ । १८३. वही, ७३१९-३२० ।
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अध्याय २
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सामाजिक व्यवस्था सर्वप्रथम भरत क्षेत्र में भोगभूमि यो 1 स्त्री पुरुष का जोड़ा साथ ही साथ उत्पन्न होता था . ही न म मी की -3 पले-बड़े बाग-बगीचे और विस्तृत भूभाग से सहित महल, शयन, आसन, मद्य, इण्ट और मधुर पेय, भोजन, वस्त्र, अनुलेपन, तुरही के मनोहर शब्द, दूर-दूर तक फैलने वाली सुन्दर गन्ध तथा अन्य अनेक प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती थी। इस प्रकार वहां के दम्पती दस प्रकार के सुन्दर कल्पवृक्षों के नीचे देव दम्पती के समान दिन-रात क्रीडा किया करते थे । स्त्री पुरुषों के परस्पर निकट रहने के साथ ही सामाजिक जीवन का प्रारम्भ माना जा सकता है । तृतीय काल का अन्त होने के कारण जब कल्पवृक्षों का समूह नष्ट होने लगा तब चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । कुलकरों के कार्य के सम्बन्ध में इन्हें 'व्यवस्थानां प्रदेशकः४ अर्थात् व्यवस्थाओं का निर्देश करने वाले कहा गया है । अतः सामाजिक यवस्था का विशेष आरम्भ यहाँ मानना चाहिए । प्रजाओं के कुलों की वृद्धि करने के कारण (या वृद्धि का निर्देश देने के कारण) ये पिता के समान कहे गये है।" इस समय इसुरस जो कि लोगों का प्रमुख आहार था अपने आप निकलना बन्द हो गया । लोग यन्त्रों के द्वारा ईख पेलने तथा उसके संस्कार करने की विधि नहीं जानते थे इसलिए भूख से पीड़ित होकर भ्याकुल होने लगे तब ऋषभदेव ने प्रजा को सैकड़ों प्रकार की शिल्पकलाओं का उपदेश दिया। उन्होंने नगरों का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि बनाने की कला प्रजा को सिखाई। इन सबके सहयोग से सामाजिक जीवन का विकास होता गया। परिवार
परिवार सामाजिक जीवन की रीढ़ है । परिवार में पति और पत्नी के अतिरिक्त माता-पिता, भ्राता-भगिनी, पुत्र-पुत्री आदि रहते हैं। साधारणतया
१. पड्मचरित ३५१ । ३. वही, ३।७४ । ५. वही, ३८८ ! ७. वही, १२३५ ।
२. पद्म ३०६१-६३ । ४. वहीं, ३१७६। ६. वही, ३।२३४ ।
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३६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति परिवार के सदस्यों के पारिवारिक सम्बन्ध अच्छे होते थे । परिवार का स्वामी वयोवद्ध सदस्य या पिता होता था। पिता की फीति का बहुत ध्यान रखा जाता था। कैकेयी जब वन में जाकर राम को लौटाने का यत्न करती है तब राम कहते है कि पिता जी ने जो बचन कहे थे उनकी पूर्ति मुझे, तुम्हें तथा भरत सभी को करना चाहिए। पिता की अपकीति जगत्त्रय में न फैले इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है ।' पिता के समान ही माता को भी सम्मान दिया जाता था। पिता दकारथ कैकेयी को वर देले समय जब द्विविधा में फंस जाते हैं तब रामचन्द्र जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि पुत्र को वही कार्य करना चाहिए जिससे माता-पिता किंचित् भी शोक को प्राप्त न हो । माता-पिता को पवित्र करना अथवा शोक से उनकी रक्षा करना ही पुत्र का पुत्रत्व है।' भाई का भाई के प्रति अनूठे प्रेम का उदाहरण लक्ष्मण के चरित्र में मिलता है जो बिना ऊहापोह किये भाई के साथ चलने की तैयारी करते हुए कहते हैं-मुझे इस अनुचिल विचार करने से क्या प्रयोजन ? क्योंकि बड़े भाई राम तथा पिता ही यह कार्य उचित है अथवा अनुचित, यह अच्छी तरह जानते हैं। अतः मैं उत्तम कार्य करने वाले भाई के साथ ज्ञाता हूँ। कहीं-कहीं पर अहंकारवश अथवा स्वार्थवश इसके अपवाद भी मिल जाते हैं जैसे-भरत तथा बाहुबलि का युद्ध । ऐसे समय हम दोनों एक ही पिता के पुत्र है ऐसा मानकर दो भाई विरुद्ध भी हो जाते थे।"
पस्नी पति को ही सब कुछ समझती थी। अनुचित व्यवहार किये जाने पर . भी पति को दोष न देकर वह इसे अपने कर्मों का ही फल मानकर पति की कल्याणकामना के साथ उसे उचित सलाह देने का यत्न करती थी। पति द्वारा परित्यक्ता सीता राम के प्रति कहती है-हे राम! आप उत्कृष्ट चेष्टा के घारक है, सद्गुणों से सहित है और पुरुषता से युक्त है । मेरे त्यागने में आपको लेशमात्र भी दोष नहीं है । १२ जब मेरा अपना कर्म उदय में बा रहा है तर पति, पुत्र, पिता, नारायण अथवा अन्य परिवार के लोग क्या कर सकते है। लेकिन इस तरह आप सम्यग्दर्शन को न छोड़ें, क्योंकि मेरे साथ वियोग को प्राप्त ८. पद्भ० ३२११३१ । ९. जातेन नन पुरेण तत्कर्तव्यं गृहेषिणा !
येन नो पितरो शोकं कनिष्ठमपि गच्छतः ।। पुनाति प्रायते चायं पितरं येन शोकतः ।
एतत्पुत्रस्य पुत्रत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। पद्म० ३१११२६-१२७ । १०. वही, ३१११९८-१९९ ।
११. वही, ४।६७ । १२, वही, ९७४१५५ ।
१३. वही, ९७४१५७ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ३७ हुए आपको इसी मष में दुःख होगा। परम्सु सम्यग्दर्शन के छूट जाने पर तो भव-भष में दुःख होगा। कृतान्तवत्र सेनापत्ति सीता को छोड़कर राम के पास माकर कहता है--"सोता देवी ने कहा है कि यदि अपना हित चाहते हो तो मापने जिस प्रकार मुझे छोड़ दिया है उस प्रकार जिनेन्द्रदेव में भक्ति को नहीं छोड़ना।"१५
नारी की स्थिति
पदमचरित में प्रतिपादित पारिवारिक संगठन पितृसत्तात्मक होने पर भी समाज में नारियों की प्रतिष्ठा थी। पति के प्रत्येक कार्य में वे सहयोग दिया करती थीं। किसी प्रकार की शंका या कार्य उपस्थित होने पर पत्नी निःसंकोच पति के पास जाकर शिष्टाचारपूर्वक निवेदन करती थी। सोलह स्वप्न दिखाई देने पर मरुदेवी पति के पास जाकर मीचे आसन पर बैठी और उत्तम सिंहासन पर आरूढ़ हृदयषल्लभ को हाथ जोड़कर क्रम से स्वप्नों का निवेदन किया । १५
माता के रूप में नारी अपरिमित श्रद्धा का भाजन थी। विजयाभिगमन के अबसर पर लव और कुश माता को प्रणाम कर मंगलाचार पूर्वक घर खे निकले।" पत्नी के रूप में नारी पति को कुमार्ग में भटकने से बचाने का सदैव प्रयत्न करती थी। सीता की प्राप्ति हेतु युद्ध में प्रवृत्त रावण को समझाती हुई मम्बोदरी कहती है--"भापका यह मनोरय अत्यन्त संकट में प्रवृत्त हुआ है, इसलिए इन-इन इन्द्रिय रूपी घोड़ों को शीघ्न रोक लीजिए। आप तो विवेक रूपी सुदृढ़ लगाम को धारण करने वाले हैं। आपकी उत्कृष्ट धीरता, गम्भीरता और विचारकता उस सीता के लिए जिस कुमार्ग से गई है हे नाथ ! जान पड़ता है आप भी किसी के द्वारा उसी कुमार्ग से ले जाये जा रहे है ।"१६ पिता के घर पुत्री का लालन-पालन बड़े स्नेह से होता था। परन्तु पुत्री के यौवन अवस्था प्राप्त कर लेन पर पिता को यह चिन्ता लग जाती थी कि कन्या उसम पति को प्राप्त होगी या नहीं । २० कन्याओं की शिक्षा-दीक्षा का पूरा प्रबन्ध किया जाता पा। गन्धर्ष आदि विद्याओं में निपुण होती थीं।२१ आभूषण धारण करने की प्रथा स्त्रियों में प्रचलित पो ।२२ चंबर टोने, पाम्या बिछाने, बुहारने, पुष्प
१४. पदमः ९९।४०, ४१ 1 १६. वही, ३५१५२ । १८. वही, ७३।५१, ५२ 1 २०. वही, १५।२४ । २२. कही, ७११६, ३३१०२।
१५. पद्मः ९९॥३६ । १७. वही, १०१।३७ । १९. वही, ६४।६१। २१. वहीं, १५१२०, २४।५ ।
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३८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
विकीर्ण करने, सुगन्धित द्रव्य का लेप लगाने, भोजन पान बनाने आदि कार्यों में उनकी निपुणता का उल्लेख मिलता है । २३ विवाह प्रथा
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गृहस्थ जीवन में प्रवेश के निमित्त युवा और युवती को एक सूत्र में बाँधने के लिए विवाह होता था। भोगभूमि के समय स्त्री-पुरुष का जोड़ा साथ ही उत्पन्न होता था और प्रेमबन्धन बद्ध हुए साथ ही उनकी मृत्यु हो जाती थी। बाद में विवाह सम्बन्धी कई प्रयायें प्रचलित हुई। किसी शुभ दिन जबकि सौम्यग्रह सामने स्थित होते थे, क्रूर ग्रह विमुख होते थे और लग्न मंगलकारी होती थी, तब स्त्रियों के मंगलगीत तुरही की ध्वनि आदि क्रियाओं के साथ कम्या को लेकर पिता वर के घर पर ही विवाह कार्य सम्पन्न करा देते थे । २५ कभी-कभी कर के किसी सुन्दर रूप और गुणों वाली कन्या पर आसक्त हो जाने पर वह स्वयं अथवा उसका पिता कन्या के पिता से कन्या की प्राप्ति हेतु याचना करता था | पिता उसके कुल, रूप, गुण तथा आयु आदि का विचार कर स्वीकृति या में अस्वीकृति देते थे । अस्वीकृति देने पर कभी-कभी युद्ध होता था और युद्ध यदि वर पक्ष जीत जाता था तो उसके बल और पौष से प्रभावित होकर या से दिवसा के कारण उसे कन्या देनी पड़ती थी ।२७ यहाँ प्रेम विवाह के बहुत उदाहरण मिलते है । प्रेम का प्रारम्भ कभी कन्या की ओर से होता था कभी वर की ओर से । कभी कभी दोनों एक दूसरे को देखकर प्रेमपाश में बंध जाते थे । १० मापर्व विवाह के साथ स्वयंवर प्रथा के भी उल्लेख मिलते हैं । स्वयंवर पद्धति में पुत्रों का पिता अनेक लोगों को आमन्त्रित करता था । सुखज्जित मंध के ऊपर राजाओं को बैठाकर प्रतिहारी क्रम-क्रम से कन्या को राजाओं का परिचय देवी जातो थी। अन्त में जिस वर को कन्या वाहती थी उसके गले में वरमाला डाल देती थी । २३ तदनन्तर लोगों के द्वारा विभिन्न प्रकार के १४ कभी-कभी कौतुक और मंगलाचार के साथ कन्या का पाणिग्रहण होता था ।
६८
३१
२३. पद्म० ३।११८-१२० ।
२४. पद्म० ३१५१ । २५. पद्म अष्टम पर्व में मन्दोदरी का दशानन के साथ विवाह । २५. वही, १०१४ - १० ।
b
२७. वही, ९३ पर्व का श्रीराम का श्रीशमा और मनोरमा कन्या की प्राप्ति
का वर्णन !
२८. वही, ८१०७, ८ १०१ ।
३०. वही, ६११९ ।
३२. वही, २४१८९ । ३४. वही, २४११२१ ।
२९. वही, ९३।१८ ।
३१. बही, ८ १०८ ।
३३. वही, २४१९० ।
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सामाजिक व्यवस्था : ३९
मिता द्वारा कन्या के लिए विशेष वर का निर्धारण हो जाने पर भी किसी वियोष कारणवश कोई आवश्यक शर्त रख दी आती थी कि ओ उस शर्त को पूरा करेगा उसे ही कन्या दी जायगी । उदाहरणस्वरूप विधाघरों ने राजा जनक के सामने यह शर्त रखी कि बजावत धनुष को पढ़ाफर हो राम सीता को ग्रहण कर सकते ६५ र म श को राजा
उन्का सीता के साथ विवाह होता है। कभी-कभी घर की धीरता, धीरता तथा कुल और शील का परिचय प्राप्त करने के लिए युद्ध की आवश्यकता पड़ती थी 14 वर में जितने गुण होने पाहिए उनमें शुद्धवंश में जन्म लेना प्रमुख माना जाता था। कुल, शील, धन, रूप, समानता, बल, अवस्था, देश और विद्यागम ये नौ वर के गुण कहे गये है। उनमें भी कुल को श्रेष्ठ माना गया है । कुल मामका प्रथम गुण जिस पर में न हो उसे कन्या नहीं दी जाती थी ।१९
स्नान-पद्मचरित से उस समय के राजवर्ग को ही स्नानविधि का विशेष रूप से पता चलता है। सामान्य लोगों की स्नानविषि क्या थी इसके विषय में यहाँ कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। स्नान करने से पूर्व सुगन्धित हितकारी तथा मनोहरवर्ण वाले तेल का मर्दन किया जाता था, पश्चात् प्राण और शरीर के अनुकूल पदार्थों का उर्तन ( उपटन ) किया जाता था।४० उद्वर्तन के बाद फैलती हई कान्ति से युक्त उत्तम मासन पर स्नान करने वाले व्यक्ति पूर्व दिया की ओर मुख कर विराजमान होता था ।' पश्चात् स्नान की विधि प्रारम्भ होती थी। उस समय मन को हरण करने वाले लपा सब प्रकार की साज सामग्री से युक्त बाजे बजाये जाते थे ।४२ स्नान कराने का कार्य प्रायः नय यौवनवती स्त्रिया करती थीं । ४३ राज्याभिषेक के समय उपस्थित लोग राणा की अयजयकार करते थे।४४ राजा के अभिषेक के बाद पटरानी का भी अभिषेक होता था।
स्नान में प्रयुक्त पात्र-स्नान कराने के लिए चांदी, स्वर्ण, मरकत
३५. पद्म० २८११७१ । ३७. वही, ६४९। ३९. वही, १०१।१६। ४१. वही, ७२।१६, ८०७३ । ४५. वही, ७२।१३, १४ । ४५. वही, ८८।३३। ४७, वही, ७२।१३।
३६. पदभः १.१०६.। ३८. वही, १०१।१४, १५ ॥ ४०. वही, ८०७२। ४२. वही, ८०७४। ४४. वही, ८८३२। ४६. वही, ७२।१२।
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४० : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति मणि, हीरा,४५ स्फटिक मणि,५० इन्द्रनील मणि५१ तथा रत्न५२ के फलशों के उपयोग करने का उल्लेख मिलता है। रंग की दृष्टि से प्रातःकालीन धूप के समान लालवर्ण५६ के कलश तथा कदली वृक्ष के भीतरी भाग के समान सफेद रंग के कलशों के प्रयोग की बात कही गई है। कई कलश ऐसे भी होते ये को सुगन्धि के द्वारा अमर समूह को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे ।
भोजन-पान-पद्मचरित की संस्कृति कृषि प्रधान संस्कृति है। इस फारण भोजन-गान की रुपरा: हिला को साटी पर किया गया । यद्यपि मांसाहार के भी उल्लेख प्राप्त होते है किन्तु उसे सामाजिक बोर धार्मिक दृष्टि से निन्दित और गहित स्वीकार किया गया है । सूर्य की किरणों से प्रकाशित, अतिशय पवित्र, मनोहर, पुष्प को बढ़ाने वाला, आरोग्यदायक और दिन में ही ग्रहण किये जाने योग्य भोजन ही प्रशंसनीय माना गया है। रात्रि मोजन की पहाँ अत्यधिक निम्बा की गई है। भोजन के लिए एक विशेष प्रकार के वातावरण पर अधिक ध्यान दिया जाता था । मन, प्राण और मेत्रों के लिए अभीष्ट जो भी वस्तुएँ वनों से उत्पन्न होती थीं उन्हें लाकर भोजन भूमि में एकत्रित करने का प्रयत्न किया जाता था। षट्स५९ भोजन का यहाँ उल्लेख हुआ है। पद रस के अन्तर्गत कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर, कषाय और लवण पाते हैं । पदमचरित में प्रमुख रूप से चार प्रकार को भोजन सामग्री का उल्लेख है
१. अन्न भोजन । २. फल भोजन । ३. पक्वान्न भोजन । ४. शाक भोजन । अन्न भोजन-इसके अन्तर्गत निम्न प्रकार के अम्न थे
शालि"-हेमन्त ऋतु में होने वाला एक विशेष प्रकार का चावल, जिसका पौधा रोपा जाता है।
४८. पद्म ८०७५ ।। ५०. वही, ८०।७५ । ५२. वही, ८८1१०1 ५४. वही, ७२।१५। ५६. वही, ५३११४१ । ५८. वहीं, ८०७८ । ६०. वही, ५३११३५ ।
४९. पद्म ८०।७५ । ५१. वही, ८१७५ ५३. वही, ७२।१५ । ५५. वही, १४१२६६ । ५७. वही, १४॥२७२-२७४, १०६।३२, ३३॥ ५९. वही, ५३।१३६ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ४१
गोधूम" गेहूँ, जिसकी उपज उत्तर पश्चिमी भारत में विशेष रूप से
होती है ।
राजभाष --एक विशेष प्रकार का उड़द जिसे हिन्दी में बटी या रौंसा कहते है ।
१३.
मुद्ग * मूंग 1 इसकी दाल बनाई जाती है। अन्य प्रकार से भी इसका उपयोग होता है ।
काशीपुर मीठ | यह मूंग की तरह प्रयोग में लाया जाने वाला खाद्यान्न है ।
जीरक १५ –जोरा । यह भोजन को रुचिकर बनाने में प्रयुक्त गर्म मसाला है ।
सूप-दाल ।
६७
माष अर्थात् उड़द । इसकी दाल बनाई जाती है ।
पायस " - खीर का व्यवहार प्राचीन काल से होता आया है । वाल्मीकि रामायण में भी इसका उल्लेख हुआ है। पद्मचरित में कोशल्या पताका शिखर पर बैठे हुए काक से कहती है-रे यायस | उड़-उड़ | यदि मेरा पुत्र राम आयगा तो मैं तुझे खीर देऊँगी । १२१वें पर्व में उत्तम गन्व रस और रूप से युक्त खीर का आहार मुनिराज को समर्पित करने का उल्लेख आया है ।" कोद्रव " ७० कोदों ।
७५
व्यंजन - 'व्यंजनं येनान्नं रुचिमापद्यते तद्दधिघृतशाक सूपादिः' अर्थात् जिन पदार्थों के मिलाने से या खाने से खाद्य पदार्थ में रुचि अथवा स्वाद उत्पन्न होता हं वे दधि, घृत, शाक और दाल आदि पदार्थ व्यंजन कहलाते हैं । पद्मचरित में पिण्ड बांधने योग्य तथा रस से भरे हुए नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का उल्लेख माया हूँ | ७२ फल भोजन
--फल भोजन के अर्न्तगत पिण्डखर्जूर,
दाडिम७४ (अनार),
६१. पद्म० १०२ १०९, २९ ।
६३. वही, २७ ।
६५. बही, २६ ।
६२. पद्म० २१८
६४. बही, २७ ।
६६. वही, ५३॥१३५ ।
६७. वही, २३८४७ ।
६८. वही, ८८५ ।
६९. वही १२१ १६, १७ ।
७०. वही, १३१६८ ।
७१. नेमिचन्द्र शास्त्री आदि पुराण में प्रतिपादित भारत ।
७३. पद्म० २।१९ ।
७२. पद्म० ५३।१३६ । ७४. वही, २।१६ ।
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४२ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति मातुलिंगी ५ (बिजोरा), द्राक्षा" (दाख), नालिकेर (नारियल), आमलक (आँवला), नीप, कपिरथ (कथा), कदली८५ (केला), पूग २ (सुपाड़ी), कंकोल, लवंग, खजूर,५ इंगुद," मान" (आम) रसदार बेर, “ जम्मू (जामुन), बिमीतक० (बहेड़ा), अक्षोट' (अखरोट), नारिंग'२ (नारंगी), एला (इलायची), स्पन्दनविस्व ४ (दू), चिरबिस्व (बेल) तथा कम्यु (घर) के नाम आये हैं। पक्वान्न भोजन
अपूप -पुआ भारत का पुराना पक्वान्म है। गेहें के आटे को चीनी और पानी में मिलाकर घी में मन्दमन्द आँच में उतारे हुए माल पूए अपूप कहलाते पे । अपूप कई प्रकार के बनाये जाते थे 1 गुडापूप गुष्ठ हालकर बनाये जाते थे और तिलापूप तिल डालकर तैयार किये जाते थे। ये आजकल के अंदरसे के तुल्य होते थे। भ्रष्टा अपूप आजकल की नानखटाई या खौरी है। भाड़ में रखकर इनको सेका जाता था । चीनी में मिलाकर बनाये हुए भ्रष्टा अपूप वर्तमान विस्कुट के पूर्वज हैं। चूर्णिन अपूप गृझे या गुझिया है। ये कसार या आटा भीतर रखकर बनाये जाते थे । ९८
घनबन्ध -घेवर। शर्करा मोदक १००-शक्कर से बने हुए लड्डू 1
७५. पद्म० २।१७ ।
७६. पदमा २।१८। ७७. वही, २०१५।
७८. वही, ६०९१ । ७९. वही, ६.९१ ।
८०. वही, ६१९१ । ८१. वही, ६।९१ ।
८२. वही, ६.९२ । ८३, वही, ६९२ ।
८४. वही, ६।२३ । ८५, नही, ४१।२६ ।
८६. यहो, ४१०२६ । ८७. वही, ४१।२६ ।
८८. वही, ४१॥२६ । ८९. बहीं, ३।४८ ।
९०. वही, ४२।११। ९१, बही, ४२११।
९२. वही, ४२।१६। १३. बही, ४२।१९ ।
९४. वही, ४२१२० । ९५. वही, ४२॥२०॥
९६. वही, ९९।४८ । ९७. वही, ३४।१३। ९८. हौ. नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत । ९९. पद्म ३४.१३ 1 १००, पद्म ३४६१४ ।
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कर्करा १०१ – मिश्री । खंडमोदक १०२ खांड़ के लट्टू ।
| १०३ – कचौड़ी
शष्कुली
पूरिका १०४ पूड़ियाँ |
गुडपूर्णिकापुरका ५ गुड़मिश्रित पूड़ी ।
१०५ (मेथी),
शाक भोजन - शाक भोजन के अन्तर्गत मैथिक (सेम), पनस ( कटहल ), चित्रभूत १०९ ( ककड़ी) तथा कूष्माण्ड (काशी
१०८
फल) के नाम आते हैं ।
पेय पदार्थ
सामाजिक व्यवस्था ४३
१०१. पद्म० १२० १२३ । १०३. वही, ३४।१४ ।
१०५. वही ।
१०७. वही, ४२/२१ । १०९. वही, ८० १५४ ।
१११ ही ११८१५ ।
P
शामली
.११०
मदिरा १११ - पद्मचरित में प्रसंगानुसार स्थान-स्थान पर मदिरापान के उल्लेख मिलते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों मदिरापान करते थे। कामक्रीडा के सहायक द्रश्यों में इसकी प्रमुखता बतलाई है । ७३वें पर्व में इसका सांगोपांग वर्णन है। रात्रि में होने वाली क्रीड़ाओं का उल्लेख करते हुए कवि कहता है"उस समय कितने ही लोग ताम्बूल, गन्धमाला आदि देवोपम उपभोग से मदिरा पीते 'हुए अपनी वल्लभाओं के साथ कोड़ा करते थे। नशा में निमग्न कोई एक स्त्री मदिरा के प्याले में प्रतिबिम्बित अपना ही मुख देख ईर्ष्याविश नीलकमल से पति को पीट रही थी। स्त्रियों ने मदिरा में अपने मुख को सुगन्धि छोड़ी थी और मदिरा ने उसके बदले स्त्रियों के नेत्रों अपनी लालिमा छोड़ी थी। कोई एक स्त्री मदिरा में पड़ी हुई अपने नेत्रों की कान्ति को नीलकमल समझ ग्रहण कर रही थी अतएव पति ने उसकी चिरकाल तक हँसी की कोई एक स्त्री यद्यपि प्रौढ़ नहीं थी तथापि धीरे-धीरे उसे इतनी अधिक मदिरा पिला दी गई कि वह काम के योग्य कार्य में प्रोढ़ता को प्राप्त हो गई अर्थात् प्रौढ़ा स्त्री के समान कामभोग के योग्य हो गई । उस मदिरा रूपी सखी ने लज्जा रूपी सखी को दूर कर उन स्त्रियों को पति के विषय में ऐसी क्रीड़ा कराई जो उन्हें अत्यन्त इष्ट भी अर्थात् स्त्रिय मंदिरा के कारण लज्जा छोड़ पतियों के साथ इच्छानुकूल क्रीड़ा करने लगीं। जिसमें नेत्र घूम रहे ये तथा बार-बार मधुर अधकटे शब्दों
में
१०७
१०२. पद्म० ३४।१४।
१०४. वही, ३४।१४, १२०/२३ ।
१०६. वही, ४२१२० ।
P
१०८. वही ५३।१९७ । ११०. वही, ८० १५४ ।
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४४ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति का उच्चारण हो रहा था ऐसी स्त्रियाँ और परुषों की मन को हरण करने वाली चेष्टा होने लगी। पीते-पीते जो मदिरा शोष बच रही थी उसे भी दम्पति पी लेना चाहते थे । इसलिए तुम पिओ, तुम पिओ, इस प्रकार जोर से शब्द करते हुए प्याले को एक दूसरे की ओर बढ़ा रहे थे। १२ किसी सुन्दर पुरुष की प्रीति प्याले में समाप्त हो गई थी इसलिए वह वल्लभा का आलिंगम कर नेत्र बन्द करता हुआ उसके मुख के भीतर स्थित कुरले की मदिरा का पान कर रहा पा।१११३ मृत लक्ष्मण को मोहवश रामचन्द्र जी जीवित समझकर कहते है कि हे लक्ष्मोधर (लक्ष्मण) तुम्हें यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नीलकमल से सुशोभित पानपात्र में रखी हुई इस मदिरा को पिमओ।१४
मधु११५-पेय पदार्थों में मघ का भी नाम आता है। सैनिकों में पधपान प्रचलित था । स्त्री-पुरुष की कामक्रीडा के बीच मधु सहायक द्रप का काम देता पा।११६
दूध और दूध के बने पदार्थ पेय पदार्थों में दूध और दूध से बने पदार्थ दही,११८ रबड़ी,११९ घो१२० आदि का उल्लेख आता है । उपमा के प्रसंग में भी दूध, दही का नामोल्लेख हुआ है। ५१ पर्व में दधिमुख द्वीप का वर्णन करते हुए रविषण कहते है-'उस दघिमुख द्वीप में एक दधिमुख नाम का नगर था जो पही के समान सफेद महलों से सुशोभित तथा लम्बावमान स्वर्ण के सुन्दर तोरणों से युक्त था।१५१ मगध देश के पोड़ों और ईखों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इनकी शोभा ऐसी है कि दूध के सिंचन से ही मानों उत्पन्न हुए है।"५२२
इक्षुरस-सुरस का प्रयोग भारत में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। भीगभूमि के समय इक्षुरस ही प्रजा का उत्तम बाहार था । उस समय यह छहों रमों से सहित, बल-धीर्य करने में समर्थ तथा स्वयं बड़ने वाला था।१२३ राजा यांस ने ऋषभदेव को मर्वप्रथम पारस का आहार दिया था । इक्षुरस से गुड, लांड़, चीनी, मिश्री तथा तरह-तरह की मिठाइयां आदि बनाई
११२. पद्म ७३।१३६-१४४ । ११३. वही, ७३।१४५ । ११५. वही, १०२।१०५ । ११७. वही, ५३।१३७ । ११९. वहीं, ५३।१३७ 1 १२१. वहीं, ५११२। १२३. वहीं, ३।२३३ ।
११४. घही, ११८।१५। ११६. वही, ७३।१३९ । ११८, घही, ५३।१३७ । १२०. वहीं, ८०७७ । १२२. वही, २।४। १२४. वही, ४११६ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ४५ जाती थीं । १२५ ईख की ही एक जाति विशेष पुण्डरा (पौड़ा) है। पद्मपरित में पौड़ों के बनों का उल्लेख आया है । इस श्रेणी के गन्ने में अधिक रस निकलता है और यह अषिक मधुर भी होता है ।
भोजन सम्बन्धी पदार्थों का वर्गीकरण पदमचरित में एक अन्य प्रकार से भी किया गया है। र, य, पे, केसानार जू के गेट या भोजन सम्बन्धी पदार्थ पाँच प्रकार के कहे गये है ।१२७ रविषेण ने इन सबके ज्ञान होने को 'आस्थाद्य विज्ञान' कहा है। यह बास्वाध्य विज्ञान पाचन (पकाना), छेदन (तोड़ना), उष्णत्वकरण (गर्म करना) आदि भेदों से युक्त है ।१२८
भश्य-जो स्वाद के लिए खाया जाता है उसे भक्ष्य कहते है। यह कृत्रिम तथा अत्रिम के भेद से दो प्रकार का है ।१२१
भोज्य–लो क्षुधा निवृत्ति के लिए लाया जाता है उसे भोज्य कहते है । इसके भी मुरूप और साधक की अपेक्षा दो भेद है। ओदन, रोटी आदि मुख्य भोज्य है और लप्सी, दाल, शाक आदि साधक भोज्य हैं । १३
पेय-शीतयोग (शर्बत), अल और मन के भेद से पेय तीन प्रकार का फहा
गया है । ३१
लेह्य-ये पदार्थ जिनको चाटकर आनन्द लिया जाता है । चष्य-- पदार्थ जिन्हें चूसकर रस लिया जाता है।
भोजन करने के बाद लवंग (लौंग) तथा उससे युक्त पान का भी व्यवहार होता था ।१३२
भोजन शाला में प्रयुक्त पात्र--पद्मचरित में भोजन बनाने के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले निम्नलिखित पात्रों के नाम आये है
स्थाली-थाली । कलश ३४... अल भरने का पड़ा। जाम्बूनदमयी पात्री-स्वर्ण की थाली । चषक'–प्याला । घट ३५...- बड़ा ।
१२५. पद्म० १२०।२३ । १२६. पद्म २।४ । १२७. वही, २४०५३ ।
१२८. वही, २४।५६ । १२९. वही, २४१५३ ।
१३०. वही, २४.५४ । १३१. वहीं, २४।५५ ।
१३२, यही, ४०।१७ । १३३. वही, ५३११३४, १२०।२१ । १३४. वही, ६०१२१, १२०१२४ । १३५. घही, ७३।१७।। १३६. वहीं, ३३११८० .
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४६ : पद्म चरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पिठर ११ ---मटका या घटलोई । सूर्प१२८-अनाज से कूड़ा करकट अलग करने का पात्र ।
इसके अतिरिक्त मिट्टी, बाँस तथा पलाश के पत्तों से सब प्रकार के बर्तन तथा उपयोगी सामान बनाने का उल्लेख इभा है । १५ अनाज रखने के लिए पल्यौघ (खतिमा) बनाई जाती थीं।
विद्या पद्मचरित के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय विद्या मौखिक और लिखित दोनों प्रकार से दी जाती थी । प्रारम्भ में वर्णमाला सीखना आवश्यक था । एक स्थान पर बक्रपुर के राजा चक्रध्वज और उसकी मनस्विनी नामक स्त्री से उत्पन्न चिसोमवा नामक कन्या का गुरु के घर जाकर सरिया मिट्टी के टुकड़ों से वर्णमाला लिखने का वाचन किया गया है । १४०
विद्या प्राप्ति के लिए आवश्यक बाते-विद्या प्राप्ति के लिए स्थिर पित होना भावश्यक माना जाता था। बाद शिष्य शक्ति से युक्त होता था तो वह गुरु के लिए प्रसन्नता का विषय होता था। जिस प्रकार सूर्य के द्वारा नेत्रवान् (अर्थात् नेत्र शक्ति से युक्त) पुरुष को समस्त पदार्थ सुख से दिखाई देते हैं। नेत्रहीन पुरुष को सूर्य का प्रकाश होने पर भी कुछ भी नहीं दिखाई देता उसी प्रकार शक्ति रहित अथवा अल्पशक्ति पाले शिष्य को भी विद्या प्राप्ति होने में कठिनाई होती है । ४२ पात्र अपात्र का अधिक ध्यान रखा जाता था। पात्र के लिए उपदेश देने वाला गुरु कृतकृत्यता को प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार उस्ल के लिए किया हुभा सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ उपदेश व्यर्थ होता है । ४३ कर्म के प्रभाव से ही शीन से या देर से विद्या की सिति होती है। किसी को इस वर्ष में, किसी को एक माह में और किसी को एक ही क्षण में विद्या सिद्ध हो जाती हैं, यह सब कमो का प्रभाव है ।१४४
गुरु का महत्त्व-गुरु का उस समय अधिक महत्त्व था। शिष्य कितना ही निपुण क्यों न हो वह गुरु या आचार्य की मर्यादा का सदा ध्यान रखता था | विद्युत्केश विद्याधर ने एक मुनिराज से पूछा कि हे देव I मैं क्या फलं? मेरा क्या कर्तव्य है ? इसके उत्तर में मुनिराज ने कहा कि चार ज्ञान के धारी हमारे
१३७. पद्म० ३३५१८०। १३१. वही, ४१।११। १४१. वही, २६१७। १४३. बही, १००५२।
१३८. पद्म० ३३॥१८०। १४०. वहीं, २६॥७॥ १४२, वही, १००१५० । १४४. वहीं, ६।२६२-२६४ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ४७
गुरु पास ही विद्यमान है अतः हम लोग उन्हीं के पास पलें, यही सनातन धर्म है । आचार्य के समीप रहने पर भी जो उनके पास नहीं जाता है और स्वयं उपदेशादि देकर आचार्य का काम करता है वह मूर्ख शिष्यपना को ही छोड़ देता है । १४५ शिष्य और गुरु का बड़ा आत्मिक सम्बन्ध होता है। अपनी विशेष बातों को गुरु से निवेदन कर शिष्य बड़े भारी दुःख से छूट जाता है । १४१ सामान्य शिष्य से लेकर राजपुत्र तक गुरु की सेवा में तत्पर रहते थे गुरु के समक्ष लिया हुआ व्रत भंग करना बहुत दुःख कर माना जाता था । परित्यक्ता सोता कहती है कि निश्चित हो मैंने अन्य जन्म में लेकर भंग किया होगा, जिसका यह फल प्राप्त हुआ है । १४८ भावक भी गुरु का बथायोग्य सम्मान करते थे ११४९
१४७
।
राम द्वारा
गुरु के समक्ष व्रत शिष्य के अभि
घर पर करते
9:40
१५२
विद्या प्राप्ति का स्थान — विद्या प्राप्ति कुछ लोग गुरु के थे । कहीं-कहीं विशिष्ट विद्वानों की राजा लोग अपने कर हो रख लिया करते थे। १५१ उस समय के विद्यालय भी विद्या प्राप्ति के उत्तम स्थान थे 1 तापसी लोगों के बड़े-बड़े आश्रमों का भी उल्लेख मिलता है, जिनके घर बहुत से शिष्य विद्याध्ययन करते थे ।
१५३
लिपि - लेखन कला का उस समय विकास हो गया था। पद्मचरित में चार प्रकार की लिपि कही गई है ।
अनुवृत्त १४ – जो लिपि अपने देश में आमतौर से चलती है उसे अनुवृत कहते हैं ।
विकृत १५"
लोग अपने-अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं,
उसे विकृत कहते हैं । सामयिक १५५
-प्रत्यंग आदि वर्णों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामयिक
कहते हैं ।
नैमित्तिक ७ - वर्णों के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपि का ज्ञान
१४५. पद्म० ६/२६२-२६४ । १४७. वही, १००१८१ । १४९. वहीं, ३९/१६३ | १५१. वही, ३९।१६० । १५३. वही, ८३३३, ३३४ ।
१५५. वही, २४ २४ । १५७, मही, २४ २५ २६
१४६. पद्म० १५।१२२-१२३ । १४८. वहो, ९७।१६० ।
१५०, वही, २६५, ६
१५२. वही, ३९/१६२ । १५४. वही, २४१२४ । १५६. वही, २४१२५ ।
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४८ : पदमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कराया जाता है, उसे नैमिसिक कहते हैं। इस लिपि के प्राच्य, मध्यम, यौधेय, समाद्र आदि देशों की अपेक्षा अनेक अवान्तर भेद होते हैं ।
विद्या प्रदाता-विधा प्रदाताओं की श्रेणी में गुरु,१५८ उपाध्याय, १५९ घिद्वान, १५० यति,११ आचार्य १२ तथा मुनि नाम आये है।
विद्या प्रदाता के गुण-विद्या प्रदाता को महाविद्याओं से युक्त, पराक्रमी, प्रशान्तमुख, धीरवीर, सुन्दर आकृति का धारक, शुक्ष भावनाओं से युक्त, अल्प परिग्रह का घारी, उत्तम व्रतों से युक्त, धर्म के रहस्य को जानने वाला, कला रूपी समुद्र का पारगामी, शिषम की शक्ति को जानने वाला तथा पात्र अपात्र का विचार करने वाला होना चाहिए । १६३
विद्याओं के प्रकार-गद्मचरित से व्याकरण, गणितशास्त्र, धनुर्वेद, अस्त्रशास्त्र विद्या, आरण्यक शास्त्र, ज्योतिष विधा, जैनदर्शन, वेद, वेदान्त, बौद्धदर्शन, निमितविद्या, शकुन विद्या, आरोग्यशास्त्र, कामवाास्त्र, संस्कृत, प्राकृत शौरसेनी आदि भाषाएँ. लोकशता, संगीन विद्या, नत्यविद्या, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र आदि विद्याओं के संकेत मिलते हैं।
व्याकरण विद्या-व्याकरण विद्या का उस समय तक अधिक विकास हो गया था, ऐसा पद्मचरित के अध्ययन से विदित होता है। नवम सर्ग में कैलाश पर्वत की उपमा व्याकरण से देते हुए रविषेण कहते है-जिस प्रकार व्याकरण अनेक धातुओं से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत अनेक धातुओं (बांदी सोने आदि) से युक्त था, जिस प्रकार व्याकरण हजारों गणों (शब्द समूहों) से युक्त था उसी प्रकार वह पर्वत भी हजारों गणों अर्थात् साधु समूहों से युक्त था । जिस प्रकार व्याकरण सुवर्ण अर्थात् उत्तमोत्तम वर्गों को घटना से मनोहर है उसी प्रकार बह पर्वत भी सुवर्ण अर्थात् स्वर्ण की घटना से मनोहर था। जिस प्रकार ध्याकरण पदों अर्थात् सुबन्त तिइन्त रूप पाद समुदाय से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक पदों अर्थात् स्थानों या प्रत्यन्त पर्वतों अथवा चरण चिह्नों से युक्त था । जिस प्रकार व्याकरण प्रकृति अर्थात् मूल कान्दों के अनुरूप विकारों अर्थात प्रत्यवादिजन्य विकारों से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रकृति अर्थात स्वाभाविक रचना के अनुरूप विचारों से युक्त था जिस प्रकार व्याकरण बिल अति मूलसूत्रों से युक्त है उसी प्रकार वह पर्वत भी बिल अर्थात् पर पृथ्वी
१५८, पद्म २६।६।।
१५९. पद्म ३९।१६३ । १६७. वहो, ३९।१६० ।
१६१. वही, ३९।३०३ । १६२, वही, २५१५३ । १६३, वही, १००।३२,३३,३४, १००।५०,५२ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ४९
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अथवा गर्त आदि से युक्त था। जिस प्रकार व्याकरण ( उदास, अनुदात्त स्वरित आदि) अनेक प्रकार के स्वरों से पूर्ण है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक प्रकार के स्वरों अर्थात् प्राणियों के शब्दों से पूर्ण था । १३४ इस उपमा में आए धातु, गण, सुवर्ण पद, प्रकृति, बिल तथा स्वर शब्द व्याकरण के विकास का द्योतन करते हैं । व्याकरण शास्त्र के नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात जैसे पारिभाषिक शब्दों का भी यहाँ प्रयोग हुआ है ।
गणितशास्त्र - पद्मचरित में इसे सांख्यिकी कहा है । जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के पद्मक नगर के रम्भ नामक पुरुष को गणित शास्त्र का पाठी कहा गया है ।
१६६
१६७
धनुर्वेद - राजा सहस्ररश्मि के ऊपर जब रावण ने बाण छोड़े तब सहस्ररश्मि ने कहा कि हे रावण ! तुम तो बड़े धनुर्धारी मालूम होते हो | यह उपदेश तुम्हें किस गुरु से प्राप्त हुआ है ? अरे छोक ! पहले धनुर्वेद पढ़ और अभ्यास कर, पश्चातू मेरे साथ युद्ध करना पच्चीसवें पर्व में राजगृह नगर के वैवस्वत नामक एक विद्वान् का उल्लेख किया गया है जो धनुबिया में निपुण था और विद्याध्ययन में श्रम करने वाले एक हजार शिष्यों सहित था । कम्पिल्यनगर के शिखी नामक ब्राह्मण का लड़का ऐर उस के पास विधिपूर्वक विद्या सीखने लगा और कुछ ही समय में उसके हजार शिष्यों में भी अधिक निपुण हो गया । ११८ इससे धनुर्वेद के सीखने-सिखाने का प्रचलन सूचित होता है ।
आरण्यक शास्त्र - पद्मचरित के ११ वें पर्व में क्षीरकदम्बक द्वारा नारद आदि शिष्यों को आरण्यक शास्त्र १६९ पढ़ाने का उल्लेख है ।
१६४. नानाधातु समाकीर्ण गणैर्युक्तं सहस्रशः । सुवर्णघटनारम्यं कुरमनुगतैर्युक्तं
पदपंक्तिभिराजितम् । पद्म० ९।११२ । विकारविलसंयुतम् ।
स्वरर्भहु विश्वैः पूर्ण लब्धव्याकरणोपमम् ॥ पद्म० ९।११३ ।
१६५. नामाख्यातोंपसर्गेषु निपातेषु न संस्कृता ।
प्राकृती शौरसेनी च भाषा यत्र श्रयी स्मृता ।। ० २४|११ ।
१६६. पद्म० ५।११४ ।
१६७. अहो रावण धानुष्को महानस कुलस्तव ।
उपदेशो समायातो गुरोः परमकौशलात् ॥ पद्म० १० १२७ । वत्स तावद्धनुर्वेदमधव कुरु च श्रमम् ।
ततो मया समं युद्धं करिष्यसि नयोज्झितः । पद्म० १०।१२८ | १६८. पद्म० २५१४६, ४७ । १६९. पद्म० ११ । १५ ।
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५० : परि और
मासिक
ज्योतिष विद्या-ज्योतिष विद्या बहुत प्राचीन है । मिंगल कार्य से पूर्व ज्योतिषो द्वारा ग्रहों आदि की स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर शुभाशुभ मुहूर्त का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता था। विवाह की तिथि ज्योतिषी निश्चित करते थे । १७० किसी शुभ दिन जब सौम्यग्रह सामने स्थित होते थे, कूरग्रह विमुख होते थे और लग्न मंगलकारी होती थी तब प्रस्थान किया जाता था । अंजना ने मामा से अपने पुत्र के ग्रहों के विषय में जानना चाहा । तब उसके मामा के पाश्चंग नामक ज्योतिषी ने पुत्र के जन्म का समरः पूछकर संक्षेप से उसके जीवन के विषय में बतलाया-'यह चैत्र के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि है, श्रवण नक्षत्र है, सूर्य दिन का स्वामी है । सूर्य मेष का है अतः उच्च स्थान में बैठा है। चन्द्रमा मकर का है अतः मध्यगृह में स्थित है। मंगल वप का है अतः मध्यस्थान में बैठा। बुध मीन का है वह भी मध्यस्थान में स्थित है। शुक्र और शनि दोनों ही मीन के हैं तथा उच्च स्थान में आरूढ़ है । उस समय मीन का ही उदय था। सूर्य पूर्ण दृष्टि से शनि को देखता है मौर मंगल सूर्य को अर्षदृष्टि से देखता है । बृहस्पति चन्द्रमा को पूर्ण दृष्टि से देखता है और चन्द्रमा भी अर्ध दृष्टि से बृहस्पति को देखता है । बृहस्पति शनि को पौन दृष्टि से देखता है और शनि बृहस्पति को अब दृष्टि से देखता है। बृहस्पति शुक्र को पौन दृष्टि से देखता है और शक भी बृहस्पति पर पौन दृष्टि डालता है | अवशिष्ट ग्रहों की पारस्परिक अपेक्षा नहीं है। उस समय इसके ग्रहों के उदय क्षेत्र काल का अत्यधिक बल है । सूर्य, मंगल और बृहस्पति इसके राज्ययोग को सूचित कर रहे है और शनि मुक्तिदायी योग को प्रकट कर रहा है । यदि एक बृहस्पति ही उच्च स्थान में स्थित हो तो समस्त कल्याण की प्राप्ति का कारण होता है। इसके तो समस्त ग्रह उच्च स्थान में स्थित है। उस समय ब्राह्म नाम का योग और शुम नाम का मुहूर्त था अतः ये दोनों हो ब्राह्म स्थान अर्थात् मोक्ष सम्बन्धी सुख के समागम को सूचित करते हैं । इस प्रकार इस पुत्र का यह ज्यातिश्चक्र सर्व वस्तु को दोषों से रहित सूचित करता है । १७२
बेद-पपचरित के ११३ पर्व में सर्वशसिद्धि के प्रसंग में वेद के दोष दिखाये गये हैं ।१७३ वेद का कोई कर्ता नहीं है इस बात को अयुक्तिसंगत सिद्ध कर वेद का कोई कर्ता है, इस पक्ष में अनेक प्रमाण दिये गये हैं। इसमें प्रमुख युक्ति यह है कि यूंकि वेद पद और वाक्यादि रूप है तथा विधेय और प्रतिषष्य अर्थ से युक्त है अतः किसी कर्ता द्वारा बनाया गया है। जिस प्रकार मैत्र का
१५०, पद्म १५४९३ । १७२, बही, १७।३६४-३७७ ।
१७१. पन.८१८, १९ । १७३. वही, १११८५ ।
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समालिक मास्या : ५१
काव्य पद वाक्यादि रूप होने से किसी के द्वारा बनाया गया है । ७४ यहाँ वेद शास्त्र है इसी बात को असिद्ध ठहराया गया है क्योंकि शास्त्र वह कहलाता है जो माता के समान समस्त संसार के लिए हितकर उपदेश दे । जो कार्य निर्दोष होता है उसमें प्रायश्चित्त का निरूपण करना उचित नहीं। परन्तु याज्ञिक हिसा में प्रायश्चित्त कहा गया है इसलिए वह सदोष है। १७५ प्रायश्चित्त के भी यहां कुछ उदाहरण दिये गये है । १७६
वेदान्तः—पद्मपरित में अग्निभूत तथा वायुभूत नामक दो ब्राह्मणों की हंसी उड़ाते हुए लोगों के मुख से यह कहलाया गया है कि ब्राह्मतावाद में मूढ एवं पशुओं की हिंसा में मासक्त रहने वाले इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक प्रषा को लूट डाला है ।
बौद्धदर्शन-पद्मचरित के दूसरे पर्व में राजा श्रेणिक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार बुद्ध का दर्शन अर्थवाद (वास्तविकतावाद) से रहित होता है उसी प्रकार उसका दर्शन (साक्षात्कार) अर्थवाद (वनप्राप्ति) से रहित नहीं होता था । १७९
निमित्त विद्या--निमित्त विद्या के अन्तर्गत पचरित में अष्टांगनिमित्त के शाता मुनिराज१७५ और क्षुल्लक १८० का उल्लेख हुआ है। लोगों ने उनसे अपने मनोनुकूल प्रश्न पूछे ।
शकुन विधा-ऐसी आकस्मिक घटना को, जिसे भावी शुभाशुभ का
१७४. पप० ११११९० । १७५. बेदागमस्य शास्त्रत्वमसि शास्त्रमुच्यते ।
तदि यन्मातबच्छास्ति सर्वस्मै जगते हितम् ।। पद्य० ११।२०९ । प्रायश्चित्तं च निर्दोषे वक्तुं कर्मणि नोचितम् ।।
अन तूक्तं ततो दुष्टं वच्चेदमभिधीयते । पप० ११९२१७ । १७६. पद्म ११।२११-२१५ ।। १७७. एताम्यां ब्रह्मतावादे विमूढाम्म सुखार्थिनी ।
प्रजेयं मुषिता सर्वा सम्ताम्यां पशुहिंसने । पम १०९।७९ । १७८. बुद्धस्येव न निमुंमतमर्थवादेन दर्शनम् ।
न श्री हलदोषोपधातिनी शीतगोरिव ॥ पन० २०६४ । १७९. पद्म ५१।२९ । १८०. वही० १००१४४ ।
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५२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
૧
द्योतक समझा जाता है, शकुन कहते हैं । अथवा भावी शुभ या अशुभ फल की द्योतक किसी घटना, अद्भुत दृश्य या संयोग को शकुम कहते हैं । १८२ सूचक संकेत एवं भाषी घटना में कार्यकारण नहीं होता। शकुन वस्तुतः ऐसा संकेत है जो कारणान्तर से उत्पन्न होने वाले कार्य की सूचना मात्र देता है, स्वयं उम्र भावी घटना का कारण नहीं होता । १८ वराहमिहिर के अनुसार शकुन जम्मान्तर में कृत कर्म के भावी फल की सूचना देता है ।' १८४ पद्मचरित में प्राप्त
—
शकुनों को हम निम्नलिखित भागों में विभाजित कर सकते हैंसूचक वर्ष क्रियाओं से प्राप्त शकुन !
प्राणियों के
प्राकृतिक तत्त्वों से प्राप्त शकुन । शारीरिक लक्षणों से प्राप्त शकुन ।
स्वप्नों से प्राप्त शकुन | ग्रहोपग्रहों से प्राप्त शकुन ।
प्राणियों के शुभाशुभसूचक दर्शन एवं क्रियाओं से प्राप्त शकुन-समीप हो ममूर का मनोहर शब्द करना, उत्तमोतम अलंकारों से युक्त स्त्री का सामने खड़ा होना, १६५ निर्ग्रन्य मुनिराज का सामने से आना, घोड़ों को गम्भीर हिमहिनाहट होना, १८ वायों ओर नवीन गोबर को बिखेरते हुए तथा पंखों को फैलाते हुए काक का मधुर शब्द करना, सिद्धि हो, जय हो, समृद्धिमान हो तथा बिना विघ्न बाधा के शीघ्र प्रस्थान करो इत्यादि मंगल शब्द होना, १८८ ये लक्षण शुभ माने गये हैं ।
૧૮૫
१८१. 'A casual event of occurance supposed to protend good or evil'
The century dictionary vol. V. P. 4105 १८२. An occurrance phenomenon or incident regarded as an indication of a favourable or unfavourable issue
Funk & wagnall's new stand and dictionary of the English language vol. III P, 1722,
१८३. संस्कृत काव्य में शकुन, १०३ । १८४, अस्य जन्मान्तरकृतं कर्म पुंसां शुभाशुभम् । यत् तस्य शकुनः पार्क निवेदयति गच्छताम् ॥ - वराहमिहिर
१८५. पद्म० ५४५० १८७. वहीं, ५४ ५३ ।
बृहत्संहिता १० ५००, अध्याय ८६।५ 1 १८६. ० ५४।५१ ।
१८८. वही, ५४|५३ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ५३ घोड़े का ग्रीवा को कंपाना तथा प्रखर शरद करते हुए होसना,१८९ हाथी का कठोर शब्द करते हुए पृथ्वी को ताड़ित करना ।१९० सूर्य के सम्मुख हुए कौए का अत्यन्त तीक्ष्ण शम्द करना तथा अपने झुण्ड को छोड़कर अलग बैठ जाना,१११ कोए के पंख हीले पलना तथा अत्यन्त व्याकुल दिखाई पड़ना,१२२ दाहिनी मोर कोए का कौव-काय करना,१९३ गाल का नीरस शब्द करना, १९४ कौए का सूखा काठ चोंच में दबाकर सूर्य की ओर देखते हुए क्रूर शब्द करना,१५ रोक्ष का महाभयंकर शब्द करना, १६ प्रयाण के रोकने में तत्पर होना, मण्डलाकार बांधका दक्षिा की कि , मी का पंखों द्वारा माद अन्धकार उत्पन्न करना,१५७ विकृत शब्द करना, शृगाली १५८ का दक्षिण दिशा में रोमांच बारण करते हुए भयंकर शब्द करना, गधे ११ का दाहिनी ओर मुख उठाकर आकाश को बड़ी तीषणता से मुखरित करना, खुर के अमभाग से पृथ्वी को खोदते हुए भयंकर शन्द करना, महानाग का मार्ग काट जाना, ऐसा लगने लगना जैसे लोग उससे कह रहे हों कि हा, ही, तुझे विकार है, कहाँ जा रहा है ?२०० पीछे की ओर छौंक होना १०१ आदि लक्षण अशुभ सूचक माने गये है, दक्षिण दिशा में माल का अत्यन्त भयंकर शब्द करना,२०२ आकाश में सूर्य को आपछादित करते हुए गोष का मेहराना२०५ ये अपशकुन मरण के सूचक है।
सामान्यतः काक की चेष्टाय अशुभ मानी जाती हैं किन्तु काक का किसी विशेष स्थिति में होना तथा मधुर शब्द करना कहीं-कहीं शुभ माना गया है। चन्द्रप्रम चरित महाकाव्य (तेरहवीं शती) में युवराज सहित राजा पृथ्वोपाल के साथ युद्ध के लिए जाते समय मार्ग में क्षीरी (खिरनी) के वृक्ष पर स्थित काक द्वारा मधुर शब्द करना शुभ२०४ किन्तु पडलीपाल के रणभूमि को जाते समय
१८९. प. ७२८१ ।
१९०. पम० ७२६८१ । १९१. वही, ७२०८१ ।
१९२, वही, ७२।८३ । १९३. वही, ७३५१९ ।
१९४, वही, ७२०८० । १९५. वही, ७४४ ।
१९६, वही, ५७०६९। ११७. वही, ५७७०।
१९८. वहीं, ७४५ । १९९. वही, ७८ ।
२००. वही, ७३।१८। २०१. वही, ७३।१९।
२०२. वहीं, ७४।१५ । २०३. वही, ७३।१५। २०४. वीरनन्दो : चन्द्रप्रभवरित १७१२८ ।
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५४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मार्ग में कटिदार वृक्ष पर स्थित काक द्वारा योतक होने के कारण अशुभ माना गया है। नवीन गोबर को बिखेरते हुए तथा पंखों को करते हुए चित्रित किया गया है, अतः शुभ माना गया है।
चलना,
प्राकृतिक तत्त्वों से प्राप्त शकुन - गमन के योग्य मन्द वायु का r वृक्षों का सब ऋतु के फल-फूल धारण करना, पृथ्वी का निर्मल होना. २०७ भूमि का सुगन्धित पवन द्वारा बुलि, पाषाण और कष्टक से रहित होना. दुर्भिक्ष का होना, २०९ निर्धूम अग्नि की ज्वाला दक्षिणावर्ट से प्रज्वलित होना २५० तथा सुगन्धि को फैलाती हुई वायु का बहना गया है ।
२०८
२११
शुभ माना
कठोर शब्द करना उसकी मृत्यु का यहां पद्मचरित में बायीं ओर फैलाते हुए काक को मधुर शब्द
बड़े-बड़े तालाबों का सूख जाना, पहाड़ों की चोटियाँ नोचे गिरना तथा आकाश से रुधिर की वर्षा होना २१२ थोड़े ही दिन में स्वामी के मरण की सूचना देने वाले हैं । परिवेष से युक्त सूर्य के बिम्ब में भयंकर कबन्ध दिखाई देना और उससे खून की बूँदों का बरसना, २१३ समस्त पर्वतों को कम्पित करने वाले भयंकर वज्र गिरना, २१४ सूर्य के चारों ओर शस्त्र के समान अत्यम्स रूक्ष परिशेष (परिमण्डल) रहना, पूरी रात्रि चन्द्रमा का छिपा रहना, १९६ भयंकर खपात होना, २१७ अत्यधिक सूकम्प होना, २१८_ २२० पूर्व दिशा में कांपती हुई रुषिर के समान उल्का गिरना २२१ तथा देवताओं की प्रतिमाओं का अभूजल की वर्षा के लिए दिन स्वरूप बनना अशुभ माना गया है ।
२१५
२२२
शारीरिक लक्षणों से प्राप्त शकुन -निर्मल कान्ति वाला शरीर होना, शरीर का छाया रहित होना अर्थात् परछाई पड़ने से रहित होना, १२
नेत्रों का
२०५. पद्म० १५।३२ ।
२०७. वही, २१९५ /
२०९. वही, २९९ । २११ वी ५४|५१ ।
२१३. वही, ७ ४६ ।
२१५. वही ७२।७८ ।
P
२१७. वही, ७२७९ ॥
२१९. वही, ७११८० ।
२२१. वही, ७२।८२ | २२३. वही, २०१२ |
२०६. पद्म० २।९४ । २०८. वही, २९६
२१०, वही, ५४।५० ।
२१२, वही, ७२।८४-८५ ।
२१४. वही
J
७४७ ।
२१६. वही, ७२/७१ ।
२१८. वही, ७२/७९१
२२०. वही, ७३।११ ।
२२२, वही, ७२८२ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ५५
टिमकार रहित होना,२२४ नाखून और बालों का नहीं बढ़ना,२२५ मल और पसीना से रहित शरीर होना, शरीर में दूध के समान रुपिर होना, शरीर का उत्सम संस्थान, उत्तम गंध और उत्तम संहनन तथा अनन्त बल से युक्त होना,२२५ हित मित प्रिय वचन बोलना,२२ परोपकार युक्त होना,२२८ असाधारण कार्य करना,२२३ बालक होने पर भी अबालकोपित्त कार्य करना, बालकों जैसी चेष्टा करना तथा मनोहर विनय का घारक होना ये शुभ शकुन माने गये हैं।
स्त्रियों की दाहिनी आंख फलकनार तथा पीछे की ओर छींक आना२१२ अशुभ माना गया है।
स्वप्नों से प्राप्त शकुन-पप्रचरित के तीसरे पर्व में मरुदेवी सोलह स्वप्न सती है वो इस प्रकार है-- हायो, बेल, सह, हाथी द्वारा साने तया पांदी के कलशों से अभिषेक की जाती हुई लक्ष्मी, (पुन्नाग, मालती कुन्द तथा चम्पा बादि के) पुष्पों से निर्मित मालायें, सूर्य, चन्द्र, मौन युगल, फूलों की मालाओं से सुसज्जित पंचवर्ण के मणियों से भरा हुआ कलश, सरोवर, विशाल सागर, ऊँचा सिंहासन, विमान, सुसज्जित अनेक खण्डों वाला भवन, रत्नों की राशि तथा दक्षिणावर्त निर्धूम अम्नि देखो। मरुदेवी ने इन स्वप्नों का फल जब अपने पति नाभिराय से पूछा तो उन्होंने कहा कि है देवी ! तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकीनाथ मे अवतार लिया है । २३५ २२४ पद्य २।९३ ।
२२५. पच० २।९३ । २२६. वही, २।८१ ।
२२७. वही, २१९० । २२८. वहीं, २१८८
२२९. वही, २२७६, ७।२१५, २१६ । २३०. वही, रा७७ ।
२३१, वही, ९६।२। २३२. वही, ७३११८ । २३३. पप० ३।१२४-१५३ चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य (यह अन्य तेरहवीं शताब्दी
का है) में इन सोलह स्वप्नों में से गजेन्द्र का दर्शन तीनों लोकों के एक मात्र अधिपति होने, नरेन्द्र का दर्शन गम्भीरता, सिंह का दर्शन अद्वितीय वीरता, लक्ष्मी का दर्शन इन्द्र पदवी, माला युगल का दर्शन अनन्तकीति, चन्द्रमा का दर्शन प्रसन्नता, सूर्य का दर्शन अज्ञानान्धकार से मुक्ति, मीन युगल का दर्शन सर्थ शोकों से मुक्ति, कुम्भ का दर्शन शरीर की शुभ चिह्नों से सम्पन्नता, तालाब का दर्शन तष्णाहीनता, समुद्र का दर्शन केवलज्ञान प्राप्सि, हेमसिंहासन का दर्शन सिद्धि प्राप्ति, दिव्यविमान का दर्शन स्वर्ग प्राप्ति, रत्नराशि का दर्शन गुणों की प्राप्ति और दहि का दर्शन उग्र कर्मों के बहन का सूचक माना गया है।
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५६ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
९५वे पर्व में सीता ने ऐसे दो अष्टापद देखे जिनकी काम्सि शरदऋतु के चन्द्रमा के समान थी, क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान जिनका शब्द था, कलासपर्वत के शिखर के समान जिनका आकार था, जो सर्व प्रकार के अलंकारों से अलंकत थे. जिनकी उत्तप सारें कामिन प स पर जिनकी गर्दन की उत्तम जटायें सुशोभित हो रही थीं । २३३* यह स्वप्न देखने के बाद दूसरे स्वप्न में उन्होंने देखा कि वे पुष्पक विमान के शिखर से गिरकर पृथ्वी पर आ पड़ी हैं ।२३४ इन स्वप्नों का फल पूछने पर राम ने कहा कि अष्टापद गुगल देखने से तू शीत्र ही दो पुत्र प्राप्त करेगी । २३५ पुष्पक विमान से गिरने को यहाँ अनिष्टकारक बसलाया गया है ।
ग्रहोपग्रहों से प्राप्त शकुन-ग्रहोपग्रहों से प्राप्त शुभाशुभ स्वप्नों पर अधिक ध्यान दिया जाता था। विवाह की तिथि ज्योतिषी निश्चित करते थे। किसी दिन जबकि सौम्यग्ग्रह सामने स्थित होते, क्रूरग्रह विमुख्न होते थे और लग्न मंगलकारी होती थी तब प्रस्थान किया जाता था । २३ ज्योतिषचक के अनुसार ही जन्म और जीवन के सुख दुःखों का अनुमान होता था ।२३८ एक स्थान में सूर्य के बिम्ब में कबन्ध ( धष्ट ) दिखाई पड़ना और उससे खून की वर्षा होना अत्यन्त अशुभ माना गया है । २३९
विविध स्वप्न-आकाश में छत्र का फिरना,२४० घण्टा का मधुर शब्द होना,२४१ भेरी और शंख का शब्द होना२४५ तथा जीवों में मैत्री भाव होना२४॥ शुभ माना गया है।
शकुन का कारण-शुभ या अशुभ शकुनों का कारण प्राणियों का पूर्वोपार्जित कम है, ऐसी पध्य चरित की मान्यता है । दाहिनी आँख फड़कने के कारण दुःख आगमन की कल्पना कर सीता कहती है कि प्राणियों ने निरन्तर जो कर्म स्वयं उपार्जित किये है उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है, उसका निवारण करना शक्य नहीं है ।२४४ यहाँ अनुमती नाम की देवी सीता को समझाती हुई कहती है कि पूर्व पर्याय में जो अच्छा बुरा कर्म किया है वहीं कृताम्त, विषि, देव अथवा ईश्वर कहलाता है । मैं पृथक रहने वाले कृतान्त के द्वारा इस अवस्था
२३३.* पप० ९५१६,७ । २३५. वही, १५।९। २३७. वही, ८।१८, १९। २३९. यही, ७४६ । २४१. वही, ५४०५१। २४३. वही, २।९४ ।
२३४. पप. १५।८। २३६. वही, ९५।१०। २३८. वही, १७६३६४-३७७ । २४०. वही, ५४१५१ । २४२. वही, ५४१५३ 1 २४४. वही, ९६।५।।
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सामाजिक व्यवस्था ५७
को प्राप्त कराई गई हैं (या कराया गया है), ऐसा जो मनुष्य निरूपण करता है वह अज्ञानमूलक है । २४
अपशकुनों की निवृत्ति के उपाय -- जिस प्रकार मानव प्रकृति मे शकुनों में विश्वास को जन्म दिया है उसी प्रकार उसने अपशकुनों की निवृत्ति के लिए उपायों की खोज की । पद्मचरित में भी इस प्रकृति के स्पष्ट दर्शन होते हैं । सीता द्वारा अपशकुन का फल जानने की चेष्टा करने पर कुछ देवियाँ कहती हैं कि अधिक तर्कवितर्क करने से क्या लाभ है ? शान्ति कर्म करना चाहिए । २४६ जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक, अत्युदार पूजन और किमिच्छुक दान के द्वारा अशुभ कर्म को दूर हटाना चाहिए।२० देवियों की मलाह पर सीता ऐसा ही करती है । २४८ कहीं-कहीं पर ऐसे भी उदाहरण आए हैं जहाँ इन अपशकुनों की उपेक्षा दिखलाई गई है । ५७ पर्न में सूरता के अतिगर्व से मूत्र तथा बड़ोबड़ी सेनाओं से उद्धत राक्षसों के समूह अशुभस्वप्नों के दृष्टिगत होते हुए भी युद्ध के लिए बराबर नगरी से बाहर निकलते दिखाये गये हैं । २४९ सप्तम पर्व में सुमाली अशुभ शकुनों को देखकर माली से युद्ध से वापिस चलने को कहता है तब माली उत्तर देता है कि शत्रु के वध का संकल्प कर तथा विजयी हाथी पर सवार हो जो पुरुषार्थ का धारी युद्ध के लिए चल पड़ा है वह वापिस कैसे लौट सकता है | १५०
आरोग्यशास्त्र - पद्मवरित में विकसित आरोग्य कला के दर्शन होते हैं । एक स्थान पर कहा गया है कि जब रोग उत्पन्न होता है तब उसका सुख से विनाश किया जाता है पर जब यह रोग जड़ मधिकर व्याप्त हो जाता है तब मरने के बाद ही उसका प्रतीकार हो सकता है । २५१ एक अन्य स्थान पर औषधि कड़वी होने पर भी उसे ग्रहण करने योग्य बतलाया गया | २५२ उस समय के होने वाले रोगों में से कुछ रोगों २५६ के नाम प्रसंगवश पद्मचरित में आये हैं । जैसे उरोधात ( जिसमें वक्ष:स्थल, पसली आदि में दर्द होने लगता है) महादाहज्वर ( जिसमें महादाह उत्पन्न होता है) लाल परिस्राव (जिसमें मुँह से लार बहने लगती है) सर्वशूल ( जिसमें सर्वाङ्ग में पीड़ा होती है ), अरुचि (जिसमें भोजनादि को रुचि नष्ट हो जाती है), छर्दि ( जिसमें वमन होने लगता
२४५. पद्म० ९६।१० ।
२४७. वही, ९६ १५ ।
२४९. वही, ५७ / ७१ । २५१. वही, १२ । १६१ । २५३. वहीं, ६४।१५
२४६. पद्म० ९६।१४ । २४८. वही, ९६।१६ ।
२५०. वही, ७५० । २५२. वही, ७३।४८ ।
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५८ : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति है), श्वपथु (जिसमें शरीर पर सूजन आ जाती है), स्फोटक (जिसमें शरीर पर फोड़े निकल आते हैं) तथा वायु रोग । २५४
कामशास्त्र-पद्यचरित के १५वे पर्व में दस काम वेगों को आधार मानकर अंजना की प्राप्ति के लिए पवनंजय की दशा का वर्णन है । चिन्ता, आकृति देखने की इच्छा, मन्द लाम्बी और गरम साँसे निकलना, ज्वर, बेचैनी, अरति (विषयद्वेष), विप्रलाप (बकवाद), उन्मत्तता, मूछी तथा दुःखसंभार (दुःख का भार) इस प्रकार काम की दस अवस्थायें२५५ यहां गिनाई गई है। बाण ने दस कामदशानों को आधार मानकर माहाको नय: का कत्र या है । " एक अन्य स्थान पर चक्षुःप्रीति, मनःसंग, संकल्प, रात्रिजागरण, कुशता, अरति (विषयीष), लग्ना, त्याग, उम्माद, मूळ तया मरण ये बस कामदशायें निरूपित की गई है ।२५७ जहाँ तक स्त्री पुरुष के प्रेम का सम्बन्ध है रविषेण ने प्रेम की उत्पत्ति पाँच कारणों से कहीं है। पहले स्त्री पुरुष का ससर्ग अर्थात् मेल होता है फिर प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से रसि उत्पन्न होती है, रति से विश्वास उत्पन्न होता है और तदनन्तर विश्वास से प्रणय उत्पन्न होता
है। २५८
___ संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी आदि भाषायें--२४वे पर्व में राजकुमारी केकया के संगीत ज्ञान के प्रसंग में प्रातिपदिक, उपसर्ग और निपातों में संस्कार को प्राप्त प्राकृत, संस्कृत और शौरसेनी भाषाओं की स्थिति का संकेत किया
गया है ।२५५
संगीत विद्या-पयचरित में संगीत विद्या सम्बन्धी अनेक पारिभाषिक शब्द आये है। इसका विशेष विवरण कला वाले अध्याय में दिया गया है।
नृत्य विद्या---पपरित से नृत्यविद्या की स्थिति पर जो प्रकाश पड़ता है उसका विशेष निरुपण कला पाले अध्याय में किया गया है ।
काव्यशास्त्र-पप्रचरित में श्रृंगार, हास्य, करुण, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शान्त ये ९ रस कहे गये है । लक्षण, अलंकार,
२५४, पत्र. ३७४१ ।
२५५. पम १५४९६.१००। २५६. वासुदेव शरण अग्रवाल : कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ० २३५ । २५७. मल्लिनाथ : मेघदूतटीका, २।३१ (कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ० २३५) २५८. पद्म० २६८ ।
२५९. पप० २४।१२। २६०. वही, २४॥२२, २३ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ५९ शाध्य, प्रमाण, छन्द तथा आगम इनका भी अवसर के अनुसार यहां वर्णन हुआ हैं ।२१
अर्थशास्त्र२१२–पमचरित के ७३वे पर्व में अर्थशास्त्र का नाम निर्देश
नीतिशास्त्र सीताहरण के माद शुफ आदि श्रेष्ठ मन्त्रियों को नुलाकर मन्दोदरी कहती है कि आप लोग राजा (रावण) से समस्त हितकारी बात क्यों नहीं कहते हैं । रावण ममस्त अर्थशास्त्र और सम्पूर्ण नीतिशास्त्र को जानते है तो भी मोह के द्वारा क्यों पीड़ित हो रहे हैं ।२६३
नाट्यशास्त्र-गीत, नृत्य और वादिन इन तीनों का एक साथ होना नाट्य कहलाता है ।१४
मान विद्या-मेय, देश, तुला और काल के भेद से मान चार प्रकार का होता ले !
मेय-प्रस्थ आदि के भेद से जिसके अनेक भेद है, उसे मेय कहते हैं ।।११ देश-वितस्ति (हाथ से नापना) आदि देवशमान कहलाता है।२५७ तुलामान-पल बादि (छटाक सेर आदि से नापना) तुलामान कहलावा
काल मान-समय ( घड़ी घण्टा आदि से नापना) कालमान कहलाता
है। २५१
__ मान की उत्पत्ति उपर्युक्त मान आरोइ, परीणाह, तिर्यगौरव और क्रिया से उत्पन्न होता है ।२२०
अश्वविद्या-२८. पर्ष में एक मायामयी अश्व के वर्णन के प्रसंग में कहा गमा है कि वह घोटा अस्पम्त ऊँचा था, मन को अपनी ओर खींचने वाला था, उसके शरीर में अच्छे-अच्छे लक्षण देदीप्यमान हो रहे थे, दक्षिण अंग में महान् मावर्त थी, उसका मुख तथा उदर कृश था, वह अरपम्त बलवान था, सापों के
२६१. पद्य० १२३३१८६ ।
२६२. पा. ७३।२८ । २६३, वही, ७३।२८ ।
२६४, वही, २४।२२ । २६५, 'मेयदेशसुलाकालमैदाम्मानं चतुर्विध' ।। पय ४२१६ । २६६. 'तत्र प्रस्थादिभिभिन्न मेयमानं प्रकीर्तितम् ॥' पन० २४१६० । २६७. 'देशमान वितस्स्यादि ।।' एमा २४॥६१ । २६८, 'तुलामानं पलादिकम् ॥' पप० २४।६१ । २६९, 'सपयामि तु पन्मानं तत्कालस्य प्रकीर्तितम् ॥' पण. २४।६१ । २७०. पच० २४।१२।
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६० : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अग्रभाग से वह पृथ्वी को साबित कर रहा था, उससे ऐसा जान पड़ता था, मानों मृदंग ही बजा रहा हो। साधारण व्यक्ति उस पर धढ़ने में असमर्थ थे तथा उसका नथना कम्पित हो रहा था ।
उपर्युक्त वर्णन से श्रेष्ठ घोड़े के लक्षणों पर बहुत प्रकाश पड़ता है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि उस समय के अश्वपरीक्षक कतिपय लक्षणों को देखकर अश्व की श्रेष्ठता वा श्रेष्ठता का ज्ञान करते थे । इसका अर्थ यह हूँ कि उस समय अश्वविद्या विकसित अवस्था में थी ।
लोकज्ञता - इसी लोक में जीव की नाना पर्यायों ( अवस्थाओं) की उत्पत्ति हुई हैं, उसी में यह (जीव) स्थित है और उसी में इसका नाया होता है यह सब जानना लोकज्ञता है । यह लोकजता प्राप्त होना कठिन है । २७५ लोक की अयस्थिति के विषय में कहा गया है कि पूर्वापर, पर्वत, पृथ्वी, द्वीप देश वादि भेदों में यह लोक स्वभाव में ही अवस्थित हैं ।'
1
૨૭૨
लोक के प्रकार - आश्रित और आश्रय के भेद से । इनमें से जीव और अजीब तो आश्रित हैं तथा आश्रय हैं । २७३
वृद्धि के लिए मन्त्र
इनमें से अनेक युद्ध
मन्त्र शक्ति से प्राप्त विद्यायें -- लक्ष्मी और बल की शक्ति से भी अनेक विद्याओं को सिद्ध किया जाता था। कार्य में सहायक होती थीं । मन्त्र जपने के बाद या दृढ़ निश्चय के कारण उससे पहले ही ये विद्यायें शरीरधारिणी के रूप में हाथ जोड़ कर उपस्थित हो जाया करतो थीं। पश्चात् समय पड़ने पर स्वामी के स्मरण मात्र से अपनी शक्ति के अनुसार यथेष्ट कार्य करती थीं। पद्मचरित में इस प्रकार की निम्नलिखित विद्याओं के नाम आये हैं
.२.७४
लोक दो प्रकार का पृथ्वी आदि उनके
सर्वकामान्नदा ७।२६४
नभः संचारिणी ७।३२५
कामदायिनी (कामदामिनी ) ७३२५ दुर्निवारा ७।३२५
जगत्कम्पा ७।३२५
प्रज्ञप्ति ७ । ३२५
अणिमा ७।३२६
मानुमालिनो ७।३२५ लघिमा ७।३२६
सीम्या ७।३२६
२७१. तत्र नानाभवोत्पत्तिः स्थितिर्नश्वरता तथा ।
शायते यदिदं प्रोक्तं लोकज्ञत्वं
२७२. पद्म० २४७२ । २७४. वहीं, ७३१५ ।
सुदुर्गमम् । पद्म० २४।७१ । २७३. पद्म० २४।७० ।
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सामाजिक व्यवस्था : ६१
मनःस्तम्भनकारिषी ७।३२६ सुरध्वंसी ७३२६ वधकारिणी ७१३२६ ठपोकपा ७।३२७ विपुलोदरी ७।३२७ रजोरूपा ७/१२७ वनोदरी ७।३२८ अदर्शनी ७।३२८ अमरा ७।३२८ तोरस्तम्भिनी ७।३२८ अवलोकिनी ७।३२९ घोरा ७१३२९ भूर्जगिनी ७।३२९ मुवना ७।३२२ दारुणा ७१३२९ भास्करी ७३३० ऐशानी ७३३० जया ७।३३० मोचनी ७।३३० कुटिलाकृति ७।३३० शान्ति ७३३१ वशकारिणी ७।३३१ बलोत्सादी ७।३३१ भोति ७३३१ सर्वाहा ७।३३३ जम्भिणी ४३३३ निद्राणी ७।३३३ शत्रुघ्मनी ७।३३४ खगामिनी ७।३३४ प्रतियोधिनी ६०।६२ उल्का विद्या ५०।३४ सिंहवाहिनी ६८४१३५ बहरूपिणी १०।१३५
संवाहिनी ७।३२६ कौमारी ७।३२६ सुविषाना ७३२७ दहनी ७।३२७ शुभप्रदा ७।३२७ दिनरात्रिविधायिनी ७।३२७ समाकृष्टि ७।३२८ अजरा ७१३२८ अनलस्सम्मिनी ७।३२८ गिरिदारिणी ७.३२८ अरिष्यसी ७।३२९ धीरा ७।३२१ वारुणी ७३२१ अवध्या ७३२१ मदनांशिनी ७।३२९ भयसंभूति ७।३३० विजया ७:३३० बन्धनी ७।३३० बाराही ७।३३० चिसोमवारी ७।३३१ कौजेरी ७।३३१ योगेश्वरी ७।३३१ चण्टा ७३३१ प्रवर्षिणी ७।३३१ रतिसंवृद्धि ७।३३३ व्योमगामिनी ७।३३३ सिदार्या ७।३३४ निपघाता ७।३३४ स्तम्भिनी ५२६९ अमोघविजया ९।२१० स्तम्भिनी विद्या ५२।६९ गावाहिनी ६०।१३५
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६२. पिंस्कृति
इस प्रकार की विद्यात्रों को धारण करने वाले विद्याधर कहे गये हैं। इनकी उत्पत्ति नमिनिमि के वंश में कहो गई है । २७५
२७७
अन्य विद्याएँ- उपर्युक्त विद्याओं के अतिरिक्त वज्र (हीरा), मांती (मौभिक), (नीलम), सुवर्ण, रजतायुध तथा वस्त्र शंखादि रत्नों को उनके लक्षण आदि से अच्छी तरह जानना, २७६ वस्त्र पर धागे से कढ़ाई का काम करना तथा वस्त्र को अनेक रंगों में रंगना, लोहा, दन्त, लाख, क्षार पत्थर तथा सूत आदि से बनने वाले नाना उपकरणों को बनाना, ટ मूतिकर्म ( बेलबूटा खोचना), निविज्ञान (गड़े हुए धन का ज्ञान ), दणिग्विधि ( व्यापार कला ), जीवविज्ञान, २७९ मनुष्य घोड़ा आदि की निदान सहित चिकित्सा करना, १८० विमोहन अर्थात् मूर्च्छा तथा नाना प्रकार के कल्पित मत ८२ (सांख्य आदि) विद्याओं का उल्लेख पद्मचरित में किया गया है ।
२८९
*
वर्ण व्यवस्था
पद्मचरित के अनुसार कृतयुग के प्रारम्भ में कल्पवृक्षों का अभाव होने पर प्रजा क्षुधा से पोड़ित हो भगवान् ऋषभदेव के पिता नाभिराम के पास गई। २८३ प्रजा के दुःख को सुनकर नाभिराय ने कहा कि महान् अतिशयों से सम्पन्न ऋषभदेव के पास चलकर हमलोग उनसे आजीविका का उपाय पूछें २८४ क्योंकि इस संसार में उनके समान मनुष्य नहीं है। ऐसा सुनकर प्रजा नाभिराय को साथ लेकर ऋषभदेव के पास गई। प्रजा की प्रार्थना पर ऋषभदेव ने सैकड़ों प्रकार
२७५, पद्म० ६।२१० ।
२७७. वही, २४५८ ।
ललितविस्तर में 'वस्त्र रागः' अर्थात् कपड़े रंगने को ८६ कलाओं के अन्तर्गत स्थान दिया गया है-हजारी प्रसाद द्विवेदी प्राचीन भारत के
कलात्मक विनोद, पू० १९५६
२७६. पद्म० २४४५७ ।
२७८. पद्म० २४/५९ । २७९. वही, २४६३ ।
२८०. वही २४ ६४ /
r
२८१ पद्मचरित में मूर्च्छा के तीन भेद - मायाकृत, पीडा अथवा इन्द्रजाल कृत और मन्त्र तथा भौषधि आदि द्वारा कृत विनायें हैं । पद्म० २५/६५ । २८३. पद्म० ३।२३६ ।
२८२. पद्म० २४।६६
२८४. वहीं, ५।२४५-२४६
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सामाजिक व्यवस्था : ६३
की शिल्प कलाओं का उपदेश दिया। उन्होंने नरी का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि के निर्माण की कला प्रजा को सिखाई । २८५
क्षत्रियादि त्रिवर्ण की प्रसिद्धि-भगवान् ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिप्रस्त मनुष्य की रक्षा करने में नियुक्त किया था वे अपने गुणों के कारण लोक में क्षत्रिय इस नाम से प्रसिद्ध हए ।२८ वाणिज्य, खेती, गोरक्षा आदि के व्यापार में जो लगाये गये थे वे लोक में वैश्य कहलाये । २८७ जो नीच कार्य करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे, उन्हें शुत संज्ञा प्राप्त हुई। शूद्रों के प्रेष्य आदि अनेक भेद थे ।२८८
ब्राह्मण वर्ण और उसका इतिहास-एक बार अयोध्या नगरी के समीप भगवान् ऋषभदेव पधारे । उन्हें आया जानकर भरत, मुनियों के उद्देश्य से बनवाया हुआ नाना प्रकार का उत्तमोत्तम भोजन नौकरों से लिवाकर भगवान के पास पहुँचे । आहार के लिए प्रार्थना करने पर ऋषभदेव ने कहा कि जो भिक्षा मुनिर्यों के उद्देश्य से तैयार की जाती है लह उनके (भदेव के) योग्य नहीं है, मुनिजन उदिष्ट (विशेष उद्देश्य पूर्वक तैयार किया हुआ) भोजन ग्रहण नहीं करते । ऋषभदेव के ऐसा कहने पर भारत ने इस भोजन सामग्री से गृहस्थ का व्रत धारण करने वाले पुरुषों को भोजन कराना नाहा । सम्राट ने आंगन में बोए हए जो, धान, मूग, उड़द आदि के संकुरों से सम्पष्टि पुरुषों की छांट कर ली तथा उन (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों को, जिनमें रत्न पिरोया गया था ऐसे सुवर्णमय सुन्दर सूत्र के चिन्ह से चिन्हित कर भवन के भीतर प्रविष्ट करा लिया और उन्हें इच्छानुसार दान दिया 1 भरत के द्वारा सत्कार पाकर के ब्राह्माण गर्वयुक्त हो समस्त पृथ्वी पर फैल गए ! एक बार भगवान ऋषभदेव ने अपने समवसरण में कहा कि भरत में जिम ब्राह्मणों की रचना की है वे वर्समान तीर्थंकर के बाद पाखण्डी एवं उद्त हो जायेंगे। ऐसा मुनकर भरत कुपित होकर उनको मारने के लिए उद्यत हुए। वे सब ब्राह्मण भयभीत होकर ऋषभ
२८५. शिल्पानां शतमुद्दिष्टं नगराणां च कल्पनम् ।
प्रामाधिसन्निवेशाश्च तथा वेश्मादिकारणम् ।। पम०, ३।२५५ २८६. क्षसत्राणे नियुका ये तेन नाथेन मानवाः ।
क्षत्रिया इति ते लोके प्रसिविं गुणतो गताः ।। पन० ३।२५६ २८७. वाणिज्यकृषि गौरक्षाप्रभृतो में निवेशिताः ।
व्यापारे वैश्यशब्देन ते लोफे परिकीर्तिताः ।। ३५२५७ २८८. ये तु श्रुताद् दुति प्राप्ता नीचकर्मविधायिनः ।
शदसंज्ञामवापुस्ते भेवैः प्रेष्यादिमिस्तथा ।। पप० ३१२५८
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६४ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित सस्कृति
देव की पारण में गये ।२८९ भगवान ऋषभदेय ने हे पुत्र ! इनका हनन मत करो (मा हनन कार्षीः) यह शब्द कहकर इनकी रक्षा को थी इसलिए आगे चलकर ये माहन (ब्राह्मण) इस प्रसिद्धि को प्राप्त हो गये ।२५०
वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं ब्राह्मणादि की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के अनुसार वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मना नहीं, प्रत्युत् कर्मणा है, ऐसा सिद्ध होता है। रविर्षण के अनुसार कोई भी जाति निम्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करने वाले चाण्डाल को भी गणधरादि देव ब्राह्मण कहते हैं । २११ विद्या और विनय ने सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुता मोर पाण्डाल के विषय में पण्डित जन समदर्शी होते है ।२९२ श्राह्मणादि पार वर्ण और चाण्डाल शादि विशेषणों का जितना वर्णन है वह सब आधार भेद से ही संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है । ५५५
जातिवाद का खण्डन-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद के रूप में आति के जो चार भेद कहे है वे अयुक्तिपूर्ण और अहेतुक है। यदि कहा जाय कि बेद वाक्य और अग्नि के संस्कार से दूसरा जन्म होता है, यह भी ठीक नहीं है ।२२४
२८९. पप. ४।११-१२१ २९०, वही, ४१२२ । भाण (ब्राह्मण) की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो कथा यहाँ
दी गई है उसने पधचरित के प्राकृत्त स्रोत का अनुमान होता है, क्योंकि माहण शब्द प्राकृत का है और उसी की एक व्युत्पत्ति प्राकृत उक्ति माहण (मत मारो) से सार्थक बैठ सकती है जैसा कि प्राकृत पउमचरिय में पाया जाता है। संस्कृत में माहण पाब्द को कहीं स्वीकार नहीं किया गया है
और न रविषेण के सम्प्रदाय र परम्परा में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है । इसके विपरीत प्राकृत जैन आगम ग्रन्थों में इस शब्द का महत अधिक प्रयोग पाया जाता है। पपपुराण (सम्पादकीय पृ० ६) भारतीय
ज्ञानपीठ। २९१. पा ११।२०३ ।
२९२. बाही, ११।२०४ । २९३. वही, ११।२०५ । २९४. पद्म ११:१९४ ।
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौजिबन्धन ।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचीदमात् ।। मनु० २११६९ सत्र यद् वा ह्मण जन्मास्य माजीबम्धन चिन्हितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता वाचार्य उच्यते ।। मनु० २।१७०
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सामाजिक व्यवस्था : ६५
इसके लिए युक्ति यह है कि जहां-जहाँ जाति भेद देखा जाता है वहां-वहां शारीर की विशेषता अधक्ष्य पायी जाती है जिस प्रकार कि मनुष्य, हायो, गधा, गाय, छोड़ा आदि में 'ना है !२' के अशिस 4 आतीय पुरुष के द्वारा सम्म जातीय स्त्री में गर्भोत्पत्ति देखी जाती है इससे सिख है कि ब्राह्मणादि में जाति वैचित्र्य नहीं है ।२५६ इसके उत्तर में यदि कहा जाय कि गधे के द्वारा घोड़ी में गर्भोत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए उक्त युक्ति ठीक नहीं है ? तो ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि एक खुर आदि को अपेक्षा उनमें समानता पाई जाती है अथवा दोनों में भिन्न जातीयता ही है यदि ऐसा पक्ष है तो दोनों की जो सम्तान होगी वह विसदृश ही होगी जैसे कि गधा और घोड़ी के समागम से जो सम्तान होगी वह न घोड़ा ही कहलाबेगी और न गया ही किन्तु खच्चर नाम की धारक होगी। किन्तु इस प्रकार की सन्तान की विसदशता वाह्मणादि में नहीं देखी जाती । इससे सिद्ध होता है कि वर्ण व्यवस्था गुणों के आधीन है, जाति के आधीन नहीं है ।११७
जो यह कहा गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति, भुजा से क्षत्रिय को उतात्ति, जंघा से वैश्य को उत्पत्ति और पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई, २५८ वह कथन ठीक नहीं है । यथार्थ में समस्त गुणों के वृद्धिंगत होने के कारण ऋषभदेव बह्मा कहलाते हैं, और जो सत्पुरुप उनके भक्त है, वे ब्राह्मण कहलाते हैं। मत अर्थात विनाश से बाण अर्थात् रक्षा करने के कारण भत्रिय कहलाते हैं, शिल्प में प्रवेश करने से वैश्य कहे जाते है और श्रुत अर्थात् प्रशस्त मागम से जो दूर रहते हैं वे शूद्र कहलाते हैं ।२१९
ब्राह्मण कौन ?-पपरित के अध्ययन से विदित होता है कि उस काल तक ब्राह्मण लोग अपने वास्तविक ब्राह्मणत्व को भूल चुके थे। यही कारण है कि ब्राह्मणत्व के प्रति आदर भाव दिखाते हुए भी, जो कम से ब्राह्मण नहीं है उनकी रविषेण ने पर्याप्त मर्त्सना की है। उनके अनुसार ब्राह्मण के हैं जो
श्रुति की आज्ञा में द्विज के प्रथम माता से जन्म, दूसरे मौजाबन्धन, तीसरे यज्ञ की दीक्षा में ये तीन अन्म होते है। इन पूति तोम जन्मों में वेदग्रहणार्थ उपनयन संस्काररूप जो जन्म होता है उस जन्म में उस बालक को माता सावित्री और पिता आचार्य कहलाते हैं।
'शूदेण हि समस्तावधावद्वेदेन जायत ।।' मनुस्मृति २०१७२ २९५. पद्मः ११५१९५ । २९६. पप० ११.१९६ । २५७. वही, ११११९७-१९८ । २९८. वही, १११९९ । पुरुषसूक्त १२ २१९. वही, ११।२०१, २०२ ।
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१६ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति अहिंसा व्रत धारण करते है,३०० महावत रूपी लम्बी चोटी धारण करते है, ध्यान रूपी अग्नि में होम करते हैं तथा शाम्त है और मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर रहते है १२०१ इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरम्भ में प्रयुक्त है, निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं तथा कियाहीन है।०२ वे केवल ब्राह्मण नामधारी ही है, वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें कुछ भी नहीं है । २०२* ऋषि, संयत, घोर, शान्त, दान्त और जितन्द्रिय मुनि ही वास्तविक काह्मण है ।२०५
भृत्यवृत्ति और उसको निन्दा-पद्मचरित के अध्ययन से ऐसा विदित होता है कि उस समय तक भुस्यवृत्ति बहुत ही निन्दित, गहित और दुःखकारक मानी जाने लगी थी। यही कारण है कि नीलांजना के नत्य को देखने के बाद ऋषभदेव के वैराग्य में इस भावना को मूल बतलाया गया है 1 वे कहते हैं कि इस संसार में कोई तो पराधीन होकर दासवृति को प्राप्त होता है और कोई गर्व से स्खलित वचन होता हु उसे आग प्रदान करता
भाभी उस समय ठीक स्थिति नहीं थी इसी कारण उन्हें नीच कार्य करने वाला बतलाकर उनके प्रेष्य आदि अनेक भेद किए गये । २०५ हिंसक जीवों से भरे हुए वन में छोड़कर मीता को दयनीय अवस्था में देख कृतान्तवक्र सेनापति मृत्यति की बहत अधिक निन्दा करता है। उसके अनुसार जिसमें इच्छा के विस चाहे जो करना पड़ता है, आस्मा परतंच हो जाती है और क्षत् मनुष्य ही जिसकी संदा करते हैं ऐमी लोकनिन्ध भुत्यवृत्ति (दासवृत्ति) को धिक्कार है ।३० जो यन्त्र की चेष्टाओं के समान है तथा जिसको आत्मा निरन्तर दुःख उठाती है ऐसे सेवक की अपेक्षा कुक्कुर का जीवन बहुत अच्छा है ।"0" सेवक कपड़ाघर के समान है जिस प्रकार लोग कचड़ाघर में कचड़ा गालकर पीछे उससे अपना चित्त हटा लेते हैं उसी प्रकार लोग सेवक से काम लेकर पीछे उससे चित्त हटा लेते हैं। जिस प्रकार कचड़ाघर निर्माल्य अर्थात् उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता
३००. प. १०२।८० ।
३०१. १५.० १.९४८१ । ३०२. वही, १०९।८२ । ३०२.* दही, १०९।८३ । ३०३. बही, १०९।८४ । ३०४. बही, ३१२६५ । ३०५, वही, ३४२५८। ३०६. धिग् भत्यतां जगन्निम्यो यत् किंचन विषामिनीम् ।
परायती कृतास्मान सुदमानयसेषिताम् ॥ पन. ९७॥१४० । ३०७. मन्त्रचेष्टिततुल्यस्य दुःखैकनिहितात्मनः ।
भृत्पस्य जीविताद् दूरं वरं कुक्कुरजीवितम् ।। पन९७।१४।
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सामाजिक व्यवस्था : ६७
है उसी प्रकार सेवक भी स्वामी को उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता है ।।२८ जो अपने गौरव को पीछे कर देता है तथा पानी प्राप्त करने के लिए भी जिसे झुकना पड़ता है इस प्रकार तुला मन्त्र को उपमा धारण करने वाले भृत्य का जीवित रहना धिक्कारपूर्ण है । २०९ जो उन्नति, लज्जा, दीप्ति और स्वयं निज को इच्छा से रहित है तथा जिसका स्वरूप मिट्टी के पुतले के समान क्रियाहीन है ऐसे सेवक का जीवन किसीको प्राप्त न हो। जो स्वयं शक्ति से रहित है, अपना मांस भी बेचता है, सदा मद से शून्य है और परतन्त्र है ऐसे भृत्य के जीबन को धिक्कार है ।३११
विभिन्न जातियों या वर्ग-पद्मचरित में विभिन्न जातियों या वो के नाम आए हैं। ये जातियां या वर्ग निम्नलिखित है
सायः १२.-- सेवा हो पाया। धानुष्क३१-धनुष धारण करने वाला पानुष्क कहलाता था। क्षत्रिय१४–जो पुरुष आपत्ति से प्रस्त मनुष्य की रक्षा करते थे । धार्मिक-धर्म सेवन करने वाला३१५ व्यक्ति धार्मिक कहलाता था। ब्राह्मण-ब्राह्मचर्य धारण करने वाला ब्राह्मण कहलाता था।
श्रमण-जो राजा राज्य छोड़कर तप के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते थे वे श्रमण कहलाते थे। क्योंकि श्रम करे सो श्रमण और तपश्चरण ही श्रम कहा जाता है ।३१७ ३०८. संकारकूटकस्यैव परचान्निस चेतसः ।
निर्माल्यवाहिनो पिग्विरभूत्यनाम्नोऽसुधारणम् ।। पद्य ९७१४४। ३०९. पश्चात्कृतगुरुत्वस्य तोयार्थमपि नामिनः ।
तुलायन्त्रसमानस्य धिभत्यस्था सुधारणम् ।। पन० २७।१४५ । ३१०. उन्नत्या त्रपया दीप्त्या वजितस्म निजेन्छया ।
मा स्म भूज्मन्म मृत्यस्य पुस्तकर्म समात्मनः ॥ पत्र ९७१४६ । ३११. निःसस्वस्म महामांसविक्रय फुर्वतः सदा ।
निर्मदस्यास्वतन्त्रस्प पिग्मृत्यस्याऽसुधारणम् ॥ पद्म ९७.१४८ ३१२. सेवक : सेवया युक्तः ।।
पय ६२०८ । ३१३. घानुष्को धनुषो योगाद् ।।
पप० ६।२०८ । ३१४. पन० ३।२५६ । ३१५. धार्मिको घमसेवनात् ।
पप० ६२०१। ३१६. ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यतः ।
पच० ६।२०९। ३१७, परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् ।
तपसा प्राप्तसम्बन्ध तपो हि श्रम उभ्यते ॥ पत्र २१ ।
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६८ : पद्मचारत और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
विद्याधर - नमि और विनमि के वंश में
उत्पन्न हुए पुरुष विद्याधारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते थे । ११८ इन्हें घर भी कहते थे । २१९ - जो गायों की रक्षा, देखरेख वर्ग रह करते थे ।
गोपाल *
7
पालक १२१ -- जो जिसका पालन करते थे उसके पालक कहे जाते थे । जैसे reaties ( अस्तपाल ) गोपालक (गोपाल) उष्ट्रपालक (उष्ट्रपाल ) । इसीलिए रविषेण ने इनका सामान्य नाम पालक दिया है ।
वेश्या २२. जो रूप यौवन द्वारा जीविकोपार्जन करती थी । लासक' —जो नृत्य द्वारा जीविकोपार्जन करते थे । शस्त्रिष२४ -जो शस्त्र धारण करते थे ।
.२४
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अभि १५ जो दूसरे से याचना करते थे । विद्यार्थी - जो विद्योपार्जन करते थे ।
धूर्त २७ - जो छल कपट और पूर्तता द्वारा अर्थ का अर्जन करते थे । गीतशास्त्र कौशलको विद१२८-- जो संगीतशास्त्र के विद्वान् थे । विज्ञान ग्रहणोद्युक्त १२९. -जो कि ज्ञान के प्रहण करने में उद्यत रहते थे ।
शरणप्रास १६० --- जो शरण में आकर रहते थे ।
६३१
सज्जन — जो साधुओं का संग करते थे । वार्तिक २
- समाचार प्रेषक ।
विदग्ध -३१३ विट४
—चतुर पुरुष |
- वेश्याओं के साथ रहने वाले ।
मार्गवति १३३५ सही मार्ग पर चलने वाले ।
चारण जो राजसभा में या जनता के सामने गीत गाया करते थे ।
३१८.
"नमेव विममेस्तथा । फुले विद्याचरा जाता विद्याधरणयोगतः ॥
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३१९. पद्म० ८०१५० ।
३२१. बही, २।२४ ।
३२३. वही, २।३९ ।
३२५. बही, २४० ।
३२७. वही, २४० ।
३२९. वही, २०४९
३३१. दही, २।४२ ।
३३३. वही, २०४३ । ३३५. वही, २०४३
प• ६२९० ।
२०. पद्म० २।१० ।
३२२. वही, २१३९ ।
३२४. वही, २४० ।
३२६. वही, २०४० ।
३२८. वही, २०४१ ।
३३०. वही, २१४२
३३०. वही, २०४३ ।
३३४. वही, २१४३ |
३३६. वही, २/४४ |
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सामाजिक व्यवस्था : ६९
कामुक -कामी पुरुष । सुखो -जिनके समस्त सांसारिक कार्य सिद्ध हो जाया करते थे।
मातंग३३९---चाण्डार को कइसे थे : पाचरित में चाण्डाल ३४० नाम भी आया है।
वन्दि २४१-जिनको किसी अपराध के कारण कारागार में बन्द रखा जाता था।
रजक२४२--जो अनेक प्रकार का शब्द करता हुआ शिलातल पर वस्त्र पछाड़ता था अर्थात् कपड़े साफ करने का कार्य करता था।
ऋत्विक ४--यज्ञ के लिए आमन्त्रित तथा तत्कार्य करने में निष्णात ब्राह्मण ऋस्विज कहलाता था । ये चार होते थे और एक-एक वेद के साथ सम्बद्ध होकर उसकी सहायता से अपना यशीय कर्म निष्पादन करते थे । ___ तापस-ओ ब्राह्मण घरबार छोड़कर (तपस्या के हेतु) वन में रहते थे और कन्दमूल आदि भक्षण करते थे। इनके साथ इनकी पत्नी भी रहती पी।५४४
पुरोहित ५-जो राजा के धार्मिक कार्यों में योग देता था। पुलिन्द --एक प्रकार की असभ्य जंगली जाति को पुलिन्द कहते थे ।
धोष३४७- अहीरों अथवा गोपालकों की बस्ती को घोष कहते है । घोष शब्द संस्कृत साहित्य में कई स्थान पर माया है ! गंगायां घोषः का उदाहरण तो सर्वत्र प्रसिद्ध है।
लब्धक -कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल के द्वितीय अंक के प्रारम्भ में शकुनि लन्चक शब्द आया है, जिसका अर्थ चिड़ियों को मारने वाला शिकारी है । शकुनि लुब्धक का ही संक्षिप्त रूप सुग्धक हो गया। पद्मचरित में लापक शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। पे लुब्धक पक्षियों को पकड़कर बेचा भी करते थे।
श्रेष्ठि-महाजनों के चौधरी या अगुआ पुरुष को प्राचीन काल से ही प्रेष्ठि
३३७. पद्म० २१४४ ।। ३३९, वही, २।४५ । ३४१. वही, ३३१४९ । ३४३. वही, १११०७ ३४५. वही, ४१।११५ । ३४७. वही, ३३१५२ ।
३३८. पद्म० २१४४। ३४०, वही, १४२७॥ ३४२. वही, ११११०१ । ३४४, वही, ११।११७, ११८ । ३४६. वही, ४१।३। ३४८. बही, ३९।१३८ ।
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७० : पचरित और उसमें प्रसिंपादित संस्कृति
कहते थे । इसका नगर में वही स्थान होता था जो मुगल काल में नगर सेठ का। राजदरबार में उसका बड़ा.मान था। वह व्यापारियों का प्रतिनिधि होता था। जातकों के कथानुसार उसका १६ पुश्तैनी होता था। वह अपने सरकारी पद से नित्य राजदरबार में उपस्थित होता या | भिक्षु (साधु) बनते समय अपवा अपना धन दूसरों को बांटते समय उसे रामा की आज्ञा लेनी पड़ती थी। महाजन बहुधा रईस होते थे और उनके अधिकार में दास, घर और गोपालक होते
थे।३४५
गोप३५०-गायों के रक्षक को गोप कहा जाता था। सूद३५१-- रसोइया । कैवर्त३५२--कहार।
पीठमई:५३–पचरित के चतुर्दश पर्व में दिन में भोजन करने का फल राजा तथा महामन्त्री होने के साथ-साथ पीठमर्द होना भी लिखा है 1341 आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में नायक के बहदूरव्यापी प्रसङ्ग प्राप्त परित में नायक के सामान्य गुणों से कुछ न्यून गुण वाले नायक के सहायक को पीठमर्द कहा है। साहित्य दर्पण २३९
लेखवाह --जो पत्र ले जाने का कार्य करते थे। इस कार्य को कभीकमी विद्याधर तक करते थे । ३५५
तक्ष (तक्षक)-बढ़ई का काम करने वाले को तक्ष कहते थे । यह शिल्पियों का अग्रणी या तया युद्ध में सवारी के लिए रथ, माल होने के लिए छकड़े बनाता था जिसकी छत छदिस् कहलाती थी। वह परदा और बसूले से काम करता था और सुन्दर नक्काशी का भी काम करता था ।३५०
नदष५८-जो तरह-तरह का वेष धारण ३५९ कर विचित्र प्रकार की चेष्टायें करता पा !५० एचरित में कहा गया है कि संसारी प्राणियों की अनेक जन्म धारण करने के कारण नर के समान विचित्र चेष्टायें होती है । ३१
३४९. मं० मोतीचन्द्र : सार्थवाह पु. ६५, ६६ । ३५०. पद्मा ३४॥६॥
३५१. प० २२६१३४ । ३५२. दही, १४।२७ ।
३५३. वही, १४॥२८७ । ३५४, मही, १२१८२ ।
३५५. वही, १२१८२ ।। ३५६. वही, १२१८१। ३५७. नरेन्द्रदेव सिंह : भारतीय संस्कृति का इतिहास, पृ० १४० । ३५८. पना ९१॥३१॥ ३५९. पप. १२२३१० । ३६०. वही, ८५।९२ । ३६१. वही, ८५।९२१
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सामाजिक व्यवस्था : ७१
उपाध्याय--यह बालकों को शिक्षा देता था । १२ कुम्भकार-वह मिट्टी के बर्तन (घड़े आदि) बनाने का काम करता
धात्री राजघराने में दाय या धाय का कार्य करने वाली स्त्री को धात्री कहते थे। इसका भी महत्त्वपर्ण स्थान होता था। राजकन्या के स्वयंवर के समय वह दाहिने हाथ ग स्वयंसी दी र न्यः . पाथ चलती हुई झम-क्रम से जपस्थित कुमारों या राजाओं का परिचय देती थी 1३१५
कंचुकी ६-अन्तःपुर में रहने बाले वृद्ध, गुणवान् ब्राह्मण को जो सछ कार्यों के करने में कुशल होता है, उसे कंचुको कहते हैं । पद्मचरित के अष्टम पर्व में जलक्रीड़ा के समय राजकन्याओं की रक्षा के लिए साथ में कंचकी के जाने का उल्लेख है ।३८ अट्ठाईसवे पर्व में सीता स्वयंवर के अवसर पर कंचुकी आगत राजकुमारों या राजाओं का परिचय देता है ।३१९ उन्नीसवें पर्व में राजा दशरथ सुप्रभा के लिए कंचुको के हाथ से जिनेन्द्र भगवान् का गंधोदक भेजते है । ३७० इस पर दशरथ को अन्य रानियों सुप्रभा को बहुत सौभाग्यशाली मानती हैं, क्योंकि उन सबके लिए दशरथ ने दासियों के हाथ से गंधोदक भेजा था ।३७१
भाण्डागारिक (भण्डारी)-यह राजा के भण्डार का स्वामी होता था।
दासी-"जो स्त्रियाँ राजा के अन्तःपुर में सेवा का कार्य करती थीं। पचवरित में इनको निन्दमोय बतलाया गया है।
विदूषक-७४-मो अपने कार्यों, शारीरिक पेष्टाओं, वेप और बोली आदि
३६२. पप २५॥४१ ।
३६३, पथ. ५।२८७1 ३६४. वही, ६१३८१ ।
३६५. वही, ६।३८१-४२२ । ३६६. वही, ८।११। ३६७. अन्तःपुरचरो वृद्धो विप्रो गुणगणान्वितः ।
सर्थकार्यार्थ कुशला कंचुकीत्यभिधीयते ।। (नाट्यशास्त्र) ३६८. पम० ८।१११ । ३६९. वही, २८।२१०-२२३ ।
३७०. पन० २९।१२ । ३७१. वही, २९१३५, ३६ ।
३७२. वहीं, २९।१७ । ३७३. यहो, २९॥३५ ।
३७४. वही, ११२८।
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७२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
के द्वारा जनता को हंसाता है, कलह में प्रेम रखता है और हास्य आदि के कार्य को ठीक जानता है उसे विदूषक कहते है। कुसुम, वसन्त आदि उसके नाम होते है। 34
पोर३७५ ...तो दूसरे का धन जुराने का काम करते थे ।
शबर १७७ - जो जंगल में रहते थे और शिकार आदि किया करते थे उन्हें शवर कहा जाता था । पद्मचरित के ३२ पर्व में इनका शर्वरी नदी के किनारे रहने का उल्लेख मिलता है । इसी आधार पर कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में इनका निवास शवरी नदी के किनारे रहा होगा, इस कारण इनका नाम शबर पड़ गया।
ताम्बलिक३७१-पान बेचने वाले को ताम्बूलिक कहते थे। सूपकारी३८०- रसोइन अथवा सूप (दाल) बनाने वाली |
निषाद३८१--जंगल में रहने वाली और शिकार पर निर्भर करने वाली एक जाति विशेष को निषाद कहते थे । हरिण का शिकार इनमें विशेष प्रचलित था ।
व्याध३८९-जंगल में रहने वाले शिकारियों की एक जाति विशेष । भिषक्३८३-वैध । कपाटजीवि३८४-जो कपाट (किवाड़) बनाकर जीविका करते थे।
द्राग३८५-दाग के लिए पपचरित में कोषाध्यक्ष पद भी आया है। राजकीय कोष की सुरक्षा का यह सबसे बड़ा अधिकारी होता था।
प्राग्रहर –मुखिया या प्रमुख पुरुष को कहा जाता था ।
म्लेच्छ-पदमचरित के २४वें पर्व से मलेल्कों के विषय में बहत कुछ जानकारी मिलती है । इसमें कहा गया है कि विजयाई पर्वत के दक्षिण और कैलाश पर्वत के उत्तर की ओर बीच-बीच में अन्तर देकर बहुत से देश स्थित है।
३७५. कुसुमवसन्ताद्यभित्रः फर्मपुर्वेषभाषाद्यैः ।
हास्यकरः कलहरतिविदूषकः स्यात् स्वकर्मज्ञः ॥ -साहित्यदर्पण ३।४२ । ३७६. पप० २।१७६ ।
३७७, पद्म० २१६९ । ३७८. वही, ३२।२९।
३७९. वहीं, ८०।१७८ । ३८०. वही, ८०.१९८ ।
३८१. वही, ८५1८० । ३८२. वही, ८५/७१ ।
३८३. वही, ८१।५३ । ३८४. वही, ९१।२४ ।
३८५. वही, ९९।१०५ । ३८६. वही, ९९१०७ ।
३८७, वही, ९६।३६ । ३८८. कही, २७।५ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ७३
उन देशों में एक अर्धवर्वर नाम का देश है जो असंयमी जनों के द्वारा मान्य है, धूर्तजनों का उसमें निवास है तथा बह अत्यन्त भयंकर म्लेच्छ लोगों से व्याप्त है । ३८९ उस देश में यमराज के नगर के समान मयरमाल नाम का नगर है। उसमें आन्तरंगतम नाम का राजा राज्य करता था । पूर्व से लेकर पश्चिम तक को सम्बी भूमि में कपोत, शुक, काम्बोज, मंकन आदि जितने हजारों म्लेच्छ रहते थे वे भनेक प्रकार के शास्त्र तथा अनेक प्रकार के भीषण अस्त्रों से युक्त हो आन्तरगतम को उपासना करते थे ' या सं राहत हो आर्य देशों को उजाइते हुए वे जनक के देश को उजाड़ने के लिए उधत हए । ११ तब जनक मे राजा दशरथ को बुलाया। दशरथ की आज्ञा से राम-लक्ष्मण ने उनको नष्ट-भ्रष्ट कर दिया । पराजित होकर जो कुछ म्लेच्छ बधे में वे सघ और विन्ध्य पर्वतों पर रहने लगे । ३९२ इन म्लेच्छों की बेषभूषा तथा आधार वगैरह के विषय में कहा गया है कि उनमें से कितने हो लाल रंग का शिरस्त्राण (साफा) धारण किए थे, कोई छुरी हाथ में लिए थे।३९१ कोई मसले हुए अंजन के समान काले थे। कोई सूखे पत्तों के समान कान्ति वाले थे, कोई कीचड़ के समान थे और कोई लाल रंग के थे । १४ वे अधिकतर कटिसूत्र में मणि बांधे हुए थे, पत्तों के वस्त्र पहिने हुए थे, विभिन्न धातुओं से उनके शरीर लिप्त थे, फूल को मंजरियों से उन्होंने सेखर (सेहरा) बना रखा था । ३९५ कोरियों के समान उनके दांत थे, बड़े मदका (पिठर) के समान उनके पेट ये और सेना के बीच के फूले हुए कुटज वृक्ष के समान लगते थे । ३९६ उनके हाथों में भयंकर शस्त्र थे, उनकी जा, भुजाएं
और स्कन्ध अत्यन्त स्थूल थे तथा वे असुर के समान जान पड़ते थे ।३१७ अत्यन्त निर्दय थे, पशुओं का मांस खाने वाले थे, मूढ थे, पापी थे, बिना बिचारे सहसा काम करने वाले थे । ३१ वराह, महिष, व्याघ्र, वृक और कंक आदि के चिह्न उनकी पताकाओं में थे। अनेक प्रकार के वाहन, नहर, छत्र आदि उनके साथ थे । २१ युद्ध में पराजय के बाद भयभीत होकर कन्द, मूल और फल खाकर वे अपना निर्वाह करने लगे और उन्होंने अपनी दुष्टता छोड़ दो। १००
३८९. पप० २७।। ३११. वही, २७।१०-११ । ३९३. वही, २७४६७ । ३९५. वहीं, २७१६९ । ३९७, वही, २७७१ । ३९९. वही, २७१७३ ।
३९०. पद्मा २७७८.९ । ३९२, वही, पर्व २७ । ३९४, वही, २७।६८ । ३९६. वही, २७१७० 1 ३९८. वहीं, २७७२। ४००. वही, २७।२८।
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७४ : पयरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
वस्त्र और आभूषण किसी भी देश की संस्कृति को भली भांति समझने के लिए वहां की वेशभूषा एवं आभूषण आदि का भी ज्ञान करना परमावश्यक है। पद्मचरित में इस दृष्टि से उपयोगी सामग्री मिलती है, जिसका विवरण निम्नलिखित है--
वस्त्र-पद्मचरित में प्रसादपट ४०" (चादर), अम्भर ४०२, परिकर४०३ (कमरबन्द), उत्तरीम:०४ (दुपट्टा), अशुक ०५, पत्र" (वृक्ष के पत्ते), पल्कल ४०० (छाल के बने वस्त्र), चर्मणिवास:४०६ (चमड़े के वस्त्र), नाना चित्रों को धारण करने वाले बादली रंग के वस्त्र४०१ (मेधकाण्डानि वस्त्राणि नानाचियराणि च), कुशा के वस्त्र (कुशचीवर) ४१०, पट्टोशुक ११, कंचुक १२ (चोली), दुकूल पट,४१३ गल्लक १४ (गद्दा), उपधान १५ (तकिया), वस्त्र,४१५ स्वच्छ, लम्बे, विचित्र
और जल की सदशता को धारण करने वाले वस्त्र (स्वच्छायतविमित्रेण पय:सादृश्यधारिणा अंशुकेन),४१० कुशल शिल्पी के द्वारा रंगा वस्त्र १८ (विशिष्ट शिल्पिना रक्त वस्त्र), काषाय चाससी४११ (गेरुआ वस्त्र), लाल रंग का साफा (रक्तवस्त्रशिरस्त्राणा:४२०), कटिसूत्र ४२१ तथा पत्र चौवर४५३. आदि घस्यों जा समोस मिरता है।
अंशुक-बहस कल्पसूत्र भाष्य४५३ को टीका में इसे फोमल और चमकीला रेफामी कपड़ा कहा गया है। निशीयर में इस शब्द की लम्बी-चौड़ी व्याख्या
४०१. पद्मः १६२४० ।
४०२. पद्म० २१७, ३१२१३ । ४०३, वही, २७३१ ।
४०४. वही, ३३१९८। ४०५, वाही, ३।१९८।
४०६. वही, ३।२९६ । ४०७. वही, ६।२९६ ।
४०८. वही, श२९६ । ४०९, वही, ४०।११।
४१०. वही, ३।२९७ । ४११. बही, ३।१२२
४१२. वही, २०४६ । ४१३. वही, ७१७१ ।
४१४. वही. ७१७२। ४१५. कहो, ७१७२ ।
४१६. वही, १०२।१०३ । ४१७. वही, ७३३३३ ।
४१८. वही, ४९।४५ । ४१९, वही, ३।२९३
४२७. बही, २७।६७। ४२१. वही, २७६९ ।
४२२. वही, २७।६९। ४२३. वृहत् कल्पसूत्र भाष्य ४।३६-६१ । ४२४, निशीथ ४ पृ० ४६७ निशीप में दुकूल की कुछ और हो व्याख्या है।
दुगुल्लो रुषखो तस्स वागोघेत्तु उदूखले कुट्टएजति पाणि एण ताव भाव भूसी भूतो ताहे कमरति गुल्लो अर्थात् दुकूल वृक्ष की छाल लेकर पानी
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सामाजिक व्यवस्था : ७५
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है— 'अंसुयाणि कणगतानि, कणगख सियानि, कणगविलाणि, कणगविचित्ताणि अर्थात् अंशुक में तारबीन का काम होता था, अलंकारों में जरदोजी (स्वचितानि ) का काम तथा उसमें सोने के तार से चित्र विचित्र नक्काशियाँ बनी हुई थीं। उपर्युक्त वर्णन से पता चलता है कि अंशुक किमान अथवा पोत जैसा कोई कपड़ा था । आचारांग में भी इसका उल्लेख है ४२ नायाघम्य कहाओ में राजकुमार गौतम को अंशुक की धोती और दुपट्टा जो रंगीन, महीन और मुलायम था और जिनके किनारों पर सुनहरा काम था, पहिने बतलाया गया है। बाण ने अंशुक वस्त्र को अत्यन्त ही शीना और स्वच्छ वस्त्र माना है । ४२७ पद्मचरित में उतरीय वस्त्र के प्रसङ्ग मे वस्त्र अर्थ का श्रोतन कराने के लिए अंशुक शब्द का प्रयोग हुआ है|४२८ यहाँ पर इसके ऊपर कसीदा के अनेक फूल बनाने (कृतपुष्पकम् ) का उल्लेख है ।
४२९
पट्टांशुक - सफेद और सदा रेशमको ट्र
४३०
जाता था।
कंचुक - पद्मचरित के द्वितीय पर्व में मगध देश की स्त्रियों को कंक (चोली ) पहने बतलाया गया है। गांधार कला में स्त्रियों साड़ी के ऊपर या नीचे कंतुक पहने दिखलाई गई हैं । ये कंचुक लम्बे और कसे हुए होते थे तथा उन पर सलवटें पड़ी रहती थीं । ४३१
दुकूल - पद्मचरित के सातवें पर्व में केकशी को शय्या का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसकी शय्या दुकूल पट से कोमल थी। आषारोग में दुकूल को गौड विषय विशिष्ट कार्पासिकं अर्थात् गौर देश (बंगाल) में उत्पन्न एक विशेष
के साथ तब तक ओखली में कूटते हैं जब तक उसके रेशे अलग नहीं हो जाते। बाद में वे रेशे काल लिए जाते हैं (निशीण ७ ५० ४६७ ॥ ४२५. आचारोग, ३, ५, १, ३ डॉ० मोतीचन्द्र
प्राचीन भारतीय वेशभूषा,
पु० १४८ ।
४२६. नाया धम्म कहाओ १, १३ प्राचीन भारतीय वेशभूषा पृ० १५९ । ४२७. सूक्ष्मविमलेन अंशुकेनाच्छादितशरीरा देवी सरस्वती ( ९ ) विषयन्तुमयेन अंशुकेन उन्नतस्तनमध्यमात्रिका ग्रन्थिः सावित्री (१०) वासुदेवशरण अग्रवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, १०७८ । ४२८. उत्तरीयं च विन्यस्तमंशुकं कृतपुष्पकम् ।। पद्म ३११९८ ।
४२९. वही, ३१९८ ।
४३०. प्राचीन भारतीय वेषभूषा, ५०९५ ।
४३१. वही, पृ० १०९, ११० ।
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७६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
तरह की कपास से बना वस्त्र बहा गया है । ३२
वासस्४३२-- ऋग्वेद" और बाद के साहित्य में पहनने के कपड़ों के लिए साधारणतः वारास शब्द का व्यवहार हुआ है । वसन और बस्त्र के भी बड़ी मा होते हैं । ४३५ अमरकोश में कपड़े के छ: पर्यायवाची यथा-वस्त्र, आच्छादन, वास, चैल, वसन और अंशुक नाम आए है । ४१ पदमचरित में वासम्,४३७
४३२. आचारांग २२५. १, ३ अमरकोश में दुक्ल शीम का पर्यायवाची है और
उसके आवरणों को निवीत और प्रावृत कहते थे। ऐसा लगता है कि लोग जब दुकल के अर्थ को भल गए. तब सभी महीन धूले वस्त्रों को दुगूल कहा जाने लगा। (अमरकोश २, ६, ११२, रघुवंश पर मल्लिनाथ की टोका १, ६५) हंस दुकूल गुप्तयुग की वस्त्र निर्माणकला का उत्कृष्ट नमूना था । आवारांग में एक जगह कहा गया है कि शक ने महावीर को जो हंस दुकूल का जोड़ा पहनाया था वह इतना हलका था कि हवा का मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था। इसकी बनावट की तारीफ कारीगर भी करते थे। वह कलावस्तु के तार से मिलाकर बना था और उसमें हंस के अलंकार पे (आचारांग २, १५, २०) । नावाषम्म कहाको के अनुसार यह जोड़ा वर्ण स्पर्श से सक्त, स्फटिक के समान निर्मल और बहुत हो कोमल होता था (नावाधम्म कहाओ १, १३) । मूल्यवान् कपड़ों के साथ दुकूल के जोड़े भी दिए जाते थे (अंतगड दसाओ १० ३२) दुकल के विषय में बाण ने लिखा है कि वह पुंडदेश (डबर्धनभुक्ति या उत्तरी बंगाल) से बनकर आता था। उसके बड़े-बड़े यान मे से काटकर चादर घोती या अभ्य वस्त्र बनाए जाते थे । बाण का पुस्तक वाचक सुदृष्टि इस प्रकार के कपड़े पहने था (दुगूलपट्टप्रभवे शिखंड्यपांगपांडुनी पांडूकाससी बसाना; ८५)। दुकूल से बने उत्तरीम, साड़ियाँ, पलंग की चादरें, तकियों के गिलाफ आदि नामा प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख बाण के ग्रयों में माया है। सावित्री को दुकूल का वस्त्र पहने हुए (दुकूलवल्कलवसाना, १०)
और सरस्वती को दुकूल वल्कल का उत्तरीय ओढ़े हुए (हृदयमुत्तरीय दुकूलवल्कलैकवेक्षेन संखादयन्ती) कहा गया है ।
पासुदेवशरण अग्रवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययम, पृ० ७७ । ४३३. पद्म० ३.२९३ । ४३४. ऋग्वेद १।३।४।११।११५॥४, ८।३।२४प्राचीन भारत की वेशभूषा, प.१५ । ४३५. ऋग्वेद १९५।७ ।
४३६, अमरकोश २, ६, २१५ । ४३७, पद्म० ३।२९३ ।
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¥1
४३१
बसन
तथा वस्त्र
वस्त्र रखने के पान --
का व्यवहार कपड़ों के लिए हुआ है।
सामाजिक व्यवस्था ७७
पटल — पटल या वस्त्र रखने के पिटारे के विषय में पद्मति में एक प्रसंग आया है । जब दशरथ राम को बुलाकर राज्य देने को उच्चत हुए तब नूपुरों से सुन्दर शब्द करने वाली तथा उत्तम वेष से युक्त स्त्रियाँ पिटारों (पटलेषु) में अस्त्रालंकार लेकर आ गई ।
४४०
षण
आभूषणों की रमणीयता ने भारतीय हृदय को अत्यधिक विमोहित किया | महाँ मनुष्य के अङ्ग अङ्ग के लिए पृथक-पृथक आभूषण थे । पदमचरित में उल्लिखित आभूषणों का विवरण इस प्रकार है-
**
r
४४५
४४६
४४७
शिरोभूषण — सिर पर किरीट ४४१ (मुकुट ) ४४२ मूर्ध्निरत्न ४४० ( मस्तक सीमन्तमपि का मणि), मौलि ४४४ ( मांग में मणि), छत्र शेखर तथा चूणामणि धारण किए जाते थे ।
2
४४८
मौलि डॉ० बासुदेवशरण अग्रवाल ने केशों के ऊपर के गोल सुवर्णपट्ट के रूप में मॉलि की सम्भावना की है । ४४९ पद्मचरित में मौलि को हेमसूत्र (स्वर्णसूत्र ) से वेष्टित ४५०, रत्नों की किरणों से जगमगाने वाला
तथा श्रेष्ठ
मालाओं से युक्त कहा गया है। ४५२
-
शेखर - शेखर सिर के चारों ओर की एक माला होती थी । ४५४० वासुदेवशरण अग्रवाल ने मौलि के ऊपर लगे हुए शिखंड के रूप में इसका अनूमान किया है।
४५४
४३८. पम० ३।२२३ १
४४०. चोरुनूपुर निस्थाना दधानादेषमन्वितम् 1 वस्त्रालंकारमादाय पटलेब्वागताः स्त्रियः ।।
४४१. पद्म० ११८२४७ ।
४४३. बड़ी, ७१ ६५
४४५. वही, ८।७० ।
४३९. पद्म० ४१७५ ।
पद्म० २७।३२ ।
४४२. पद्म० ८५११०७ १
४४४. वहीं, ७११७ | ४४६. वही, २७/५७ । ४४८. वही, ३६१७
४४७. वही, ३११९९ ।
४४९. हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पू० २१९ ।
४५१. पद्म० ११।३२७ ।
४५०. पद्म० ७१ ७ ।
४५२. वह ३१३५३ ।
४५३. नरेन्द्रदेव शास्त्री भारतीय संस्कृति का इतिहास |
४५४, वासुदेव शरण अवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पु० २१९ ।
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७८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सोमन्तमणि-यह एक विशेष प्रकार की मणि थी जिसे स्त्रियो मांग में पहना करती थीं। इसकी कान्ति का समूह चूंघट का काम देता था । ४५५ ऐसा पद्मचरित में कहा गया है ।
चुणामणि--चूणामणि प्राय' स्वर्ण की खोल में जटित पदमराग (लालमणि) होती थी । यह मुकुट, साफे और नंगे सिर वालों के कपर भी पहिनी जाती थी। यह स्त्रियों और पुरुषो दोनो में समान रूप से प्रिय थी। राजा लोगों और सम्पन्न लोगों की चूणामणि विविध रस्नों से अटित होती थी । ४५६ पद्मपरित में मक्षाविप द्वारा सीता को देदीप्यमान चूणामणि देने का उल्लेख किया गया है।४५७ ७१वें पर्व में निर्दिष्ट मनिरत्न ४५८ से तात्पर्य सम्भवतः घृणामणि
कर्णाभूषण कुण्डल-कान का सामान्य भूषण कुण्डल था, जो एक भारी-सा घुमावदार लटकाने वाला महना था ओर लेखामात्र शरीर संचालन से हिलन हुलने लगता था । पदमचरित में 'चपलो मणिकुण्डल:' कहकर इसकी चंचलता का कथन किया गया है। कुण्डल शब्द संस्कृत के 'कुंडलिन्' (कुंडली मारने वाले सांप) से सम्मान है, क्योंकि दोनों घुमावदार होते हैं। कुण्डल तपाए गए सोने के बने होते थे और रत्न या मणि जटित होने पर रत्नकुण्डल या मणिकुण्डल कहलाते थे।५९ पद्मचरित ५० में ऐमे मणिकुण्डलों का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है।
अवतंस.१९---चरण में हर्षचरित में कान के दो आभूषणों का वर्णन किया है। एक अवतम जो प्रायः फूलों के होते थे और दूसरे कुण्डलादि आभूषण । ४४२ पद्मचरित में अवतंस को चंचल (चलावतंसका) अर्थात् हिलने-डुलने वाला कहा
बालिका–(वालिया) पदमचरित के आठवें पर्व में रविषेण ने मन्दोदरी
४५५. पन० ८७०। ४५६. मरेन्द्रदेव सिंह : भारतीय संस्कृति का इतिहास । ४५७. पदम० ३६७ ।
४५८. वही, ७१॥३५ । ४५९. शान्तिकुमार नानूराम व्यास : रामायणकालीन संस्कृति । ४६०. पद्म १९८१४७, १११३१७, ७१।१३ । ४६१. पदम० ३१३ । ४६२. वासुदेवशरण अग्रवाल ; हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १४७ । ४६३, पद्म ७॥
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सामाजिक व्यवस्था ७९
का वर्णन करते हुए कहा है-उसने अपने कानों में बालियाँ पहन रखी थीं । उनको प्रभा से वह ऐसी जान पड़ती यो मानो सफेद सिन्दुबार (निर्गुण्डी) की मंजरी ही धारण कर रही हो । ४१४
-
तलपत्रिका – कान में पहनने का दांत से निर्मित एक आभूषण जिसे पुरुष एक कान में पहनता था । पद्मचरित में इसे महाकान्ति से कोमल ( महाकान्ति कोमला ) कहा गया है । ४५ शब्दों का
४९५
इनके अतिरिक्त पद्मचरित में कर्णभूषण
तथा कर्णाभरण*
भी प्रयोग कानों के आभूषण के अर्थ में हुआ है ।
४६६
कण्ठाभूषण
*
का उल्लेख किया गया है ।
४३९
४७१
४७२
हार -- पद्मचरित में अनेक स्थलों पर हार रावण के पिता के पास ऐसा हार था जिसकी नागेन्द्र रक्षा करते थे । वह हार अपनी किरणों से दसों दिशाओं को प्रकाशमान करता था 1४७० उस हार में बड़े-बड़े स्वच्छ रत्न लगे थे । उन रत्नों में असली मुख के सिवाय नो सुख और भी प्रतिबिम्बित होते थे। रावणका दशानन नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि उसके असली मुख के सिवाय नो सुख और भी प्रतिबिम्बित होते थे । इस हार की हजार नामकुमार रक्षा करते थे । माला को भी हार कहते थे । मोतियों की बनाई हुई माला को भुक्ताहार कहते थे । मुक्तामाला भी मिलता है। हार की दीप्ति से लोग बहुत आकर्षित थे । एक स्थान पर हार का नाम स्वयम्प्रभ बतलाया गया है। इस हार को यथाधिप ने प्रसन्न होकर राम को दिया था। हार प्रायः रत्नों मा मणियों से गूँथे जाते थे । रामायण में हारों को चंद्ररश्मियों की-सी कान्तिवाला (चन्द्रांशु किरणामा हारा: ५।९ ४८ ) बतलाया गया है ।
४७३
इसकी दूसरा नाम
४७५
४७६
४६४. कर्णयोलिकालोकान्मुक्ता फलसमुत्थितात् ।
सितस्य सिन्दुवारस्य मञ्जरीमिव बिभ्रतीम् । पद्म० ८७१ ।
४६६. पद्म० ३।१०२ ।
४६५. पद्म० ७१ । १२ ।
४६७, वही, १०३ । ९४ ।
४६८. वही ८५१०७, ८८ ३१, १०३९४ ७ २२१, ७२१८, ७२१५,
३ ।२७७ ।
४६९. पद्म० ७।२१९ ।
४७० पद्म० ७।२२१ ।
४७२. दही, ७।२१५ ।
४७१. बही, ७/२२२ । ४७३. वही, ३१२७७ । ४७५. वही, ३६ | ६ |
४७४. वही, ७१।२ ।
४७६. शान्तिकुमार नानूराम व्यास रामायणकालीन संस्कृति, पु० ६०
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८० पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
स्रक्
माला में अनेक भारतीय भावनाओं ने प्रथन प्राप्त किया था । प्रत्येक माङ्गलिक कार्य में माला को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता था। अधिकतर ये मालाएँ फूल की हुआ करती थीं। सोने, मोती आदि की भी मालायें हुआ करती थीं। माला जिस विशेष वस्तु से निर्मित होती थी उसी के आधार पर उसका नाम पड़ जाता था । છત
४७७
हाटक - पद्मचरित के प्रसङ्गानुसार हाटक का तात्पर्य सुवर्णमाला से लगाया जा सकता है । लव-कुश की बाल्यावस्था का वर्णन करते हुए रविषेण ने कहा है कि हाटक (सुवर्णमाला) में खचित ध्यान सम्बन्धी नखों की बड़ी पंक्ति उनके हृदय में ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानों दर्प के अंकुरों का समूह ही हो ।
४७९
रत्नजटित स्वर्णसूत्र ४८० - ( रत्नसंयुक्तं कांचन सूत्रकम् ) - सोने के धागे मैं पिरोया हुआ रहनों का हार ।
कराभूषण
केयूर ४०१ – बाँहों में भुजबन्द ( अंगद या केयूर ) पहनने को परम्परा स्त्री और पुरुष दोनों में थी ४८२ फेयूर सोने या चांदी के बनते थे, जिनमें लोग अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार मणियों जड़ा लेते थे । ४८३ पद्मचरित में एक स्थान पर स्वर्णनिर्मित फेयूर ( हेम केयूर ) ) *૮* का उल्लेख मिलता है। चांदी के केयूर का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। आधुनिक पहलवान के गंडों के समान लोग केयूरों को भुजदण्ड पर कुहनी से ऊपर बाँधा करते थे । ४८५ ग्यारहवें पर्व में बाजूबन्दों की किरणों से कन्धों के देवीप्यमान होने का कथन किया गया है ।
कटक - - हाथ में सोने, चांदी हाथीदांत तृषा शंख के प्राचीनकाल में प्रचलित थी । ♦ पद्मचरित से हमे बायें
कड़े पहनने की प्रथा
हाथ में स्वर्णनिर्मित
४७७, पद्म० ८८३१, ३।२७७ ॥
४७८. नरेन्द्रदेव सिंह भारतीय संस्कृति का इतिहास, पृ० ११४ ।
४७९ १० १०० १२५ ॥ ४८०. पद्म०, ३३/१८३ १ ४८१. बी. ८५१०७, ११३२८, ८ ४१५, ८८ ३१ ३२ ३ १९० । ४८२, नरेन्द्रदेव सिंह भारतीय संस्कृति का इतिहास, पृ० ११५ । ४८३, पद्म० । ४८४. पद्म० ३।११० । ४८५. भारतीय संस्कृति का इतिहास, पू० ११५ । ४८६. पद्म० ११०३२८ । ४८७. नरेन्द्रदेव सिंह भारतीय संस्कृति का इतिहास, पू० ११५ ।
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सामाजिक व्यवस्था : कड़े पहनने की जानकारी मिलती है ।४४४ कड़े की आभा से किरणे निकला करती थीं, जिनसे हार्थों की हथेलियां आच्छादित हो जाती थीं । ८९ __अमिका ५०--(अंगूठो)-अंगूठो के साथ भारतवासियों की पता नहीं कितनी मधुर भावनायें लिपटी हुई है। कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल में अंगूठी एक महत्त्वपूर्ण नाटकीय भूमिका अदा करती है। पद्मचरित के तैतीसवें पर्व में एक वर्णन माता है कि बचकर्ण ने मुनिसुव्रतनाथ भगवान की प्रतिमा से युक्त एक स्वर्ण की अंगूठी (ऊमिका) बनवाई तथा उसोके सहारे जिनेन्द्रदेव के अतिरिक्त अन्य किसीको नमस्कार न करने की महत्वपूर्ण प्रतिज्ञा निभाई।४२१
कटि के आभूषण काञ्ची-स्त्री की करधनी के लिए पद्मचरित में काञ्चौ ४१२ और मेखला दो शब्द आए हैं । आभूषण के रूप में तो इनका आकर्षण पा ही अनोवस्त्र को पथास्थान रखने में भी यह सहायक होती थी। काञ्ची धुंघरूदार सोने के कमरबन्द को कहते थे।४११ पद्मचरित में एक स्थान पर इसे मणिसमूह से सुशोभित कहा है ।१९४ मणियों को दानेदार करधनी को मेखला भी कहते थे । ५५
पैरों के बाभूषण नूपुर-परों के आभूषण के रूप में पद्मचरित में एकमात्र नूपुर का उल्लेख हमा है । राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर स्त्रियां नूपुरों का शब्द फरती हुई, उत्तम वस्त्र धारण कर तथा पिटारों में वस्त्रालङ्कार लेकर आ गई।४५६ नपुर सादे या मणिमटित और मधुर मंकार करने वाले धरुओं से युक्त होते थे। नूपुर जल्दी से पहनाया-उतारा जा सकता था । ४९७
आर्थिक जीवन पद्मचरित का समाज एक सुव्यवस्थित समान है । सुव्यवस्थित समाज में जीविकोपार्जन अब्यबस्थित समाज को तरह कठिन नहीं होता है। अनेक प्रकार के कला-कौशल ऐसे समाज में विकसित हो जाते है। पद्मचरित में समाज की
४८८, पद्म० ३।३।।
४८९. पद्य० ३।३। ४९०. वही, ३३३१३१ ।
४९१. वही, ३३।१३१-१२३ । ४९२. वही, ८७२।
४९३. बही, ७१६६५ । ४९४. वही, ८1७२ । ४१५. शान्तिकुमार नानूराम व्यास : रामायणकालीन संस्कृति, पृ० ६१ । ४९६. पदमः २७।३२ । ४९७. शान्तिकुमार नानूराम व्यास : रामायणकालीन संस्कृति, पृ. ६१ ।
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८२ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति इस विकसित अवस्था के स्पष्ट वर्शन होते है, जैसा कि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट है-..
वाणिज्य-कृषि तथा औद्योगिक शिल्पों से उत्पन्न वस्तुओं का क्रय-विक्रय हुआ करता था। १४३ पर्व में बेर आदि को बेचने वाले भद्र नामक पुरुष को कथा आती है। उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं एक दीनार का ही परिग्रह रतूंगा । ४२८ इसमे ज्ञात होता है कि क्रय-विक्रय का माध्यम दीनारें थों । ४५९ काम्पित्य नगर में बाईस करोड़ दीनारों का धनो एक वैश्य रहता था ।५०° इससे स्पष्ट है कि संचित धन के रूप में लोग दीनारों को रखते थे। धनोपार्जन के लिए लोग विदेशों में भी जाया करते थे। एक स्थान पर कहा गया है कि धन का उपार्जन करना, विद्याग्रहण करना और धर्म संचय करना पे तीनों कार्य यद्यपि मनुष्य के आधीन है फिर भी प्रायः इनकी सिद्धि विदेशों में होती है ।५०५ व्यापार करने के लिए व्यापारियों के बड़े-बड़े संघ विदेशों में जाया करते थे। द्वितीय पर्व में वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति में इन्द्र कहता है कि आप सार्थवह ०२ हो, भव्य जीव रूपी व्यापारी आपके साथ गिर्वाण धाम को प्राप्त करेंगे तथा दोष रूपी चोर उन्हें नहीं लूट सकेंगे। समुद्री मार्गों की दूरी तय करने के लिए नौकाओं (नौ)१०३ से लेकर बड़े-बड़े जहाज तक प्रयुक्त किए जाते थे । जहाज के लिए पोत०४ तथा पानपत्र शब्द प्रयुक्त किए जाते थे। ब्यापार करने वाले को वणिज्"", वणिक, तथा वैश्य कहते थे। इनकी क्रिमा वाणिज्य कहलाती थी । वाणिज्य विद्या की विधिवत् शिक्षा दी आती थी। संतीस पर्व में विद्युदग का व्यापार की विद्या से युक्त हो (युक्तो वाणिज्यविद्यया) उज्जयिनी नगरी जाने का उल्लेख हुआ है ।५०८ स्थल व्यापार में मार्ग की दूरी तय करने के लिए५०५ शकट (गाड़ो) का उपयोग किया जाता था । आवश्यकता पड़ने पर ४९८. पद्म १४।१९५। ४९९. पद्म० ७११६४३ ५००. वहीं, ८५।८५ ।
५०१. वही, २५।४४ । ५०२. समान या सयुक्त अर्थ (पूजी) वाले व्यापारी जो बाहरी मण्डियों के
साथ व्यापार करने के लिए टौडा लादकर चलते थे वे साथ कहलाते पे । उनका नेता ज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था। डॉ. मोतीचन्द्र :
सार्थवाह (भूमिका), पृ० १०२।। ५०३. पद्म० ११०५६ । ५०४. पद्म. १०।१७४, ८३८०, ४५।६९ । ५०५. वही, ११८।९९, ५५.६१ । ५०१. वहीं, ५।४१, ६।१५४ । ५०७. वही, ५५।६।
५०८. वही, १३३।१४५ । ५०९. वही, ३३।४६ ।
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सामाजिक अवस्था : ८३
लोग एक-दूसरे का धन उधार ले लेते थे। इस प्रकार के लेनदेन के लिए व्यवहार पाम्द आया है । कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रजा इस प्रकार के व्यवहार से रहित
थी।५१०
कृषि-पद्मपरित में खेत के लिए क्षेत्र ५१" शब्द का प्रयोग किया गया है। खेत दो प्रकार के थे--उपजाऊ तथा अनुपजाऊ । अनुपजाऊ क्षेत्र या खेत के लिए खिल५१२ (खल) तथा उपजाऊ खेत के लिए वर्षग५१३ (क्षेत्र) कहा जाता था। उस समय स्खेती हलों१४ (लांगल) से होती थी। जिस व्यक्ति के पहां जितने अधिक हल चलाये जाते थे वह व्यक्ति उतना अधिक समृद्ध माना जाता था । भरत चक्रवर्ती के यहाँ एक करोड़ हल । ५१५ राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न के यहाँ पचास लाख थे । १६ खेती करने वाले को कर्षक कहते थे।५१० हलबाहक को कीनाश कहते थे।५१८ खेतों में पृण्ड (पाँडा)५१९ तथा इक्षु५२० (ईन) के अतिरिक्त, अनेक धान्यों"३१ को बोया जाता था। शाक तथा कन्दमूल की खेती भी होती थी । ५२२ फलों के लिए नालिकेर५२॥ (नारियल), दाहिमी५२४ (अनार), द्राक्षा २५ (दाख), पिण्डखजूर ५२६ मआदि के वृक्ष लगाये जाते थे। बिना जोते-बोए उत्पन्न हुए धान को अकृष्टपच्यसस्य५२७ कहते थे। कर्मभूमि के प्रारम्भ में भरत क्षेत्र की भूमि अकृष्टपच्यसस्य से युक्त
यो ।२८
सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था थी। कग से घटीयन्त्र (अरहट या रहट) के द्वारा सिंचाई होती थी । २५ पद्मचरित में अनेक तालाब५३० तथा नदियों का उल्लेख है । अतः इनसे भी सिंचाई की जाती होगी। अनाज पककर काटने के
५१०. पत्र० ३।३३२ । ५१२. वही, ३७०। ५१४, वही, २३ । ५१६. वही, ८३।१५ । ५१८. वही, ३४।६० । ५२०. वही, रा४। ५२२. बही, २।१५ । ५२४. वहीं, ।१६। ५२६. वही, २०१९ । ५२८. वही, ३२३१ । ५३०. वही, २०२३, २०१००।
५११. पप० २।३ । ५१३. वहीं, २७ । ५१५. वही, ४।६३ । ५१७. वहो, ६।२०८ ॥ ५१९. वहीं, २४॥ ५२१. वही, २५-२। ५२३. वही, २०१५ ५२५. वहीं, २०१८ : ५२७. वहो, ३।२३१ ।
५२९. वही, २।६, ९८२ ।
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८४ : पश्वचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
बाद जहां रखा जाता था उस स्थान को खलधाम ९१ (खलिहान) कहा जाता था।
पशुपालन-पशुपालन जीविका का उत्तम साधन था ! द्वितीय पर्व में मगध देय का वर्णन करते हुए कहा गया है-हितकारी पालक जिनकी रक्षा कर रहे थे ऐसे खेलते हुए सुन्दर शरीर के धारक मेह, ऊंट तथा गायों के बछड़ों से उस देश की समस्त दिशाभों में भीड़ लगी रहती थी । घ२ इस उल्लेख से गायों, भेड़ों तथा ऊंटों की संख्या का सहज अनुमान लगाया जा सकता है । गोपाल के द्वारा रक्षित गायों का बड़ा ही सुन्दर षि रविषेण ने खींचा है----मड़े-बडे भैसों की पीठ पर बैठे गाते हुए ग्वाले जिनकी रक्षा कर रहे है, शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में लगे हुए कीड़ों के लोभ से ऊपर की गर्दन उठाकर चलने वाले बगुले मार्ग में जिनके पीछे लग रहे है, रंग-बिरंगे मूत्रों में बँधे हुए घंटाओं के शब्द से जो बहुत मनोहर जान पड़ती है मानों पहले पिए हर क्षीरोदक को अजीर्ण के भय से छोड़ती रहती है, मधुर रस से सम्पन्न तथा इतने कोमल कि मुंह की भाप मात्र से टूट जाये ऐसे सर्वत्र व्याप्त तणों के द्वारा जो अत्यन्त तप्ति को प्राप्त होती थीं ऐसी गायों के द्वारा उस देश (मगधदेश) के वन सफेद-सफेद हो रहे है । कृषक समाज के लिए पशुओं की और उनमें भी वि@षकर गायदैलों की बद्दुत अधिक महत्ता रहती है, इस कारण गोपालन आदि की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। सवारी के लिए घोड़े,५२४ हाथो५५५ आदि की विशेष महत्ता यो । जो व्यक्ति जितने अधिक पशुओं का स्वामी होता था, वह उतना ही अधिक धनी माना जाता था। भरत चक्रवर्सी के यहाँ तीन करोड़ गायें, चौरासी लाख उत्तम हाथी तथा वायु के समान वेगशाली अठारह करोड़ घोड़े थे।" राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के एक करोड़ से अधिक अपनेआप दूध देने वाली गायें थी । सुन्दर गायों ओर भैसों से युषस कुटुम्बियों को
५३१. पय रा५ ।
५३२. एम. २१२४ । ५३३. महामहिषपृष्ठस्थगायगोपालपालितः ।
कोटातिलम्पटोग्रीव बलाक्रानुगतास्वमिः ॥ पप०, २०१० विवर्णसूत्रसम्बबघण्टाररितहारिभिः । क्षारदिभरजरवासात पीतक्षीरोदयत् पयः ॥ पन० २०११ सुस्वादरससम्पन्नष्पिच्छेबरनम्तरः।
सुणस्तृप्ति परिप्रान्तर्गोषमैः सितकक्षभूः ॥ पन० २११२ ५३४. पप ४।८।
५३५. प. ४१८॥ ५१६. वही, ४।६३-६४ ।
५३७. वही, ८३।१५ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ८५
अत्यधिक सूखी माना जाता था। एक स्थान पर ऐसे फुटुम्नियों को उत्तम देवों के समान मुशोभित कहा गया है ।"३" दूध, दही, घी तथा पी से तैयार किए गए अनेक स्वादिष्ट व्यरजन उस समय का प्रमुख भोजन था । ५३९
अन्य उद्यम-कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के अतिरिक्त अन्य अनेक उद्यम थे । इन उद्यमों को करने वाले व्यक्ति विशेन नामों से पुकारे जाते थे । जैसे सेवक, धानुष्क, क्षत्रिय, ब्राह्मण, नृत्यकार, रजक, पुरोहित, शबर, पुलिन्द, लुब्धक, संगीतज्ञ तथा श्रेष्ठ आदि । इन सबका उल्लेख पहले किया जा चुका है।
आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा-आशिक समृद्धि की पराकाष्ठा का रूप यद्यपि तीर्थर की भौगोपभोग सामग्री में मिलता है, किन्तु तीयंबर के पुण्यप्रकर्ष से यह सब देवोपनीत होने से यहां पर उसका विशेष कथन नहीं किया जाता है। भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त करने में दूसरा स्थान चक्रवर्ती का है । चक्रवर्ती की सम्पदा की गणना में भरत चक्रवर्ती की कृषि और पशु सम्पदा का उल्लेख किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त उनके पास नव रत्नों से भरी हई अक्षय नौ निधिर.५१° निन्यानरमा भौं । मज को हो शामर
५३८. पन० ८३।२० ।
५३९. पा० ३४।१३-१६ । ५४० . आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण में भरत चक्रवर्ती की नौ निधियों में
१-काल, २ महाकाल, ३-पाणक, ४-माणच, ५-नौसर्प, ६-सर्वरन्न, ७-शंख, ८-पद्म और ९-पिंगल को गिनाया है। ये सभी निधियां भविनाशी थीं, निधिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं और निरम्तर लोगों के उपकार में आती पी। में गाड़ी के आकार की थी, चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों सहित थीं। नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, आठ योजन गहरी बोर वभारगिरि के समान विपाल कृषि से सहित थीं। प्रत्येक को एक-एक हजार देव निरन्तर घेखरेख करते थे ।
इनमें से पहली कालनिधि में ज्योतिःशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र एवं पुराण आदि का सद्भाव था अर्थात् कालनिधि से इन सबकी प्राप्ति होती थी । दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों के द्वारा निर्णय करने योग्य पंचलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था। तीसरी पाण्छुक निधि में मालि, मोहि, जो आदि समस्त प्रकार की धान्य सथा कड़ए, चरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था । चौथी माणबक निधि कवच, दाल, सलवार, बाण, शक्ति, अनुष तथा चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य वस्त्रों से परिपूर्ण यो। पाँचवीं
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८६ : पधचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहा गया है ।५४१ बसीस हजार महाप्रतापी राजा थे । नगरों से सुशोभित मस्तीस हजार देश थे, देव लोग सवा जिनकी रक्षा करते थे, ऐसे चौदह रत्न ५४५ और छियानबे हजार स्त्रियां थीं ।५४३
पक्रवर्ती के बाद दूसरा स्थान नारायण तथा बलभद्र की गम्पदा का है । पद्यति विशेष रूप से काय, लगन और बलमा राम की सम्पयाओं और उनके कार्य-कलापों का वर्णन है। तदनुसार उनके अनेक द्वारों तथा उच्च गोपुरों से युक्त इन्द्र भवन के समान सुन्दर लक्ष्मी का निवासमत नन्द्यावर्त नाम का भवन था । ४४ किसी महागिरि की शिखरों के समान ऊँचा चतुःशाल नाम का कोट था, वैजयन्ती नाम की सभा थी । चन्द्रकान्त मणियों से निर्मित सुवीयो वाम की मनोहर शाला श्री, अत्यन्त ऊँचा तथा सब दिशाओं का अवलोकन कराने वाला प्रासादकूट' या, विन्ध्यगिरि के समान ऊँचा बर्वमानक नाम का प्रेक्षागृह था, अनेक प्रकार के उपकरणों से युक्त कार्यालय थे, उनका गर्भगृह कुमकुटी के अण्डे के समान महान् आश्चर्यकारी था, एक ग्वाम्भे पर खड़ा था और कल्पवृक्ष के समान मनोहर था। उस गर्भगृह को चारों ओर से घेरकर
सर्प निधि, शस्या, आसन आदि नाना प्रकार की वस्तुओं तथा घर के उपयोग में आने वाले नाना प्रकार के भानों की पात्र थी। छठवी सर्यरलनिधि, इन्द्रनीलमणि, महानीलमणि, वनमणि श्रादि बड़ी-बड़ी शिखा के धारक उत्तमोत्तम रत्नों से परिपूर्ण थी। सातवीं शंख नामक निधि भेरी, शस्ख, नगाड़े, वीणा, झल्लरी और मृदंग आदि बाघात से तथा फूंककर बजाने योग्य नाना प्रकार के पाजों से पूर्ण थी । आठवी पानिधि पाटाम्बर, पीन, महानेत्र, दुकूल, उत्तम कम्बल तथा नाना प्रकार के रंग• बिरंगे वस्त्रों से परिपूर्ण थी। नौवीं पिंगल निधि कड़े तथा कटिसूत्र आदि स्त्री-पुरुषों के आभूषण और हाथी, घोड़ा आदि के अलंकारों से परिपूर्ण थी। ये नौ को नौ निधिया कामबुष्टि नामक गृहपति के आधीन थीं और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूरा करती थीं।
जिनसेन : हरिवंश पुराण ११।११०-१२३ । ५४१. पद्म० ४।६२ । ५४२. भरत पक्रवती के चक्र, छत्र, खंग, दण्ड, काकिणी, मणि, चर्म, सेनापति,
गृहपति, हस्ती, अश्व, पुरोहित, स्थपति और स्त्री ये चौदह रत्न थे। इनमें से प्रत्येक की एक-एक हजार वेव रक्षा करते थे। जिनसेन : हरि
वंशपुराण, ११।१०८-१०९ । ५४३. प० ४।६४-६६ ।
५४४. पम० ८३४
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सामाजिक व्यवस्था : ८७
तरङ्गावली नाम से प्रसिद्ध तथा रत्नों से देदीप्यमान रानियों के महलों की पंक्ति थी। बिजली के खम्भों के समान कान्तिबाला अम्भोजकाण्ड नामक शय्याग्रह था, जगते हुए सूर्य के समान उप्सम सिंहासन था, चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान चमर थे । इच्छानुकूल छाया को करने वाला चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त बड़ा भारी छत्र था। सुख मे गमन कराने वाली विषमोचिका नाम को खड़ा थो, अनर्घ्य वस्त्र थे, दिव्य आभूषण धे, दुर्भेद्य कवच था, देवीप्यमान मणिमय कुण्डलों का जोड़ा था, कभी ध्यर्थ नहीं जाने वाले गदा, खड्ग, चक्र, कनक, बाण तथा रणागण में चमकने वाले अन्य बड़े-बड़े वास्त्र थे, पनास यस हल थे, एक करोड़ से अधिक अपने-आप दूध देने वाली गायें थों । अयोध्या नगरी में अत्यधिक सम्पत्ति को धारण करने वाले कुछ अधिक रात्तर करोड़ कुल थे। गृहस्थों के समस्त घर अत्यन्त सफेद, नाना आकारों के शक, अक्षीण खजानों से परिपूर्ण तथा रत्नों से युक्त थे 1 नाना प्रकार के अन्नों से परिपूर्ण नगर के बाट प्रदेश छोटे-मोटे गोल पर्वतों के समान जान पड़ते थे और पक्के फगों से पुक्त भवनों की चौशाले अत्यन्त सुखदायी थीं । उत्तमोत्तम बगीचो के मध्य में स्थित नाना प्रकार के फलों से सुशोभित, उत्तम सीहियों से यक्त एवं क्रीड़ा के योग्य अनेक वापिकायें थीं । ४५ अयोध्या नगरी के बड़े-बड़े विद्यालयों को देखकर यह सन्देह होता था कि ये देवों के क्रीडाञ्चल है अथवा शरद् ऋतु के मेषों का समह है ,५४६ इस नगरी का प्राकार समस्त दिवाओं को देदीप्यमान करने वाला अत्यन्त कैचा, समुद्र की बैदिका के समान तथा बड़े-बड़े शिखरों से सुशोभित था। ये सब वैभव जिनका कि कथन किया गया है बलभद और नारायण पद के कारण उनके प्रकट हुआ। वैसे उनका जो वैभव और भोग था उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।५४८
जनजीवन-साधारण मनुष्य भी उस समय समृच और सुखी थे । आज की तरह उस समय भी नगर वैभव और समृद्धि के प्रतीक थे। नगर में प्रत्येक प्रकार के व्यक्तियों और प्रत्येक प्रकार के उद्यमों का समवाय था । पदमपरित के द्वितीय पर्व में प्रतिपादित राजगृह नगर इसका सबसे बड़ा प्रतीक है। गांव का जीवन सीधा-सादा था। विशेषकर हस्त-कौशल, खेती और पशुपालन ग्रामीणों की मुख्य आजीविका थी। देश के कुछ भाग ऐसे भी थे जहाँ किन्हीं प्राकृतिक कारणों से लोगों को वार्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ता था। एकादश पर्व में रावण का ऐसे देश में जाने का वर्णन है जहाँ जाने पर पृथ्वी अफूष्ट पक्ष्य धान्य
५४५. पद्य० ८३।५-१९ । ५४७. वही, ८३।२९ ।
५४६. पप ८३३२८ । ५४८. वहीं, ८३६२-३३
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से युक्त हो गई थी ।५४९ प्रसन्न होकर किसान लोग हम प्रकार कहने लगे कि हम लोग बड़े पुण्यात्मा है, जिससे रावण इस देश में आया । ५५० अब तक हम खेती में लगे रहे, हम लोगों का सारा शरीर रूखा-सूखा हो गया, हमें फटेपुराने वस्त्र पहिनने को मिले, कठोर स्पर्श और तीव-वेदना से युक्त हाथ-पैरों को धारण करते रहे और आज तक कभी सुख से अच्छा भोजन हमें प्राप्त नहीं हुना । हम लोगों का काल बड़े क्लेश से व्यतीत हमा परन्तु इस भव्य जीब के प्रभाव से हम लोग सब प्रकार से सम्पन्न हो गए हैं ।५५१
भोगोपभोग के प्रकार-शयन, आमन, पान, गन्ध, भाला, वस्त्र, आहार, विलेपन, वाहन, चारण आदि परिकर५५२ की उत्कृष्टता अनुत्कृष्टता समृद्धि तथा असमृद्धि का लक्षण माना जाता था।
धन की महत्ता-धन का सदैव सांसारिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व रहा है । संसार में धन ही सब कुछ है। जिसके पास धन है उसके मित्र हैं, जिसके पास घन है उसके बान्धव है, जिसके पास धन है लोक में वह पुरुष है और जिसके पास धन है वह पण्डित है । जब मनुष्य धनरहित हो जाता है तब उसका न कोई मित्र रहता है न भाई । पर वहीं मनुष्य जब घन सहित हो जाता है तो अभ्य लोग भी उसके आत्मोय बन जाते है ।५५३ धन को इतमा महत्व देने पर भो अन्त में धर्म से युक्त धन को श्रेष्ठ माना गया है। धन वही है जो धर्म से सहित है और धर्म वही है जो निर्मल दया में सहित हैं तथा निर्मल दया वही है जिसमें मांस नही खाया जाता। मांस भोजन से दूर रहने वाले समस्त प्राणियों के अन्य स्वाग चूंकि मूल से सहित होते हैं इसलिए उनकी प्रशंसा होती है ।५४
त्रिवर्ग-त्रर्म, अर्थ और काम लोक में त्रिवर्ग के नाम से प्रसिद्ध है । रावण धर्म, अर्थ और काम रूप त्रिवर्ग से सहित था।"१५ इनमें से किसी एक की सिंक्षि या प्राप्ति ही उचित नहीं अपितु इन तीनों की सिद्धि होनी चाहिए । इन तीनों का सेवन कर अन्त में तुगत होकर विवेकी लोग सच कुछ छोड़कर घन सेवन करते थे। इसके कारण के लिए उनके बालों में से एक पका बाल या
५४१. पद्मः ११।३४८ । ५५१. वही, ११.३५१-३५२ । ५५३. वहीं, ३५।१६१, १६२ । ५५५. पही, ५३४८६ ।
५५०. पपा ११।३५० । ५५२, वही, ३।२२३, १०२११०३ । ५५४. वहो, ३५॥१६३, १६४ ।
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सफेद बाल ११६ ही दिखाई दे मामा पर्याप्त था। इतने से ही वैराग्य युक्त हो लोग किसी साधु के समीप जाकर दीक्षा ले लेते थे । ५७
प्राकृतिक सम्पदा-किसी देश के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने में उस देश की प्राकृतिक सम्पदा (नदियाँ, पर्वत, पशु-पक्षी मादि जीव-जन्तु, पक्ष, लता, वन आदि) का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहता है। पद्मचरित में इस प्रकार की विपुल सामग्री का उल्लेख हुआ है, जो निम्न प्रकार है
वृक्षादि वनस्पति-पद्मचरित में निम्नलिखित वृक्षादि वनस्पति के नाम आए है-अशोक (४।२४), तमाल (१९३७), पुंड (), इक्ष (२४), नालिकर (नारियल, २११५), मातुलिङ्गी (बिजौरा, २।१७), पिण्डस्वर्जूर (२।१९), मोच (केला, २०१९), कुङ्कुम (केशर, २।२५), मुष्ट्ग (मूंग २।७), कोशोपुट (मोठ, २७), राजभाष (बर्वटी, २।८), गोधूम (गेहूँ, रा.), शालि (घान, २१९९) माष (उड़द, २११५६), कल्पपादक (कल्पवृक्ष, ३४९), अम्बू वृक्ष (जामुन, ३।४८), निम्ब (नीम, ३१७०), कुश (कुशा, ३।२९७), पीहि (धान, ४५१०९), कदली (केला,९३२८१), आमलकी(आँवला), नीप (६।९१), कपिस्य (कथा,६९१), भगुम (६।९१), चंदन(६।९१), प्लक्ष (६३९१), अर्जुन (६।९१), कदंब (१९९१), आन (श्राम ६।९१), प्रियाल (अचार, ६५९१), धष (६।९१), दाडिमी (१८९२), पूम (सुपारी ।९२), ककोल (६।९२), लवज (लौंग, ६९२), अश्वत्थ (पीपल, ६१३९१), सर्षप (सरसों, ९:१६९), बिम्ब (११॥३२२), नभेरुवा (१२।७६), घेणु (बांस, १२१२५८), कोद्रद (कोवों, १३।६८), बदर (बेर, १४॥२४९), किंशुक (पलाश, १९६४९), सप्तपर्णा (२०॥३८), वटवृक्ष (२७।३७), शालवृक्ष (२०।३९), सरलक्ष (देवदारु, २०४७), प्रियंगु (२०।४१, ४२), शिरीषवृका (२०४३), नागवृक्ष (२०।४४), प्लक्ष (२०।४६), सिन्दुक (तेंदू, २०१४७), पाडला (पाटलावृक्ष) २०॥४८, दषिपर्ण (२०५१), नन्दवृक्ष (२०५२), तिलकवृक्ष (२०५३), चम्यकक्ष (२०५६), बकुलवृक्ष (२०५७), मेरु अक्ष (२०५८), धववक्ष (२०५९), ताम्बूल (नागवल्ली, २०११३९), हरिचन्धन (२०१३९), कर्णिकार (क्रनेर, २१६८७), लोन (२१३८७), प्रियाल (२१६८७), काश (कास, २१।१३३), किम्पाक (२९।७७), एरण्ड (३२६०), शाल्मली (३२.१९४), कणिकार (३३।८३), किंजल्क (३८०१३), यूथिका (४०१८}, मल्लिका (मालती, ४०1८), नागा (नागकेशर, ४०८), वंश (बांस, ४१५८), इगुद (४१।२६), तिम्तिड़ी (इमली, ४२१११), विभीतक (बहेडे, ४२१११), लक्ष (लाख, ४२।११), अशोर (अखरोट, ४२।११), पाटल (गुलाब, ४२।१२),
५५६. पम० २२।१०५, १०६ ।
५५७. पप० २२११२ ।
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९० पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
आनातक (४२।१२), ताल (४२११३ ) तमाल (४२/१३), नन्दि (४२११३), भूर्ज ( भोजवृक्ष, ४२११४), गुलकंदंट (४२१४), सित गुरु (४२११४), सफेद अगुरु, असित अगुरु (काला अगुरु, ४२/१४), रम्भा (४२/१४), केला. पद्मक (४२/१५) मुविलिन्द (४२३१५), कुटिल (४२११५) पारिजातक (४२/१५), बघू ( दुपहरिया, ४२११५), केतकी (४२११५) मधूक (महुआ, ४२/१५), खदिर ( खेर, ४२।१५), मदन (मैनार, ४२११६), खर्जूर ( खजूर, ४२/१६), नारिंग ( नारंगी, ४२/१६), असन ( ४२११६), रस ( रसोंद, ४२११७), शमी (४२११७), हरीतकी (४२११७), कोविदार ( कचनार, ४२ | १७ ), करज (४२/१८), कुष्ट (४२११८), कालीय (४२/१८), उत्कच (४२/१८), अजमोदक ( अजमोद, ४२/१८) जाति ( चम्पा, ४२ । १८), धातकी (अविला, ८२.१९) चदि ( चव्य, ४२/१९), कुर्षक (४२।१९) एला (इलायची, ४८११९), रक्तचंदन ( लालचंदन, ४२।१९), नेत्र (बेंत, ४२ २०), श्यामलता (४२०२०), हरि (४२११०), स्पदनबिल्व ( तेन्दू, ४२/२०), चिरबिल्व (वेल, ४२/२०), मैविक (मेथी, ४२१२०), अरङ्क (४२।२१), बीजक ( बीजसार, ४२/२१ ), शैवाल ( सेवार, ४२१६६), पुन्नाग (४२।१५), पनस ( कटहल, ५३३१९७), परिभद्र (६२/४६), कुरबक ( ९५।१५), सहकार ( आम, १७१८५), धातकी ( ९९/३३), कर्कन्धु (बेर, ९९०४८), कपिकच्छू ( करेंच, ९९१४९), गुंजा ( गुमची ९९/५० ). अम्भोज (कमल, १२०।६) ।
लतायें
प्राक्षा (२०१८), माषषी ( २८/८८), वंशलता ( ३७६५), अतिमुवलकलता (३९८), ताम्बूलवल्ली (४२११९), प्रियंगुलतिका (४२।३५) चित्रभूत (ककड़ी, ८० | १५४) तथा कूष्माण्ड (काशीफल, ८०/१५४) ।
पुष्प
पद्म (कमल, १३६, १२१६), कुम्द ( १७ ), शिरीष ( २२४६), सरोरुह ( कमल, २१८४), कदम्ब ( २१११६ ) कुमुद ( २०२१७), पुन्नाग ( ३।१२८), मालती (३।१२८), कुन्द (३।१२८), चम्पक (चम्पा, ३।१२८), बकुल (मौलिखी, ७। १५१, केतकी (११ ३८१), कुमुद्वत्तो ( १५१५४), केसर (१५/६७), किंशुकोल्कर ( पलाश के फूल, १८०४९), इन्दीवर ( नीलकमल, २५/२६), उत्पल (३०/२), पुण्डरोक (३८/५१), बन्धूक (४४/६१), शतपत्र (कमल ५३/२३), यूथिका ( जुही, ७३|१३१), अंकोट ( ९५/१५) तथा सहस्रच्छद पद्म (१०५॥४८) ।
J
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सामाजिक व्यवस्था : ९१
उद्यान पद्मचरित में निम्नलिखित उद्यानों के नाम आए है--विपुल उद्यान (२१।३६), महेन्द्रोदय (२९।९०), बसन्ततिलक (३९।९७), देवरमणोद्यान (४६।७१), देवार्चक (४८।४८), प्रमदोद्यान (७२॥२४, कुसुमामोद (८४।१३), तिलक (८५।४०), कुसुमायुधं (पर्व ७८-गद्यभाग), कामोद्यान (पर्व ७८-गद्यभाग), पाण्डुकोद्यान (१२।८४, ८५) प्रकीर्णक (४६।१४५), जनानन्द (४६११४५), सुखसेव्य (४६।१४५), समुध्धय (४६।१४५), चारण प्रिय (४६।१४५), निबोध (४६।१४५), अक्षय (४६।१४५), तथा भवनोन्माद (१९६६४) ।
पन पवनचरित में निम्नलिखित वनों के नाम आए है
भूसाटवी (१।७५), दाडिमीवन (२।१६), अर्जुनवन (२०२०), पद्मवन (२।११७), भद्रशालयन (६।१३४), सौमनस वन (६।१३४). नन्दनवन (६।१३४), भीमपन (७॥२५७), मन्दारुणारण्य (सा२४), पाण्टुकथन (११२।४०), विन्ध्यारण्य (१८६३९), भूतरव वन (१८१४८), कदलीकानन (१९।५३), परियात्रा (३रा २८), वेणुकान्तार (३७।४५), कालंजर (५९।१२), रक्ताशोकवन (६२।४६) किशुकफानन (६२।४६), परिभद्रद्रुमारण्य (६२।४६), स्वापद (६४१५५), कपित्यवन (६४।७६), दण्डकारण्य (८२।१०), निकुंजवन (८५१६३), गिरिवन (८५१७५), शल्लकी (८५।१५१), तिलकवन (९१।२६), कुमुदखण्ड (९३।१), सिंहरवा (१०२।६९) तथा सहलानबन (१०९।१६५) ।
सरोवर पय (२१।२१), महापद्म (२१:२१)।
नदियाँ गङ्गादि५८ चौदह नदियाँ-जम्बू द्वीप में गङ्गादि चौदह नदियों का निर्देश पमचरित में किया गया है । तस्वार्थसूत्र के अनुसार ये बौदह नदियां ये है-१-गंगा, २-सिन्धु, ३-रोहित, ४-रोहितास्या, ५-हरित, ६-रिकान्ता, ७-सीता, ८-सीतोदा, ९-नारी, १०-नरकान्ता, ११-सुवर्णकूला, १२-रूप्यकला, १३-रक्ता, १४-रक्तोदा।
गङ्गा". वर्तमान गंगा नदी । इसका जाह्नवी नाम भी आया है ।
.
....
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५५९. पद्मा १४ ।
५५८. पम १०५।१६० । ५६०. बही, ९८१ ।
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९२ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
शर्वरी"६१—परियात्रानामक वन में स्थित एक नदी, जिसके किनारे अनेक शबर रहते थे।
नर्मदा०६२... कर्णरवानदी५६३
कुशाग्रगिरि -(विपुलाचल) मगध देश का राजगृह के समीप का एक पर्वत जहाँ भगवान् महावीर का समवसरण आया था।
बिजया पर्वत५६५-भरत और ऐरावत क्षेत्र में दो रजतमय विजया पर्वत है ।
वंशपर्बत -शस्थल पर्वत । विपुल५५८-विपुलापल।
महामेरु५५५— (सुमेरु पर्वत)-जाम्भूमीप के मध्य में मुमेरु पर्वत है। यह पर्वत कभी नष्ट नहीं होता । इसका मूलभाग वन अर्थात् हीरों का बना है और ऊपर का भाग सुवर्ण तथा मणियों एर्च रत्नों से निर्मित है ।५७० मोधर्म स्वर्ग को भूमि में और इस पर्वत के शिखर में केवल बाल के अप्रभाग बराबर ही असर रह जाता है । यह निन्यानबे हजार योजन ऊपर उठा है और एक हजार योजन नीचे पृथ्वी में प्रविष्ट है ।५७२ यह पर्वत पृथ्वी पर दस हजार योजन और शिखर पर एक हमार योजन घोड़ा है ।२७३ ।
वक्षारगिरि५७४- यहाँ से ऋषभदेव का निर्माण हुआ था। त्रिकूटाचल५७५-राक्षस द्वीप के मध्य में स्थित पर्वत । अष्टापद५७६-कलाश पर्वत ।
सम्मेदशिखर -यहाँ से कासुपूज्य, ऋषभदेव, नेमिनाथ तथा महावीर को छोड़कर शेष २० तीर्थकर निर्वाण को प्राप्त हुए थे।
५६१. पन० ३२।२८ । ५६३. वही, ४०।४० । ५६५. वही, १।५९ । ५६७. वही, १९८४ । ५६९. वही, ३३३३ । ५७१. वहो, ३।३४। ५७३. वही, ३३६ । ५७५. वही, ५।१५५ । ५७७. पही, ५।२४६ ।
५६२. पम. १०।६० । ५६४, वही, १।४६ । ५६६. वही, ३४१ ।। ५६८. वहीं, २११०२ । ५७०. वही, ३।३३। ५७२. नही, ३१३५ । ५७४. वही, ३४२ । ५७६. वही, ५।१९९ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ९३ मानुष पर्वत–मानुषोसर पर्वत । इसका मनुष्य उल्लंघन कर नहीं आ सकते।
अंजनक्षोणीधर५७८-अंजनगिरि अथवा नीलगिरि ।
ऊर्जयन्त५७५—गिरनार पर्वत । यहाँ से मिनाथ भगवान् का निर्वाण हआ था।
निकुञ्जगिरि५८०–अम्बूद्वीप का एक पर्वत । चन्दनगिरि १...-मलयदि | वंशाद्रि५८२... रामगिरि ।
तूणीति -- यहाँ से जम्यूमाली नामक मुनि अहमिन्द्र अवस्था को प्राप्त हुए थे।
हिमवान्५४- जम्न द्वीप में पूर्व से पश्चिम सक फैला एक पर्वत जो कि दोनों ओर भमुद्र को ख़ता है। ___महाहिमवान् ५–जम्बूद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक फैला एक पर्वत जो कि दोनों ओर समुद्र को छूता है ।
निषध ६. जम्बू द्वीप में पूर्व से पश्चिम तक फैला एक पर्वत जो कि दोनों ओर समुन्न को छूता है ।
नील५८७-जम्बूद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक फैला एक पर्वत जो कि दोनों ओर समुद्र को पता है।
रुक्मि - जम्बूद्रोप में पूर्व से पश्चिम तक फैला एक पर्चत जो कि दोनों और समुद्र को छूता है। ___शिखरी५-५-जम्बूद्रोप में पूर्व से पश्चिम तक फैला एक पर्वत जो कि दोनों ओर ममुद्र को छूता है।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य पर्वतों के नाम भी पारित में आये है
५७८. पप ८१९७ । ५८०, यहो, २७।१७ । ५८२. यही, ४०॥४५ । ५८४. वही, १०५।१५७ । ५८६. वही, १०५४१५७ । ५८८, वही, १०५।१५८ ।
५७९. पा. २०१५८ । ५८१. वही, ३३१३१६ । ५८३, बही, ८०।१३७ 1 ५८५, कही, १०५।१५७ 1 ५८७. वही, १०५।१५७ । ५८९, वही, १०५।१५८ ।
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९४ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मधुपर्व ११५८, अस्ताचल (२/२०१), पंचगिरि (५।२७), फिष्कु (६।८२), बलाहक (८।२४), सन्ध्यावत (८।२४). मेघरव (८1९७), गुज (८।२०१), गन्धमादन (१३।३८), विन्ध्य (१४।२३०), बसन्तगिरि (२१६८२), नन्दीगिरि (२७।१६), कलिन्दगिरि (२७११६), सह्याद्रि (२७।८७), नगोत्तर (३०११३२), हिमवत् (हिमालय, ७६११०), हिमनग (हिमालय, ५.०३२), चित्रकूट (३३।२०) वंशधर (३९।११), पुष्पगिरि (५३।२०१), पलन्धर (५४।६४), सुवेल (५४।७०) मन्दर (८८), गिरि १८।१३९), श्रीपब (८८३), सुरदुन्दुभि (११२।७३) ।
समुद्र पद्मचरित में निम्नलिखित समुद्रों के नाम मिलते हैं -
लवणाम्भोधि (लवण समुद्र) ३१३२, दक्षिण समुद्र (६५०८), क्षीरसमुद्र (७॥१७१), स्वयम्भूरमण (८९६७२) ।
पशु-पक्षी आदि जीवजन्तु पद्मचरित में निम्नलिखित पशु-पक्षी आदि जीवजन्तुओं का उल्लेख हुआ है-कुन्थु५५०, वारण५११ (हाथी), हरिण"९५, शम्बूफ५२३, जलोका५५४ (जोंक), हंस५९५, काक५९५, उलूक ९७ (ल), गो१८ (गाय), अविक५२९ (भेड्), उष्ट्र६०० (फैट), वलाका०५ (बगुला), मयूर (भोर), गम ९३ (हाथी), ग्राह०४ (मगर), कोक०० (चकवा), राजहंस १०१, मृग३०७ (हरिण), सिंह०८, गण्डूपद ०२ (पानी का साँप), अहि९५० (माप), शुनः*१५ (कुत्ता),
५९०. पद्म०१।११। ५९२. वही, १।१९। ५९४. वहो, १३१ । ५९६. वही, १६३६ । ५९८. नही, २२१२ । ६००. पही, २।२४। ६०२. वही, २२८ । ६०४. वही, २०६३ । ६०६. वही, २।२१० । ६०८. वही, १२४७ । ६१०. वही, २।४७ ।
५९१. पद्म १।१९। ५९३. वही, १३१ । ५९५. वही, ११३५ । ५९७. वही, १९३७ । ५२९. वही, १।२४। ६०१. बड़ी, २०१०। ६०३. वही, २५६ । ६०५. यही, २।२०३ । ६०७. बही, २२४७ । ६०९, वही, २२४७ । ६११, वही, २१२४७ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ९५
सरु* (एक प्रकार का मृग), महिष १३ (भैसा), वृषभ १४ (बस), मीन १५ (मछली), नक १५, कामधेनु, वाजि१८ (घोडा), कालेयक, गाल५२०, वृषदंश,६६५ वृषरम् (बैल), खद्योत २३ (जुगनू), मधुकर, मेष २५ (मेला), वृक' (भेडिया), क्रौंच २७, भारस २८, शिस्लि२५ (मयूर), शार्दूल १३०, बोलेय ११ (गघा), खर६३२ (गधा), व्याघ्र, छाग" (बकरा), वहण ३४ (मोर), शयु ३० (अजगर), कुरंग'३॥ (हरिण), शाखामग३० (बन्दर), खजि८ (गेंडा हाथी), सारङ्गका ३२ (हरिण), कूम ४० (कछुआ), गण्डूपद ४५ (केंचुमा), शललि ६४२ (सेहो), बेनतेय ४३ (गरुड़), कोट (कीड़ा), शरभ ४५ (अष्टापद), वृश्चिक (बिच्छू), शक्षित (सीप), मार्जार ६ (बिल्ली), प्रथ" (मछली), कारण्डव, पावा' (धया), सारिका ५२ (मैना),
६१२, पम० ३।२४८ । ६१४. वही, २।१२५ । ६१६. वहीं, ३१५३४ । ६१८. वही, ६४ । ६२०. यहो, ५।१०८ । ६२२. वही, ५॥१०८। ६२४. वहीं, ५।३०५ । ६२६, वहीं, ५।१३।। ६२८. वही, ६।१६५ । ६३०. वही, ७३९ ६३२. वही, ७।४८ । ६३४. वही, ७१६९ । ६३६. वही, ९।१२१ । ६३८. वही, ९.१२३ । ६४७. वही, ९:१५२ । ६४२. बहो, १२।२४६ । ६४४. बहो, १२।३१४। ६४६. बही, १४॥३३॥ ६४८. वही, १४।२८० । ६५०. वही, १६।१०५। ६५२. मही, १७२.४।
६१३, नमः ॥१०॥ ६१५. वहीं, ३३१३१ । ६.१७. वहीं, ३।३२२ । ६१९. वही, ५।१०८। ६२१. वही, ५।१०८। ६२३. वहीं, ५३२१९ । ६२५. वहीं, ५॥१३८ । ६२७. वही, ६।१४३ । ६२९. वही, ६।२७५ । ६३१, वही, ७/४० । ६३३. वही, ७५६९ । ६३५, वही, ९।१२० 1 ६३७. वही, ९।१२३ । ६३९. वहो, ९।१३८ । ६४१. वही, २१।२७७ । ६४३, बही, १२१३१२। ६४५, बहो, १४॥३३ 1 ६४७. वही, १४१५७ । ६४९. वही, १६.१०४1 ६५१. वही, १६१०७ ।
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९६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
1
ऋक्ष
-१६४
कोर१५* (तोता), मरीसृप६५४, पुंस्कोकिला १५५ (कोयल), आशीविषमहानाग १५६, गुद्ध*५७ (बীध), ऋা१५८ (ख), गोमायु १९ (सियार), मरस्य ५०, कुररी १, शलम ११२ (टिड्डी, पतिगा), कंक, षट्पद ( अमर ) हरि" (सिंह), द्वीपि " ( शार्दूल, चीता ), केशरी ६६७ (सिंह), मातंग (हाथी) वाङ्क्ष (कोला), जम्मुक १७० (शृगाल), तुरङ्ग" (घोड़ा), पन्नग २ (साँप ), भोगि ७ (सपि), श्येन' (बाज ), गजेन्द्र' ६७५ ६७६ (fay), fema***, ताम्र(मुर्गा), अपन (घोड़ा), व्याल* ( सपि), शुक० ( तोता ),
६९
100
.६७८
• ६७९
.१८२
(उल्लू ), तरक्षु' (भेडिया), चमरी ६८१
चूड कौशिक १८१ गाय), इवा १८४, गवय १८५ तैर्ययु, ८८ सि८० (हाथी),
***
६५३, १० १७।२९४ । ६५५. वही, २१।८५ । ६५७. वही २२।६८
६५९. वही २२०६८
J
६६१. बही, २६ । १५० ।
६६३. वही, २७/७३ १
६६५. वही, २८०८७ ।
६६७. वही, २८ १४८
६६९. वही, २८ १४३ । ६७९. वही, २८ २१८ । ६७३. वही, २९/७७
६७५. वहीं, ३२२४४ । ६७७. वही, २९/१०० ।
६७९. वही ३२/१९२ ।
·
१८१. वही, ३३६
६८३. वही, ३३।२७ ।
६८५, वही, ३३।२९ ।
६८७, मही, ३७।१७ ।
६८९. वही ३७ १९ ।
६९१. बही,
३७।४४
(चमरी नामक मूग या
द्विरद १८७
गरुड़ "
( नीलगाय ), सारमेय (कुसा), रासभ ( गधा ), करि" (हाथी),
430
६५४. ० २०।१०४ । ६५६. वहीं, ८११०० ।
६५८. वही २२/६८ ।
3
६६०. यही २६/८४ । ६६२, वही, २७।११
६६४, वही, २८:२७ | ६६६. वही, २८ १०४ ।
६६८. वही, २८ १४८
६७०. वही, २८ १९३
६७२, वही, २८ २२९ । ६७४. वही, ३० १३० १
६७६. वही, ३२/५३ । ६७८. वही, ३२।१११ ।
६८०. वही, ३३६ |
६८२. वही, ३३।२७ ।
६८४. वही, ३३२२८ ।
६८६. वही, ३३२२ ।
६८८, वहो, ३७।१७ ।
६९०. वही, ३७ ४ ६९२. बड़ी, ३७।१२४ ।
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सामाजिक व्यवस्था : ९७
स्वापद५५, स्थूरी पृष्ठ १४ (हस्तिनी), कुलीर९५ (केकड़ा), शिवा (शृगालिया), नाग५९७ (हाथी), अजा १८ (बकरी), मेषो ९५ (गाकर), महोक्ष ७०० (बैल), जीवजीवफ००१ (घकोर), मेरुण्ड ०२, श्येन ०३ (बाज), कुरर ०४, कपोत०५ (कबूतर), शृंगराज°०५. भारद्वाज ०७, गवली ०८ (भैसा), वराह ०९ (शंकर), सुरभिपुत्र १० खेल), वायस७१ (कोमा), नोधरः१२ (गुहेरा), इम१६ (हानी), द्विप७१४, पतंग, मकि १६ (मेंढकी), शशक" (खरगोश), मेक ७१८ (मडक), मूषक १५ (चूहा), बहिण७२० (मयूर), पदाकुत २१ (अजगर), रुरु७२२ (मृगविशेष), हस्ती २५ (हाथी), द१र७२४ (महक), वर्षाभू७२५ (मेंढक), कुक्कुट २६ (मुर्गा), विशुमार, क्रोड २८ (सूकर), चकोर २९, सूवीशत*१० (सेही), गर्मुत२१ (मौरा), समर ७३२ (सामर),
६९३. पद्म ३७।१६३ । ६९५. वही, ३९५२७ । ६९७. वही. ४१.४२ । ६९९. वही, ४१।१२९ । ७०१. बही, ४२१२७ । ७०३, वही, ४।२७ । ७०५, वही, ४।२८। ७०७. बही, ४२१२८ । ७०९. वही, ४२१४३ । ७११. वही, ४८।५० । ७१३. वही, ७०।३४ । ७१५. वही, ८३३५३ । ७१७. वहीं, ८५॥६३ । ७१९, वही, ८६०६४ । ७२१. वही, ८६।६४ । ५२३. बही, ८५।६५ । ७२५, वही, ८५५६६ । ७२७. वही, ८५।६८। ७२९. बड़ी, ९९६५ । ७३१. घही, १९।५४ ।
६९४, पन. ३८।२५ । ६९६. वही, ३९।६२ । ६९८. वही, ४१।१२८ । ७०. वही, ४२१७ । ७०२, वही, ४२।२७ । ७०४. वही, ४२।२७ । ७०६. वही, ४२०२८ ।। ७०८. वही, ४२१३८ । ७१०, वही, ४२१४६ । ४१२. वही, ४८।१७ ॥ ७१४. वही, ७३३१०७, १६० । ७१६, वही, ८३।६४ । ७१८. बही, ८५।६४ । ७२०. वही, ८६।६४। ७२२. वही,८६८४ । ७२४. यही, ८५। ६५ । ७२६. वही, ८५१६६ । ७२८. दही, ९०।६।। ७३०. वही, १९५४ । ७३२. वही, १०४।११९ ।
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९८ : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पारापत ३१ (कवतर), तुरग ३४ (घोडा), एणक ३५, नैधिको (बैक), प्लवंग (बन्वर), कान वेय ७३८ (सर्प), द्विजोत्तमः ७३२ (गरुड) तथा परपुष्टा ४० (सोरिक।
मगर-प्राम रथनपुर:४१-विजयाई पर्वत के दक्षिण भाग का एक नगर । किष्किन्धपुर७४२--मधुपर्वत के शिखर पर स्थित एक नगर । रामपुरी४३-अरुण ग्राम के पास देवों द्वारा नसायी हुई नगरी ।
राजगृह - मगधदेश का एक समृद्ध नगर । इसे कुशाग्रनगर भी कहते ये। यहाँ मुनिसुव्रत नाथ भगवान् का जन्म हुआ था । ४५
त्रिपुर -देवताओं का नगर । कुबेरनगर ४-कुबेर की नगरी । यमपत्तन - यमराज का नगर । घूतंपत्तन४९-धूतौ का नगर । कांचनपुर ५०–विदेह क्षेत्र का एक नगर । किष्कपुर –दक्षिणसागर के द्वीप में स्थित नगर । ५२ अलंकारपुर ५३–पाताल लंका । १४
असुरनगर -इसे असुरसंगीतनगर भी कहते थे। यह विजयार्ष पर्वत को दक्षिण श्रेणी में स्थित था।
शतद्वार:५६- यह नगर धातको खण्ड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में स्थित था।
७३३, पम० १०५।१५।। ७३५. वही, ९९।४८ । ७३७. वही, १०२।१२६ । ७३९, वही, ११७।२८। ७४१, वही, १३५९। ७४३. वही, १९८३ । ७४५. वही, २०५६ । ७४७. वही, १३८ । ७४९, वही, २।४० । ७५१. यहो, ६१२२, १७७ । ७५३. वहीं, ६।४९०, ५०० । ७५५. वही, ७।११७ ।
७३४. पा. १०६०४० । ७३६. याही, १०२।१११ । ७३८. बही, ११७।२८ । ७४०. वही, ३२।३० । ७४२. बही, ११६६, १११५ ॥ ७४४. वही, २१३३ । ७४६, वही, २१३६ । ७४८, वही, २।३९ । ७५०. बही, ५१३५१ । ७५२. वही, ७।११५ । ७५४, वही, ६०५०६ । ७५६, पहो, १२२२.
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सामाजिक व्यवस्था : ९९
पुण्डरीकिणी ५७ यह नगरी ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ तथा शान्तिनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी ।
र
सुखीमा – यह नगर अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ तथा कुन्थुनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी ।
.
क्षेमा ७५९ – यह नगरी सुपार्श्व चन्द्र प्रम पुष्पदन्त तथा अरनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी ।
910
सत्नसंचयपुरी - यह नगरी शीतल, श्रेयांस तथा वासुपूज्य तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी ।
1511
सुमहानगर - यह नगर विमलनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी ।
अरिष्टपुर २ -- यह नगर अनन्तनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी
थी ।
श्री
७६*
सुमाद्रिका – यह नगरी धर्मनाथ तीर्थंकर को पूर्वभव की राजधानी
वीतशोका ४ – यह नगरी मल्लिनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी
थी ।
.७६५
चम्पा १५ - यह नगरी मुनिसुव्रतनाथ भगवान् की पूर्वभव की राजधानी थी । इसमें वासुपूज्य जिनेन्द्र का जन्म तथा मोक्ष हुआ था।
७६६
919
कौशाम्बी७७ – यह नगरी नमिनाथ तीर्थङ्कर की पूर्वभव की राजधानी थी । इसे बत्सनगरी भी कहते थे । यहाँ पद्मप्रभ जिनेन्द्र का जन्म हुआ था।
- ७17
नागपुर - यह नगर नेमिनाथ तीर्थङ्कर की पूर्वभव की राजधानी थी । साकेला ७७० ---यह नगरी पार्श्वनाथ तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी। इसमें अजितनाथ तथा सुमतिनाथ तीर्थङ्कर का जन्म हुआ था।
1934
७५७. पद्म० २०११, १४ । ७५९. वही, २०११, १५ ।
७६१. वही, २०११४ ।
७६३. वही, २०११४ । ७६५. वही, २०१५ ।
७६७. वही, २०/१६ ।
७६९. वहो, २०११६ |
७७१. वही, २०१३८ ।
७७२
७५८. पद्म० २० | ११, १५ । ७६०. वही, २०।१२ ।
७६२. वही, २०१४।
२०/१५
७६४. वहो, ७६६. षहो,
२०१४८, ६१ ।
७६८. वही, २०१४२ ।
७७०, वही,
२०।१६
७७२. वही, २०१४१ ।
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!
१०० पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
-
छत्राकारपुर यह वर्द्धमान तीर्थंकर की पूर्वभव की राजधानी थी । विनीतानगरी - वसे अयोध्या भी कहते थे। इसमें ऋषभदेव तथा अनन्तयह अभिनन्दननाथ तीर्थंकर की राजधानी थी। यह नगरी नौ योजन चौड़ी तथा बारह योजन लम्बी थी। इसकी परिधि अद
नाथ का जन्म हुआ था।
सीस योजन थी ७७ ।
७.७८
काशीपुरों७७७. - इस नगरी में सुपार्श्वनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था । चन्द्रपुरी - इस नगरी में चन्द्रप्रभं तीर्थंकर का जन्म हुआ था । काकन्दी -इस नगरी में सुविधि (पुष्पदन्त) सीकर का जन्म हुआ
७७९
- इस नगर में शीतलनाथ भगवान् का जन्म हुआ था ! सिहपुरी 1- इस नगरी में श्रेयांसनाथ भगवान् का जन्म हुआ था । काम्पिल्यनगर ८ – इसमें विमलनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था । रत्नपुरी १ – यह धर्मनाथ तीर्थंकर की जन्मनगरी थी 1
१८१
हस्तिनागपुर
इस नगर में शान्ति कुन्यु तथा अरनाथ तीर्थकर का
७८०
-
जन्म हुआ था ।
मिथिला - इस नगर में मल्लिनाथ तथा नमिनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ
था। ७५
शौरिपुर
G
यहां नेमिनाथ सीकर का जन्म हुआ था । वाराणसी - यहां पार्श्वनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था। कुंण्डपुर ७८८ यहां वर्द्धमान तीर्थकर का जन्म हुआ था। पावा - यहाँ वर्तमान तीर्थंकर का निर्वाण हुआ था । हरिपुर७१० – यह नगर विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित था ।
७८१
७७३ पद्म० २०।१६ । ७७५. वही, २०१४०
७७७. वही, २०१४३ |
७७९. वही, २०१४५ ।
७८१, वही, २०४७ ७८३. वही, २०१५१ । ७८५. वही, २०५५ २०५७।
७८७. वही, २०५९ १
७८९. बही, २०१६० ।
७७४. १५० २०३७ ।
७७६. वही, ८१/१२० । ७७८. वही, २०१४४ ७८०. वही, २०१४६ ।
७८२. वहो, २०१४९ ७८४. वही, २०५२-५४ । ७८६. वही, २०५८
७८८. वही २०/६० । ७९०. वही, २१।४ ।
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सामाजिक व्यवस्था : १०१ मयूरमालनगर --यह विजयाच पर्वत के दक्षिण ओर फैलाश पर्वत के उत्तर की ओर स्थित अवर्वर देश का एक नगर था।
नैषिक ७१२–एक ग्रामविशेष । पनवरित के कुछ संस्करणों में इसका नाम नैमिष भी मिलता है । ७१३ __ मेघरब १४-विन्ध्यवन को भूमि में स्थित एक स्थान है जहाँ इन्द्रजित के साथ मेघवाहन मुनि रहे। उपर्युक्त घटना के कारण यह स्थान मेघरव तीर्थ के नाम मे प्रसिद्ध हुआ।
पिठरक्षित २५... रजोगुण तथा तमोगुण से रहित कुम्भकर्ण योगी नर्मदा के जिस तौर पर निर्वाण को प्राप्त हुए थे वहाँ पिठरक्षित नामक तीर्थ प्रसिद्ध
प्रजाग १६-नीलांजना अप्सरा का नल्य देख भगवान् ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को राज्य में प्रजा से निस्पृह हो घर छोड़कर तिलक नाम के उद्यान में गए इसलिए लोक में बह उद्यान प्रबाग इस नाम से प्रसिद्ध हुआ।
चन्द्रादित्यपुर७९७-धुकर द्वीप का एक नगर। रत्नपुर२८--विजया पर्वत की दक्षिण दिशा का एक नगर । क्षेत्र –भरतक्षेत्र का एक नगर 1 क्षेमपुरी ००–मेरुपर्वत को पश्चिम दिशा में स्थित एक नगरी । दिति ०१-ऐरावत. क्षेत्र का एक नगर ।
मत्तकोकिल ०२—यह जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में विजयावती नगरी के समीप स्थित एक पाम या ।
विजयावती -जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र की एक नगरी । उपर्युक्त नगरों के अतिरिक्त पाचरित में पुष्पान्तक,०४ अरुणग्राम,८०५
७९५. पा० २७।५-७ ।
७९२. पद्म० ५५४५७ । ७१३. पमपुराण (भाग २) १० ३५५ (अनु० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य)। ७९४. पन ८०।१३६ । ७९५. प. ८०।१४०॥ ७९६, वही, ८५।३८-४० । ७९७, वही, ८५१९६। ७९८. वही, ९३।१।
७९९. वही, १०६।१०। ८००, वही, १०६।७५ ।। ८०१. बही, १०६।१८७ । ८०२. वही, १०६।१९० । ८०३. वही, १०६।१९०। ८०४. बहो, १६१ 1
८०५. बही, १५८३ । . .
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१०२ : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति कुमवावती, वालपुर, बिहायस्तिला, " संतु, जोवली,८५० पद्मक,८११ चन्द्रपुर,८१२ रत्नसंचय,८५३ पृथिवीपुर,१५४ किन्नरगीत,८१५ पोदनपुर,८५६ गन्धर्षगीतनगर,८१७ सन्ध्याकार,८१८ सुबल,८१९ मनोलाद, २० मनोहर, हंसनीप,८५२ हरि, २२ प्रोध, १४ समुद्र,४२५ कांचन,८२६ अर्धस्वर्गास्कृष्ट.८३७ आवर्त,८२८ विघट,८२५ अम्भोद, ३० उत्कृष्ट,८३५ उत्कट, १२ स्फुट,८३ दुह,८२४ तट,८३५ तोय, पावली, ३० रनदीप,८३८ मेघपुर,८३९ हरि,८४० जलधि,८४१ ध्वनि,४३ हंसीप, ४ भरक्षम, ४४ अर्घस्वोत्कट, ४१ रोषन,८४६ अमल,८४७ कान्त,८४४ सर, ४५ अलंघन, ५० नभोभानु,५१
८०६. पा० ५।३७ । ८०८. बही, ५।७८ । ८१०. वाही, ५।१२४ । ८१२, बही, ५।१३५ । ८१४. वही, ५११३८ । ८१६. वहीं, ५।१७९३ ८१८. वही, ५३३७१ । ८२०. वही, ५१३७१ । ८२२. बहो, ५.३७१ । ८२४, वही, ५।३७१। ८२६, वही, ५३७१। ८२८. बही, ५।३७२। ८३०, दही, ५।३७३ । ८३२. यही, ५।३७३ । ८३४. वही, ५।३७३ । ८३६, वही, ५१३७३ । ८३८. वही, ५।३७३ । ८४७, वही, ६॥६६ ८४२. वही, ६।६६ । ८४४. वही, ६।६७ । ८४६, वही, ६६७३ ८४८. यही, ६६६७ । ८५०. वही, ६१६८।
८०७. पघा ५७६ । ८०९. वही, ५.९६ । ८११. वही, ५।११४ । ८१३. वही, ५१३७ । ८१५. वही, ५११७९ । ८१७. बहो, ५।३६७ । ८१२. बही, ५१३७१ । ८२१. वहीं, ५३७१। ८२३. वहीं, ५।३७१ । ८२५. वही, ५।३७१। ८२७. वही, ५॥३७२ । ८२९. वही, ५।३७३ । ८३१. यही, ५।३७३ । ८३३. वही, ५।३७३ । ८३५, वही, ५।३७३1 ८३७. वही, ५:३७३ : ८३९. वही, ६२। ८४१. वही, ६६६ । ८४३. वही, ६६६ । ८४५. वही, ६६७। ८४७. वही, ६६८। ८४९. वही, ६६७ । ८५१. वही, ६६८।
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सामाजिक व्यवस्था : १०३
क्षेम,८५२ वज्रपंजर,८५३ मन्दरकुंज,८५४ नाकार्धपुर, ५५ हेमपुर, १५ प्रीतिकूटपुर,५७ कनकाभपर,८५८ घोतिःसंग, ५५ मेघपुर, ५० यक्षगीत,८६६ किन्नरपुर,२ गन्धर्वपुर, पुष्पान्तकपुर,६४ स्वयंप्रभ,६५ कुम्भपुर, ८६६ ज्योतिःप्रभपुर,१७ काम्पिल्यनगर, सूर्योदयपुर, सुरसंगीतपुर, किष्कुप्रमोदनगर,८३१ राजपुर,८७२ दुर्लक्ष्यनगर,८७३ शिखापदनगर, ७४ अरिजयपुर, अरुणनगर,८७६ हनूरुहपुर,८७० महेन्द्रनगर,८७८ कर्णकुण्डलपुर, ७५ पृथ्वीपुर,४० गोवर्धनपुर,८५ धान्यपुर,८२ विजयपुर,४३ शैलनगर,६४ द्वापुरी, चक्रपुर, कुशाग्रपुर, ८७ मधुरा,“ पथिपुरी, आनन्दपुरी, १० नन्द पुरी,५१ सुसीमा,९२ कमलसंकलपुर,८५३ कौतुकमङ्गलनगर, १४ विदग्ध
८५२, पण ६।६८। ८५४. वही, ६।४०९। ८५६. वही, ६५६४ । ८५८. वही, ६०५६७ । ८६०. वही, ७।१११ ८६२. वही, ७।११८ । ८६४. वही, ७११६४ । ८६६. वही, ८।१४२ । ८६८. वही, ८२८१ । ८७०. वही, ८१४९४ । । ८७२. वही, ११८। ८७४. वही, १३३५५ । ८७६, वहो, १७१५४ । ८७८. वही, १८।१५। ८८०. वही, २०१२७ । ८८२. वही, २०१९७० । ८८४, बही, २०१२०७ । ८८६. वही, २०१२२१ । ८८८. वही, २०१२२२ । ८९०. बही, २०१२३० । ८९२. वही, २०१२३१ । ८९४. वही, २४।२।
८५३. पाय ६:३९६ । .८५५. वही, ६१४१६ । ८५७, वही, ६।५६६ । ८५९, वही, ७।९। ८६१. पही, ७११८ । ८६३. वही, ७११८ । ८६५. वही, ८।१३८ । ८६७. वहीं, ८1१५० । ८६९. वही, ८१३६२ । ८७१, वही, ९।१३। ८७३. वही, १२॥१३४ । ८७५, वही, १३।७३ । ८७७. वही, १७३९७ । ८७९, वही, १९।१०३ ८८१. वही, २०११३७ । ८८३. वही, २०१८५। ८८५. वही, २०१२२१ । ८८७. वही, २०१२२१ । ८८९. वही, २०१२२९ । ८९१. वही, २०१२३० । ८९३. वही, २२।१७३ ।
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१०४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
८९५
८९६
नगर,
नन्दनिका रन्ध्रपुर, १
९०५
२०६
नगरी, १०० गान्धारौ, १०९ उज्जयिनी, १७२ कुन्द्रनगर, पुति पद्मिनी, ' यक्षस्थान कौमुदीन
पुर नवपुरी, १०७ क्षेमांजलिपुर, वैशस्थ -
१०९
२१०
९१६
२१८
ग्राम,
t
गन्धवती, ३१३ कम्बरअलंकारोदय " मृत्तिकावती, ' देवोपगोतनगर, ३४७ येणातट, कूर्म्मपुर, ११९ बेलन्धरपुर, हंसपुर, कुशस्थल, प्रतिष्ठपुर,
१२०
१२१
१२४
સ
११४
२२५
अक्षपुर, श्रान्यग्राम व्याघ्रपुर; दशाङ्ग भोगनगर, ९२९ रं विप्रभ, ११४
शशाङ्खनगर,
८२७
८९५. पद्म० २६१३
८९७ नही, २८:१९ ८९९. वही, ३० | ११६ ।
९०१. वही, ३१।४१ | ९०३. बहो, ३३७५ ।
९०५. वही, ३३०४३।
९०७, वही, ३७१६२१ ९०९. वही, ३९१९ ।
१११
९११. बही, ३९।१३७
९१३. बही, ४११११५ 1 ९१५. वही, ४३/२५ । ९१७. वही, ४८ १७ । ९१९. वही, ४८३१६६ । ९२१. वहीं, ५४९७७ ॥
९२३. वही, ६४/५२ ।
९२५. हो, ८०।१५९
९२७. बही, ८०/२१ । ९२९. वही, ८२ । १५ । ९३१. बल्हो, ८५/१४१ 1 ९३३, वही, ८९१५८ । ९३५. वही, ८५।१३३ । ९३७. वही, ९४।५ ।
सूरपुर दारुग्राम, पुष्कलावती
२०३
८९८
दशाङ्गपुर, दशारपुर,
१०८
११२
९६१ ३० आलोकनगर, हिप्रभ २३६ ९५५ शिवमन्दिर
८५९
૨૩
सुरेन्द्ररमण, ९२७ वालिखिमपु पुर,
5४२
श्रीनगर, मथुरा, अमृतपुर, लक्ष्मीधर,
489
८९६. पम० २८।२१९ । ८९८ बड़ी ९००. वही, ३११३० ॥
स
१०२. वही, ३३।७४
९०४. वही, ३३।८० ।
९०६. वही, ३६।११ ।
९०८. वही, ३८।५७ ॥
९१०. वही, ३९/९५ ।
९१२, वही, ३९।१८० । ९१४. वही, ४१।१२८ ।
९१६. वही, ४८|४३ | ९१८. वही, ४८/१३८ । ९२०. वही, ५४।६५
९२२. वहीं, ५९।६ । १२४. वही, ७.७१५७ ।
९२६. वही, १७३ | ९२८. वही, ८२ १४ ।
९३०. वही, ९४|४|
९३२. बही, ८८/३९ । ९२४, वही ९४/४
+
९३६. वही, ९४|४| ९३८. षहो, ९४।५ ।
१०४
९२०
९२८
९३३
१८
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________________
किन्नरोद्गोत ११९ जीमूतशिखर,
२४५
श्रीगृह, "
१४४
मत्यनुगीत, बहुरथ, मलय, भास्कराम, अरिजम, ज्योतिःपुर, शशिच्छाम,
१४७
९४२
१४०
१५०
९४६
९३९ ० ९४/५ ९४१. हो, ९४ ६ ।
१४३. वही ९४६ ॥
1
सामाजिक व्यवस्था : १०५
འ༥བ
गान्धार, श्री विजयपुर, पक्षपुर, १५१ तिलकपुर, १५२ १५४ लोकाअनगर, १ पृथिवीनगर, ९५३ शामली, कांचनस्थान, ' कोदालापुरी नगरों के नाम आए हैं
मृणालकुण्ड,
९५९
१३०
लौकिक मान्यतायें व प्रथायें
९४१
९४५. वही ९४७ ।
P
९४७, वही ९४७ ।
९४९. वही ९४७ ।
९५१, वही ९४८ ।
९५३. वही, ९३।१८४ ।
९५५. वही १०९६९ ।
९५७. वही १०८ ४० ।
९५९. वही, ११०१ ।
९६९. वही, ८३१९ ।
९६२. नूनं मृत्युसमीपोऽसि सम्म बहसे गजे ।
૧૪૨
९४०. पद्म० ९४/५ । ९४२. वही, ९४६ ॥
९४४. वहीं, ९४७ ९४६. वही,
पद्मचरित से अनेक लोकिक मान्यताओं व प्रथाओं का निर्देश प्राप्त होता है, जो कि उस समय जनसाधारण में प्रचलित थीं । ये मान्यतायें निम्नलिखित हैं---
I
९६१
भूत-प्रेतों में विश्वास - अष्टम पर्व में कहा गया है कि नागवती के विरह में हरिषेण भूताकान्त मानव ( ग्रही) के समान इधर-उधर घूमने लगा ।' एक स्थान पर हरिषेण अञ्जनगिरि हाथी को जोकि महावत के वश में नहीं आर ने दी को पर ले जाने को कहता है कि जान पड़ता है कि तू मृत्यु के समीप पहुँचने वाला है इसलिए तो हाथी के विषय में गर्व धारण कर रहा है । अथवा तुझे कोई भूत लग रहा है। यदि भला चाहता है तो शीघ्र ही इस स्थान से चला जा एक अन्य स्थान पर अञ्जना की ओर आते हुए सिंह के विषय में कवि कल्पना करता हैक्या यह मृत्यु है ? अथवा दैत्य है अथवा कृतान्त है अथवा प्रेतराज है अथवा कलिकाल
112
९४७ १
९४८. वही ९४७
1
९५०. वही, ९४ ८ ।
९५२. बही, ९४८
पुण्डरीकपुर, 'शालिग्राम,'
१४३
९४८
९५३
१५८
९५४. वही, १०१।५ । ९५६. वही, १०६ १३३ । ९५८. वही, १०९/५२ ।
९६०. वही, ११८/५३ ।
गृहेण वा गृहीतोऽसि ब्रजास्मादाशु गोचरात् ॥ पद्म० ८३३३७ ।
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१०६ : पामचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
है. आदि-आदि । इन सबसे विदित होता है कि उस समम लोग भूत-प्रेतों में विश्वास करते थे । भूत किसी व्यक्ति को आबिष्ट कर उससे किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करा सकता है, ऐसा थे लोग मानते थे ।
वटवृक्ष की पूजा-उस समय घटवृक्ष (न्यग्रोध वृक्ष) की पूजा होती थी। इसके प्रारम्भ के विषय में कहा गया है कि एक बार जब भगवान् ऋषभदेव वटवृक्ष के समीप विद्यमान थे तब उन्हें समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला फेवलज्ञान प्रकट हुआ। उस समय उस स्थान पर देवों द्वारा भगवान् की पूजा की गई पो इसलिए उसी पति से आज भी लोग प्रवृत्ति करते हैं।६५ अर्थात् वट-वृक्ष की पूजा करते हैं ।
शकुन में विश्वास-किसी कार्य के फल के निर्धारण में लोग शकून को बहुत महत्त्व घेते थे । शुभ शकुन कार्य-सिशि का द्योतक तथा अपशकुन कार्य में बाधा आने या कार्यसिद्धि न होने का प्रतीक समझा जाता था। उस समय में प्रचलित शकुन के प्रकारों आदि का निरूपण पहले किया जा चुका है। ___ज्योतिष विद्या पर विश्वास-किसी भी मंगल कार्य करने से पूर्व ग्रह, नादि की ज्योतिष सामना के भागार पर शुभमहर्त का निश्चय किया जाता था, ताकि कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो । अञ्जना और पवनंजय के पिताओं ने जब अपनी पुत्री और पुत्र के वैवाहिक सम्बन्ध का निश्चय किमा तब समस्त ज्योतिषियों की गति को जानने वाले ज्योतिषियों ने तीन दिन बीतने के बाद वैवाहिक कार्य करना उचित है, ऐसी सलाह दी ।।"
शस्त्रपूजा-अब रथनूपुर के विद्याधर राम की बल-परीक्षा के लिए बनावर्त भोर सागरावतं धनुषों को मिथिला ले जाने लगे उस समय उन्होंने जिनेन्द्र भगवान् की पूजा और स्तुति करने के पश्चात् गदा, हल आदि शस्त्रों से युक्त उन दोनों धनुषों की पूजा की ।९५७ इस उल्लेख से सिद्ध होता है कि उस समय शस्त्रपूजा की जाती थी।
१६३. पा. १७२३०। ९६४. ऋषभस्य तु संजातं केवलं सर्वभासनम् ।
महाम्यग्रोधवृक्षस्य स्थितस्यासन्नगोचरें ।। पयः १११२९२ । ९६५. तत्प्रवेशे कृता देवस्तस्मिन् काले विभोर्यतः ।
पूजा तेनैव मार्गण लोकोऽयापि प्रवर्तते ।। पनः १११२९३ । ९६६. पप्र. १५९३।
९६७. पद्म २८।१७१-१७३ ।
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सामाजिक व्यवस्था : १०७
आधार-प्रवहार वाचार-व्यवहार ही किसी देश अथवा काल को संस्कृति को समझने का सबसे बड़ा माध्यम है। पद्मचरितकालीन समाज को भी बहुत कुछ इसी आधार पर परखा जा सकता है। सभ्यता, शिष्ट व्यवहार, मधुरसंवाद, विनम्र व्यवहार और उच्च शिष्टाचार उस युग की विशेषता थी।
सामाजिक शिष्टाचार में अतिथि सत्कार को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था । द्वितीय पर्व में मगधदेश का वर्णन करते हुए कवि ने कहा है-'आहार आदि की व्यवस्था से उस देश के गृहस्थ पथिकों को सन्तुष्ट करते हैं इस कारण उस देश में लोगों का सदा आवागमन होता रहता है।'' मुनिवेषधारी गतिथि को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था, क्योंकि समाज को नैतिकता की ओर से जाने तथा आरिमक गुणों की ओर उन्मुख करने में उस समय मुनियों का अधिक हाथ रहता था । मनि अवस्था में जब भगवान ऋषभदेव एक बार हस्तिनापुर पहुँचे तम राजा श्रेयांस महल के नीचे उतरकर अन्तःपुर सथा अन्य मित्र जनों के साथ उनके पास आया और हाथ जोड़कर स्तुति पाठ करता हुआ प्रदक्षिणा देने लगा।६३ सर्वप्रथम राजा ने अपने केशों से भगवान के चरणों का मार्जन कर आनन्द के आंसुओं से उनका प्रक्षालन किया । १७० रत्नमयी पात्र से अर्ध्य देकर उनके चरण धोए, पवित्र स्थान में उन्हें विराजमान किया और बाद में उनके गुणों से आकृष्ट हो कलश में रखा हुआ इक्षु का शीतल जल देकर विधिपूर्वक आहार कराया ।"
भगवान् को आहार देने का फल यह हुआ कि ऐसे उत्कृष्ट पात्र को दान देते देखकर देवता भो हर्षित होकर साधु-साधु और घन्य-वन्य के शाब्दों से भाकाश को गुंजायमान कर दुन्दुभि बाजों का शम्द करने लगते थे।७२ अत्यन्त सुखकर स्पर्श से मुक्त दिशाओं को सुगन्धित करने वाली वायु बरसने लगती थी और साकाश में रत्नों की धारा बरसने लगती थी।
स्त्रियाँ भी अतिथि सत्कार में निपुण होती थीं। दशानन के यहाँ एक बार जब मन्दोदरी का पिता मय पहुँचा तब उस समय महल के सासर्वे खण्ड में दशानन की वहिन बहनवा थी। उसने सबका अतिथि-सस्कार किया था । १७४ उस
९६८. पन० २।३०।
९६९. पम ४११२, १३ । ९७०, वही, ४।१४ ।
९७१. वही, ४११५, १६ । ९७२. वही, ४१७ ।
९७३. वही, ४।१९। ९७४. अथेन्दुनखया तस्य कृताभ्यागमसरिया ॥ पन० ८।३१ ।
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१०८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
समय वन में रहने वाले वापस भी अतिथि सत्कार करने में अपना गौरव अनुभव करते थे । १५ राम, लक्ष्मण और सीता के साथ जब तापसों के एक सुन्दर आश्रम में पहुँचे तब उन तापसों ने विभिन्न प्रकार के मधुर फल, सुगन्धित पुष्प, मोठा जल, आदर से भरे स्वागत के शब्द, अर्ध्य के साथ दिए गये भोजन, मधुर संभाषण, कुटी कार कोमल की अय्यर आदि धकावट को दूर करने वाले उपचार से उनका बहुत सम्मान किया । ९७३ अतिथियों के लिए अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु देने में लोग संकोच का अनुभव नहीं करते थे । एक बार जब लक्ष्मण वर्ग के यहाँ गए तब कर्ण ने आओ ! शीघ्र प्रवेश करो, कहकर उनको प्रवेश कराया । ९७७ लक्ष्मण भी सन्तुष्ट होकर विनीत वेष १७८ में उनके पास गया। वञ्चकर्ण ने विश्वस्त पुरुष से कहा - " जो अन्न मेरे लिए तैयार किया है वह उन्हें शीघ्र आदर के साथ खिलाको ।' उस समय के लोग अपने से बड़ों का विशेष ध्यान रखते थे । लक्ष्मण ने वाकणं को उत्तर दिया कि "मैं यह भोजन यहाँ नहीं करूंगा । पास हो में मेरे अग्रज ठहरे हुए हैं, पहले उन्हें भोजन कराऊँगा, इसलिए मैं यह अन्न उनके पास ले जाता हूँ १८० एवमस्तु कहकर राजा ने उन्हें उत्तमोत्तम बहुत अन्न दिया । वह भोजन इतना मधुर था कि उससे सन्तुष्ट होकर राम ने कर्ण की महत्ता की सराहना की। साथ ही यह भी कहा कि ऐसा सुन्दर भोजन तो जमाई के लिए भी नहीं दिया जाता । १०२ इस अमृततुल्य अन्न के खाने से हमारा मार्ग से उत्पन्न हुआ गर्मी का अम एक साथ नष्ट हो गया है । १६ इस प्रकार उन्होंने इस भोजन की भूरि-भूरि प्रशंसा की । १८४
१९७९
व्यंजनों से युक्त
बड़ों का अभिवादन करना उस समय के शिष्टाचार का एक अङ्ग था । शुकाकर बड़ी विनय से चरणों में अर्ध्यादि की भेंट
-
नमस्कार करना, '
सिर देना, १८६
हाथ जोड़कर प्रणाम करना,
बन्दना करना,
तीन प्रदक्षिणा
९८७
१८५
९८८
१७६. पद्म० ३३८, ११
९७५ पद्म० ३३।१०।
९७७. वही, ३३।१९३ ।
९७८. विनीतवेष सम्पन्नो वीक्षितं सादर नरः । पद्म० ३३११९४ ।
९७९ १० ३३ । १९५ ।
९८१ षही, ३३११९७ । ९८३. वही, ३३२०१ ।
९८५. वही, ८।३९५ । ९८७. वही, १६७१ ।
९८६. वही ९८८. वही,
९८०. पद्म० ३३।१९९६ १
९८२. बही, ३३।१९९, २०० ।
९८४, वही,
३३।२०२-२०४ ।
१८०२० ।
१७।१४७ ।
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सामाजिक कावस्था : १०९
देना, ९८९ हाथ जोड़कर नमस्कार करमा,११० चरणवन्दना ९१. तथा जयजयकार करना,१५२ ये सब सम्मान प्रकट करने को शैलियां थीं।
आलिंगन करने की उस. समय परम्परा थी। आलिंगन वास्तविक सौहार्द्र का प्रतीक माना जाता था। जिस समय दशानन आदि तीनों भाइयों का राज्याभिषेक हुआ उस समय आनन्द से व्याप्त नेत्रों वाले माता-पिता ने प्रणाम करते हुए दशानन आदि के शरीर का चिरकाल तक स्पा किया ।१९६ अति चिरकाल तक जीत रहो (जोवतातिचिरं कालम्) २२४ ऐसा कहकर सुमाली, माल्यवान्, सूर्यरज, ऋक्षरज और रत्नश्रवा आदि गुरुजनों मे स्नेहवश उनका बार-बार आलिंगन किया (आलिलियु: पुनः पूनः) १९५। रत्नजटी विद्याधर ने राम को रावण द्वारा सीता के हरे जाने की सूचना दी तब सूचना-प्राप्ति के कारण हर्षित हो नाना प्रकार के स्नेह को धारण करते हुए राम ने आदर में रत्ननटी के साप अपने शरीर का स्पर्श दिया ।१९ राम बार-बार आलिंगन कर उससे समाचार पूछते थे और वह हर्ष से स्खलित हए अक्षरों में बार-बार उक्त समाचार सुनाता था ।९५७ हनुमान् द्वारा युद्ध में पकड़े जाने पर मातामह महेन्द्र ने उसका मस्तक सुंघा और रोमांचित हो उसका आलिंगन किया।९९८ इन को प्रस्थान करने के बाद राम-लक्ष्मण जव अरजिनेन्द्र के मन्दिर में ठहर गए तब उनकी मातायें तत्काल दौड़ी आयीं। आसुओं से युक्त हो उन्होंने बार-बार पुत्रों का आलिंगन किया और बार-बार उनके साथ मन्त्रणा की। राम का वनगमन जानकर भरत छह दिन में ही राम के पास पहुंच गया । वह घोड़े से उतर पड़ा और जहाँ से राम दिखाई दे रहे थे उतने मार्ग में पैदल ही चलकर उनके समीप पहुँच गया तथा उनके चरणों का आलिङ्गन कर मूच्छित हो गया । १००० पति-पत्नी के आलिङ्गन के अनेक प्रसङ्ग पपंचरित में मिलते हैं 100 इस प्रकार परित में परम्पर आलिङ्गन के अनेक उदाहरण है। इन सबमें मन ९८९, पद्म० १७.१२३ 1 ९९०. पन० १७१२३ । ९९१. वही. ७३६७ ।
९१२. वहीं, २११८५ । ९९३, सवेपथुकरेणैषां गावस्पृश्यता चिरम् ।
पितगे सत्रणामानामानन्दाम्याकुलेमणो । पन० ७।३५८ । ९९४. पचर ।३६८।
९९५. पन ७।३६९ । ९९६. अंगस्पर्ण ददौ सर्व सादरं रत्नफेणिने ।। पद्मा ४८६९६ । १९७. पद्म० ४८१९८ । ९९८, मजिनमस्तके मदं पुलकी परिषस्वजे ।। पद्म ५०६४५ । ९९९. पद्मा ३३२३१ । . १०००. पप ३२०११८ । १००१. यहो, १६।२८३, १८४, १८५, २२९, ७३३१५२-१५३, ५४॥१५ ।
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११० पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
की शुद्धि हो म प्रशस्त है स्त्री पति और पुत्र दोनों का आलिङ्गन करती है। परन्तु भाव जुदे जुदे होते हैं | १००२
मनुष्य मिलते समय सबसे पहले कुशल-क्षेम पूछा करते थे । अञ्जना तथा वसन्तमाला को गुफा में जब मुनिराज दिखाई पड़े तब दोनों सखियों ने कहाहे भगवन् ! हे कुशल अभिप्राय के धारक ! हे उत्तम चेष्टाओं से सम्पन्न ! आपके शरीर में कुशलता तो है ? क्योंकि समस्त साधनों का मूल कारण यह शरीर ही है । है गुणों के सागर ! आपका तप उत्तरोत्तर बढ़ तो रहा है ? हे विजय के धारक ! आपका बिहार उपसर्गरहित तथा महाक्षमा से युक्त तो है ? हे प्रभो ! हम आपसे जो इस तरह कुशल पूछ रही हैं सो ऐसी पद्धति है यही ध्यान रखकर पूछ रही है अन्यथा आप जैसे लोग किस कुशल के योग्य नहीं हैं ? आप जैसे पुरुषों की शरण में पहुँचे हुए लोग कुशलता से युक्त हो जाते हैं, अतः स्वयं अपने आपके विषय में अच्छे और बुरे पदार्थों की चर्चा ही क्या करना ? १०.०३ विद्या सिद्ध करने के बाद दशानन आदि से उनके गुरुजनों ने कहा कि हे पुत्रो ! इतने दिनों तक तुम मुख से रहे ?१००० इस प्रकार कुशलक्षेत्र के अनेक उदाहरण मिलते हैं ।
१००१
बड़े लोग छोटों के प्रति दस 1००५ अहो पुत्र 19004 पुत्र कहकर सम्बोधित करते थे । बढ़ा भाई छोटे भाई के लिए हे तात! हे बालक ! हे अनुज ! नाम लेकर सम्बोधित करता था । १००८ बड़ों के लिए हे देव ! (देव), हे नाथ ! (नाथ), हैं महाबुद्धिमान् १६०१५ प्रभो ! (प्रभो ), १७१२ हे स्वामिन्! ( स्वामिन् ), १०१३ श्वर), १०५४ हे विचक्षण ! (विचक्षण), ' १०१५ हे नाथ ! हे आर्य ! (आर्य ), १०५८ हे पूज्य 1 ( पूज्य), राजन् ! इस प्रकार सम्बोधित कर बातचीत की जाती थी ।
हे
(देव), ५०५७
१००२. पद्म० ३१।२३३ १
१००४. वही, ७ ३७२ | १००६. वही, ७।३८० |
१००८, वही, ३६/५४ ॥
१०१०. वही, ५४११८ ।
१०१२ . वहीं, ५५९ ।
१०१४. वही, ५५|१० । १०१६. वही, ३२/४२ | १०१८. वही, ५० ४७
१०१०
हे परमेश्वर !
( महाबुद्धे ),
१००७
(परमे -
हृ देव !
राजा के लिए हैं
(नाथ), १०१
१०१९
१०१५. वही ५५।१२ ।
१०१७. वही, ३२/४७ । १०१९. जही, ५०६४७ ।
१००३. पद्म० १७।१२६-१२९ ।
१००५. वही, ७ ३७८ ।
१००७. वही, ३२।१२८ । १००९. वहीं, ५४/२२ ।
१०११. वही, ५४।२५ । १०१३. वही, ५५/१०/
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सामाजिक व्यवस्था : १११
१०२१
१०२५
१०२७
स्त्री के प्रति गुण तथा समय के अनुसार हे पावने ! (पावने), १८२० हे स्वामिनि ! ( स्वामिनि), ' हें साध्वि 1 (साध्वि), १०२२ हे सुन्दरि ! ( सुन्दरि ), १०२३ हे विदुषी ! (विदुषि), १०२४ हे शुभे ! ( शुभे), हे पूजिते ! (पूजिते ), १०२३ हे सुमुखि ! ( सुमुख), है प्रिये ! १०२८ हे वराननं १०५३ है भद्रे ! १०३० हे प्राणवल्लभे ! १०१५ हे सुन्दर जांघों वालो ! ( खरोस ), १०३२ है सुन्दर विलासों को धारण करने वाली ( सुविभ्रमे ), हेमुग्धे ! ( मुग्धे ), हे परम सुन्दरि ! (परम सुन्दरि ), हे सौम्यमुखी ! (सौम्य - यक्त्रे }, १०३६ हे मामिति (मामिति) १०१७ इत्यादि कहा जाता था । सामान्य व्यक्ति के लिए हे भव ! (भन ), हे कुलीन ! (सद्गोत्र), १०५९ हे भाई! (भातः) इत्यादि कहकर सम्बोधित किया जाता था |
१०३३
१०३४
१०३५
१०५८
१०४०
१०४२
I
अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिए शपथ या सौगन्ध खाने की परम्परा थी | लक्ष्मण ने वञ्चकर्ण तथा सिहोदर को कभी शत्रुता नहीं करेंगे इस प्रकार शपथ दिलाकर दोनों की मित्रता कराई थी ।१०४१ विभीषण और राम की मैत्री तब हुई जब विभोषण अपनी निश्छलता की शपथ खा चुका' लक्ष्मण ने भाई के साथ वन को जाते समय वनमाला को बहुत समझाया किन्तु वह न मानी तो लक्ष्मण ने शपथ खाई कि यदि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास वापिस न आऊं तो सम्यग्दर्शन से हीन मनुष्य जिस गति को प्राप्त होत हैं उसी गति को प्राप्त होऊ । १०४१ में तुम्हारे पास न आऊँ तो साधुओं की निन्दा करने वाले अहंकारी मनुष्य के पाप से लिप्त होऊं । ५०४४ दो व्यक्तियों में परस्पर
१०२०, पद्म० ५३/५४ । १०२२. वही, ५३३५५ ।
१०२४. वहीं, ५२।८१ ।
१०२६. वहीं, ५३०५९ ।
१०२८. हो, ३८/३७ ।
१०३०. वही, ३८ ३७ |
१०३२. वही, ३८/४२ १०३४. बही, ३६।४८ । १०३६. वही, ५२/६३ ।
१०३८. वही, ५३/६३ ।
१०४०. वहीं, ५३।७१ ।
१०४२. वही, ५५/७३ ।
१०४४. वही, ३८/३९ ।
१०२१. १० ५३.५५ । १०२३. वहीं, ५२१८१ ।
१०२५. वही, ५३।५९
१०२७. वही, ३६ ४२ ।
१०२९. वही, ३८।३७ ।
१०३१. बही, ३८६४० ।
१०३३. वही, ३८/३८ । १०३५. वही, ३६ ४३
१०३७. वही ५२/६३
१०३९. वहीं, ५३/६४ ।
१०४१. वही, ३३।३०७१ १०४३. वही, ३८/३८ ।
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११२ पंचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सौहार्द प्रकट कराते या मित्रता स्थापित कराते समय हाथ से हाथ मिलाया जाता या । लक्ष्मण ने सिंहोदर और वज्रकर्ण को मित्रता हाथ मिलाकर कराई । १०४५ अपरिचित व्यवित अपना परिचय कुल, गोत्र, माता-पिता का नाम आदि कहकर देता था ।
१०४६
बड़ों की आज्ञा मानना तथा उनके प्रति विनय का भाव रखना उस समय के शिष्टाचार का महत्त्वपूर्ण अङ्ग था । जब इन्द्र नाम का राजा रावण से पराजित होकर बन्दी बना लिया गया तब इन्द्र के पिता ने रावण से इन्द्र को छोड़ देने को कहा। इस पर रावण ने उसर दिया है। जिस प्रकार आप इन्द्र के पूज्य हैं, उसी प्रकार मेरे भी पूज्य हैं, बल्कि उससे भी अधिक । इसलिए मैं आपकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूँ ? यदि यथार्थ में आप जैसे गुरुजन न होते तो यह पृथ्वी पर्वतों से छोड़ी हुई के समान रसातल को चली जाती । आप जैसे पूज्य पुरुष मुझे आशा दे रहे हैं अतः में पुण्यवान् हूँ । आप जैसे पुरुषों की आशा के पात्र पुण्यहीन मनुष्य नहीं हो सकते । इसलिए हे प्रभो ! आप विचार कर ऐसा उसम कार्य कीजिये जिससे इन्द्र और मुझमें मोहाई उत्पन्न हो जाय 1 इन्द्र सुख से रहें और मैं भी सुख से रहें। यह शक्तिशाली इन्द्र मेरा चौथा माई है, इसे पाकर मैं पृथ्वी को निष्कंटक करूँगा । आप जिस प्रकार इन्द्र को आशा देते हैं उसी प्रकार मुझे करने योग्य कार्य की आज्ञा देते रहें, क्योंकि गुरुअनों की आज्ञा हो शेषाक्षत की तरह रक्षा करने वाली हैं। आप इच्छानुसार यहाँ रहें या रथनूपुर रहें अथवा जहाँ इच्छा हो वहां रहें। हम दोनों आपके सेवक है । हमारी भूमि हो कौन है २१०४७ बड़ों को माशा मानने का दृष्टान्त राम द्वारा दवारथ की आशा स्वीकार करने १० तथा लक्ष्मण द्वारा राम की आज्ञा माने जाने इत्यादि अनेक प्रसंगों में मिलता है ।
१०४८
वड़ों को बिदा करने के लिए कुछ दूर तक उनके साथ जाने की परिपाटी थो । १०४९५०५० नदी या तालाब तक पहुँचाना शुभ और परम्परानुकूल माना जाता था । राम ने करवा नदी के तट पर पहुँच अनेक आगन्तुक राजाओं आदि को समझा-बुझाकर लौटा दिया । १०५५ जो लोग नहीं लौटे थे उन्हें लौटाने का यत्न किया। १०५२ कसं व्यशील राजा के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानना प्रजा अपना कर्तव्य समझती थी। राम- धन-गमन के समय लोग राम-लक्ष्मण के साथ जाने
१०४५. पद्म० ३३।.३०७ ।
१०४७. वही, १३१४-२१ । १०४९. वही, १३०३२ ।
१०५१. वही ३२ ४०
1
१०४६, पद्म० ५३५१ ।
१०४८, बड़ी, ३११२४, १२५ । १०५०. बही, ३२१४०
१०५२, वही, ३२ ३०, ४१
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सामाजिक व्यवस्था : ११३
को सस्सूक हो गए । नगरी के समस्त घर सूने हो गए तथा समस्त उत्सव नष्ट हो गया। ०५६ कर्णरवा नदी के तट पर पहुँचने पर राम ने उनसे लौटने को कहा तब उन्होंने उत्तर दिया--हम आपके साथ व्यान, सिंह, गजेन्द्र आदि दुष्ट जीवों के समूह से भरे हुए बन में रह सकते है पर आपके बिना स्वर्ग में भी नहीं रहना चाहते । हमारा चित्त ही नहीं लौटता है, फिर हम कैसे लौटें ? यह चित्त हो तो इन्द्रियों में प्रधान हैं। जब आप जैसे नररत्न हमें छोड़ रहे है तन हम पापी जीवों को घर से क्या प्रयोजन है ? भोगों से क्या मतलब है ? स्त्रियों से क्या अर्थ है ? तथा बन्धुओं की क्या आवश्यकता है ?१०५४
कुल की प्रतिष्ठा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। दशरथ से अपनी प्रतिज्ञा पालन करने की प्रार्थना कर राम ने कहा-आप अपकीति को प्राप्त होते है तो मुझे इन्द्र की लक्ष्मो से भी क्या प्रयोजन है ?१०५५ लक्ष्मण भी हमें थपने पिता की उज्ज्वल कीति की रक्षा करनी चाहिए, यह निश्चय कर राम के साथ वन आने को नद्यत हो गए । १०५ एक राजा दूसरे राजा का सम्मान कुछ भेट और उपहार आदि देकर करता था । रावण की सहायता के लिए एक बार जो राजा आए थे उनका उसने अस्थ, वाहन तथा कवच भादि देकर सम्मान किया । २०५७
१०५३. पप० ३११२१५ ।
१०५४. पा० ३२।४४.४६ । १०५५. तात रक्षारमनः मत्यं त्यजास्मपरिचिन्तनम् ।
शकस्यापि श्रिया कि में त्वय्यकोतिमुपागने । पम० ३१।१२५ । १०५६. मिप्तकीर्तिममुत्पत्तिविषासव्या हि नः पितुः ।
तुष्णीमेवानुगच्छामि व्यायास साधुकारिणम् ।। पप० ३१११९९ । १०५७. अस्त्रवाहनसम्नाप्रभृतिप्रतिपत्तिभिः ।
रावणोऽपूजयद् भूपान् सुत्रामा त्रिदशानिव ।। पत्र. ५५।८९ ।
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अध्याय ३
मनोरंजन प्रकृति में अन्य जीवारियों की अपेक्षा मानव अधिक विनोदप्रिय है । प्राचीन भारत में लोगों का जीवन आजकल की अपेक्षा सुखी था, उसको जीवन संग्राम में हम लोगों की भांति अधिक व्यस्त नहीं रहना पड़ता था । ऐसी स्पिति में लोगों ने समय-समय पर आनन्द की सष्टि के लिए मनोविनोद के रूप में कलाओं का विकास किया । पद्मचरित में इस विकास के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं जो निम्नलिखित है
क्रीड़ा क्रीड़ा के भेद-या, रम, नाम डा और इसस, का में से कोड़ा चार प्रकार को होती है।
चेष्टा-शरीर से उत्पन्न होनेवाली क्रीड़ा को चेष्टा कहते हैं । उपकरण-कन्दुक आदि खेलना उपकरण है । बाक्क्रीड़ा-नाना प्रकार के सुभाषिप्त आदि कहना वाक्कोड़ा है। कलाव्यत्यसन- जुआ आदि खेलना कलाच्यत्यसन है।"
शास्त्रनिरूपित चेष्टाओं से क्रीड़ा करना उज्ज्वल क्रीड़ा कहलाती थी । सीता इसी प्रकार को कीड़ायें करने वाली कही गई है।
क्रीडाधाम (क्रीडास्थल)-जहाँ विभिन्न प्रकार के मनोरंजन और भोगोपभोग को पस्तुयें होती थीं उसे क्रोडाघाम कहा जाता था। इस प्रकार के क्रोडा. धाम बनाने के लिए रमणीक स्थान चुनकर वहाँ सब प्रकार की वस्तुयें सुलभ की जाती थीं । राम, लक्ष्मण तथा सीता के लिए क्रीडाधाम बनाने हेतु वंशस्थलपुर के राजा सुरप्रभ की आज्ञा से वंशस्थल पर्वत के शिखर पर शुद्ध दर्पणतल के समान सुन्दर भूमि तैयार की गई। वह पर्वतशिखर अत्यधिक रमणोक था तथा हिमगिरि के शिखर के समान था। वहीं एक समान लम्बे-चौड़े अच्छे रंग के मनोहर शिलाता थे। वह अनेक प्रकार के वृक्षों और लत्ताओं से व्याप्त
१. पद्म २४।६७ । ३. वही, २४१६८! ५. वही, २४॥६९ । ७. वहीं, ४०।२४।
२. पद्म० २४।६७ । ४. वही, २४१६८३ ६. वही, ४०।२६ ।
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मनोरंजन : ११५
था। अनेक प्रकार के पक्षी वहां शरद कर रहे थे, वह सुगन्धित पायु से पूर्ण भा, अनेक प्रकार के पुष्पों और फलों से युक्त था, सब ऋतुओं के साथ वसन्त ऋतु वहाँ उपस्थित थी। उस भूमि पर पांच प्रकार की धूलि से अनेक चित्र बनाये गये थे । अनेक प्रकार के भावों से रमणोम मौलश्री, कमल, जुही, मालती, नागकेशर, सुन्दर पल्लवों से युक्त अशोक वृक्ष तथा इनके अतिरिक्त मुन्दर कान्ति और सुगन्धयुक्त अन्य बहुत से वृक्ष बनाये गये थे। यहां पर बादली रंग के वस्त्र फैलाये गये थे तथा सघन पताकायें फहराई गई थीं। छोटी-छोटी बंटियों से मुक्त सैकड़ों मोतियों की मालायें, चित्र-विचित्र 'अमर, मणिमय फानूस (लम्बूषमणिपद्रिका), पण तथा जिन पर सूर्य की किरणें प्रकाशमान हो रही थों ऐसे अनेक छोटे-छोटे गोले-ये सब ऊँचे-ऊंचे तोरणों तया ध्वजाओं में लगाये गये थे ।' पृथ्वीतल पर जहां-तहाँ कलश रखे गये थे 'ओ कमलिनी-वन में बैठे हुए हंसों के समान सुशोभित हो रहे थे। राम ने जहाँ-जहाँ परण रखे थे वही पृथ्वीतल पर बड़े-बड़े कमल रख दिये गये थे। जहां-तहां मणियों और स्वर्ग से चित्रित तथा अतिशय सुखदायक स्पर्श को धारण करने वाले आसम तथा सोने के स्थान बनाये गये । लदंर से सहित तावाद, मासुगन्धित गन्ध और देवीप्यमान आभूषण वहां जहां-तहाँ रखे गये थे। सब ओर से नाना प्रकार की भोजनसामग्रो से युक्त, जिनमें रसोईघर अलग बनाया गया था ऐसी सैकड़ों भोजनशालायें वहां निर्मित की गई थीं। वहाँ की भूमि कहो गुरु, घी, दही से पकिल होकर सुशोभित हो रही थी तो कहीं कर्त्तव्यपालन करने में तत्पर आदर से युक्त मनुष्यों से सहित पो। कहों मधुर आहार से तृप्त इए पथिक अपनी इच्छा से बैठे थे वो कहीं निश्चितता के साथ गोष्ठी बनाकर एक दूसरे को प्रसन्न कर रहे थे। कहीं सेहरे को धारण करने वाला और मदिरा के नशे में झूमते हुए नेत्रों से युक्त मनुष्य दिखाई देता था तो कहीं मौलश्री की सुगन्धि को धारण करने वाली नशा से भरी स्त्री दष्टिगोचर होती थी। कहीं नाट्य हो रहा था, कहीं संगीत हो रहा था, कहीं पुण्यचर्चा हो रही पी और कहीं बिलासयुक्त स्त्रियाँ पतियों के साथ क्रीड़ा कर रही थीं । कहीं मुस्कुराते हुए लीला से युक्त विद पुरुष जिन्हें धक्का दे रहे थे ऐसी देवनर्तकियों के समान वेवपायें सुशोभित हो रही थी ।१०
जाकीड़ा पप्रचरित में अनेक स्थलों पर जलक्रीड़ा का आकर्षक चित्रण किया गया
१. पन ४०।१४, १४॥१८॥
८. पपः ४०१४-१३ । १०. वही, ४७११९-२३ ।
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११६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
है। जलक्रीड़ा में स्त्रियाँ और पुरुष समान रूप से भाग लेकर मनोविनोद करते थे । एक बार दशानन जब मेषरव नामक पर्वत पर स्वच्छ जल से मरी वार्षिका पर पहुंचा तब उस क्षपिका पर छह हजार कन्यायें क्रीड़ा में लोन थीं।" उनमें से कुछ कम्यायें दूर तक उड़ने वाले जल के फब्बारे में क्रीड़ा कर रही थीं और कुछ अपराध करने वाली सखियों से दूर हटकर अकेली अकेली ही कम रही थीं । कोई कन्या वाल से सहित कमलों के समूह में बैठकर दांत दिखा रही थी और अपनी सखियों के लिए कमल की आशंका उत्पन्न कर रही थी। कोई कम्या पानी को हथेली पर रख दूसरे हाथ की हथेली से उसे पीट रही थी
और उससे मृदङ्ग जैसा शब्द निकल रहा था। कोई कन्या भ्रमरों के समान जा रही थी । १३ दशानन क्रीड़ा करने की इच्छा से उनके बीच चला गया तथा वे में कन्यायें भी उसके साथ क्रीड़ा करने के लिए बड़े हर्ष से तैयार हो गई । १४
शरीर का लेप घुल जाने के थी। ऐसी कोई स्त्री अपनी
माहिष्मती के राजा सहसरक्ष्मि ने उत्कृष्ट कलाकारों के द्वारा नाना प्रकार के जलयन्त्र बनवाये थे उन सब यन्त्रों का आश्रय कर सहस्ररश्मि ने नर्मदा में उतरकर नाना प्रकार की कोड़ा की । १५ उसके साथ यवनिर्माण को जानने वाले अनेक मनुष्य थे जो समुद्र का भी जल रोकने में समर्थ थे । * यन्त्रों के प्रयोग से नर्मदा का जल क्षण भर में रुक गया था, इसलिए नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में निपुण स्त्रियाँ उसके तट पर भ्रमण करने लगीं ।" कारण जो नखक्षसों से चिह्नित स्तन दिखला रही सौत के लिए ईर्ष्या उत्पन्न कर रही को। जिसके समस्त अंग दिख रहे थे ऐसी कोई उत्तम स्त्री लगाती हुई दोनों हाथों से बड़ी आकुलता के साथ पति की मोर पानी उछाल रही थी। कोई स्त्री सौत के नितम्ब स्थल पर नखक्षत देखकर क्रीडाक्रमल की नाल से पति पर प्रहार कर रही थी। कोई एक स्वभाव को कोधिनी स्त्री मौन लेकर निश्चल खड़ी रह गई थी तब पति ने चरणों में प्रणाम कर उसे किसी तरह सन्तुष्ट किया । १८ किसी स्त्री ने सदन के लेप से पानी को सफेद कर दिया था तो किसी ने केशर के द्रव से उसे स्वर्ण के समान पीला बना दिया था ।" उत्तमोत्तम स्त्रियों से घिरे मनोहर रूप के धारक राजा सहस्ररश्मि
११. पद्म० १९० ९५ ।
१३. वही, ८९८ ।
१५. वही, १०/६८ ।
१७. वही, १० ६९ ।
१९. वही, १०१८९ ।
१२. ० ८ ९६, ९७ ॥
१४. वही, ८०१०० ।
१६. वह १० ६८ । १८. वही १०/७१-७४ ।
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मनोरंजन : ११७
ने स्त्रियों के साथ निम्न २० प्रकार से क्रीड़ा की
प्रति कोप प्रकट कर,
किसी को प्रणाम कर, ताड़ित कर किसी का
किसी के पास से दूर
किसी को देखकर किसी को स्पर्धा कर, किसी के किसी के प्रति अनेक प्रकार की प्रसन्नता प्रकट कर, किसी के ऊपर पानी उछालकर, किसी को कर्णाभरण से धोखे से वस्त्र खींचकर किसी को मेखला से अधिकर हटकर, किसी को भारी डाट दिखाकर किसी के साथ सम्पर्क कर, किसी के स्तनों में कम्पन उत्पन्न कर किसी के साथ हँसकर किसी के आभूषण गिराकर, किसी को गुदगुदाकर, किसी के प्रति भौंह चलाकर किसी से छिपकर, किसी के समक्ष प्रकट होकर तथा किसी के प्रति अन्य प्रकार से विभ्रम
दिखाकर |
जलकोड़ा सांसारिका का एक उत्तम केन्द्रां जिस समय भरत संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर वन जाने को उद्यत हुआ उस समय अन्य लोगों के साथ राम तथा लक्ष्मण को अनेक रानियों वहाँ आकर भरत से जलक्रीड़ा के लिए निवेदन करने लगीं । भरत उनको प्रार्थना को नहीं टाल सका और उनके साथ उसने जलक्रीड़ा की । २१
वनक्रीड़ा
प्रकृति में जो कुछ मनोरम है उसका अधिकांश नगर के यदि नागरिक को अपने जीवन को आनन्दवृत्तियों को बहुमुखी उसे नगर के बाहर प्रकृति के उत्संग में कीड़ा करनी चाहिए। स्थानों में वन की सर्वप्रथम गणना की जाती है । पद्मचरित के पंचम पर्व में महारक्ष विद्याधर का अपने अन्तःपुर के साथ क्रीड़ा करने के लिए प्रमद वन में जाने का उल्लेख है । वह वन कमलों से आच्छादित वापिकाओं से सुशोभित था ।
२०. दर्शनात् स्पर्शनात् कोपात् प्रसादाद्विविधोदितात् ।
प्रणामाहारिनिक्षेपादवतंस कसा उनात् ।। पद्म० १० । ७६ । संचनादंशुकाक्षेपान्मेखलादामबन्धनात् ।
बाहर होता है । करना है तो
ऐसे मनोरम
पलायान्महारावास संपर्कात् कुचकम्पनात् ॥ पद्म १०२७७ + हासाद् भूषणनिक्षेपात् प्रेरणा विलासतः ।
अन्तर्धानात् समुद्भूतेरन्यस्मान् सुविभ्रमात् ॥ पद्म० १०३७८ । रेमे बहुरसं तस्यां स मनोहर दर्शनः ।
आवृतो वरनारोभिर्देवोभिरिव वासवः । पद्म० १०१७९
२१ पद्म० ८३ ९०- १०८ ।
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११८ : पाचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति रसके बीच में नाना रहनों की प्रमा से ऊंचा दिखने वाला कोड़ापर्वत बना हुआ था। खिले हुए फूलों से सुशोभित वृक्षों के समूह उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। अध्यक्त मधुर शब्दों के साथ इधर-उघर महराते पक्षियों से वह व्याप्त था। उसमें रस्नमयी भूमि से बेष्टित अनेक प्रकार की कान्ति तथा सघन पल्लवों को समीचीन छाया से युक्त लता-मण्डप२२ थे। राजा महारक्ष ने उस प्रमद दन में अपनी स्त्रियों के सा झाला की थी। कभी स्त्रियां उसे फलों से ताहना करती थो और कभी बह फूलों से स्त्रियों को ताड़ना करता था । * कोई स्त्री अन्य स्त्री के पास जाने के कारण यदि ईर्ष्या से कुपित हो जाती थी तो वह चरणों में झुककर उसे शान्त कर लेता था । इसी प्रकार कभी आप स्वयं कुपित हो जाता या तो लीला से भरी स्त्री इसे प्रसन्न करती थी।२४ कभी यह विकटारस के तट के समान सुशोभिप्त अपने वक्षःस्थल से किसी स्त्री को प्रेरणा देता था तो अन्य स्थी उसे भी अपने स्थल स्तनों के आलिंगन से उसे प्रेरणा देती थी ।२५
उपर्युक्त वर्णन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि वनक्रीड़ा सामु हिक रूप से भाग लेने वाले पति-पत्नियों तथा नायक-नायिकाओं के प्रेमालिशन, हास-परिहास आदि के लिए अपूर्व अवसर प्रदान करती थी। यहाँ एक बात उस्लेखनीय है कि पनचरित में कहीं-कहीं उद्यान और वन एक दुमरे के पर्यायवाचो हो गये हैं । इस प्रकार के अनेक उद्यानों तथा उनमें होने वाले अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोदों का वर्णन पनवरित में अनेक स्थानों पर किया गया है। ये उद्यान निसर्गतः सुन्दर तो हुआ ही करते थे, इसके साथ ही साथ मनुष्य अनेक आकर्षक वस्तुओं का संयोग उपस्थित कर उसे और अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाकर सोने में सुगंध वाली बात चरितार्थ करता था 1 उदाहरण के लिए त्रिकूटावल प्रकीर्णक, अनानम्द, सुखसे श्य, समुच्चय, घारणप्रिय, निबोष मोर प्रमाद इस प्रकार सात उगानों से घिरा था। इनमें से प्रकीर्णक नाम का कन पृथ्वोतल कहा गया है । उसके आगे जनानन्द नाम का वन था जिसमें वे ही मनुष्य कोड़ा करते थे, जिनका कि आना-जाना निषिद्ध नहीं था।२४ उसके ऊपर चलकर सुखसेव्य नामका वन या जो कोमल वृक्षों से व्याप्त था। उसकी छवि मेषसमूह के समान थी । वह नदियों और वापिकाओं के कारण मनोहर था । उस वन मे सूर्य के मार्ग को रोकने वाले केतकी और जूही भावि से सहित तथा पान
२२. पप० ५।२९६.३०० । २४. वही, ५.३०२। २६. वही, ४६।१४१, १५४ । २८. वही, ४६।१४६ ।
२३. पा. ५।३.१ । २५. वहीं, ५।३०३३ २७. वही, ४६।१४३, १४५ ।
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मनोरंजन : ११९
की लताओं से लिपटे दश वेमा प्रमाण लम्बे-लम्बे वक्ष थे २९ उसके ऊपर उपद्रवरहित गमनागमन से युक्त समय नाम का पोरा तान ! निशा कहीं हावभाव धारण करने वाली स्त्रियाँ तथा कहीं मनुष्य रहते थे।३० उसके ऊपर चारणप्रिय नाम का पांचवां मनोहर वन या जिसमें चारण ऋविधारी मुनिराज स्वाध्याय में वस्पर रहते थे।" उसके ऊपर छठवा निबोष नाम का उद्यान था जो ज्ञान का निवास था। उसके आगे चढ़कर प्रमद नाम का सातवा उद्यान पा जो घोड़े की पीठ के समान उत्तम तथा सुख से चढ़ने योग्य सीदियों से दिखाई देता था ।२२
प्रमद वन में स्नानक्रीड़ा के योग्य कमलों से सुश भित मनोहरवापिकायें थीं। स्थान-स्थान पर पानीयशालायें तथा अनेक खण्डों से युक्त सभागृह ये 14 वहाँ खजूर, नारियल, ताल तथा अन्य वृक्षों से घिरे एवं फलों से लदे नारंग और बीजपूर आदि के वृक्ष थे । उस प्रमदवन में वृक्षों को सब जातियाँ यो । ४ यहाँ मन्द-मन्द वायु से नुस्य करती हुई वापिकायें राजहंस पक्षियों के समान ऐसी जान पड़ती थी मानो कोकिलाओं के आलाप से युक्त सघन वनों की हंसो हो कर रही हों। उसमें अशोकमालिनी नाम की वापी थी जो कमलपत्रों से सुशोभित तथा स्वर्णमय सोपानों से युक्त और विचित्र आकार वाले गोपुरों से अलंकृत पी। इसके अतिरिक्त वह उद्यान झरोखे आदि से अलंकृत उत्तमोत्तम लताओं से आलिगित मनोहर गृहों तथा जलकणों से युक्त निझरों से मुशोभित
___उपर्युक्त वर्णन के आधार पर उत्तम उद्यान में हम निम्नलिखित विशेषतामें पाते है
२९. १५० ४६।१४७-१४८ । ३०. पम: ४६।१४९ । ३१. वही, ४६।१५० । । ३२. वही, ४६।१५१ । ३३. वही, ४६।१५२ । १४. नारजमातृलिलाधैः फलैर्यच निरन्तराः ।
खर्जूरेालिकेरैश्च तालेरन्यश्च पेष्टिताः ॥ पप ४।१५३ । वत्र च प्रमखोघाने सर्वा एवागजातयः ।
कुसुमस्तवकैछाना गीयन्ते मत्तषट्पदैः ।। पप० ४।१५४ । ३५. अशोकमालिनी नाम पत्रपविराजिता ।
वापीकनकसोपाना विचित्राकारगोपुरा ॥ पप० ४।१६० । ३६. मनोहरगृहाति गवाक्षाद्युपशोभितः ।
सल्लवालिङ्गितप्रान्तनिरिश्च ससीकरः ।। पप० ४१६१ ।
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१२. : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१. अधिकांश जातियों के वृक्ष । २. अनेक विशेषताओं वाली वापो (सरोवर, मवी आदि)। १. लक्षागृह । ४. मनोहर गृह, आवास मादि । ५. पानीयशाला तथा स्नानगृह आदि । ६. कोकिलादि पक्षियों का कलरव । ७. उत्तमोसम झरने । ८. पहाड़ी प्रदेश । पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए सीड़ी आदि का निर्माण ।
भूत-कोड़ा प्राचीन साहित्य के मनोविनोद में छूत का स्थान था। पद्मपरित में धूत को कला के रूप में स्वीकार किया गया है ।" ब्राह्मण भी उस समय जुआ खेलते थे । लक्ष्मण को अपना परिचय देते हुए सदभूति कहता है--"मैं कौशाम्बी नगरी के विश्वानल नाम के पवित्र ब्राह्मण की स्त्री प्रतिसन्ध्या से उत्पन्न पुत्र हूँ तथा शस्त्र और जुए की कला का पारगामी हूँ।"३८ इसी प्रकार ८५वें पर्व में शकुना पाह्मणी के पुत्र मृदुमति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जुए में सदा जीतता पा, बस्यन्त चतुर था, कलाओं का घर था और कामोपभोग में सदा आसक्त रहता था । इस तरह वह नगर में सदा कोड़ा किया करता था। चूत को कला के रूप में इस प्रकार स्थान देते हुए भी पप्रचरित में इसकी गणना दुष्ट चेष्टाओं में की गई है।
पोला-विलास पनपरित के षष्ठ पर्व में लंका के राजा विद्युस्केश की क्रीड़ाओं का वर्णन करते हुए कहा गया है कि राजा विधुरकेश उन बेशकीमती झूलों (दोलामु) पर समसा था जिसमें बैठने का अच्छा भासन बनाया गया था, ओ ऊंचे पक्ष से बेथे थे तथा जिनकी उछाल बहुत लम्बी होतो पो ।' ३९वें पर्व में राम-लक्ष्मण द्वारा दन में किसी वृक्ष पर लटकती लता पर सोता को बैठाकर बगल में दोनों बोर खड़े हो सीता को झुला झुलाने का उल्लेख है।४२ एक स्थान पर दशानन के साथ क्रीड़ा करती हुई कन्याओं की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए कहा गया है कि उस अपूर्व समागम के कारण उन कन्याओं का कामरूपी रस लग्मा
३७, पद्मा ३४१७८, ८५११२९ । ३१. वही, ८५।१२९ । ४१. वही, ६।२२९ ।
३८. पर. ३४१७६-७८ । ४०. वही, ८५।१२० । ४२. वही, ३९।४।
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मनोरंजन : १२१
से मिश्रित हो रहा था, अतः उनका मन दोला पर आरूढ़ हए के समान अस्पत माकुल हो रहा था । छात्स्यायन से पता चलता है कि वाटिका में सघन छाया में खादोला या मूला लगाया जाता था और छायादार स्थानों में विश्राम करने के लिए स्थंडिल पीठिका (बैठने के आसम) बनाए जाते थे, जिनपर सुकुमार कुसुम दल बिछा दिए जाते थे। पंखा-दोला की प्रथा वर्षा ऋतु में ही मधिक थी। आज भी सावन मास में भूले लगाए जाते है।
पर्वतारोहण पर्वतारोहण के प्रति प्राचीनकाल से ही लोगों का एक विशेष माकर्षण रहा है। यही कारण है कि हमारे बहुत से तीर्थस्पल आज भी पर्वतों या पहाड़ियों पर हैं । पचरित में राजा विद्युत्केश के संदर्भ में पर्वतारोहण की एक पलक मिलती है । लंका के राजा विद्युत्केश के विषय में कहा गया है कि वह कभी उम स्वर्णमय पर्वतों पर चढ़ता था जिनके ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के मार्ग बने हुए थे, जिनके शिखर रत्नों से सज्जित थे और जो वृक्षों के समूह से वेष्टित थे।५ इन पर्वतों पर अच्छे-अब उद्यान निर्मित होते थे, ऐसा पहले किए गए बन-कीड़ा के वर्णन से स्पष्ट ही है।
गोष्ठी हास्य-विनोद के सार्वजनिक स्थल गोष्ठी कहलाते थे।" पप्रचरित में अनेक स्थानों पर गोष्ठी का प्रसङ्ग आमा है । फिष्कुपुर नगर का स्वामी महोदधि स्त्रियों के साथ महामनोहर उत्तुग भवन के शिखर पर सुग्दर गोष्ठीस्पी अमृत का स्वाद लेता था। अब गोष्ठियों में राजामों के गुणों की पर्चा होती सब विद्वज्जन सबसे पहले नभस्तिलक नगर के रामा मार्तडकुमाल का माम लेते थे।४० पप्रचरित में वीरपुरुष ५ को गोष्ठी, विद्वानों की गोष्ठी तथा
४३. मित्रे कामरसे तासां प्रपया पूर्वसङ्गमास् ।
मनो दोलामिवारूवं बभूवात्यन्तमाकुलम् !! पप० ८।१०२। ४४. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोध, पृ. ४१ । ४५. पप०६।२३० ! ४६. नानूराम भ्यास : रामायणकालीन संस्कृति, प० १८। ४७. पप० ५३१११३ ।
४८. पद्मः ६।३८६ । ४९. वही, ६।४७६ ।
५०. वही, ५३।११३ ।
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१२२ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मूसंगोष्ठो५१ इन तीनों गोष्टियों के नाम आए है। पास्स्यायन तथा जिनसेन ने अपने सम्यों में गोष्ठियों का अच्छा निरूपण किया है ।५२
कथा-कहानियां कहने और सुनने की मनुष्य को आदिम प्रवृत्ति रही है । पप्रचरित में भी इस प्रवृति के स्पष्ट दर्शन होते है । ३६ पर्व में कहा गया है कि राम, लक्ष्मण तथा सीता स्वैच्छानुसार पृथ्वी पर बिहार करते हुए नाना प्रकार के स्वादिष्ट फल खाते, विचित्र कथायें और देवों के सामान रमण करते हुए वैजयन्तपुर के समीपवती मैदान में पहुँचे ।५३ एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि आत्मीय जनों के साथ मिले हुए राम ने प्रभादरहित हो उत्तमोत्तम कथायें कहते हुए सुख से रात्रि व्यतीत की । वनवास के समय सघन पत्तों पाले गुमखण्ड में बैठकर मनोहर-मनोहर कषाओं से सीता का मनोविनोष करना५५ राम-लक्ष्मण अपना प्रमुख कर्तव्य मानते थे। इस प्रकार कथाओं की जस समय विशेष महत्ता थी। विशेषकर सत्पुरुषों की कथा को विशेष महत्त्व दिया जाता था । सत्पुरुषों की कथाओं की महत्ता प्रतिपादित हुए करते हुए रविषेप कहते हैं-जिस पुरष की वाणी में अकार मादि अधार व्यक है पर जो सत्पुरुषों की कथा को प्राप्त नहीं कराई गई वह वाणी निष्फल है ।" महापुरुषों का कीर्तन करने से विज्ञान वृद्धि को प्राप्त होता है, निर्मल यश फैलता है और पाप दूर चला जाता है। जोवों का यह शरीर रोगों से भरा हुआ है तथा
५१. वही, १५।१८४ ५२. जिनसेम ने अपने आदि पुराण में गीतगोष्ठी (१२।१८८, १४।१९२)
वानगोष्ठी (१४११९२) कथागोष्ठी (१२१८७), जल्पगोष्ठी (१४११११) पदगोष्ठी (१४॥१९१), काग्यगोष्ठी (१४.१९१), कलागोष्ठी (२९/९४), विद्यासंवाद गोष्ठी (७६५) नृत्यगोष्ठी (१४।१९२), प्रेक्षणगोष्ठी (१४॥ १९२) तथा चित्रगोष्ठी (१४।१९२) के नाम दिए है । कामसूत्र के अनु. सार विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति, आयु और शील में अपने समान मित्रों या सहचरों के साथ, वेश्या के घर में, महफिल मैं अथवा किसी नागरिक के निवासस्थल पर गोष्ठी का समवाय आयोजित करना चाहिए। ऐसे स्थान पर साहित्य, संगीत और कला जैसे विषयों पर बालोचनात्मक
तुलनात्मक चिन्तन किया जाय (कामसूत्र ॥१९), ५३. पम० ३६.१०, ११। ५४. वही, ३७।९३ । ५५. वहीं, ३९।५ ।
५६. वही, ११२३ । ५७. मही, श२४ ।
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मनोरंजन : १२३
अल्पकाल तक ही ठहरने वाला है परन्तु सत्पुरुषों की माया से जो यश उत्पन्न होता है वह जब तक सूर्य, चन्द्रमा और तारे रहेंगे, तब तक रहता है । जो मनुष्य सज्जनों को आनन्द देने वाली मनोहारिणी कथा करता है वह दोनों लोकों का फल प्राप्त करता है ।"५ मनुष्य के जो कान सत्पुरुषों की कथा का श्रवण करते हैं, मैं उन्हें ही कान मानता हूँ, बाकी सो बिदूषक के कानों के समान केवल काम का आकार पारस करते है । रासुका का पंडा का वर्णन करने वाले वर्ण अक्षर जिस मस्तक में घूमता है वहीं वास्तव में मस्तक है, बाकी सो नारियल के करक (कड़े आवरण) के समान है ।११ जो जिह्वा सत्पुरुषों के कीर्तनरूपी अमृत का स्वाद लेने में लीन है, उसे ही में जिह्वा मानता है, बाकी तो दुर्वचनों को कहने पालो छुरी का मानो फलक हो है । पर श्रेष्ठ ओंठ के हो हैं जो महापुरुषों का कीर्तन करने में लगे रहते है, बाकी तो शम्बूक नामक कन्सु के मुख से मुक्त जोक के पृष्ठ के समान ही है ।१ दात वही है जो शान्त पुरुषों की कथा के समागम से सदा रंजित रहते है, उसी में लगे रहते है, बाकी तो कफ निकलने के द्वार को रोकने वाले मालो आवरण ही है । मुख वही है जो कल्याण की प्राप्ति का प्रमुख कारण है और श्रेष्ठ पुरुषों की कथा कहने में सदा अनुरक्त रहता है बाकी तो मल से भरा एवं दन्तरूपी कौड़ों से व्याप्त मानो गड्ढा ही है । जो मनुष्य कल्याणकारी वचनों को कहता अथवा सुनता है वही मनुस्य है, बाकी सो शिल्पकार के द्वारा बनाए हुए मनुष्य के पुतले के समान हैं।" उसम कथा के सुनने से मनुष्यों को जो सुख प्राप्त होता है वह कृती लोगों का स्वार्थ (आत्मप्रयोजन) कहलाता है तथा यही पुण्योपार्जन का कारण है।
कथा के भेद-कथा चार प्रकार की होती है : आक्षेपणी, निक्षेपणी, संवैजनी तथा निवेदनी ।
आक्षेपणो यह कथा जिसके द्वारा अन्य मत-मतान्तरों को बालोचना की जाती है।
निक्षेपणी-वह कथा जिसमें तत्य का निरूपण किया जाता है ।
५८. पप. १।२५ । ६०. वही, १०२८ । ६२. वही, १।३०। १४. वही, १३२ । ६६. वही, ११३४॥ ६८. वही, १०६।९२ ।
५९. पयः ११७०। ६१. वही, १।२९ । ६३. बही, १३१ । ६५. वही, १।३३। ६७, वही, २३५ । ६९. वही, १.६।१२।
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१२४: पप्रचरित और उसमें प्रतिपाणि:
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संवेजनी-संसार से मप उत्पन्न करनेवाली कथा संवैजनो है । निवेदनी-भोगो से वैराम्म उत्पन्न करनेवाली पुण्यवर्दक कथा निदनी
मनोरंजन के लिए अलौफिक साघमों से अलौकिक सिद्धियों का प्रदर्शन इन्द्रबाल है। एपचरित के पंचम पर्व में श्रुतसागर मुनि महारक्ष विद्याघर को वैराग्य का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जो करोड़ों कल्प तक प्राप्त होने वाले देशों के भौगों से सथा विद्याघरों के मनचाहे भोग-विलास से सम्तुष्ट नहीं हो सका, वह तभाउ दिन तक प्राप्त होने वाले स्वप्न अथवा जाल (इन्द्रजाल) सदा भोगों से कैसे तप्त होगा। प्राचीनकाल में इन्द्रजाल के अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। इन उल्लेखों से इन्द्रजाल के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
७०. प. १०६।१३ ।
७१. १५० १०६।९३। ७२. वहीं, २८।१६५। ७३. अष्टभिर्दिवस : स त्वं कथं प्राप्स्यसि तर्पणम् ।
स्वप्नजालोपमैमोगरधुना भज्यतां शमः ॥ प. ५।३५९ । ७४, प्रारम्भ में इन्द्रजाल शब्द का प्रयोग इन्द्र के जाल (माया) के अर्थ में हमा (अथर्व ८1८1८)। इन देवसेना का नेता था।बह मसुरों को जब साधारण अस्त्र-पास्त्रों से पराजित न कर सका तो सम्भवतः उसने कुछ अलौकिक
और अद्भुत प्रयोगों के द्वारा विजय प्राप्त की थी ! ऐसे प्रयोगों को इन्द्र जाल कहा गपा । पातपथ ब्राह्मण में असुविद्या (माया) का माम मिलता है। यह इन्द्रजाल है और यश के अवसर पर निष्पन्न होता या (शतपथ ग्राहाण १३।४।३।११) । बौद्ध साहित्य के अनुसार इन्द्रजाल के निम्नलिखित रूप प्रचलित थे--मन्त्रवल से जीभ बाँधना, ठुड्डी को बाँध देना, किमी के हाथ को उलट देना, किसी के कान को बहरा बना देना, दर्पण पर देवता बुलाकर प्रश्न करना, मुंह से अग्नि निकालना मादि । इसके अतिरिक्त गान्धारी विधा में बौक्षभिक्षु एक से अनेक और अनेक से एक हो जाते थे। मिम्तामणि विद्या के द्वारा दूसरों की बात मान लेते थे (दोघ. निकाय १।१ महासील ११११) 1
सूत्र-कृतांग में इन्मजाल के द्वारा मनोरंजन करते हुए अपनी जीविका कमाने वाले मदारियों के उल्लेख मिलते हैं। उनके प्रदर्शन निम्नलिखित प्रकार के होते थे--पुच्छलतारा गिराना, चन्द्र, सूर्य आदि के मार्ग
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मनोरजन : १२५
युद्धकोडा प्राचीनकाल में युद्ध बड़े उत्साह और शान के साथ लड़ा जाता था। यही कारण है कि इसे स्थान-स्थान पर पुलकीडा, युद्ध-महोत्सव आदि के रूप में अभिहित किया गया है। 4 . गुह में कम गर्मागे पतस गरिमा झण्ट के झुण्ड बनाकर अश्यधिक हर्ष से युक्त हो पास्त्र चमकाते हए रणभूमि में उछलते जा रहे थे । वे योद्धा परस्पर एक दूसरे को आच्छादित कर लेते थे, एक दूसरे के सामने दोहते थे, एक दूसरे से स्पर्धा करते थे, एक दूसरे को जीतते थे, उनसे जीते जाते थे, उन्हें मारते थे, उनसे मारे जाते थे और वीरगर्जना करते थे।" रावण ने बहरूपिणी विद्या में प्रवेश कर युद्धकीड़ा की। उसका सिर लक्ष्मण के तीक्षण बाणों से बार-बार कट जाता था तथापि बार-बार देवीप्यमान कुण्डलों से सुशोभित हो उठता मा। एक शिर करता था तो वो सिर उत्पन्न हो जाते थे और दो कटते थे तो उससे दुगुनी वृद्धि को प्राप्त हो जाते थे। दो भुजायें कटती थी तो चार हो जाती थीं, चार कटती थी तो भाउ हो जाती थीं। हआरों शिरों और अत्यधिक भुजाओं से घिरा रावण ऐसा मान
दिखाना, प्रदाह, मृगचक्र, कौए उड़ाना, धूल उड़ाना, रक की वृष्टि करना, मन्त्र के द्वारा दण्ड देने के लिए उपड़ा चलाना, किसी व्यक्ति को मुसा देना, द्वार खोल देना, किसी को गिरा देमा, उठा देना, जमाई लियामा, अचल कर देना, चिपका देना, रोगी बना देना, स्वस्थ बना देना, अंतर्धान कर देना आदि । उस समय शबर, चाण्डाल, द्रविड़, कलिज, पौड़, गान्धार आदि विविध इन्द्रजालों का प्रचलन देशभेद के अनुरूप बा (सूपगग ।२।२७)।
सासवीं पातान्दो के ऐन्द्र जालिक पृथ्वी पर चाद्र, आकाश में पति, जल में अग्नि, मध्याह में सार्यकाल, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि बता रुपा सिद्ध, चारण, असुर आदि के सामूहिक नृत्य दिखला सकते थे। सबसे अधिक आश्चर्य सो इन्द्रजाल के द्वारा अन्त:पुर की अग्मिदाह का दृश्य दिखलाना था। इसमें तो वास्तविक अग्निदाह के समान कुछ जलता हुमा प्रतीत होता था (रत्नावली, कर्पूरमंजरी एवं दशकुमारचरित में भवन्ति सुन्दरी प्रकरण)। रामजी उपाध्याय : प्राचीन भारतीय साहित्य की सांस्क
तिक भूमिका, पृ० ९५४-९५६, ९५७ । ७५. पथः ७४४१ । ७६. आस्तृणत्यभिधान्ति म्पदन्ते निर्जयन्ती च ।
जीयन्ते ध्नन्ति हन्यन्ते कुर्वन्ति भटग जितम् ।। पद्म ७४४३ ।
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१२६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पड़ता था मानो अगणित कमलों के समूह से घिरा हो । सुरसुन्दर और पशानन के मुद में शानन के अवयव यरूपी महोत्सव पाकर इतने अधिक फूल गए और रोमांचों से कर्कश हो गए कि आकाश में बड़ी कठिनाई से समा सके १८ इन सब उल्लेखों से युद्धक्रीडा मनोविनोद का एक उत्तम साधन सिह होती है।
पारिवारिक उत्सव साधारणतः विवाह के अवसर पर पा किसी राजकीय उत्सव के अवसर पर ऐसे आयोजनों का भरिश: उल्लेख पाया जाता है। राम, लक्ष्मण तथा भरत के विवाहोत्सव के समय मिथिला नगरो पताका, तोरण और मालाओं से सजाई गई, बाजार के लम्बे-चौड़े मार्ग घुटनों तक फूलों से ज्याप्त किए गए, समस्त घरों में शंख और तुरही के मधुर शब्द किए गए। उस समय धन से सब लोक इस तरह भर दिया गया था कि जिससे 'देहि' अर्थात् देओ यह शब्द महाप्रलय को प्राप्त हो गया था-नष्ट हो गया था । तदनन्तर अपने पुत्र तथा बहओं के साथ दशरथ ने बड़े वैभव से युक्त हो अयोध्या में प्रवेश किया। उस समय उत्तम शारीर को धारण करने वालो बहओं को देखने के लिए समस्त नगर. निवासी अपना आधा कार्य छोड़ बड़ी व्यग्रता से राजमार्ग में आ गए।१
राजा युद्ध आदि की समाप्ति के बाद हाधी आदि पर सवार हो बड़ी धूम
७७, पयः ७५।२२ ।
लक्ष्मोधरशरस्तीक्ष्णैः शिरो लङ्कापुरीप्रभोः । छिन्नं छिन्नमभूद भूयः श्रीमत्कुण्डलमण्डितम् ।। प ७५४२३ । एकस्मिन् शिरसि छिन्ने शिरोद्वयमजायत । तमोरुस्कृतमोवृद्धि शिरांसि द्विगुणां यमुः ॥ पन० ७५।२४ । मित्त बाहुयुग्मे । च जज्ञे बाहुचतुष्टयम् ।। तस्मिन् छिन्ने पयो वृद्धि द्विगुणा बाहसन्ततिः ।। पम ७५।२५ । सहस्ररुत्तमाङ्गानां भुजाना चातिभूरिभिः । पाखण्डरगण्यश्च शायले रावणो वृतः ।। पदा० ७५।२६ । नभःकरिकराकारैः करः केयूरभूषितः ।
शिरोभिश्चाभवत् पूर्ण शस्त्ररत्नांशुपिंजरम् ।। पप० ७५।२७ । ७८, पा. ८।१३१ ।। ७९. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलाश्मक विनोद, १० ८६ । ८०. पन० २८२६७, २६८ । ८१, पप० २८०२७६, २७७ ।
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मनोरंजन : १२७
धाम से नगर में प्रवेश करता था । यम्दोजन उसकी स्तुति करते थे । राजा के दोनों ओर चंवर खुलाए जाते थे। सफेद छत्र की राजा पर छाया की जाती थी । नृत्य करते हुए लोग उसके आगे-आगे चलते थे। गवाक्ष ( झरोखे) में बैठी हुई स्त्रियाँ उसे अपने वनों से देखती थीं। रस्नमयी ध्वजाबों से नगर की शोभा बढ़ाई जाती थी। नगर में ऊँचे-ऊँचे तोरण खड़े किए जाते थे, गलियों में घुटने एक फूल बिछाए जाते थे और केशर के अल से समस्त नगर सोचा जाता
था
पुत्रजन्म के उपलक्ष्य में बड़ा भारी महोत्सव किया जाता था। दशानन का जन्म होने पर पिता ने पुत्र का बड़ा भारी जन्मोत्सव मनाया । ८३ ऐसे उत्सवों में समस्त भाई, बन्धु और सम्बन्धी सम्मिलित होते थे । ४
पंचकल्याणक महोत्सव
प्राचीन साहित्य में तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण ये पाँच माणक देवों द्वारा मनाये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। पद्मचरित में भी इनमें से अनेक का विशेष वर्णन उपलब्ध होता है ।
गर्भ- महोत्सव (गर्भकल्याणक ) - पद्मचरित के तीसरे पर्व में भगवान् ऋषभदेव के गर्भमहोत्सव का विस्तृत वर्णन है । जब ऋषभदेव के गर्भावतार का समय हुआ, उस समय इन्द्र की आज्ञा से सन्तुष्ट हुई दिक्कुमारियाँ माता मरुदेवी की सेवा करने लगीं । ये देवियों निम्नलिखित कार्य करती थीं
१- वृद्धि को प्राप्त होओ (नन्द), आज्ञा देओ (आशापय), जीवित रहो (जीव ) इत्यादि शब्दों का सम्भ्रम के साथ उच्चारण
२ -- हृदयहारी गुणों के द्वारा स्तुति करना ।
३- वीणा बजाकर गुणगान करना ।
४ - अमृत के समान आनन्द देने वाला आश्चर्यजनक गीत गाना |
५--- कोमल हाथों से पैर पलोटना | १०
-पान देना ।
१
८२. ८४. वही, २६।१४७ ।
८६. षही ३।११३ । ८८. वही, ३।११४ |
९०. वही, ३३११६ ।
--
० ७ १००-१०३ ।
—
८३. पद्म० ७ २१२ ।
८५. वही, ३।११२ ।
८७. वही, ३।११४ ।
८९. वही, ३।११५ ।
९१. वही, ३०११६ ।
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१२८ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
७-भासन देना । ९२ ८-हाथ में तलवार लेकर सवा रक्षा करने में तत्पर रहना ।
९-महल के भीतरी और बाहरी द्वार पर भाल, स्वर्ण की छड़ी, दण्ड और हलदार आदि शस्त्र लेकर पहरा देना ।११
१.--चमर डुलाना ।१५ ११- स्त्र प्लाफर देना । १२- आभूषण लाकर उपस्थित करना । १३–शय्या बिछाने के कार्य में गः ९८ १४-बुहारना ।१९ १५--सुगन्धित द्रव्य का लेप लगाना 1100 १५-भोजन-पान के कार्य में व्यग्र होना । १०१ १७-बुलाने आदि का कार्य ।१०२
अन्माभिषेकोत्सव (जन्मकल्याणक)-सीकर के जन्म के अवसर पर इन्द्र का आसन कम्पायमान हो जाता है 1100 भवनवासी देवों के भवनों में बिना बजाए शंख बजते हैं । १४ घ्यन्तरों के भवनों में अपने आप भेरियों का शब्द होता है । १०५ ज्योतिषी देवों के घर बकस्मात् सिंह को गर्जना होती है और कल्पवासी देवों के घर अपने आप ही घण्टा बजने लगता है। पश्चात् अवषिशान से तीर्थकर का जन्म जानकर इन्द्र भगवान के माता-पिता की नगरी के लिए ऐरावत हाथी पर सवार हो प्रस्थान करता है।१०७ इसके बाद क्षेत्र अनेक प्रकार से आनन्द मनाते है । जैसे
१-नत्य करना। २- तालियां बजाना। ३-सेना को उन्नत बनाना।
.......
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९२. पद्म० ३।११६ । २४. बहो, ११७ ।। ९६. वहीं, ३।११८॥ २८. वहीं, ३।११९ । १००. पही, बा११९ । १०२. वही, ३।१२० । १०४. यही, ३।१६२ । १०६. वहीं, ३।१६३ ।। १०८. यही, ३।१६६, १६७ ।
१३. पन० ३।११६ । ९५. वही, ३।११८ । १७. बही, ३।११८ । १९. वही, ३१११९ । १०१. वहीं, ३११२० । १०३. वही, ३।१६१ । १०५, वही, ३।१६२ । १०७. वही, ३६१६५ ।
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मनोरंजन : १२९
४--सिंहनाद करना। ५-विकिया से अनेक वेष बनाना । ६-उत्कृष्ट गाना गाना ।
इसके पश्चात् कुबेर नगरी की रचना करता है। उस नगरी को विशाल फोट, परिखा सपा के चे-ऊंचे गोपुरों के शिखरों से युक्त किया जाता है । १०९ पश्चात् इन्द्र देवों के साथ नगर को प्रदक्षिणा कर इन्द्राणी के द्वारा प्रसूतिकागृह से जिन बालक को बुलवाता है ।११० सौधर्मेन्द्र भगवान को गोदी में बैठाता है । अन्य देव छत्र, चमर आदि ग्रहण करते हैं। बाद में सुमेरु पर्वत की पाटुकशिला पर विशाल कलशों से भगवान् का इन्द्रादि देव अभिषेक करते हैं । पश्चात् इन्द्र उन्हें वस्त्राभूषणों से सज्जित कर स्तुति करता है। इसके बाद वह अन्य देवों के साथ अपने स्थान को चला जाता है । इस अवसर पर देवों द्वारा की गई क्रियाओं के कुछ रूप निम्नलिखित हैं :
१-तुम्बु, नारद और विश्वावसु का उत्कृष्ट मूच्छंना करते हुए अपनी पत्नियों के साथ मन और कानों को हरण करने वाले गीत गाना ।
२-लक्ष्मी का वीणा बजाना । ३.... उत्तमोत्तम देवों का गायन, वादन मोर नस्य करना । ४-देवियों का गन्ध से युक्त अनुलेपन में मस्याम् की उर्तन करना ।
५-भावान् के शरीर को उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों तथा धिलेगनों से सज्जित करना।
दक्षा-महोत्सव (दीक्षाकल्याणक)-किसी कारणवश सीर्षङ्कर को जब विराग हो जाता है और वे दीक्षा लेने को उद्यत होते हैं नव लोकान्तिक देघ आकर अनुमोदन करते हैं । १२ पश्चात् उत्तम पालको पर सवार हो भगवान् घर से बाहर निकलकर उद्यान आदि रमणोक स्थान में पहुँचते हैं ।११३ उस समय भागों को अनसनाहट और नृत्य करते हुए देवों के प्रतिध्वनिपूर्ण शम्द से तीनों लोकों का अन्तराल भर जाता है । १४ ॐ नमः सिद्धम्यः' कहकर भगवान् दीक्षा लेकर मुष्टियों से केशल चन करते हैं। इन्द्र उन केशों को रत्नमयी पिटारे में रखकर औरमागर में निक्षिप्त करता है। उस प्रकार समस्त देव दीक्षाकल्याणसम्बन्धी उत्सब मनाकर यथास्थान चले जाते है ।" १०९. पा. ३।१६९,१७० । ११०. पन० ३.१७३ । १११. वही, ३।१७३, २१२ । ११२, मही, ३।२६३, २७४, २६८ । ११३. वही, ३।२५५-२७८, २८०१ ११४. वही, ३।२७९ । ११५. वही, ३१२८३, २८४ । ११६. वही, ३१२८५ ।
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१३० : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
केवलज्ञान-महोत्सव (केवलज्ञानकल्याणक)-शुक्लध्यान के प्रमाव से मोहनीय कर्म का क्षय हो तीर्थक्कर को लोक और अलोक को प्रकट करने वाला केवलनान उत्पन्न हो जाता है ।१७ केवल शाम के साथ ही बहुत भारी भा-मण्डल उत्पन्न होता है, उसके प्रकाश के कारण दिन-रात का भेद नहीं रह जाता । १८ जहा तीसरा जमा होता ही एक अशोकवृक्ष प्रकट हो जाता है :११५ तत्पश्चात् देव नाना प्रकार के फूलों की वर्षा करते हैं।२० क्षोम को प्राप्त हुए समुद्र के समान भारी शब्दों से युक्त देवों द्वारा बनाये दुन्दुभि बाजे बजने लगते हैं। भगवान के दोनों ओर दो यक्ष चमर ढुलाते हैं। मेरु के शिस्त्रर के समान तथा मूर्य की किरणों को तिरस्कृत करने वाला एक सिंहासन उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त मोतियों की लड़ियों से विभूषित छत्र-त्रय उत्पन्न होता है। इस प्रकार समवसरण के बीच सिंहासन पर विराजमान भगवान् की शोभा अवर्णनीय हो जाती है ।१२१ इन्द्र भी इस अवसर पर अपनेअपने परिवारों के साथ वन्दना के लिए वही पाते है। १२२
निर्वाण महोत्सव (निर्वाणकल्याणक)-सीर्थकर की निर्वाणप्राप्ति के समय भी इन्द्रादिक देव आकर उत्सव करते है। पधचरित में सामान्य रूप से निर्देश होते हुए भी इस समय देवों के कार्यकलापों का विशेष कथन नहीं है ।
वसन्तोत्सव वसन्तोत्सव के विधानों में कामार्चन का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है । साधारण स्त्रियां आनमेजरी को तोड़कर धनुर्धर कामदेव के लिए समर्पित कर देती पी । यह उत्सव वो-चार क्षणों में समाप्त हो जाता था ।१२३ जन-परम्परा में इस प्रकार के कामार्चन को कोई स्थान नहीं था। फलतः सीता के दोहद के बहाने जिनेन्द्र भगवान् को अर्चना-हेतु राम द्वारा सीता तथा नगरवासियों सहित बसन्त ऋतु में उत्सब मनाने के लिए उद्यान-गमन की कल्पना कर ही ली गई। पनचरित के ९५खें पर्व में वसन्त के मनोहारी रूप के चित्रण के साथ इस उत्सव के मनाये जाने का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। राम ने प्रतिहारी से कहा कि बिना विलम्ब किये मन्त्रियों से कहो कि जिनालयों में अच्छी तरह पूजा
११७. पद्म० ४।२२ ।
११८. पप० ४।२३ । ११९. बही, ४॥२४, २५ । १२०. वही, ४॥२५ 1 १२१. वही, ४।२६-३० ।
१२२. वहीं, ४॥३१ । १२३. राम जी उपाध्याय : प्राचीन भारतीय साहित्य को सांस्कृतिक भूमिका,
पर ९६२।
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मनोरंजन : ११
की जाय । सब लोग बहुत भारी भादर के साथ महेन्द्रोदय उद्यान में जाकर जिन-मन्दिरों की शोभा करें। तोरण, पताका, लम्बूष, घंटा, गोले, आईचान, चंदोबा, अपना मनोहर वर तथा अत्यन्त सुन्दर उपकरणो के द्वारा लोग सम्पूर्ण पृथ्वी पर जिन-पूजा करें। निर्वाण-क्षेत्रों के मन्दिर विशेष रूप से विभूषित किये जायें तथा सर्व सम्पत्ति से सहित महाशानन्द बहुत भारी हर्ष के कारण प्रवृत्त किये जाय ।१२४ ।।
राम की आज्ञानुसार विशाल मन्दिरों के द्वारों पर उत्तम हार आदि से अलंकृत पूर्णकलश स्थापित किये गये । मन्दिरों की स्वर्णमयी लम्बी चौड़ी दीवालों पर मणिमय चित्रों से पित को आकर्षित करने वाले उत्तमोत्तम चित्रपट फैलाये गये । खम्भों के ऊपर अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध मणियों के दर्पण लगाये गये और गवाक्षों (झरोखों) के भागे स्वच्छ मरने के समान मनोहर हार लटकाये गये । मनुष्यों के जहाँ चरण पड़ते थे ऐसी भूमियों में पांच वर्ण के सुन्दर रत्नमय पूर्ण से नानाप्रकार के बेल-बूट खींचे गये । जिनमें सौ अपवा हजार कलिकायें थीं तथा जो लम्बो डंडी से युक्त थे, ऐसे क्रमल उन मन्दिरों की देहलियों पर तथा अन्य स्थानों पर रखे गये। हाय से पाने योग्य स्थानों में मत्त स्त्री के समान शब्द करने वाली छोटी-छोटी घंटियों के समूह लटकाये गये । जिनकी मणिमय पियां थीं ऐसे पांच वर्ण के कामदार चमरों के साथ बड़ी-बड़ी हारियां लटकाई गई । नाना प्रकार की मालायें फैलाई गई। अनेक की संख्या में जगहजगह बनाई गई विशाल वादनशालाओं, प्रेक्षकशालाओं (दर्शकगृहों) से यह उद्यान अलंकृत किया गया ।१९५
नगरवासी, देशवासी स्त्रियों, मन्त्रियों और सीता के साथ राम इन्द्र के समान बड़े वैभव से उस उद्यान की ओर चले । यथायोग्य ऋशि को धारण करने वाले लक्ष्मण तथा हर्ष से युक्त एवं अत्यधिक अन्नपान की सामग्रीसहित शेष लोग भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार जा रहे थे। वहां जाकर देविर्या मनोहर कदलीगृहों में तथा अतिमुक्तक लता के सुन्दर निकुंजों में महावैभव के साय ठहर गई तथा अन्य लोग भी यथायोग्य स्थानों में सुख से बैठ गये। हाथी से उतरकर राम ने विशाल सरोवर में सुखपूर्वक क्रीड़ा की। पश्चात् फूलों को तोड़कर जल से बाहर निकलकर सीता के साथ पूजन की दिव्य सामग्री से जिनेन्द्र भगवान की पूजा की।१२। उस उद्यान में राम ने अमृतमय आहार,
१२५. पप० ९५१३८.४६ ।
१२४. पप० ९५।२९-३४ । १२६. वही, ९५।४८-५३ ।
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१३२ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
विलपन, पायन, आसन, निवास, गन्ध तथा माला आदि से उत्पन्न होनेवाले शन्द, रस, रूप, गम्छ और स्पर्शसम्बन्धी उत्तम सुख प्राप्त किये । १२७
___ आष्टालिक महोत्सव यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अन्त के आठ दिनों में मनाया जाता है। अन-मान्यतानुसार इस पृथ्वी पर आठओं नन्दीश्वर द्वीप है। उस द्वीप में ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करम के लिए स्वर्ग से देवगण उक्त दिनों में जाते हैं। चूंकि मनुष्य वहाँ नहीं जा सकते, इसलिए वे उक्त दिनों में पर्व मनाकर यहीं पूजा कर लेते है। २१ पपचरित में इस पर्व का प्राचीन रूप संपलब्ध होता है। इन दिनों मन्दिरों को पताकाओं से अलंकृत किया जाता था ।१२९ एक से एक बढ़कर समामें, प्याऊ, मंच, पट्टशालामें, मनोहर नाटमशालायें तथा बड़ी-बड़ी वापिकायें बनाई जाती थीं। १° जिनालय स्वर्गादि की पराग से निर्मित नाना प्रकार के मण्डलादि से निर्मित एवं पस्न तथा कदली आदि से सुशोभित उत्तम द्वारों से शोभा पाते थे । ३१ जो पूध, घी से भरे रहते थे, जिनके मुख पर कमल ढंके जाले थे, जिनके कण्ठ में मोतियों की मालायें लटकती थी, जो रत्नों की किरणों से मुशोभित होते थे, जिनपर विभिन्न प्रकार के बेल-बूटे देदीप्यमान होते थे तथा जो जिन-प्रतिमाओं के अभिषेक के लिा इकट्ठे किये जाते थे, ऐसे हजारों कलश गृहस्थों के घरों में दिखाई देते थे । मन्दिरों में कणिकार, अतिमुक्तक, कदम्ब, सहकार, चम्पक, पारिजातक तथा मन्दार आदि फूलों से निर्मित अत्यन्त उज्वल मालायें सुशोभित होती थीं । भौंरे सुगम्धि के कारण उनपर मड़राया करते थे । १३३ उस समय के कार्यों को शोभा देखते ही बनती थी। कोई मण्डल बनाने के लिए बड़े आदर से पांच रंग के चूर्ण पीयने का कार्य करता तो नाना प्रकार की रचना करने में निपुण कोई मालायें गूंथता । १४ कोई जल को सुगन्धित करता, कोई पृथ्वी को सोंचता,
१२७, पप० ९५१५६ 1 १२८. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनधर्म, प. ६८।१, ५, ९, २९1१, १। १२९. पद्म० ६८।१०। १३०. प. ६८।११ । १३१. वहीं, ६८।१३। १३२. वही, ६८।१४, १५ । १३३. वही, ६८।१६, १७ ।। १३४ पिनष्टि पञ्चवर्णानि कश्चिच्चूर्णानि मादरः ।
कश्चिद् अध्नाति माल्यानि लब्धवर्णः सुभक्तिषु ।। पन० २९।३ ।
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मनोरंजन : १३३
कोई नाना प्रकार के सुगन्धित पदार्थ पीसता ।५५ कोई अत्यन्त सुन्दर वस्त्रों से जिनमन्दिर के द्वार की शोभा करसा तया कोई नाना धातुओं के रस से दोवालों को अलंकृत करता ।'३१ इसके बाद उत्तमोत्तम सामग्रियों को एकत्रित कर तुरही के विशाल शब्द के साथ जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक किया जाता । व्रत करने वाला व्यक्ति सहज और कृत्रिम पुष्पों (स्वर्ण, दी तथा मणिरत्न से निर्मित कमलों आदि) से महापूजा करता था । १३९ इसके बाद सब लोग गन्धोदक मस्तक पर लगाते थे। इस अवसर पर उत्तमोत्तम मगाड़े, तुरहो, मुर्दग, शंख तथा काहल आदि वादिनों से मन्दिर में विशाल शव होता था। ४० कहों नाही पर बड़ी धूमधाम से नगर में जिनेन्द्र भगवान् का रथ भी निकलवाया जाता था ।१४१ इन दिनों समस्त पृथ्वी पर राजा की ओर से जीवों के मारने का निषेध रहता था।४२ यदि दो राजाओं में युद्ध हो रहा होता तो दोनों पक्ष के लोग युद्ध से विरत रहते थे ।१४१
मवनोस्सव'४४ मदनोत्सव चैत्र शुक्ल द्वादशी को प्रारम्भ होता था। उस दिन लोग व्रत रखते थे । अशोकवृक्ष के नीचे मिट्टी का कलश स्थापन किया जाता या । उसमें सफेद चावल भर दिले जाते थे। नाना प्रकार के जल और त विशेष साप से पूजोपहार का काम करती थी। फलश को सफेद वस्त्र से ढक दिया जाता था और श्वेत पन्दन छिड़का जाता था। कलश के ऊपर एक ताम्रपत्र रखा जाता था और उसके ऊपर कवलोदल बिछाकर कामदेव और रति की प्रतिमा बनाई जाती थी। नाना भांति के गंध-पूर और नत्यन्वाध से कामदेव को प्रसन्न करने का प्रयल किया जाता था। इसके दूसरे दिन अर्थात् चैत्र शुक्ल प्रयोदशी को भी मदन को पूजा होती थी और सुसज्जित भाव से स्तुति की जाती थी। चैत्र शुक्ल चतुर्दशी की रात को केवल पूजा ही नहीं होती थी, नाना प्रकार के अश्लोल गान भी गाये जाते थे और पूर्णिमा के दिन छककर उत्सव मनाया जाता १३५. वासयत्युदकं कश्चिद्रबयत्यपरः क्षितिम् ।
पिनष्टि परमान् गम्घान् कश्चितहुविधच्छबोम् ॥ पद्म २९।४ । १३६. द्वारशोभा करोत्पन्यो वासोभिरतिभासुरैः ।।
नानाषातुरसैः कश्चित्कुरुते भित्तिमण्डनम् ।। पन० २९।५ । १३७. पप० २९३७ ।
१३८. पप० २९६८। १३९. वही, २९११० ।
१४०, वही, ६८।१९। १४१. वही, ८।१८४ ।
१४२. वही, २२१२३५ । १४३. वही, ६८।२ ।
१४४. वही, ४७११४० ।
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१३४ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पा।१४५ पपचरित में मदनोत्सव का विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है जैनों की पार्मिक विचारधारा से इस उत्सव का विरोध होने के कारण विषेण ने इसका विस्तृत विवरण देना आवश्यक न समझा हो, किन्तु इस उत्सव के आकर्षक लोकिक रूप से वे अवश्य प्रमायित रहे होंगे । इसीलिए ४७वे पर्व में उन्होंने सुप्रीष की कन्या मदनोत्सवा को मदन के उत्सब स्वरूप कहा है ।
विद्या-निर्मित कीड़ाये विद्याधर लोग विद्या के प्रभाव से अनेक प्रकार की कीड़ायें किया करते थे । इसके लिए अनेक प्रकार की विधायें आमोद-प्रमोद का अच्छा साधन थीं, साथ हो इनसे विद्या के प्रभाव १४७ को भी जाना जा सकता था । उदाहरण के लिए विद्या के प्रभाव से दशानन जिन-जिन क्रीहाओं को करता था, घे ये हैं :
१-एकरूप होकर भी अनेक रूप धरकर स्त्रियों के साथ क्रीडा करना 1१४८
२-सूर्य के समान सन्ताप उत्पन्न करना । १४५ ३--चन्द्रमा के समान चौनी छोड़ना । ५० ४-अग्नि के समान ज्वालामें छोड़ना । ५-भेष के समान वर्षा करना । ११२ ६-वायु के समान बड़े-बड़े पहाड़ों को चलाना ५३ ७-इन्द्र जैसा प्रभाव जमाना ।५५४ ८-समुद्र बन जाना ।१५५ ९- पर्वत बन जाना । १५६ १०-मदोन्मत्त हाथी बन जाना । १५७ ११-महावेगशाली घोड़ा बन जाना ।१५८
१४५. १० हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलारमफ विनोद,
पृ० १०८॥ १४६, मदनोत्सवभूताम्या प्रसिद्धा मदनोत्सवा ।। पप० ४७।१४० । १४७. पम ८८५ ।
१४८. पन० ८1८६ । १४९. वही, ८६८६।
१५०. वही, ८1८६ । १५१, वही, ८८७।
१५२. वही,८८७। १५३. वही, ८1८७ ।
१५४. यही, ८1८७ । १५५. वही, ८1८८।
१५१. वही, ८८८। १५७. वही, ८८८।
१५८. बहो, ८1८८1
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मनोरंजन : १३५
१२-क्षणभर में पास आ जाना । १५९ १३ क्षणभर में दूर पहुँच जाना । १५० १४.क्षणभर में दृश्य हो जाना। १५-क्षणभर में अदृश्य हो जाना ।५२ १६-क्षणभर में महान् हो जाना । ६ १७-क्षणभर में सूक्ष्म हामा ।१६४ १८-क्षणभर में भयंकर दिखाई पड़ना ।११५ १९-क्षणभर में भयंकर नहीं रहना । ६६
विविध मनोरंजन उपर्युक्त मनोरंजन के अतिरिक्त पनपरित में अन्य मनोरजनों का भी उल्लेख मिलता है जो कि समय-समय पर मनोबिनोद के लिए अपनाये गये थे।
बानरों का अभिनय, उनका उछलना-कूदना आदि सदा ही लोगों के मनोरंजन का विषय रहा है । राजा श्रीकण्ठ जब बानरद्वीप में पद्माभा के साथ बिहार कर रहे थे तो उन्होंने इच्छानुसार अनेक बानर देखे । १५० राजा श्रीकण्ठ ने बानरों के साथ क्रीड़ा की। कभी बह ताली बत्राकर उन्हें नचाता था, कभी अपनी भुनाओं से उनका स्पर्श करता था और कभी अनार के फूल के समान लाल तथा चपटी नाक से मुक्त एवं चमकीली सुनहली कनोनिकाओं से युक्त उनके मन में उनके सफेद दाँत देखता था ।१५६ बानर परस्पर विनय से युक्त हो एक दूसरे के जुये अलग करते थे। प्रेम से खो-खो शब्द करते हुए ये मनोहर कलह करते थे ।१६५ राजा धोकण्ठ ने उनका बड़े प्रेम से स्पर्श किया तथा उन बानरों के कृश पेट पर जो रोम अस्तव्यस्त थे, उन्हें उसने अपने स्पर्श से ठोस किया। साथ ही उनकी मौहों को तथा रेखा से युक्त कटाक्ष प्रदेशों को कुछ-कुछ ऊपर की ओर उठाया। इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए उसने प्रीतिपूर्वक बहुत से यानरों को मधुर भन्न-पान आदि के द्वारा पोषण करने के लिए सेवकों को दिए । १७०
१५९. पत्र. ८1८८ । १६१. वही, ८1८९। १६३, यही, ८८९ । १६५. वही, ८८९ । १६७. वही, ६।१०७ । १६९. वाही, ६१११५ ।
१६०. पन ८1८९ । १६२. वही, ८०८९ । १६४. वही, ८८९ । १६६. वही, ८1८९ । १६८, वही, ६।११३, ११४ । १७०. वही, ६।११७-११९ ।
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१३६ पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
૧૩૧
प्राचीन भारतीय मनोरंजन में गणिकाओं को प्रमुख स्थान मिला था । गणिकायें राज्य की सम्पत्ति समझी जाती थीं। लक्ष्मण ने सिंहोदर और वज्रकर्ण की जब मित्रता करा दी तब सिंहोदर ने वज्रकर्ण को अपने राज्य का आवा भाग, चतुरंग रोना तथा धन आदि के साथ आधी गणिकायें भी बच्चोदर के लिए दीं । मुच्छकटिक में गणिका वसन्तसेना की समृद्धि का जो वर्णन किया गया है वह समाज में गणिकाओं के सम्मान का संकेत करता है । सम्भवतः उस काल में वेश्याओं के दो वर्ग थे : १. गणिकार्ये नृत्य गीतादि के द्वारा जोविकोपार्जन करती थीं तथा २. वेण्यायें रूप यौवन के द्वारा । यणिकाओं से समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी सम्बन्ध रहता था । गणिकायें अपनी पेशा छोड़कर कुलवधुयें भी बन सकती थीं और ब्राह्मण तक उनसे विवाह कर सकते थे। मृच्छकटिक में एक नहीं दो-दो ब्राह्मणों का विवाह गणिकामों से कराया गया है 1 चारुदत्त का विवाह वसन्तसेना से होता है, शक्लिक मदनिका को अपनी वधू बनाता है । विलासिनी (श्यायें ) मी उस समय अच्छा मनोरंजन करती थीं। पद्मचरित में एक स्थान पर बिट पुरुषों से सेवित विलासिनियों को देव -नर्तकियों के समान कहा गया है । १७२
१७५
विदूषक १७० और नट १७४ भी मनोरंजन में अत्यधिक योग देते थे । संस्कृत का शायद ही कोई नाटक हो जिसमें विदूषक न हो । शारीरिक अङ्गों में पद्मचरित में इसके लटपटे कामों को विशेष चर्चा की गई है । इस प्रकार के शारीरिक अवयवों तथा चेष्टाओं से हास्य-विनोद करने वाला व्यक्ति ही विदूषक की भूमिका अच्छी तरह निभा सकता था ।
१७३
१७७
नृत्य करना, ताल बजाना, सिंहनाद करना ( उदा नदितं) तथा गीत गाना आदि मनोरंजन के अच्छे साधन थे। इन सबका उल्लेख कला वाले अध्याय में किया गया है। दचों के मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार के खिलौने बनाए जाते थे । बाल्यावस्था की स्मृति के द्योतक होने के कारण ये किसी-किसी की अमूल्य धरोहर हो जाते थे ।" शुद्र नाम के मनुष्य के पास एक मयूर-पत्र का खिलौना था। एक दिन वह खिलौना हवा में उड़ गया और राजा के पुत्र को मिल गया । उस कृत्रिम मयूर के निमित्त शोक करता हुआ वह अपने मित्र से बोला कि मित्र 1 यदि तुम मुझे जौवित देखना चाहते हो तो मेरा
१७८
१७१. पद्म० ३३।३०७-३०९ । १७३. वही, ६।११७ । १७५. वही, ६।११७, १२८ । १७७. वही, ७।३४८ ।
१७२. पद्म० ४० २३ | १०४. वही, ९१।३१ । १७६. वहीं, ७३४८ । १७८. वहीं, ७।३४९ ।
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मनोरंजन : १३७ वह कृत्रिम मयूरपत्र दे दो।१७९ पनचरित के चोचीसवें पर्व में पाय, उपचय
और संक्रम के भेद से पुस्तकर्म के तीन भेद बतलाए गए हैं। इन सब उस्लेखों से यह निष्कर्ष निकलता है कि बालकों के मनोरंजन के लिए अनेक प्रकार के खिलौने बनाने की कला का विकास उस समय तक अच्छी तरह हो गया था।
१७९. पा. ४८१९४७-१४८ ॥
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अध्याय ४ कला
कला श्री व सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का साधन है । प्रत्येक कलात्मक रचना में सौन्दर्य व श्री का निवास रहता है। जिस सृष्टि में भी नहीं वह रसहीन होती है। वहाँ रस नहीं वहीं प्राण नहीं रहता। जिस स्थान पर रस प्राण और श्री तीनों एकत्र रहते है वहीं कला रहती है ।' श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी 'परसनेलिटी' नामक पुस्तक में 'व्हाट इस आर्ट' शीर्षक लेख में ज्ञान के दो पक्ष कला और विज्ञान स्वीकार करते हुए लिखा है कि कला मनुष्य की बाह्य वस्तुओं को अपेक्षा स्वानुभति की अभिव्यक्ति है।
कलाओं का वर्गीकरण-कलाओं की गणना के सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध संख्या ६४ है। वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में ६४ कलाधों को गिनाया है। शुक्रनीति तथा तन्त्रग्रन्थों में कला की संख्या ६४ ही दी गई है, कहीं-कहीं सोलह, मत्तीस और ६४ कलाओं के नाम दिए गए हैं और कहीं ६४ से भी अधिक । ललितविस्तर में पुरुष-कला के रूप से ८६ नाम गिनाए है और काम-कला के रूप में ६४ नाम है । प्रबन्धकोश में कलाओं की संख्या ७१ लिखी हुई है । क्षेमेन्द्र की रचना 'कला विलास' में सर्वाधिक कलाओं के नाम दिए हुए है इनमें ६४ लोकोपयोगी फलायें है, ३२ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति की और ३२ मात्सर्य, शील, प्रभाव और मान की है। इसके अतिरिक्त ६४ कलामें सुनारों की सोभा चुराने की, ६४ कलाएं वेषमाओं की नागरिकों को मोहित करने की, १० भेषज कलायें और १६ कायस्थों की कलायें है, जिनमें उनके लिखने का कौशल और लेखनकला द्वारा जनता और शासन को धोखा देने की बातें हैं। इनके अतिरिक्त गणकों की कलाओं एवं १०० सार कलाओं का वर्णन है । वात्स्यायन एवं अन्यान्य आचार्यों द्वारा की गई कला-परिगणना पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन प्राचार्य किसी भी विषय पर कृत्य में निहित कौशल को कला मानते थे। पद्यचरित में भी हमें अनेक कलाओं के दर्शन होते हैं। ये कलायें निम्नलिखित है
१. में वासुदेवशरण अग्रवाल : कला और संस्कृति, पृ० २३० । २. डॉ० रामकिशोर सिंह यादव : प्राचीन भारतीय कला एवं संस्कृति, पृ. ४ । ३. कामसूत्र की देवदत्त शास्त्रीकृत व्याख्या, पृ० ८३, ८४ ।
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कला : १३९
नाट्य-कला भरत मुनि मे कहा कि कोई शान, शिल्प, विद्या, कला, मोग या कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में न आता हो। पद्मचरित के अनुसार गीत, नृत्य, वादिन इन तीनों का एक साथ होमा नाय कहलाता है ।" भरत मुनि ने भी कहा है कि नाट्य के प्रयोक्ता को पहले गीत में परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि गीत नाट्य की शय्या है । गीत और वाद्य भलीभांति प्रयुक्त होने पर नाट्यप्रयोग में कोई विपत्ति नहीं होती।' नाट्य के सम्पादन के लिए नाट्यशाला और प्रेक्षागृह होना चाहिए । पचरित में एक से एक बढ़कर नाट्यशालाओं और अनेक को संख्या में छमाई गई प्रेक्षकशालाओं (दर्शकगृहों) के होने का उल्लेख किया गया है।
संगीत-कला सम् (सम्यक) और गीत दोनों के मेल से 'संगीत' शब्द बनता है । मौखिक गाना हो गीत है। इसे अभिमक मुप्त ने नाट्य का प्राण कहा है, अतः इसका प्रयोजन नाट्य से भिन्न नहीं है। सम का अर्थ है अच्छा । बारा और नृत्य दोनों के मिलने से गौस अच्छा बन जाता है । अतः वाद्य और नृत्य को गीत के ऊपर अक एवं उत्कर्षविधायक मात्र कहा जाता है।११ पारित में अनेक स्थानों पर संगीत का उल्लेख मिलता है ।१२ यहाँ संगीतशास्त्र के अनेक
४.. न तच्छतं न सा विद्या न स न्यायो न सा कला । न स योगो न तत्कर्म नाटफे यन्न दृश्यते ।।
__ -भरतमुनि : नाटयशास्त्र, प्रथम अध्याय । ५. फलाना तिसृणामासां नाटयमेकी क्रियोच्यते ।। पप० २४।२२ । ६. गीते प्रयत्नः प्रथम तु कार्यः शम्यां हि नाटयस्य वदन्ति गौतम् । गीते च वाद्ये च सुप्रयुक्त नाट्यप्रयोगो न विपत्तिमेति ॥
नाट्यशास्त्र, बम्बई संस्करण, अध्याय २२ ।
८. पन० ९५.६६ । ९. प्राणभूत तावद् ध्रुवागानं प्रयोगस्य ।
-अभिनव मारती, बड़ौदा सं० तृतीय खण्ड, पृ० ३८६ । १०. गोतं वाद्यं च नृत्यं च प्रर्य सङ्गीतमूच्यले ।।
-के. वासुदेवशास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ० १। ११. नृतं वाचानूगं प्रोक्तं वाचं गीतानुवति च ।।
-आचार्य शाङ्ग देव : संगीतरत्नाकर (अयार संस्करण, पृ० १५) १२. पन०६।१४, ३६.९२,४८२, ४०।३० ।
७.
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१४० : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पारिभाषिक शब्द जैसे स्वर, वृत्ति, मूर्च्छना,१५ लय,१५ ताल," जाति", ग्राम,१९ आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनमें से अनेक का विस्तार से वर्णन भी किया गया है ।
स्वर--षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, घंवत और निषाद ये सात स्वर कहलाते है ।२० भरत मुनि ने भी स्वरों की संख्या में इन्हीं को गिनाया है ।२१ स्वर का निजी अर्थ ग्रन्थों में ऐसा दिया गया है---
श्रुत्यनन्तरभावी यः सब्दोऽनु रणनात्मकः ।
स्वतो रजयते श्रोतुश्चित्तं स स्वर ईर्मसे ।। इस फ्लोक में स्वर का लक्षण ऐसा कहा है२२--
(१) श्रुतिवों को लगातार उत्पन्न करने से स्वर की उत्पत्ति होती है।
(२) शब्द का अनुरणन रूप ही स्वर कहलाता है। अर्थात् प्रत्येक पाद में आहति के बाद होने वाला शब्द, लहरों के क्रम से उत्पन्न होकर फिर क्रम से लीन हो जाता है। इसका नाम अनुरणन है। अनुरणन ही स्वर का मुख्य स्वरूप है, क्योंकि अनुरणन में स्वर श्रुतियों का प्रकाशन होता है ।
(३) प्रत्येक स्वर दूसरे स्वर को सहायता के बिना स्वर्ग रम्यक है।
वृत्ति-पप्रधरित में द्रुता, मध्यमा और विलम्बिता इन तीन वृत्तियों के प्रयोग का उल्लेख किया है ।२३
मूच्र्छना-क्रमयुक्त होने पर सात स्वर मूर्छना कहे जाते है ।२४ मूछना
१३. पं० १७४२७७३
१४. प. १७२७८ । १५. वही, १७।२७८।
१६. वही, २४।९। १७. वही, २४।९।
१८. वही, २४।१५ । १९. वही, ३७।१०८। २०. षड्जर्षभी तृतीयप गान्पारो मध्यमस्तथा ।
पञ्चमो बसश्चापि निषावहत्यमी स्वराः ।। पप० २४।८। २१. षड्जरच ऋषभचंब गान्धारो मध्यमस्तथा । पञ्चमो, धैवतश्च सप्तमध निषापवान् ।।
-नाट पशास्त्र व० सं० अ० २८, पृ० ४३२। २२. संगीतशास्त्र, पृ० १४ । २३. पप०१७।२७८॥ २४. क्रममुक्त स्वराः सप्त मूर्च्छनास्त्यभिसंशिताः ।।
नाट्यशास्त्र, बम्बई से० ३०१२८,१०४३५
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कला : १४१
x44
शब्द मूगर्छ घातु से बना है जिसका अर्थ मोह और समुन्नाय (उत्सेष, उभार, चमकना, व्यक्त होना) है। मूच्छन पातु का अर्थ चमकना या उभारमा है । श्रुति की मृदु (उत्तरी हुई अयस्या) को कुछ लोगों ने पूछना कहा है, कुछ लोगों का कथन है कि रागरूपी' अमृत के हद (सरोवर) में गायकों और श्रोताओं के हृदय का निमग्न होना ही मूर्छना है परन्तु भरत-संगीत में मूछना का अर्थ सात स्वरों का अभपूर्वक प्रयोग ही है ।२५ पमचरित में गन्धर्य द्वारा इक्कीस मच्छना और ४९ ध्वनियों के प्रयोग का उल्लेख है । यहाँ इसकीस मुर्छना से तात्पर्य पड्ज ग्राम की इवकीस औडव तान तथा ४९ ध्वनियों से तात्पर्य सब मूर्च्छनाओ में की जाने वाली उनघास (षाहव) तानों से है ।
षड्ज ाम की इक्कीस और तानें उत्तरमध्यमा
१५ रे ग म x ध नि २ स ४ ग म ४ छ नि
३ सरे x म प ध रजनी
४ नी x रे ग म ४ ध ५ नी स x ग म x ध
६ x स रे म म प ध उत्तरायता
७ घ नी x रे ग म x ८ घ नी स x ग म x
९ घ x स रे x म प षड्जा
१० x ध नी x रे ग म ११ x घ नी स x म म
१२ प र x स रे x म मत्सरीकृता
१३ म x 5 नी x रे ग १४ म ४ ध नो स x ग
१५ म प ध x स रे x २५. कैलाशचन्द्रदेव बृहस्पति : भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ० ३५, ३६ । २६. पन० १७।१२८ ।
२७. पन १७२८० । २८. भरत का संगीत सिद्धान्त, पु० ४६ ।
xx
xx
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१४२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अवक्रान्ता
अभिरुद्गता—
१६ ग म
X
१७ ग म X
१८ x म प
रजनी
१९ रे ग म
२० x ग म
२१ रे x म
धनी x रे
मी सx
x स
XX F
प
१
२ स
३ स रे ग म
४ स रे ग म
शुद्ध षड्जा
सब मूर्च्छनाओं में की जाने वाली उनचास २९ (वय) तानें
उत्तरमा
उत्तरायता -
९
धनी x
१० ध नी स
११ नी स
१२ व ४ स
घ नो x
ध नौ स
x रे ग म प ध नि
ग म प ध नि
ध नि
पध X
८ x सा रे ग म
घ. x स
1.
म
प ध
५ नो x रे ग ६नो साग म प ध
७ नी सा रे ग म
ध
प ध
रे ग म प
ग म प
रे ग म x
रे ग म प
१३ १ध मो x रे ग म १४ प ध नी सा x गम १५ x ध नी सा रे ग म १६ प घ x सा रे ग म
२९. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ० ४३-४५ ।
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कला:१४३
मत्सरीकृता
१७ म प ध नी x रे ग १८ म प ध नी सा x ग १९ म x ध नी सा रे ग
२० म प x सा रे ग क्षश्वक्रान्ता
२१ ग म प ध नी x रे २२ ग म प ध मी स x २३ प म x नो स रे
२४ म म प घ x स रे अभिरुगसा
२५ रे ग म प ध ची x २६ x ग म प गीर २७ रे ग भ x घ नी स
२८ रे ग म प ध ४ स सौबीरी (मध्यम प्राम)
२९ म प प नी x रे ग ३. म प ध मी स ४ ग
३१ म प ध नौ स रे x हरिणावा
३२ ग म प ष नी x रे ३३ ग म प प नी सx
३४ x म प ध नी स रे कलोपनता
३५ रे ग म प ध नो x ३६ x ग म प प नी स
३७ रे x म प ध मी स शुद्धमध्या
३८ x रे ग म प ध नि ३९ स x ग म प ध नि ४० स रे - म प ध नि
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१४४ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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भार्गी
४१ नी x रे ग म प ध ४२ नी सा x ग म प ष
४३ नो सा रे x म प ध पोरवी
४४ प नी x रे ग म प ४५ प नी स x ग म प
४६ प नी स रे x म हत्यका
४७ प प नी x रे ग म ४८ प ध नी सx ग म
४९ प प नी स रे x म लय-तालनिया के अनम्तर (अगली तालक्रिया से पूर्व तक) किया जाने वाला विनाम लए कहलाता है।° पदमचरित में लय के इत, मध्य और थिलम्बित ये तीन भेद किए है ।" शीघ्रतम लय द्रुत, उससे द्विगुण मध्य तथा उससे द्विगण विलास पहलाती है। पित्र, वीर रस fan मार्ग विधान्तिकाल के परिणाम में भेद होने के कारण लय के अनेक भेद हो जाते हैं। फलसः क्षिप्रभाव में द्रुत, मध्य, विलम्बित, मध्यभाव में द्रुत, मक्य एवं घिरभाष में दुत. मध्य एवं विलम्बित भेदों का पृथक्-पृथक् रूप होचा है ।१२
सोनों भागों में एक मात्रा का काल पांघ लघु अक्षरों के उच्चारणकाल के समान होता है, तथापि चित्रमार्ग में दस लघु अक्षरों के उम्पारणकाल से परिमित काल के पश्चात् होनेवाली लय गुप्त कहलाती है, वार्तिक मार्ग में बीस लघु अक्षरों के उच्चारण काल के पश्चात् उत्पन्न होनेवाली लय मध्य कहलाती है, दक्षिण मार्ग में बालीस लघु अक्षरों के उच्चारणकाल के पश्चात उत्पन्न होनेवाली लय विलम्बित कहलाती है।" ३०. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ० २४२ । २१, पम० २४।९। ३२. क्रियानन्तरवित्रान्तिलयः स त्रिविधो मतः ।
द्रुतो मध्यो विलम्बश्च द्रुतः शीघ्रतमो मतः । द्विगुणावगुणी शेयौ तस्मान्मष्यघिलम्बितो। मार्गभेदाधिचरमप्रमध्वभावैरनेकधा |
-भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ० २४२ । ३३. वही, पृ. २४२ ।
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कला : १४५
दूसरा मार्ग पहले मार्ग की अपेक्षा
मार्ग की अपेक्षा भी दुगुनी है ।
किसी स्थान को जाने के तीन मार्ग हैं, दुगुना लम्बा है, तीसरे मार्ग की लम्बाई दूसरे एक हो गति से चलने वाले तीन व्यक्तियों में प्रथम व्यक्ति प्रथम मार्ग से लक्ष्म स्थल पर जितने समय में पहुँचेगा, दूसरे मार्ग से चलने वाला उससे दुगुने और तीसरे मार्ग से चलने वाला उससे भी गने समय में स्था अपेक्षा पहले sक्ति के पहुंचने का काल द्रुत, दूसरे व्यक्ति के पहुँचने का काल मध्य और तीसरे व्यक्ति के पहुँचने का काल बिलम्बित होगा । मार्गभेद से लथभेद की मी स्थिति ऐसी ही है। इस लय का उपयोग अक्षर, शब्द या वाक्य में नहीं होता, क्योंकि बोलचाल के समय इनकी जो लय होती है, उसका संगीत से कोई सम्बन्ध नहीं I
४
P
ताल - प्रतिष्ठार्थक 'तल' धातु के पश्चात् अधिकरणार्थक 'व' प्रत्यय लगने से 'ताल' शब्द बनता है, क्योंकि गोत-वाद्य नृत्य ताल में ही प्रतिष्ठित होते हैं लघु गुरु प्लुत से युक्त सशब्द एवं निःशब्द क्रिया द्वारा गीत बाद्य और मूल्य को परिमित करने वाला ताल कहलाया है ।" लघु, गुरु, प्लुत-पांच निमेष या पाँच अक्षरों का उच्चारणकाल भरत वर्णित सालों में लघु या मात्रा कहलाता है, दो लघु एक गुरु का निर्माण करते हैं और तीन लघुकों से एक प्लुत बनता है। ये लघु, गुरु, प्लुत उम्दःशास्त्र या व्याकरण शास्त्र के हस्व, दीर्घ, प्लुत से भिन्न है । २७ गुरु का पर्याय कला भी है, तालभाग को भी कला कहते हैं तथा निःशब्द एवं सशब्द क्रियायें भी कला कहलाती है। तालशास्त्र में लघु का चिन्ह '', गुरु का चिन्ह 'ई' और भरतवणित तालों में प्लुत का भी चिन्ह 'ड' है ।' १८ वाल का स्वरूप स्पन्दन है। कहा गया है कि ताल का अर्थ पद्मचरित में बस्त्र और चतुरस्र ये ताल की
दो
पृ० २४३ ।
संसार की सारी
शिवशक्ति
(ता
=
शक्तियाँ स्पन्दनरूप में हैं ।
शिव, ल - शक्ति)
पृ० ४७५ ।
३७. भरत का संगीत सिद्धान्त पू० २३४ ।
S
३८. वही, पृ० २३५ ।
३९. के० वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ० २०६ ।
४०. पं० २४१९ ।
१०
४०
योनियों कही गई है ।
३४. भरत का संगीत सिद्धान्त,
३५. वही, पृ० २३४ ॥
३६. निमेषाः पञ्च मात्रा स्यात् नाटयशास्त्र ( भरतमुनि ) ० सं०,
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१४६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
भरतोबत तालों में धतुरस्त्र अर्थात् च चत्पुट (पश्चत्पुट, चञ्चत्पुट) और व्यस्त अर्थात् चाचपुट (आपपुट) मुख्य हैं । इन दोनों के तीन भेद, ययाक्षर (एककल) द्विकल और वसुष्कल होते हैं ।४२ यथाक्षर से द्विगुण मात्रायें होने के कारण विगुण और वसुगुण मात्रामें होने पर चतुष्कल रूपों का निर्माण होता है ।
तालों का रूप जब ताल के नाम में प्रयुक्त अशरों की स्थिति के अनुसार होता है, तब ये यथाक्षर कहलाते हैं। यथाक्षर चञ्चस्पुट में अन्तिम अक्षर ट प्लत होता है और सायपुट में नहीं । संयुक्त वर्ण से पूर्व वर्ण लस्व होने पर भी दीर्घ या गुरु माना जाता है, फलतः चन्चरपुट शबद में क्रमश: गुरु, गुरु, लघु, प्लुत है। इसलिए यथाक्षर सम्वत्पुट का रूप 'I' और यथाक्षर बाचपुर का रूप '5' है । यथाक्षर चञ्चत्पुट में आठ और मषाक्षर पाषपुट में छ: मात्रायें होती हैं।४४ ___ जाति-रञ्जन और अदृष्ट अभ्युदय को जन्म देते हुए विशिष्ट स्वर ही विशेष प्रकार के सम्भिधेश से युक्त होने पर आति कहे जाते है । दश लक्षणों से मुक्त विशिष्ट स्वर-सन्निवेश जाति कहलाता है।"
जातियाँ श्रुति, ग्रह, स्वर आदि के समूह से जन्म लेती है, इसलिए जातियां कहलाती है, जातियां से रस की तीति उत्पन बारम्भ होती है। श्रयवा
४१. व्यसश्च चतुरस्रश्च स वालो द्विविधः स्मृतः । चतुरसस्तु विज्ञपस्तालश्यम्बू (च) त्पुटेऽम्बुधः ।।
-भरत : नाटधशास्त्र, पृ० ४७६ । ४२. सम्रः स स्वल विज्ञेयस्सालश्चापपुटो भवेत् ।
__ -भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ. ३४३ । ४३. तो चचस्पुट-चाचपुटौ (द्विगुणो) विकलापेक्षया विगुणीकृतौ सन्तौ चतुष्कला
वित्युच्यते । अष्टगुमितो हिकलचम्चत्पृटो द्विगुणीकरय षोडशगुरुसमितः संश्चतुष्कलो भवति । षड्गुरुसम्मितो विकलचाचपुटो द्विगुणीकृत्य द्वादशगुरुसम्मितः संश्वसुष्कलो भवति । -संगीत-रत्नाकर, मल्लिनायकृत टीका, अ० सं०, त्यला, पृ. १
(भरत का संगीतशास्त्र, पृ० २३६) ४४. कैलाशचन्द्र देव वृहस्पति : भरत का संगीत सिद्धान्त, १० २३६ । ४५. तर केमं जाति म ? उच्यते-स्वरा एव विशिष्ट सन्निवेशभाजो महा
ष्टाम्युष्यं च जनयन्तो जातिरित्युक्ताः । कोसो सन्निवेश इति चेत् जातिलक्षणेन दशकेन भवति सन्निवेशः ।
-आचार्य अभिनवगुप्त : भरतकोश, पृ० २२० ।
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कला : १४७
राग आदि के जन्म का कारण होने से विशिष्ट स्वरसमिरवेश जाति को संज्ञा ले लेता है। अथबा ये जातियां मनुष्य की ब्राह्मणत्व आदिवासियों के समान
जातियों के भेद-पद्मचरित में युवती, आर्षभी, षड्ज, षब्जोंदीच्या, मिषादिनी, गान्धारी, षड्जकैकशी, षड्जमध्यमा, गान्धारोंदीच्या, मध्यमपंचमी गान्धारपञ्चमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कारवी, नन्दिनी और कोशिकी ये अठारह आतियाँ कही है। भरतमुनि ने भो जातियों के ये ही अठारह भेद गिनाए है।
धैवती-मारोह में षड्ज और पंचम लंध्य या वज्र्य है। रिध बहुल स्वर हैं । ताल पंचपाणि है । मार्ग, गीति. प्रयोग इत्यादि षाजी लात्ति की तरह होते हैं। मलायें बारह है। इस जाति में चौक्ष, फेशिकी, देशी, सिंहली इत्यादि रागों की छाया है।४५
आर्षभी-इस जाप्ति में गान्धार और निषाद का दूसरे पांच स्वरों के साथ मिलाकर प्रयोग करना पड़ता है। इस जाति में गान्धार और निषादबहुल स्वर है। पंचम अल्प स्वर है। पंचम का लेधन होता है । ताल चञ्चत्पुट (८ अक्षर) है। कलायें आठ है। नैनामिक ध्रया में प्रयोग किया जाता है। इस जाति में देशी मधुकरी की छाया है ।५० .
षड्ज-इसे पाजी भी कहते हैं । इस जाति में. (१) पाठव और मांडवरहित सम्पूर्ण रूप में काकली स्वरों का प्रयोग है। (२) सग सषा जोड़कर प्रयोग करना है. । (३) गान्धार जब अंश होता है तब निषाद का लोप नहीं है । (४) इस जाति के प्रबन्ध में साल है । पंचफाणि में जी षपितापुत्रक नामक वाल का एक भेद है, वाम है । (५) मह ताल एक कला; द्विकाला और चतुष्कला में प्रयुक्त किया जाता है । इस साल के मार्ग में चित्र, वार्तिक तथा दक्षिण का निर्यात हर कला
-.--.. ४६. श्रुतिमहस्वरादिसमूहाज्जायन्त इति जातयः । अतो जातप इत्युध्यन्ते
यस्माज्जायते रसप्रतीतिरारम्यत इति आतय: । अपना सकलस्थ रागादे: मन्महेतुस्वाजातय इति । यद्वा जातय इव जातयः, यथा नराणां ब्राह्मणलादयो जातयः ।
-मतङ्ग : भरतकोश, पृ० २२७ । ४७. पा. २४॥१२-१५ । ४८. भरत : नाटप शास्त्र, (बम्बई संस्करण), पृ० ४३९ । ४९. के. वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ. ५३ ॥ ५०. पही, पृ० ५२ ।
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१४८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
की दो, चार और माठ मात्राओं का) प्रयोग होता है । (६) गीति में मारपी, संभाविता और पृथुला इन तीनों का प्रयोग है। (७) नाटक में इस जाति का प्रयोग नष्कामिक वा में पहले दृश्य में किया जाता था । संगीतरत्नाकार-काल के (ई. सन् १२०० के) पराटी राग की छामा इस जाति में थी ।"
षड्जोदीच्या-समनि और ग इन चारों में दो-दो स्वरों का प्रयोग साथसाथ होता है । मइव गाम्पारवहुल स्वर है । षड्ज और ऋषभ अतिबल स्वर हैं। निषाद और गोधार मंश होते हैं तो निषाद का अल्पत्व नहीं होता। गीति, ताल, कला, विनियोग आदि पानी के ही समान है। इसका प्रयोग दूसरे दृश्य में ध्रुवा गान में होता था।५२ __निषादी-स म प घ मल्पत्व स्वर है और नि रिप बहुल स्वर है। विनियोग पाहमी की ही तरह होता है। ताल चम्चत्पुट है। कलायें सोलह है। चौक्ष, साधारित, देशी बेलावली आदि की छाया इस जालि में पाई जाती
गांधारी-स जाति में न्यास, स्वर एवं अंशस्बर अम्य स्वरों के साथ प्रयुक्त किये जाते हैं । रि और घ का साथ प्रयोग किया जाता है। पंचम के अंश होने पर जाति पाइव और औसवरहित अर्थात पूर्ण होती है। नि, स, म, इनमें कोई एक स्वर अंश होता है तो औडव हर नहीं होता । पूर्ण और षास्य रूप हो होते हैं । इसका ताल पचरपट है। प्रत्येक अक्षर की कलायें सोलह है। इसका प्रयोग तीसरे दृश्य में युवा गान में होता था। गांधारपंचमी, देशी बेलावली इन दोनों रागों की छाया इस जाति में है।
षड़ज कैशिकी-ऋषम और मध्यम अल्पत्व स्वर है। ताल चयपुट है। कलायें सोलह है। दूसरे दृश्य में प्रावैशिकी भूषा में इसका प्रयोग होता पा । इस जाति में गांधार पंचम, हिंदोल और देशी पेलावली की छाया है ।
षड्ज मध्यमा इस प्राप्ति में सब अंश स्वरों में से (स रि ग म प ध नि) दो-दो स्वरों का प्रयोग साथ-साथ होता है । इस जाति में अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है। निवाद का अल्पत्व है । गांधारांश न होने पर पाहव-औडव में गांधार और निषाद विवादी स्वर है। गोति, ताल, कला ये पानी की तरह हैं । यह दूसरे दृश्य में ध्रुवा गाम में प्रयुक्त होती है। ५१. के. वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ० ५२१ ५२. वही, पृ० ५४ ।
५३. वही, पृ० ५५ । ५४. बही, पृ० ५२-५३ । ५५. वहीं, पुष ५३ । ५६. वही, पृ० ५४ ।
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कला : १४९
गांधारोदीच्या-पूर्ण स्वरूप में अंश के सिवा अन्य स्वर अस्पत्व के हैं। षाहय रूप में भी नि, घ, प तथा गा का अल्पत्व है। रिऔर ष साथ-साप आते हैं। ताल पञ्चत्पुट है । कलायें सोलह है। चौथे दृश्य में चुना गान में इसका प्रयोग है।
मध्यपंचमी (पंचमी)-इस जाति में स ग और म अल्पवस्वर है । रिम और गनि दे प्रयोग साथ-साथ होते है। इस जाति में भी अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है | ऋषभ, अंश रहता है तो औडव रूप नहीं होता। पूर्ण और षाडव मात्र होते है। ताल पञ्चत्पुट है। तीसरे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था । चोक्ष पंचम तथा देशी आघाली की रागच्छायायें इस जाति में है । ___ गांधारपंचमी-इस जाति में गांधारी और पंचमी दोनों जातियों के समान, स्वरों का प्रयोग साथ-साथ होता है। ताल पञ्चस्पुट है। फलायें सोलह है । चौथे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था।
रक्तगांधारी-पज और गांधारी का साथ-साथ प्रयोग होता है । धैवत और निषाद बहुल स्वर है। ताल, गीति और कला पाइजी के ही अनुसार है । तीसरे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था।
मध्यमा-इस जाति में षड्ज और मध्यम बहुल स्वर है। इस आति में साधारण स्वर अर्थात् अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है। गांधार और निषाद अल्पस्व स्बर है । ताल चञ्चत्पुट है । कलायें आठ है। इसका प्रयोम दूसरे दृश्य में ध्रुवा गान में होता था। चौक्ष (ख) बाहब और देशी आंधाली इन दोनों की छाया इस जाति में है। ___ आन्ध्री-इस जाति में रि ग घ और नि इन स्वरों को मिला-मिलाकर प्रयोग करना चाहिए । अंशस्वर से म्यासस्वर तक का क्रमसंचार है । अभ्य लक्षण गांधारपंचमी के अनुसार ही है ।१२।
मध्यमोदीच्या (मध्यमोदीच्यका)-इस जाति में अल्पस्व, महत्व और स्वरसंगति गांधारोधीच्या के समान है। ताल चमत्पुट है । मलायें सोलह है । चौथे दृश्य में प्रवा गान में इसका प्रयोग होता था।" ___ कारवी-इस जाति में जो स्वर अंश के नहीं है, वे असरमार्ग प्रयोग के महुत स्वर है। गांधार अति बहुल स्वर है। अंग स्वरों में से दो-दो स्वरों का
५७. वासुदेवशास्त्री, संगीवशास्त्र, पृ० ५४ । ५८. वही, १०५३ ।
५९. वही, पृ० १५ । ६०. वही, पु० ५४ ॥
६१. वही, पृ० ५३ । ६२. वहीं, पृ० ५५ ।
६३. वही, पृ० ५५ ।
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१५० : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति साथ-साथ प्रयोग होता है। ताल पञ्चत्पुट है । कलायें सोलह हैं । पचिये दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था। ____ नन्वनी-(नम्दयन्ती) इस जाति में गांधार ग्रहस्थर है। मतान्तर में पंचम भी ग्रहस्वर है । मन्द्र ऋषभ बहुल स्वर है । ताल चञ्चरपुट है । कलायें बत्तीस है । नाटाइले दृश्य पान न यो हो पा ।" ____ कौशिकी-इस जाति में निषाद और धंवत अंश हों तो पंचम न्यास रहना चाहिए । इस विषय में मतान्तर भी है कि नि एवं ग अंश होने पर नि ग और. पइन तीनों को व्यासस्वर रहना चाहिए । ऋषभ अल्पस्वर है। निषाद और पंचम बहुल स्वर है। सारे अंश स्वरों में अर्थात् स ग म ए ध नि में दो-दो स्वरों का प्रयोग साथ-साथ होता है। ताल, कला और गीति पाइजी के समान है । इसका प्रयोग पाँच दृश्य में और भुषागान में होता था।
संगीत की अभिव्यक्ति-संगीत की अभिव्यक्ति कंठ, शिर और उरःस्थल से होती है ।
सङ्गीत के चार पद-स्थायी, संचारों, आरोही और अवरोही इन चार प्रकार के वर्गों के सहित होने के कारण चार प्रकार के पद कहे गये हैं। संगीत इन चार पदों में स्थित होता है ।" .
स्थायी पद के अलङ्कार-प्रसन्नादि, प्रसन्नान्त, मध्यप्रसाद और प्रसन्नाअवसान ये चार स्थायी पद के अलंकार है ।
संचारी पद के अलङ्कार--निवृत्त, प्रस्थित, बिन्दु, प्रेस्रोलित, तार, भन्न और प्रसन्न मे छ: संचारो पद के अलंकार है। __ आरोही पद के अलङ्कार आरोही पद का प्रसम्नादि नामक एक ही अलंकार है।
अवरोही पद के अलङ्कार-अवरोही पद के प्रसन्नान्त और कुहर दो अलंकार है।
ग्राम र..पाम शब्द समूहमाची है । जिस प्रकार कुटुम्ब में लोग मिल-जुलकर मर्यादा की रक्षा करते हुए इकठे रहते है उसी प्रकार संवादी स्वरों का वह
६४. के. वासुदेवशास्त्री : संगीतशास्त्र, पु० ५५ ५ । ६५. वही, पृ० ५४ ।
१६. प० २४१७ । ६७. पप० २४।१०।
६८. बड़ी, २४॥१६॥ ६९. वहीं, २४।१७।
७०. वहो, २४।१८। ७१. वही, २४।१८।
७२. वही, ३७।१०८।
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कला : १५१
समूह माम है, जिसमें श्रुतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूछना, तान, वर्णन, क्रम, अलंकार आदि का आश्रय हो ।
मुत्य-कला पद्मचरित में कई स्थानों पर नृत्य का उल्लेख तथा वर्णन किया गया है। साधारण लोगों से लेकर राजपरिवार" (भूमगोधरी और विधानरों तक के यहाँ) तक सभी स्थानों पर नृत्यकला सीखी जाती थी । राजा सहस्रार के यहाँ छन्नीस हजार नृत्यकार नृत्य करते थे । पशुओं को भी नृत्य की शिक्षा दी जाती थी । राजा सहस्रार के पुत्र-जम्मोत्सव पर ममुष्यों की तो बात ही दूर रही, हाथियों ने भी अपनी चंचल सूड उठाकर गर्जना करते हुए नृत्य किया था। सुन्दर नृत्य के लिए आवश्यक बातें
१ -सुन्दर नृत्यों के लक्षण का ज्ञान ।' २-मनोहर वेषभूषा (हार, माल्यादि) से अलंकृत होना । २ ३-परम लीला से युक्त होना । ४-पष्ट रूप से अभिनय खिलाना ।४ ५-शरीर के अंग प्रत्यङ्ग (बाहु आदि) सुन्दर होना । ५ ६-हाव-भाव आदि के दिखला में निपुण होता।" ७-घरणों का विन्यास शब्दरहित होना । ८७
८- नृत्य करते समय एक जांच चलना। ७३. समूहयाचिनी मामी स्वरथुस्मादिसंयुतौ ।
यथा कुटुम्बिनः सर्वे एकीभूय वसन्ति हि ॥ सर्वलोफेषु स पामो पत्र नित्यं व्यवस्थितः । षड्जमध्यम संज्ञौ तु द्वौ ग्रामौ विश्रुतो किल ।।
-मत : भरतकोश, पृ० १८९ (मरत का संगीतसिद्धान्त, पृ० ५) ७४. प. ३८।१३०, ३९॥५३, ५६, ४०१२३, ३७९५, ८८२८,
३७।१०८, ७३४८, ७१६, १०३।६६, २।२२, २४०६, ७१४८,
३७।१०९। ७५. पप०७१।८।
७६. पन. २४।६ । ७७. वहीं, १०३।६६ ।
७८. वही, १०३१६६ । ७९. वही, ७१२५ ।
८०. बहो, ७।१६ । ८१. वही, ३९।५३ ।
८२. वहीं, ३९५३ । ४३. वहीं, ३९॥५४॥
८४, वही, ३९१५४ । ८५. वहीं, ३९।५४ ।
८६. वहीं, ३९१५४ । ८७. वही, ३९।५५ ।
८८. वहो, ३९।५५ ।
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१५२ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
९- शरीर की समस्त चेष्टायें संगीतशास्त्र के अनुरूप होना ।
१०-दर्शकों के नेत्रों को रूप से, कानों को मधुर स्वर से और मन को रूप तथा स्वर दोनों से मजबूत बांधने की चेष्टा करना 1५०
११-साथ में नृत्य करने वाले के स्वर में स्वर मिलाकर गाना।"
नृत्य की मुद्रायें-पद्यरित में नृत्य की निम्नलिखित मुद्राओं के दर्शन होते है।
१-मन्द-मन्द मुस्कान के साथ देखना ५२ २--मौहों का मलाना १२ ३-सुन्दर स्तनों को कपाना ।९४ ४-धीमी-धीमी सुन्दर चाल से चलना । १५ ५स्थूल नितम्ब का मटकाना । ६-भुजाओं का चलाना 1१५ ७-उत्तम लीला के साथ हस्तरूपी पल्लवों का गिराना ।
८-.-शीघ्रता से स्पर्श कर जिसमें पृथ्वीतल छोड़ दिया जाता है ऐसे पैर रखना 1१९
९--शीघ्रता से नृत्य की अनेक मुद्राओं का बदलना 100 १०-केशपाश का चलाना । १०५ ११-कटिं को अस्थि हिलाना । १०२ १२-नाभि भादि शरीर के अवयवों का दिखलाना ।१०३
नृत्य के भेद-अङ्गहाराश्रय, अभिनयात्रय और व्यायामिक ये नृत्य के तीन भेद हैं । इनके अवान्तर भेद भी होते है ।1०४ इन सभी नृत्यों के करते समय पैरों में नूपुर १०५ पहने जाते है जिनकी झनकार आकर्षक होती है 1
८९. एम. ३९।६० । ९१. वही, ३७।१०८ । ९३. वही, ३७।१०४ । ९५. वही, ३७।१०५ । ९७. वही, ३७१०५। ९९. वहीं, ३७।१०६ । १०१. वही, ३७१०६ । १०३. वही, ३७११०७ । १०५. वही, ३८।१३ ।
९., एम. ३७।११० ९२. वही, ३७६१०४ । ९४, वही, ३७१०४। ९६. वही, ३७११०५ । ९८. वही, ३७।१०५ । १००. बहो, ३७।१०६ । १०२. वहीं, ३७.१०७ । १०४. नहीं, २४।६।
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कला : १५३
सादर पयवरित में वीणा'०५, पणिघ१००, वेणु०८, मृदंग१०५, वंश१० (बांसुरी), मुरज", मर१२ (साँझ), पानझ११३ (नगाड़ा), शब१११, भेरी११५, सूर्य'", काहल११०, दुन्दुभि १८, सल्लरी ११५ (शालर), पटह१२०, तंत्री१२ (बीणा), हक्का१२२ आदि वाद्यों का प्रयोग मिलता है।
बाघों के चार भेद-पद्मचरित में वाद्यों के चार प्रकार कहे गये है : १. तत-तन्त्री अर्थात् वीणा से उत्पन्न होनेवाले 1१२३ २. अवनद्ध-मृदङ्ग से उत्पन्न होनेवाले ।
३. सुषिर-बाँसुरी से उत्पन्न होनेवाले १२५ अर्थात् छिद्रों में फूक मारने से ध्वनित होनेवाले १२ वाद्यों का नाम सुषिर वाद है ।
४. घनताल से उत्पन्न होने बाले । २७
के वासुदेव शास्त्री के अनुसार तत घाद्य अनेक प्रकार की दोणायें अर्याद एकतन्त्री, नकुल, प्रिन्त्रिका, चित्रा, विपञ्ची, मत्तकोकिला, आलापिगी, किन्नरी, पिनाकी और माधुनिक तन्त्रीवाद्य अर्थात् जन्त्र, चतुस्तन्त्री, विचित्रवीणा, रुद्रवीणा, सितार, सरोद, स्वरवत, बाल सरस्वती, स्वरमण्डली, सारङ्गी, दिलरुवा, वायलिन, तानपूरा, मोरसिंह आदि हैं।
सुषिर वाहन में बंशी आदि विविध प्रकार की बांसुरिया, शहनाई, सुन्दरी, नांगस्वर, मुखवीणा या छोटा नागस्वर, काहल, श्रीचिह्न, (तिरुच्चिन्न), बल, शृङ्ग, कलारिनट, ट्रम्पेट, सासफोन आदि है। १०६. पन० ३९।४७, ३६, ९२, ४८१२, १२।१६ । १०७. वही, १७१२७५ ।
१०८. पयः १७.२७५ । १०९. पही, ३६.९२ ।
११०. वही, ४०/३० । १११. यही, ४०।३० ।
११२. वहीं, ४०१०। ११३. यहो, ४०।३० ।
११४. वही, ४०1३० । ११५, वही, ४०।३०।
११६. वहीं, ६८।९। ११७. वही, ६८।९।
११८. वही, ८८।२७ ! ११९. वहीं, ८८।२७ ।
१२०. वही, ३॥१६२ । १२१. वही, २४.२० ।
१२२. वहीं, ८०५५ । १२३. वही, २४॥२० ।
१२४. वहीं, २४१२० । १२५. वही, २४।२० । १२६. के. वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, प० २५३ ! १२७, पद्मा २४२२० ।
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१५४ : पामचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अनवद्य वाद्यों में प्राचीनकाल के बाथ मृदङ्ग या मार्दल या मुद्दल, मुरज, पणव, दर्दुर, हुडुपका, पुष्कर, घट, डिडिम, लक्का, आधुज, कुहुक्का, फुडुवा, ढवस, घळस, चना, समरुक, मण्डि, ढक्का, ढक्कुलि, सेल्का , मल्लरी, भाण, त्रिवली, दुन्दुभि, भेरी, निस्साण आदि है।१२८
तन्त्री-प्राचीन ग्रन्थों में वीणा के अनेक प्रकारों का उल्लेख हुआ है। संगीत-रत्नाकर के अनुसार एकतन्त्री नामक वीणा के दण्ड की लम्बाई तीन हस्त अर्थात् ७२ अंगुल (५४ इंच) होती थी। दण्ड की परिधि या घरे का नाप एक वितस्ति या वित्ता (९ इंच) होता था। दण्ड का छिद्र पूरी लम्बाई में डेढ़ अंगुल (११ इंच) व्यास का रहता था। एक सिरे से १७ अंगुल की दूरी पर मालानु या कव को बांधना होता था । दण्ड आबनूस की लकड़ी से मनाया जाता था। कद्दू का भ्यास ६० अंगुल (४५ इञ्च) होता था। दूसरे सिरे में ककुभ रहता या। ककुम के ऊपर धातु से बनाई हुई कूर्मपृष्ठ की माँति पत्रिका होती थी। कद्दू के ऊपर नागपाशसहित रस्सी बांधी जाती थी। ताप्त अर्थात् स्नायु की तन्त्री को नागपाश में पौधकर मकुभ के ऊपर की पत्रिका के ऊपर शंकु या खूटी से बांधा जाता था। तन्तु और पत्रिका के बीच में नादसिद्धि के लिए वेणु निमित जीवा रखते थे। इस वीणा में सारिकायें नहीं है। बायें हाथ के अंगूठा कनिष्ठिका और मध्यमा पर वेनिमित कनिका को धारण करके सया कद्दू को अधोमुख करके, ककुभ को दाहिने पांव पर रखकर कद्र को कंधे के कार रहने की स्थिति में रखकर जीवा से एक बित्ता की दूरी पर ऊँगली से वादन किया जाता था । १२१ पनचरित में तत का स्वरूप समझाते हुए तन्त्री शब्द का प्रयोग किया गया है।
अवनवा वाद्य मृदङ्ग-मृपङ्ग शब्द शादिकाल में पुष्कर वाद्य का नाम था । पुष्करवाद्य में चमचे से मढ़े हुए तीन मुख पे। दो मुख बायों और दाहिनी ओर रहते थे, तीसरा मुख ऊपर रहता था। उसका पिण्ड मत् या मिट्टी से बनाया जाता था। इसी कारण इसका नाम मृदा पड़ा। कुछ समय बाद बायों और दाहिनी ओर दो ही मुखवाले वार की सुष्टि हुई, पश्चात् उसका पिण्ड लकड़ी से बनाया गया । .
१२८. संगीतशास्त्र, पृ० २५३, २५४ । १२९. वहीं, पृ० २५५ । १३०. पप० २४।२० ।
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कला : १५५
।
मृदङ्ग का पिण्ड बीजवृक्ष ( तमिल में वे ) या पनस की लकड़ी से बनाया जाता है । उसकी लम्बाई २१ (२५ इच) है। लकड़ी का दल आधे अंगुल का है। दाहिना मुख १४ अंगुल और बाँया मुख है। दोनों ओर के मुख चमड़े से मढ़े जाते थे रहता था । उस चमड़े के घेरे में २४ छिद्र अन्तर एक अंगुल रहता था । उन छिद्रों में से ( वन, बी) से बाँधा जाता था। इन दोनों पूड़ियों को चमड़े की रस्सी से दोनों ओर खींचकर दृढ़ता से बाँधा जाता था। रस्सी के इम्घन को ढोला करने पर सानने से मृदङ्ग के स्वर को ऊँचा या नीचा कर सकते थे। पकाये हुए चावल की अपामार्ग के भस्म के साथ मिलाकर दोनों पूड़ियों के मध्य में लगाया जाता था। उसका नाम वोहण है । संगीत- रत्नाकर में कहा गया है कि बायीं और अधिक और दाहिनी मोर थोड़ा कम लगाया जाता था । पर आजकल मायें मुख में बजाने से पूर्व मुंबा हुआ है और दाहिने मुख में मृदङ्ग बनाते समय ही को मिश्रित कर लीन देते है । ११५
छोटी में लकड़ी का कोयला, पकाया हुआ चावल तथा गौंद व्यास के चक्राकार में लगाते हैं । उसे स्थिर रहने
1
१३ अंगुल है, मध्य में १५ अंगुल किनारे पर चमड़ा घनता से युक्त
छिद्रों का पारस्परिक
रहते थे । वेणी की
तरह चमड़े की रस्सी
पदह [*२] ( नगाड़ा) - आबनूस की लकड़ी से बनाया जाता था । उसकी लम्बाई २१ हाथ की है। मध्य में घेरे का नाप ६० अंगुल है । दाहिने मुख का व्यास ११॥ अंगुल है 1 बायें मुख का व्यास १० अङ्कल है । दाहिनी ओर लोहे का पट्टा होता है । बायीं ओर लताओं का पट्टा
लगता है। चमड़े के
भल पूर लोहनिर्मित तीसरा पट्टा से मढ़ाया जाता है। बायीं ओर के पतली रस्सी से सोने, चांदी आदि से को ठीला बांधा जाता है। जाता है। इसे कोण नामक कुछ छोटा रहे तो उसे देशी स्कन्द है । १३३
लगाना पड़ता है। उससे चार दोनों ओर मृत बछड़े के चमड़े घेरे में सात छिव बनाकर उनमें बनाए हुए चार अंगुल लम्बे सात कलशों दाहिनी ओर से उन्हें फिर उस चमड़े से बांध दिया साधन या हाथ से बजाते हैं। इसी तरह का पट पटह या अड्डा बुज कहते हैं।
पटह् का देवता
91
छक्का १९४ . इसको लम्बाई एक हस्त की है। परिधि ३९ गुल और मुख काव्यास १३ मंगूल है। लता का वलय है। चमड़े से मढ़ा रहता है । चमड़े
१३१. के ० वासुदेवशास्त्री संगीतशास्त्र, पृ० २७३, २७४ ।
१३२, पद्म० ८२।३०, ८० १५४ ।
१३३. संगीतशास्त्र, ५०२७९, २८० ।
१३४. पद्म० ८० १५५ १
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१५१ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति में सात छिद्र रहते हैं। यह छिद्रों के द्वारा रस्सी से बांधा जाता है। मध्यमाग के हाप से कुलुप मामक कोण के द्वारा वादन किया जाता है । ३५
पणिध (तबला)१५-तबले में मृदङ्ग के दो भाग अलग-अलग हैं। दोनों भागों में मुख रहते है। दाहिने भाग में मदम की दाहिनी ओर उत्पन्न होनेवाले शब्द उत्पन्न होते है। बायें में मुबल को बायीं बोर के शब्द बोलते हैं। दाहिना भाग लकड़ी और
बारा से बनादः पाता है | उसरमारत में तबला मृदङ्ग के स्थान में हैं । ११७
घमवाध ताल कास्य धातु से बनाया जानेवाला बाथ घनवाध है । इस धातु को आग में भलीभांति पकाकर पहले 'चक्राकार कर लेते हैं। इस चक्र का मुख सवा दो अगुल का होता है। उसका मध्य भाग मंगल भर नीचा रहता है। उस निम्न देवा के ठीक बीच में एक रंध होता है जिसमें होरा पिरोया जाता है जो उन्नत भाग निम्न प्रदेश को घेरे रहता है । यह सेल मंगुल का बनाना चाहिए, जिससे तालों की स्वनि कानों को अच्छी लगेगी। उसी रंभ में टिका रखने के लिए सूत्र को एक प्रन्थि से अथित करते हैं।
ऐसे दोनों सालों को दोनों हाथों की तर्जनी व अंगूठे के सूत्रों को पकड़कर मजाते है। ध्वनि कम उत्पन्न होती हो तो वह शक्ति है, अधिक होती हो तो यह शिव है। बायें हाथ के ताल से उत्पन्न होनेवाली ध्वनि अल्प होनी चाहिए । वैसे ही दाहिने हाथ के बाल से उत्पन्न स्वनि धनता से युक्त होनी चाहिए । ऐसे नियम के वादन करने में वादक को अपवमेध का फल प्राप्त होता है। अभ्यपा बादक का अमङ्गल होता है। इन दोनों तालों का देवता तुंघुरु है, अलगअलग रूप में शक्तिसाल का देवता पाक्ति और शिवताल का देवता पिव है। इस वाचताल को बजाने में भी कल्पना होती है, जो अगुलियों को ऊँचा करके धमाने से सिद्ध होती है।
चित्रकला विष्णुधर्मोंसर पुराण के चित्र-सूत्र में कहा गया है कि समस्त कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है। वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देनेवाली है। जिस गृह में यह कला रहती है वह गृह मांगल्य होता है (तृतीय स्कन्ध ४५१४८) एक
१३५. संगीतशास्त्र, पु० २८० । १३७. संगीतशास्त्र, पृ० २८१ । १३९. संगीतशास्त्र, १० २८२ ।
१३६. प. १७४२७५ । १३८, पद्म २४।२०।
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कला : १५७
अत्यन्त महत्वपूर्ण बात यह कही गई है कि नृत्य और चित्र में बना गहरा सम्बन्ध है। मार्कण्डेय मुनि ने कहा था कि नृत्य और चित्र दोनों ही प्रैलोक्य की अनुकृति होती है। महानुत्य में दृष्टि, हाव-भाव आदि की जो भङ्गी बताई गई है वह चित्र में भी प्रयोज्य है, क्योंकि वस्तुतः नृत्य ही परम पित्र है। 'नृत्यं चित्रं परं स्मृतम् । १४० पपरित में स्वर्ण से मिश्रित आसन और सोने के स्थान बनाये जाने का उल्लेख है । जिनेन्द्र भगवान् के चरित्र से सम्बन्धित चित्रपट फैलाने का भी यहाँ उल्लेख किया गया है ।१४२
चित्र के भेद-चित्र दो प्रकार का होता है : १. शुष्क चित्र, २. आवं चित्र।
शुष्क चित्र के भेद-नाना शुष्क और वर्जित के भेद से शुष्क चित्र हो प्रकार का है।
आर्द्र चित्र के भेद-चन्दन आदि के द्रव्य से उत्पन्न होनेवाला पापित अनेक प्रकार का है। कृत्रिम और अकत्रिम रंगों के द्वारा वी, जल तथा मन्त्र आदि के ऊपर इसकी रचना होती है। यह अनेक रंगों के सम्बन्ध में संयुक्त होता है।'५४
सोमेश्वर की अभिलाषार्थ-चिन्तामणि नामक पस्तक में चार प्रकार के चित्रों का उल्लेख है : (१) विद्ध चित्र-जो इतना अधिक बास्तविक वस्तु से मिलता हो कि दर्पण में पड़ी परछाई के समान लगे। (२) अविद्ध चित्रो काल्पनिक होते थे और चित्रकार के भायोल्लास की उमंग में बनाए जाने थे। (३) रस-चित्र जो भिन्न-भिन्न रशों की अभिव्यक्ति के लिए बनाए जाते थे। (४) चू लि-चित्र । पारिस के २८वे पर्व मे सूषित नारद द्वारा श्रीता का सुन्दर चित्र बनाये का उल्लेख मिलता है । इस मित्र को मिड-चित्र कहा जा सकता है, क्योंकि रविषेण ने इसकी विशेषता प्रत्यक्ष के समान (प्रत्यक्षमिव, अर्थात् यथार्थ के समान दिखाई दे, ऐसा) कही है। इस चित्र में अकित महिन सीता को देखकर मामण्डल शीघ्र ही लज्जा, शास्त्रज्ञान तथा स्मृति से रहिट
१४०. प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद हजारीप्रसाद द्विवेदी) पृ. ६४ । १४१. पन ४०।१६।।
१४२. पप २४॥३६ ।। १४३. वही, २४॥३६ ।
१४४. वहीं, २४३६-३७ ।। १४५. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, पृ. ६४। १४६. प० २८०१९ ।
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१५८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
हो गया ।१४ वह निरन्तर शोफ फरने लगा, अत्यन्त लम्ने श्वासोच्छवास छोड़ने लगा, उसका शरीर सूख गया तथा शिथिल शरीर को बह चाहे जहां उपेक्षा से डालने लगा। उसे न रात्रि में नींद आती थी, न दिन में चैन पड़ता था। वह दिन-रात उसीके ध्यान में मग्न रहता था। सन्दर उपचारों से उमे कभी सुख नहीं मिलता था । वह पुष्प, सुगन्धित पदार्थ तथा आहार से द्वेष करने लगा मानो उन्हें विषमय समझता हो 1१५० उसको समस्त घेष्टायें ऐसी हो गई मानो उसे भूत लग गया हो । तदनन्तर बुद्धिमान पुरुषों ने उसकी आतुरता का पता लगाया । ११ नारद के प्रकट होने पर लोगों ने उनसे पूछा-'यह कोई नागकुमार देव की अङ्गना है या पृथ्वी पर आई हुई किसी कल्पवासी देव की स्त्री, किस तरह की देवी है ।१५९ आदि । इसी प्रकार ४०३ पर्व में वंशस्थल पर्वत के शिखर पर शुद्ध दर्पणतल के समान उत्कृष्ट भूमि तैयार कर पांच वर्गों की पूलि से अनेक चित्र बनाए जाने का उल्लेख है। इन्हें स्पष्ट रूप से धूलि-मित्र कहा जा सकता है ।१५३
मूर्तिकला ... का. रायकृष्णदास के अनुसार सोना, चाँदी, तांबा, काँसा, पीतल, अष्टधातु आदि प्राकृतिक तथा कृत्रिम चातु, पारे के मिश्रण, रत्न उपरत्न, कांच, कड़े और मुलायम पत्थर, मसाले, कच्ची या पकाई मिट्टी, मोम, लाख, गंधक, हाथी दांत, शंख, सीप, अस्थि, सींग, लकड़ी एवं कागद के कुट आदि उपादानों को उनके स्वभाव के अनुसार गढ़कर, खोदकर, उभारकर, कोरकर (चारों और
१४७. ताज्ञानात् समालोक्य स्वसारं चित्रगोचराम् ।
हीश्रुतिस्मृतिमुक्तात्मा द्राक् प्रभामण्डलोऽभवत् । पपा २८५२२ । १४८. ततः शोचति निःश्वासान्मुञ्चतेऽत्यम्तमायतान् ।
शुष्यति क्षिपति सस्तं गात्रं पत्रक्वचिद द्रुतम् ।। पम० २८०२३ । १४९. न रात्री न दिवा निद्रां लमले ध्यानतत्परः ।
उपचारेण कान्तन न जातु सुखमश्नुते ।। पप० २८१२४ । १५०. पुष्पाणि गम्घमाहार देष्टि क्ष्यहं पथा भुशम् ।
करोति लोठन भूयः संतापी जलकुट्टिमे ।। पा० २८।२५ । १५१. हतो ग्रहगृहीतस्य सदृशस्तविचेष्टितः ।
जातं तदातुरत्वस्य कारण मतिशालिभिः ॥ प१० २८०२७ । १५२. महोरगाङ्गना किं स्पाद भयेत्' किंवा विमानजा | ___ . मर्त्यलोके समायाता स्वया दृष्टा कथञ्चन ।। पद्मा २८१२।। १५३. पन ४०७ ।
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कहा : १५९
से गढ़कर) पीटकर, हाथ से या औजार से डॉलिया कर (हाय से उपकरण को जहाँ जैमी आवश्यकता हो, ऊंचा उठाकर तथा मीछे दबाकर प्राकृति उत्पन्न करना) ठप्पा करके या सांचा छापकर (अर्थात् जो प्रक्रिया जिस उपादाम के अनुकूल हो एवं जिस प्रक्रिया में जो खिलता हो), उत्पन्न की हुई आकृति को मूर्ति कहते हैं ।१५४
जिन-प्रतिमा-पाचरित में हमें अनेक स्थलों पर विभिन्न मूर्तियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इनमें सर्वाधिक उल्लेख तीर्थकर की मूर्ति या प्रतिमा के विषय में मिलते हैं। यहाँ जिन-प्रतिमा को चैत्य भी कहा है 1१५५ ये चैत्य कृषिम और अकृत्रिम दोनी प्रकार के थे । ५१ प्रतिमायें विशेषतया पंचवर्ण (काला, नीला, हरा, लाल, सफेद) की निर्मित होती थीं । रथनूपुर के बन में निर्मित जैनमन्दिर में राजा जनक ने जिस जिन-प्रतिमा का दर्शन किया था बह प्रतिमा अग्नि की शिखा के समान गौर थी। उसका मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान था । मह पद्मासन से स्थित तथा बहुत ऊँची थी। उसके सिर पर जटाएँ यो । १५ साम ही साथ वह आठ प्रातिहायों से युक्त की प्राविहाय से युक्त जिन-प्रतिमा बनाये जाने के उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि उस समय यक्षों
और देवों की भूतियां भी तीर्थकर मति के साथ बनाई जाती थी। यहां यष्ट प्राप्त स्मरणीय है कि कुषाण-काल को जिन-मूतियों में प्रतीफ-संयोजना के अतिरिक्त यक्ष-यक्षिणी-अनुगामित्व प्राप्त नहीं होता। यह विशेषता गुप्तकाल से प्रारम्भ होती है, जबसे तीर्थकर की प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षणियों आदि का साहचर्य अनिवार्य बन गया । १९० .
१५४. रामकृष्णदास : भारतीय मूर्तिकला, पृ० १५, १६ । १५५. पप० १८।५६ ।
१५६. पद्म ९८०५६ । १५७. वही, ९५।२७ ।
१५८. मही, २८५९५ । १५९. पद्म: २८१९२, जैनग्रन्थों में तीर्थ कुरों के ४६ मूलगुणों का उल्लेख आता
है। इनमें आठ प्रातिहार्य भी सम्मिलित है । ये प्रातिहार्य तीर्थर के केवलशाम के बाद प्रकट होते हैं। इनकी गणना इस प्रकार है१. अशोकवृक्ष का होना, २. रत्नमय सिंहासन, ३. भगवान् के सिर पर तीन छत्र का फिरना, ४, भगवान के पीछे भामण्डल का होना, ५. निर. क्षरी विव्यष्यमि, ६. देवों द्वारा पुष्पवृष्टि, ७. यक्षों द्वारा चौंसठ पवरों
का डुलाना, ८. दुन्दुभि-बाजों का बजना । १६०, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० ४९३ ।
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१६० : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जैन-साधु केशों का लुचन करते हैं, उनके लिए जटा रखना निषिद्ध है, फिर भी पधचरित में जिनमूर्ति को जटारूपी मुकुट से युक्त कहा है। इससे अनुमान होता है कि इस प्रकार की मूर्तियां उनके तप को अवस्था का द्योतन कराने के लिए बनाई जाती होंगी । पक्रवर्ती भरत ने फैलास पर्वत पर सर्वरत्नमय दिव्य मन्दिर बनवाकर ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान कराई थी। वह सूर्य के समान देदीप्यमान थी, पांच सौ धनुन ऊँची पी, दिव्य थी । उसकी पूजा गन्धर्व, देव, किन्नर, अप्सरा, नाग तथा दैत्य आदि किया करते थे । १२ वंशगिरि पर्वत पर राम ने हजारों जिम-चैत्य (जिम प्रतिमाय) बनवाए थे ।१५३ बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत भगवान के समय समस्त भरतोत्र में वह पृथ्वी अर्हन्त भगवान् की पवित्र प्रतिमाओं से अलंकृत थी । उन मन्दिरों में स्वर्ण, चांदी आदि की बनी छत्रत्रय, चामरादि परिवार से सहित पांच वर्ग को अत्यन्त सुशोभित जिनप्रतिमायें थी ।१६५ विभीषण के भवन में पनप्रम जिनेन्द्र की पचरागमणिनिर्मित अनुपम प्रतिमा विराजमान पी जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमलसमूह की शोभा प्रकट करती थी।" ___ शासनदेव-जैन-साहित्य में मन्दिरों के रक्षक के रूप में शासन-देवों का उल्लेख आया है । पद्मचरित में जैन मन्दिरों (जैनाः प्रासादः) को समीचीन रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी तथा भक्तियुक्त शासन-देवों से अधिष्ठित बतलाया गया है।
रविमूर्ति (सूर्यमूर्ति)-सीता की तमोमयी अवस्था का वर्णन करते हुए रविषेण ने कहा है कि वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्या सीता बाप अलंकारों से यधपि रहित थो, तथापि यह ऐसी सुशोभित हो रही भी मानो रवि को मूर्ति की तरह संयत हो। इस लेख से उस समय रविमूर्ति बनाने को प्रथा का संकेत मिलता है ।
मुनिमूर्ति-मुनि-भूतियाँ भी प्राचीनकाल में स्थापित कराई जाती थीं।
१६१. पदम० २८.९५ ।
१६२. पदम ९८१६३-६५ । १६३. घही, ४०१२७ ।
१६४. वही, ६७।९, १० ! १६५. बही, ६७।१९।
१६६. वही, ७८६८, ६९ । १६७. अधिष्ठिता भश भक्तियुक्तः शासनदेवतैः ।
सद्धर्मपक्षरक्षाप्रवणः शुभकारिभिः ।। पच० ६७।१२। १६८. बाह्यालङ्कारमुफ्ताऽपि वस्त्रमात्रपरिहा ।
मार्या रराज वैदेही रविमूत्यय संयता । पा. १०५:१०३ ।
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कला : १६१
शत्रुघ्न ने सुन्दर अवयवों के घारक सप्तषियों को प्रतिमायें विराजमान कराई थीं 1११९ थे सप्तर्षि सुरमन्यु, श्रीमम्य, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान्, विनय लालस और जयमित्र नाम के सात निर्यन्यमनि थे सो विहार कसे हा मथरा पुरी आए थे । १७०
प्रतिहार-मूर्ति (द्वारपाल-मूर्ति)-रावण के महल में प्रवेश करते समय अजाद के किसी सुभट (मोबा) ने हाथ में स्वर्णमयी वेत्रलता को धारण करने बाला एक (कृत्रिम) प्रतिहार (द्वारपाल) देखा। उससे उसने शान्ति मिनालय का मार्ग पूछा परम्सु वह कृत्रिम द्वारपाल क्या उत्तर देता ? अब कुछ उत्तर नहीं मिला तो 'अरे ! मह अहंकारी तो कुछ भी नहीं कहता' यह कहकर किसी सुभट ने वेग से उसे एक थप्पड़ मार दी, पर इससे उसकी अंगुलियां चूर हो गई । बाद में हाथ के स्पर्श से उन्होंने जाना कि यह सपमुच का द्वारपाल नहीं, अपितु कृत्रिम बारपाल है । इससे स्पष्ट है कि प्रतिहार आदि की भी मूर्तियाँ बनाई जाती थी तथा ये मूर्तियां इतनी सजीच सी होती थी कि कोई भी अपरिचित इनको देखकर भ्रम में पढ़ सकता था।
पशुमूर्तियाँ-पशुओं की भी मूर्तियां बनाई जाती थीं। रावण के आलय में प्रवेश करते समय अंगद के सैनिकों ने ऐसे हाधी देखे जो अंजनगिरि के समान थे, उनके गण्डस्थल अत्यन्त चिकने थे, दात बड़े बड़े और अत्यन्त देदीप्यमान ये तथा इन्द्रनीलमणि से निमित थे । उनके मस्तक पर ऐसे सिहों के बच्चों ने पर जमा रखे थे, जिनकी पूंछ ऊपर को उठी हुई थी, जिनके मुख दाढ़ों से अत्यन्त मयंकर थे, जिनके नेत्र भीषण थे तथा जिनकी मनोहर जटायें थीं । इस
१६९. पप्र० ९२१८२ ।
१७० पप० ९२।१-३ । १७१. दृष्टं कश्चित्प्रतीहारं हेमवेत्रलताकरम् ।
जगाद शान्तिगहस्य पन्थान देशयाश्चिति ।। पद्म० ७१५३५ । कथं न किञ्चिदुरिसस्तो अवीस्येष विसम्भ्रमः । इति घ्नन् पाणिना वेगावापाइगुलिचूर्णनम् ।। पा० ७१।३६ । कनिमोऽयमिति शात्वा हस्तस्पर्शनपूर्वकम् ।
किञ्चित् कक्षान्तरं जग्मुरि विज्ञाय कुछ तः ॥ पय० ७१।३७ । १७२. अनादिप्रतीकाशानिन्द्रनीलमयान् गजान् ।
स्निग्धगण्डस्यलान् स्थूलदन्तानत्यन्तभासुरान् ।। यदम० ७१।१९ । सिंहे बालांश्च तन्मूर्खन्यस्ताङ्क्रीन वालपीन् । दंष्ट्राकरालवदनान् मीषणाक्षान् सुफेसरान् ।। पद्म ७१।२० ।
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१६२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति प्रकार के हाथी और सिंहों को सचमुच का हाथो और सिंह समझ पैदल सैनिक भयभीत और अत्यन्त विह्वलो साप्त डो भागने लने थे ."
बास्तु-कला मानसार के अनुसार भूमि, हर्म्य (भवन आदि), मान एवं पयंक इन चारों का ही वास्तु-शब्द से घोष होता है। वास्तु की इस चतुर्मुखी व्यापकता की सोदाहरण व्याख्या करते हुए डा० प्रसन्नकुमार आचार्य वास्तु विश्वकोश (पू. ४५६) में लिखते हैं-'हर्म्य में प्रासाद, मण्डप, सभा, शाला, प्रपा तथा रंग ये सभी सम्मिलित है । यान आदिक स्पन्दन, शिविका एवं रथ का बोधक है। पर्यक में पंजर, मंचली, मंच, फलकासन तथा बाल-पर्यक सम्मिलित है। वास्तुशब्द ग्रामों, पुरों, दुर्गा पत्तनों, पुटभेदनों, आवासभवनों एवं निवेश्यभूमि का भी वाचक है । साथ ही मूर्तिकला अथवा पाषाणकला वास्तुकला की सहचरी कही जा सकती है । ७४
नगर वास्तु नगरप्रभेद-नगरप्रभेद के अन्तर्गत खेट, कपट, द्रोणमख आदि आते हैं। इन सबका विवरण राजनैतिक जीवनवाले अध्याय में दिया जा चुका है ।
मट ३५- मठ या विहार उस स्थान को कहते हैं जहाँ छात्रों के आवास एवं अध्ययन के स्थान हों। परन्तु कालान्तर पाकर ये ही छोटे-छोटे गुरुगृह, कुलपति-कुटीर, छात्रावास तथा भिक्षु-खटज बड़े-बड़े नगरों के आकार में परिणत हो गए ।१७५ पनचरित के ३३वें पर्व के उल्लेख से इन मठों के वातावरण की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है ।
एक बार भ्रमण करते हुए राम जटिल (जटाघारो) तापसियों के प्राथम में पहुँचे । उस आश्रम में अनेक मट बने थे । मठों पर विशाल पसे छाए थे। सबके आगे बैठने के लिए चबूतरे बने हुए थे। इन चबूतरों पर एक ओर पलाश तथा ऊपर की लकड़ियों को गहिहयाँ यों। बिना जोते-चोए अपने आप उत्पन्न होने वाले धान उनके आश्रम में सूरन रहे थे । निश्चिन्तता से हरिण वहाँ रोमम्य कर रहे थे । जटाधारी बालक उन मठों में जोर-जोर से रटा करते थे । गायों के
१७३. दृष्ट्वा पादचरास्त्रस्ताः सत्यव्यालाभिशखिताः ।
पलायितुं समारब्बाः प्राप्ता विह्वलतां पराम् ।। पद्म० ७१।२१ । १७४. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १७ । १७५. पद्म० ३३।३। १७६. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० ५८ ।
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कला : १६३
बखड़े पूंछ उठाकर उनके आंगनों में चीड़ियां भर रहे थे। फूलों से सुन्दर लताओं को छाया में बैठे हुए तोता मैना आदि पक्षी भी बैठकर स्पष्ट उच्चारण करते थे। मठों में छोटे-छोटे वृक्ष थे, जिन्हें कभ्यामें अपना भाई समझकर सींचा करतो थीं । उन तपस्वियों ने विभिन्न प्रकार के मधुर फल, सुगन्धित पुष्प, मीठा जल आदर से भरे स्वागत के शब्द अर्ध्य के साथ दिए भोजन, मधुर संभाषण, कुटी का दान और कोमल पत्तों की शम्मा आदि पकावट को दूर करने वाले उपचार से उनका बहुत सम्मान किया । १७७ उस आश्रम में रहने बाले तापस सूखे पत्ते खाकर तथा वायु का पानकर जीवन बिताते थे । तापसों के साथ उनकी स्त्रियाँ भी रहती थीं ।
१७८
१७९
विद्वानों के अनुसार कालान्तर पाकर में ही छोटे-छोटे गुरुगृह, कुलपति कुटीर, छात्रावास, भिक्षु उटज बड़े-बड़े नगरों के आकार में परिणत हो गए। ऐसे विश्वविद्यालयीय नगर आज भी पाए जाते हैं। जैसे कैम्ब्रिज आक्सफोर्ड, वाराणसी, प्रयाग आदि विश्वविद्यालयीय नगर । १८०
दुर्ग - प्राचीन काल में दुर्ग नगर के रूप में तथा नगर दुर्ग के रूप में सन्मि विष्ट होते थे। इसीलिए शब्द कल्पद्रुम में पुर का अर्थ दुर्ग, अधिष्ठान, कोट्ट तथा राजधानी लिखा है । प्राचीन काल में जब शासनपद्धति तथा शासनव्यवस्था के वे सुन्दर केन्द्रीय साधन उपलब्ध नहीं थे, जिनसे किसी विशाल भूभाग पर शासन की सुव्यवस्था तथा शान्तिरक्षा का प्रवन्ध किया जा सके । विभिन्न बस्तियों, चाहे वे ग्राम हों अथवा नगर, अपनी-अपनी रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं संभालती थीं । १८२ इसीलिए दुर्गभ दुर्गं बनाए जाते थे । पद्मचरित में ऐसे दुर्गम दुर्ग का उल्लेख मिलता है। कालान्तर में साधनों और आबादी के विकास के साथ-साथ इस प्रकार के कुछ दुर्ग नगर के रूप में परिणत हो गए ।
देश- चयन - प्रकृति, जनपद एवं जलवायु को दृष्टि में रखकर देश भूमिचयन किया जाता है। राजधानी नगर के निवेश के सम्बन्ध में आचार्य शुक्र
१७८, पद्म० ३३११२ ।
१७७ पद्म० ३३।३-९ ।
१७९. वही, ३३१५ ॥
१८० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल भारतीय स्थापत्य, पृ० ५९ ।
१८१. पुरं कोट्टमषिष्ठानं कोट्टों स्त्री राजधान्यपि ' - शब्दकल्पद्रुम ( भारतीय
स्थापत्य, पृ० ६६ ) |
१८२. भारतीय स्थापत्य, पू० ६५-६६ ।
१८३. पद्म० २६१४७ ।
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१६४ : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहते हैं-उस सुरम्य एवं समतल भू प्रदेश पर राजधानी नगर का निवेश करना पाहिए, जो विविध प्रकार के विटपों, लताओं और पौधों से आकीर्ण हो, जहाँ पर पशु-पक्षी तथा जीव-जन्तुओं को पूर्ण सम्पन्नता हो, जहाँ पर खाद्य एवं जल की पूर्ण सुलभता हो, जहाँ पर चारों ओर हरियाली, बाग-बगीचे, जंगल के प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय हो । जहाँ पर समुद्र तट पर गमनपोल नोकामों के यातायात द्वारा उनका संचार दृष्टिपए रहता हो और यह स्थान पर्वत से बहुत दूर न हो । १४ शुक्राचार्य द्वारा कथित ये सभी लक्षण न्यूनाधिक संख्या में पदम चरित में बणित मगर के वातावरण में पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए रविषेण को आदर्शभूत विजयार्च पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर स्थित रखनपुर आदि नरियों के वातावरण पर प्रकाश डाला जाता है।
रयनूपुर आदि नगरिया शापिकाओं और बगीचों से ज्याप्त है। स्वर्गसम्बन्धी भोगों का उत्सव प्रधान करने वाली हैं। बिना जोले उत्पन्न होने वाले सब प्रकार के फलों से सहित है, सन' प्रकार की ओषत्रियों से पाकीर्ण है और सबके मनोरखों को सिद्ध करने वाली है ।१८५ वहां पर्वतों के ममान अनाज की राशियाँ हैं, यहाँ की खत्तियों का कभी क्षय नहीं होता, वापिकाओं और बगीचों से घिरे हए वहाँ के महल बहुत भारी कान्ति धारण करते है । १४५ मार्ग लि और कण्टक से रहित तथा मुख उपजाने वाले है।१८७ जिनकी मधुर ध्वनि कानों को आनन्दित करती है ऐसे मेघ वहाँ चार रास तक योग्य देश तथा योग्य काल में अमत के समान वर्षा करते है। वहां की हेमन्त ऋतु शीतल वायु से रहित तथा आनन्दप्रद होती है । ८९ वहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी सूर्य मन्द तेज का धारक रहता है । ९० वहाँ की अम्म ऋतुएं भी मनोवांछित वस्तुओं को प्राप्त कराने वाली है तथा वहाँ को निर्मल दिशामें नीहार (कुहरा आदि) से रहित है।" यहाँ ऐसा एक भी स्थान नहीं जो सुख से युक्त न हो। वहां की प्रजा सदा भोगभूमि के समान क्रीड़ा करतो रहती है, ११२ इत्यादि ।
मार्ग-विनिवेश-पुरनिवेश में स्थापत्य का परम कौशल मार्ग-विनिवेषा है । मागों का निवेशन केवल पुर की विभिन्न वर्गीय मावास-मालिकाओं के लिए
१८४. शुक्रनीति प्र० अ० (मारतीय स्थापत्य, पृ० ७४) । १८५, पम० ३।३१६-३१७ ।। १८६, पप० ३१३२४ । १८७. वहीं, ३१३२५ ।
१८८. वहीं, ३।३३६ । १८९, वही, ३।३२७।
१९०, पही, ३१३२८ । १९१. वही, ३१३२९ ।
१९२. वही, ३।३३० ।
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कला : १६५
ही आवश्यक नहीं, वरन् नगर के जनपद के साथ सम्बन्ध स्पापन के लिए भी कम उपादेय नहीं है । तीसरे मार्ग-विनिवेषा का परम प्रयोअन दिक्माम्मुख्य वास्तुकला के आयारभूत सिद्धान्त के अनुरूप प्रत्येक वस्ती के लिए सूर्यकिरणों का उपभोग एवं प्रकाशा तथा वायु का स्वच्छन्द सेवन भी कम अभिप्रेत नहीं है । बोये मागों का विनिवेश इस प्रकार हो कि प्रधान मार्ग पुर के मध्य मे जाते हों। प्रधान मार्ग या राजमार्गों पर ही नगर के केन्द्र-भवन, राजहऱ्या, सभा, देवायतन एवं पण्यवीयो (बाजार) निविग्ट किए जाते हैं । पाँच मार्ग-विनिवेश में संचार-सौकर्य के लिए मार्ग की चौड़ाई आदि भी कम अपेक्षित नहीं है। मागों की संख्या कितनी हो, यह पुर पर आश्रित है । १९३ पदमचरित में मार्गघोतक राजमार्ग और रथ्या ये दो माब्द ही मिलते हैं। राजमार्ग उस समय सीधे (कौटिल्यजिता) बनाए जाते थे । ५९४
राजमार्ग का मार्गों में पहला स्थान है। इसका निवेश नगर के मध्य में बताया जाता है । समराङ्गण मे मार रानाग की पौड़ाई -प्रमाण पत्र, मध्य एवं कनिष्ठ त्रिविध पुरप्रभेदों के अनुसार २४, २०, १६ हस्त (३६, ३० २४ फुट) क्रमसः होना चाहिए। इतना विस्तारपूर्ण होना चाहिए जिससे पदातिमों विशेषकर चतुरंगिणी सेना, राजसी जुलूस तथा नागरिकों के सुविधापूर्ण संचार में किसी प्रकार की रुकावट न हो । यह केन्द्रमार्ग पक्का बनाना चाहिए । १५ शुक्राचार्य के अनुसार उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठ भेद से राजमागों की चौड़ाई ४५, ३०, २२॥ फुट होनी चाहिए । १६
समराङ्गण सूत्रधार में तीन प्रकार की रथ्यायें बतलाई गई हैं--(१) महारघ्या, (२) रथ्या, (३) उपरथ्या । भादर्शपुर में कम से कम दो महारथ्यायें होनी चाहिए जो पुर के बाहर जनपद महामागों में अनुस्यूत हो जाम । इन दोनों महारध्याऔं की चौड़ाई का प्रमाण १२, १० तथा ८ हस्त (१८,१५, १२ फुट) ज्येष्ठ, मध्यम एवं पुरप्रभेद से क्रमशः मतापा गया है ।११० रम्मा की चौड़ाई राजमार्ग से आधी तथा उपरथ्या की चौड़ाई राजमार्ग से चौथाई होनी चाहिए । ये रथ्यायें एवं उपरण्यायें पुर के आन्तरिक निवेश में सहायक बनती है। ये
१२३. भारतीय स्थापत्य, पु. ८५ । १९४. पन ६।१२१ १९५. भारतीय स्थापत्य, पृ. ८५ । १२६. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल ; भारतीय स्थापत्य, १०८९ । १९७. वही, पृ० ८५ ।
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१६६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१९९
-
उपमार्गपुर को मुहल्लों में बांटते है ।१९ पद्मचरित में रथ्याओं को विराहों और चौराहों सहित कहने से इस बात की पुष्टि होती है।' त्रिक- चत्वर (तिराहा, चौराहा ) – प्राचीन मार्गविन्यास में मार्ग-संगम पर विशेष अन्तर प्रदान करके वहाँ पर कोई न कोई सुन्दर वस्तु रखकर उसकी शोभा बढ़ाई जाती थी । तिराहों और चौराहों पर भी किसी न किसी वास्तुकृति के योग से ये संगम सुन्दर बनाए जाते थे । २०० किसी विशेष अवसर पर तो इनकी शोभा में चार चाँद लग जाते थे । पद्मचरित में ऐसे ही एक विशेष अवसर पर (सोता के आगमन पर ) इन तिराहों, चौराहों तथा इनसे सहित मार्गों को सुगन्धित जल से सींचने तथा फूलों से आच्छादित किए जाने का उल्लेख
I
२०१
जिनालय (जेना प्रासादा १०२ निवेश की बहुमुखी योजना में देवायसन-विधान प्राचीन पुरनिवेश का महत्वपूर्ण अङ्ग है। पद्मचरित के एक उल्लेख के अनुसार पर्वत - पर्वत पर गाँव-गाँव में, पत्तन पत्तन में, महल- महल में, नगर-नगर में, संगम-संगम में तथा मनोहर और सुन्दर चौराहे चौराहे पर मन्दिर ( जिनालय) बनाये जाने की परम्परा की सूचना मिलती है २०* इससे यह ज्ञात होता है कि नगर के अंदर तथा बाहर सभी स्थानों पर मंदिर बनाये जाते थे । मे मन्दिर देश के अधिपति राजाओं तथा गांव का उपभोग करने वाले सेटों द्वारा बनाये जाते थे । २०६ इन मन्दिरों में तीनों काल में बन्दना के लिए उद्यत साधुसमूह ( साधुसंघ ) रहता था । २०५ साधुसंघ के रहने के उल्लेख से मन्दिरों के व्यावहारिक महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। प्राचीन काल के मन्दिर महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का काम तो देते ही थे, साथ ही जनता की धार्मिक जिज्ञासा के पूर्ण समाधाता थे। जिज्ञासु धार्मिक जनता मन्दिरों में जाकर धर्म का उपदेश सुनती थी तथा भजन संकीर्तन में भाग लेकर उपास्य देव को भक्ति में विभोर होकर अपने को कृतकृत्य करती थी ये मन्दिर नगर की शिक्षा, दीक्षा, धर्म एवं भक्ति, अध्यात्म एवं चिन्तन, योग एवं वैराग्य के जीते-जागते केन्द्र थे | २०१
१९८. विजेन्द्रनाथ शुक्ल भारतीय स्थापत्य, पू० ८६ ।
१९९. पद्म० ९९।१२ ।
२०१. पद्म० ९९|१३ |
२०३. वही, ६७।१४-१५ ।
२०५. वही, ६७ १७ ।
२०६. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पू० ९७
२०० भारतीय स्थापत्य, पु० ८९ ।
२०२. पथ० ६७.११ |
२०४. वही, ६७ ११ ।
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विषय में देश परीक्षा के बनाये जाते थे और पद्मचरित में प्रसंगा
पर्चा को गई है २०७
रविषेण ने उसको
कला १६७ उद्यान --- पुरनिवेश के लिए कृत्रिम तथा कृत्रिम (प्राकृतिक ) दोनों प्रकार के उद्यान होने चाहिए। इनमें से अकृत्रिम उद्यानों के प्रसंग में कहा जा चुका है। कृत्रिम उद्यान प्रत्येक नगर में उनको आकर्षक बनाने का पूरा प्रयत्न किया जाता था। नुसार नगरों में स्थान-स्थान पर उद्यानों के होने की रावण ने जिस देवारण्य उद्यान में सीता को ठहराया था, उपमा स्वर्ग से दी है । २०८ जिस प्रकार स्वर्ग में सभी वस्तु उसी प्रकार इन उद्यानों में भी सभी प्रकार के भोगोपभोग की जाती होंगी। उस उच्चान के वृक्षों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनके बड़े-बड़े वृक्षों की कान्ति कल्प वृक्ष के समान थी । २०२ वापो २१० सरोवर तथा कूप उद्यान के चिर सहचर होते थे । २११ उद्यानों में मन्दिर बनाये जाते थे तथा मन्दिरों में फूल आदि से सजावट तथा अर्चन आदि किया जाता था। २१२ उद्यानों में वापियों बनाने के अनेक २११ उल्लेख प्राप्त होते हैं। ये चापिकायें स्वच्छ जल से भरी होती थी। इनमें सोदियां भी होता को मल और उत्पल मादि लगाए जाते थे । २१४ सरोवरों में भी सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं तथा कमल आदि उगाकर मनोहर बनाने का यत्न किया जाता था । २१५
सुलभ होती हैं, वस्तुएँ जुटाई
"
रक्षा-संविधान -- समराङ्गण सूत्रधार के अनुसार नगर के रक्षार्थ प्राकारादि निवेश के १. वन एवं परिक्षा, २. प्राकार ३ द्वार एवं गोपुर, ४ अट्टालिक ५. रया ये पाँच प्रधान अंग है । २१६
वप्र एवं परिखा - नगर की सुरक्षा के लिए उसके चारों मोर परिक्षा या खाई खोदी जाती थी । पद्मचरित में राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कहा
२०७. पद्म० ८५०६, ७ प ७८ ।
२०८. उदीचीनं प्रतीचीनं तत्रास्ति परमोज्ज्वलम् ।
गीर्वाणरमण ख्यातमुधानं स्वर्गसन्निभम् || कल्पतरुच्छाय- महापादपसंकुले 1
तत्र
स्थापयित्वा रहः सीतां विवेश स्वनिकेतनम् || पद्म० ४६।२७, २८ ।
२१०. पद्म० ४६।५२ ।
२१२. वहीं, ६८।१६, १७ ।
२०९. पद्म० ४६।२८ |
२११. वही, ४८४८
२१३. वही, ६८ ११, ४६१६०, १४७, १५२, १५८, ९५१९
२१४. वही ५११४ ।
२१५. वही, ६८२ ।
t
२१६. द्विजेन्द्र शुक्ल : भारतीय स्थापत्य पू० १०१, १०२ ।
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१६८ : पयररित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
गया है कि समुद्र के समान गम्भीर परिखा उसे चारों ओर से घेरे हुई थी । २१७ नगर के अतिरिक्त बड़े-बड़े मन्दिरों के चारों और भी सुरक्षा की दृष्टि से परिखायें खोदी जाती थीं । २१८ ___परिखाओं का खनन एवं वप्र भूमि का निर्माण संयुक्त कार्य है ।२१९ कौटिल्य के अनुसार खाई से चार दण्ड की दूरी पर ६ वण्ड (चौबीस हाथ) ऊँचा नीचे से मजबूत, ऊपर की नाई रे नगुना निस्ता ना (मिट्टी का नारा) इनमः । इन वर्षों को बनाते समय बलों और हाथियों द्वारा भलीभांति खोदवाकर और दवाकर खूब मजबूत कर दें। उस पर कटीली झाड़ियों और विषलो लतायें लगा दें । २२०
प्राकार-प्रकार का साधारण अर्थ उत्तुङ्ग मोटी दीवार है, जो पुर के चारों ओर विन्यस्त को जाती थो । २२१ प्राकारों का विन्यास वनों के ऊपर कराया जाता था । उसको ऊँचाई वन के विस्तार से दूनी होनी चाहिए । इसका निर्माण ईटों या पत्थरों से होता था। ईटों की अपेक्षा पस्थरों का प्राकार प्रशस्त माना जाता था । २२२ पपचरित में अत्यधिक ऊंचे प्राकार बनाने का उल्लेख किया गया है । राजगह नगर का जो प्राकार था वह मानुषोत्तर पर्वत के समान जान पड़ता था । २२३ इसीसे उसकी ऊंचाई का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कौटिल्य के अनुसार प्राकार की नींव का विस्तार इतना होना चाहिए कि उसके ऊपर एक हाथी रथ पर बैठकर यातायात कर सके । २२४ पधचरित में लंका नगरी के प्राकार को महाप्राकार२२५ कहा है। प्राकारों पर पर चढ़कर शत्रुओं को अथवा नगर के बाहर की गतिविधियों की देखरेख को जाती थी । २२१ मायामय कोटों की भी उस समय रचना की जाती थी।२५७ मह कोट विरक्त स्त्री के मन के समान दुष्प्रवेश होते थे ।२२९ उनमें अनेक आकार के मुख होते थे, सबको भक्षण करने की शक्ति होती थो तथा वे देवों के
-- ---. - - -. २१७. पद्म० २।४९।
२१८. पद्मः ४०।२९ । २१९. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०२ । २२०. कौटिलीय अर्थशास्त्र २।३।। २२१. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०३ 1 २२२. कोटिलीय अर्थशास्त्र, पृ० ४८ अधि० २।३ । २२३. पद्म० २।४९ । २२४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, पृ० ७८ अधि० २।३ । २२५. पद्म० ५।१५।
२२६. पदम ४६।२१५ । २२७. वही, ५२७
२२८. वहीं, ५२१८
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कला :१६९
द्वारा भी दुर्गम्य होते थे। उनके अग्रभाग संकट से उरकट तथा अत्यन्त तीक्ष्ण करोंती की श्रेणी से घिष्टित होते थे । चंचल सों की तनी हुई फणाओं को फूरकार से यह पाब्दायमान होता था तथा घुयें से युक्त अङ्गारों से दुःसह होता था । २३० शरवीरता के महंकार से उद्धत जो मनुष्य उसके पास जाता था न्ट उसी प्रकार लोटका नटी भाता था जो कि सांप के मुंह से मेंढक । २५१ इस कोट के धेरै को सूर्य के मार्ग तक ऊंचा कहा गया है । इसके अतिरिक्त यह दुनिरीक्ष्य, सग दिशाओं में विस्तीर्ण तथा हिंसामय शास्त्र के समान अत्यन्त पापकर्मा मनुष्यों के द्वारा निर्मित होता था । ३२
__ अट्टाल (अट्टालक)(१)-प्राकार के ऊपर अट्टालक (भवन) बनाए जाते थे । उनका विस्तार और उनकी उच्चता समान रखी जाती थी 1 कौटिल्प अर्थशास्त्र के अनुसार उनकी ऊँचाई के अनुरूप ऐसी सीढ़ी बनाई जानी चाहिए, जो हटाई जा सके । प्रत्येक अट्टालक एक दूसरे से तोस दण्ड (एक सौ बीस हाथ) दूरी पर रहना चाहिए। इस प्रकार बनी प्रस्पेक दो अद्रालिकाओं के बीच में एक ऐसी गलो बनवाना चाहिए जिस पर रप चल सके और अगल-बगल ईटों का दोतल्ला श्वेत भवन (अट्टालक) तथा प्रतोली के मध्य में इन्द्रकोश नाम का स्थान बनवाना चाहिए। वह इतना लावा चौड़ा हो कि उसपर तीन धनुर्धारो सैनिक माराम से रह सकें। उसमें इस प्रकार का काठ का अनेक छिटों से युक्त एक तरूप्ता लगा होना चाहिए जिसकी आड़ में धनुर्धर छिपकर बैठे और उसके सामने आगन्तुक शत्रुसैनिकों को देखकर बाणवर्षा कर सके २१२(२) पदमचरित में नगरिकों के विशाल अट्टालकों से विभूषित होने का उल्लेख किया गया
है।
___ गोपुर ३४ (महाद्वार)-गोपुर शब्द शब्दकल्पदुम के अनुसार गुपु रहाणे धातु से मिष्पन्न हुआ है । २३५ मत एष गोपुर भी नगररक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। पद्मचरित में नगर में अनेक ऊँचे-ऊँचे गोपुर बनाने के
२२९. पद्म० ५२।९।
२३०. पद्मः ५२।१०-११ । २३१. वही, ५२।१२।
२३२. वही, ५२।१४ 1 २३२ (१). वही, ३।३१६ । २३२ (२). कौटिलीय अर्थशास्त्र, १० ७८ अधि० २३ । २३३. पद्म ३।३१६ ।
२३४. पदम० ३।३१६ । २३५. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०५ ।
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१७० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । इनको शक्त्यनुसार मणि आदि से आच्छादित किया जाता था । आज भी प्राचीन अथवा मध्यकालीन महानगरियों (राज. पानियों) में महाद्वारों की भव्य रचना दिखाई पड़ती है। पाटलिपुत्र के वर्णन में मेगस्थनीज ने उस प्राचीन महानगरी के ६४ महाद्वारों एवं प्राकार-भित्ति पर पर प्रतिष्ठित ५७० अट्टालकों का उल्लेख किया है । २१८ गोपुरों का पदमचरित में बहुवचन से उल्लेख होने के कारण इनमें अनेक की संख्या में बनाए जाने की पुष्टि होती है । पद्मचरित के ६३ वें अध्याय में एक स्थान पर कपड़े के डेरे बनाते तथा मण्डप बनाकर सात गोपुरों पर योद्धा खड़े कर विश्राम करते हए सैनिकों की सुरक्षा करने का उल्लेख आया है ।२३१ कपड़े के अस्थायी मण्डपों में जब इतने गोपुर बनाए जाते थे तब स्थायो नगरों में तो स्वाभाविकतया अधिक बनाए जाते होंगे।
भवन-निवेश जन्म एवं विकास पद्मवरित के अनुसार इस भरत क्षेत्र में पहले भोग, भूमि थी ।२४° उस समय लोग सर्वलक्षणों से पूर्ण थे ।२४१ यहाँ स्त्री-पुरुष का जोड़ा साथ ही साथ उत्पन्न होता था, तीन पल्य को उनकी आयु होती पी और प्रेमबन्धनबद्ध रहते हुए साथ ही साथ उसकी मृत्यु होती थी ।२१२ वृक्ष सब ऋतुओं के फल और फूलों से सुशोभित रहते थे तथा गाय, भैंस, भेड़ आदि पशु स्वतन्त्रतापूर्वक सुख से निवास करते थे । २४३ वहां न तो अधिक शीत पड़ती थी, न अधिक गर्मी होती थी, न तीन वायु चलती थी । २४४ वहां बड़ेबड़े बाग-बगीचे और विस्तृत भूभागसहित दूर तक फैलने वाली सुन्दर गन्ध तथा इनके सिवा और भी अनेक प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती थी । २४५ इस प्रकार वहां के दम्पती देव-दम्पती के समान रात-दिन क्रीड़ा करते रहते थे । २४ तृतीय काल का अन्त होने के कारण अब कम से कल्पवृश्न नष्ट होने लगे तब चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । २१७ ये सन प्रकार की व्यवस्थाओं का
२३६. पद्मः ५।१७५, १६॥१६, ६।१३२, १३।४ । २३७. वही, ६।१३२। २३८. विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १०५ । २३९. पद्म ६३१२८-३४ ।
२४०. पद्म० ३।४९ । २४१. वही, ३१५० ।
२४२. वही, ३५१ । २४३. नही, ३३५४ ।
२४४. वही, ३।५९। २४५. वही, ३।६१.६२।
२४६. यही, ३०६३। २४७. वही, ३।६४ ।
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कला : १७१
निर्देश करने वाले थे
जब कल्पवृक्ष पूर्णरूप से नष्ट हो गये तब पृथ्वी अकृष्टपच्य अर्थात् बिना जोते बोये अपने आप ही उत्पन्न होने वाले धान्य से सुशोभित हुई। इक्षुरस ही उस समय प्रजा का आहार था । १५० पहले सो
२४९
२५२
उपदेश दिया । नगरों का
निर्माण की कला प्रजा को कि भवन का प्रथम रूप
इक्षुरस अपने आप निकलता था, पर काल के प्रभाव से अब उसका निकलना बन्द हो गया। लोग बिना बतलाये यन्त्रों के द्वारा ईख पेरने की विधि नहीं जानते थे । २५५ सामने खड़ी हुईं धान को लोग देख रहे थे, पर उसके संस्कार की विधि नहीं जानते थे, इसलिए भूख से पीड़ित हो व्याकुल हो उठे। तय नाभिराज की सलाह से प्रजा के लोग ऋषभदेव की शरण में पहुँचे । ऋषभदेव ने प्रजा को सैकड़ों प्रकार की शिल्पकलाओं का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि के सिखाई । २५० इस विवरण से यह प्रतीत होता है (मॉडेल) वृक्ष था। इस बात की पुष्टि तृतीय पर्व के एक श्लोक के इस मन्तव्य से और अधिक होता है कि ( कुलकर नाभिराज के समय जबकि सब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे, तब इन्होंके क्षेत्र के मध्य एक कल्पवृक्ष रह गया जो प्रासाद अर्थात् भवन के रूप में स्थित या और अत्यन्त ऊंचा था । २४ इसका सीधा तात्पर्य यही है कि कल्पवृक्ष हो उस समय प्रासाद होते थे। इन्होंका आगे चलकर विकास हुआ और बड़े-बड़े प्रासाद बनाये जाने लगे । इस वस्तुस्थिति को सम्भवतः बाद में लोग नहीं भूले, या भूल भी गये हों तो भी इस तथ्य को एक अस्पष्ट रूपरेखा उनके मस्तिष्क में रह गई थी । इसलिए प्रासाद को कल्पवृक्ष के रूप में मानकर भी रविषेणाचार्य ने आगे कह दिया कि उनका यह प्रासाद मोतियों की मालाओं से व्याप्त था, स्वर्ण और रत्नों से उसकी दीवाले निर्मित थीं । यह वापी और उद्यान से सुशोभित था तथा पृथ्वी पर एक अद्वितीय ही था । २५५ हो सकता है कि उस वृक्ष की शाखाओं से ही उन्होंने उस वृक्ष के चारों ओर भित्ति बना ली हो । बहुत बाद में लोगों की दीवालें स्वर्णमय और रत्नमय होने लगीं। अतः उन दीवालों के भी स्वर्ण और रत्नमय होने की उन्होंने करूपना कर ली हो । बाल भवन या शाला भवन के निर्माण के पीछे यह
२४८. पद्म० ३।७४ २५०. वही, ३।२३३ ।
२५२. वही, ३४२३५ ।
२५४. अथ कल्पद्रुम नाभेरस्य क्षेत्रस्य मध्यतः ।
२४९ पद्म० ३।२३१ |
२५१. दही, ३।२३४ ।
२५३. वही, ३/२५५ ।
स्थितः प्रासादरूपेण विभात्यश्यन्तमुन्नतः । पद्म० २१८९ ।
२५५. पम० ३।९० ।
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१७२ : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहानी छिपी हुई है, भले ही बाद में इन भवनों का रूप कितना हो परिवर्तित क्यों न हो गया हो।
शाला-भवन या शाल-भवन-साल-भवनों की परम्परा बहुत प्राचीन है। इसका विविध विकास हुआ। मन्त्रशाला, पाशाला, गजशाला, पाठयाला, अश्वशाला, पाकशाला श्राधि पद इसके परिचायक है। पदमचरित में भी गोपाला५५, यज्ञशाला५५०, आतोद्यपाला२१८ (वावनपाला), प्रेसकशाला२५९, नायगाला २५०, चतुःशाला", चन्द्रशाला। आदि शाला-भवनों के नाम मिलते हैं। मानसार (अध्याय ३६) में शाल-महन की जो व्याख्या वी है, तदनुसार, पाल-भवन में चारों ओर मलिन्द्रों (बरामवी) का विन्यास होना चाहिए । सम्मुन मण्डप भी हो सकता है। इसके ऊपर एक से लगाकर अनेक ममियाँ विनिर्मित हो सकती है और वे चुल्ली (एक प्रकार का भवन) एवं हर्म्य (एक प्रकार का भवन) आदि से मण्डित हो सकती है 1२३३
यज्ञशाला-गमायण के उल्लेख से विदित होता है कि यज्ञशालायें प्रायः अस्थायी रूप में बनाई जाती थी,१४ पर कभी-कभी दे ईंटों की भी बानी होती पीं । पशरथ के अश्वमेघ यज्ञ मे अट्ठारह-अट्ठारह इंटों से छ: गरुणाकार त्रिगुण वैदियों बनायों जाती थीं (१।१४।१८-९)। शुल्मसूत्रों में मी गाड़ाकार बेदी बनाने का विधान है। उस समय के देवालय कैसे बनाये जाते थे, इसका कोई संफेत नहीं मिलता। यज्ञीय यूपों का शिलिएगण कुशलता से निर्माण करते थे उनके अपहलू (अष्टास्त्रयः) होत पे (१।१४।२६)। ब्राह्मण-ग्रन्थों के समय से ही भारती स्थापत्य में आठ पाहल यज्ञोय युपों का निर्माण होता आ रहा है ।२१५
चतुःशाला---पदमचरित के ८३वे पर्व में कहा गया है कि राम तथा लक्ष्मण के पक्के फर्शों से युक्त अत्यास सुम्नदायी चौपाले (चतुःशालाः) थीं । समराङ्गण-सूत्रधार में भी यद्यपि एक से लेकर दश-शाल-भवनों का वर्णन है,
२५६. पद्म० ३।२३१ ।
२५७. पद्मः ३५।२ । २५८. वही, ९५/४६ ।
२५९. वही, ९५।५७ । २६०, वही, ६८।११।
२६१. वही, ८३।१८ । २६२, बही, १४।१३१ २६३. भारतीय स्थापत्य, १० १३२ 1 २६४, पदमः ३५।९। २६५. शान्तिकुमार नानूराम व्यास : रामायणकालीन संस्कृति, पृ० २०८ । २६६. पद्म० ८३।१८ ।
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कला : १७३
तथापि शाल-भवनों की अवतारणा में पातुःशाल का प्रथम निवेश है। पतुःशाल उसे कहते हैं जो एक चौकोर, विशाल एन समीत माङ्गण से नुदिन संघालों से निष्पन्न होता है। इसी प्रकार मोटे तौर से आंगन के तीन और संस्थानों से विशाल, दो ओर से विशाल तथा एक ओर से एकशाल भवन विनिर्मित होते है। ये ही चार आदर्श भवन है जिनके संयोजन से पंचशाल, षट्शाल, सप्तशाल, मष्टशाल, नवशाल तथा दशशाल भवन विन्यस्त होते हैं ।२६॥
बार--महल का द्वार के प्राकार से युक्त रहता था। Eार पर संकड़ों देदीप्यमान बेल-बूटे लगाये जाते थे तथा वह इन्द्रधनुष के समान रंगबिरंगे तोरणों से सुशोभित रहता या ।२९" दरवाजों पर पूर्ण कलश रखे जासे ये 1२१९ बरे-बडे द्वार भी बनाये जाते थे। बृहदाकार होने के कारण एक स्थान पर एक द्वार की उपमा सुमेह को गुहा के आकार से दी गई है ।२७० सामाम्यतःद्वार के लिए काष्ठ का अधिक प्रयोग किया जाता है, किन्तु विशेष आकर्षण के लिए किसी विशेष महल आदि के द्वार २७१ रनों, मणियों तथा स्वर्ण आदि से भी निर्मित किये जाते थे ।२५२ इस प्रकार के द्वारों पर मोतियों की मालायें लटकाई जाती यौं ।२७ द्वार की देहली के सम्बन्ध में एक स्थान पर कहा गया है कि किष्कपुर नगर के द्वार की देहलो पदुपराग मणि से निर्मित होने के कारण लाल-साल दौलती थी, इस कारण ऐसी जान पड़ती थी मानों ताम्बूल के द्वारा जिसकी लाली बढ़ गई थी ऐसा ओठ ही धारण कर रही हो। इस प्रकार पद्मपरित में बार का जो वर्णन किया गया है, उससे उसकी छाही साज-सज्जा पर ही विशेष प्रकाश पड़ता है । प्रमुख द्वार दो ही होते थे जिन्हें सम्पन्सर द्वार (मीवरी द्वार) और बाह्य द्वार (भाहरी द्वार) कहा गया है । २७४ वास्तुशास्त्र की शम्दावली के अनुसार पोखट के ऊपर जो लकड़ो अथवा निर्मिति होती है उसे उडुमार कहते हैं। इसी उधुम्बर अथवा सिटल के नीचे द्वार की स्थापना होती है। दोनों दीवारों का यह मध्यायकाश देहली के नाम से पुकारा जाता है। इसका दूसरा माम कपाटाश्रय है। द्वार के अन्य घटकों अर्थात् पल्लों को कपाटयुमल कहते है 1२७५ पद्मचरित में एक कम्प नाम के व्यक्ति का उल्लेख आता है जो कपाट
२६७. मारतीम स्मापत्य, १० १३२ । २६८. पर० ३८1८३ । २७०, यही, ७१८। २७२. वही, ६।१२४ । २७४. वही, ३११७ । २७५. भारतीय स्थापत्य, पृ० १७१ ।
२६९. पन० १२१३६८ । २७१. वही, ७१।८। २७३. वहो, ६।१२७ ।
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१७४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
बनाकर जीविका किंवा करता था द्वार का तीसरा अङ्ग कलिका अथवा अर्गला है जो दोनों दरवाजों को बन्द करने में सहायक होती है। पद्मचरित से इसका भी सद्भाव सूचित होता है ।
स्तम्भ- भवन का दूसरा प्रमुख अङ्ग स्तम्भ है | भारतीय स्थापत्य में मन्दिर, गोपुर और स्तम्भ ये ही सर्वोपरि सुन्दरतम कृतियां हैं। पप्रचरिस में अनेक स्थान पर२७७ भवन तथा मन्दिरों में खम्भे लगाने का उल्लेख किया गया है। सामान्य स्तम्भ के अतिरिक्त हेमस्तम्भ२७६ तथा रत्नस्तम्भ भी उस समय लगाये जाते थे ।२७२
आस्थान-मण्डप- आस्थानमण्डप शब्द का प्रयोग पद्मचरित में कई बार किया गया है । २८० इसे सभा, सभामण्डप, भास्थान, आस्थानो और आस्थायिका नलचम्पू नवीं पाती) भी कहा जाता था । २८५ राजकूल की दूसरी कक्षा में इसकी स्थिति होती थी । इसे ही मुगल-महलों में 'दरि आम' कहा गया है । इसके सामने अजिर या खुला मैदान रहता था। अजिर से कुछ सीढ़ियां चढ़कर भास्थान-मण्डप में पहुंच जाता था। दिल्ली के किले में दारे आपम के सामने को खुला माग है वहीं प्राचीन शब्दों में अजिर है। सन्नाट सार्वजनिक रोति से दरबार में मंत्रणा करते या मिलते-जुलत वह सब इसी बाह्य मण्डप में होता था।८२ पधचरित के ७३वें पर्व में रावण को ऐसे ही आस्थानमण्डप में बैठा दिखलाया गया है । २८३
अन्य मण्डप-पचरित में अन्य प्रकार के मण्डपों का भी उल्लेख मिलता है। जैसे आहार-मण्डप२४४, सन्नाह-मण्डप२८", लता-मण्डप२०५, कुम्दमण्डप आदि । भोजन करने के विशेष स्थान को आहार-मण्डप कहते थे । २७६. पद्म० ९१।२४। २७७. वही, ५३१२६४, ८०५८, ६५, ३२२५, ६७।२६, ४०१२८ । २७८. वही, ८०८, ६५, ६७४२६, २८1८९ । २५९. वहीं, ७।३३९ । २८०. वही, ७३।१, ८६०,५३।२२१, ३११, ७१।३ । २८१. वासुदेवशरण अग्रवाल : कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, १० २०५ । २८२, वासुदेवशरण अग्रवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०५ । २८३. ततो दशाननोऽन्यत्र दिने परमभासुरः ।
आस्थानमण्डपे तस्थावुदिते दिवसाधिप । पद्म० ७३।१। २८४, पा. ८४०१४ ।
२८५. पप १२।१८१ । २८६. बही, ४२।८५ ।
२८७. वहो, २८८७
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कला : १७५ आहार मण्डप में मित्रों, मन्त्री आदि परिजनों और भाभियों के साथ भरत आहार करते थे । २८ सप्ताह मण्डप आयुधशाला को कहते थे । इसमें युद्ध के शस्त्रास्त्र और बरजे आदि रखे जाते थे । २८९ लताओं से बने मण्डपाकार गृह को लतामण्डप कहते थे। डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल के अनुसार क्षेत्रों, उद्यानों, सरिताओं, तड़ागतीरों तथा सागरबेला पर मण्डप का विकास हुआ। इन मण्डपों की रचना- कला सभा भवनों से आई। एक दो मुण्मय अथवा काष्ठमय स्तम्भों के न्यास से एवं ऊपर की छावनी, वनशाखाओं अथवा तालपत्रों से सम्पन्न कर छोटे-छोटे कामचलाऊ मण्डपों का आज भो विन्यास हम देखते हैं । मण्डप को आज की भाषा में मँढ़वा तथा महइया कहते हैं । इसमें स्तम्भ वौर छाद्य दोनों आवश्यक हैं। चूँकि यह एक प्रकार का क्षणिक विवश है सम्मका ल कोई भी काष्ठपठिका ग्रहण करती है । २१० कालान्तर में केन्द्र स्तम्भ के अतिरिक्त अनेक स्तम्भ जोड़कर विशाल मण्डप बनाये जाने लगे और इनसे विशाल भवनों का निर्माण हुआ । मण्डपाकार रचना होने के कारण इनको मण्डप के नाम से कहा जाने लगा। पद्मचरित में अयोध्या में ऐसे मण्डप बनाये जाने का उल्लेख है, जिनमें हजारों खम्भे (स्तम्भ ) लगे थे, जो मोतियों की सुशोभित थे, नाना प्रकार के पुतकों से युक्त थे तथा विविध प्रकार भवन - रचना -- पद्मचरित में भवन-रचना गेह २९२, २१४ मन्दिर २५ निलय १६ सद्म २९७, आलय' २९८
मालाओं से
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थे । २११
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आगार आगार १०५
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२९९ वेदम गृह *००, कूट ३०२, चैत्व ३०३, शाला' विमान ३०५, मण्डप आदि के रूप में मिलती है । सुन्दर भवन ऊंचे-ऊंचे शिखरों से युक्त होना चाहिए । २०६ भवन में एक विशाल गग हो । सम्भवतः आंगन को लम्बाई, चौड़ाई भवन के आकार के अनुरूप बनाई जाती होगी। नाभिराज के भवन का आँगन ( अजिर )
२८८. पद्म० ८४।१४-१५ ।
२९०. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १९४ ।
२९१. पद्म० ८१ । १०४ ।
२९३. वही, ८३।४१ ।
२९५. वही, २१३९ ।
२८९. पद्म० १२।१८१ ।
२९७. वही, २४० २९९. वही, ५३।२०३ । ३०१. वही, २०३७ ।
३०३. वही, ६७११५ । २०५. वही, ११२३४ |
२९२. पद्म० ६।१३० । २९४. वही, २३७ ॥ २९६. वही, २४० ।
२९८. वही, ८० ६३ ।
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३००. वही ५३।२६६ । ३०२. बही, ११२।३२ ।
३०४. वही, ६८।११ । ३०६. वही, ३३३३३२ |
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१७६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति इतना बड़ा था कि वह रथों से, मदोस्मत हाथियों से, वायु के समान वेगशाली घोड़ों से, उपहार के अनेक द्रव्यों से युक्त ऊंटों के समूह से, छत्र, चमर, वाह्न आदि विभूति त्यागकर राजाधिराज महाराज के दर्शन को इच्छा करने वाले मण्डलेश्वर राजाओं से तथा नाना वेशों से आये हुए अन्य अनेक बड़े-बड़े लोगों से सदा क्षोभ को प्राप्त होता रहता था । १०० ___ भवनों को अत्यन्त सफेद (अथवा अन्य वर्णयुक्स) नाना आकारों का धारक तथा रत्न आदि उत्तमोत्तम वस्तुओं से पूर्ण होना चाहिए । ३२८ भवन में पक्का फर्श होना चाहिए ।३०९ पदमचरित में पद्मराग, दधिराग तथा विचित्र-विचित्र मणियों से अड़े फों से युक्त, जिममें मोतियों की मालायें लटकती पीं, जो अनेक वातायनों (झरोखों) से युक्त थे, ऐसे भवनों का वर्णन किया गया है । ३१० भवन में उत्तमोसम फल से मुक्त भगीचे तथा अनेक दोधिकार्य (वापिकायें) होना पाहिए । ५१ राजा के भवन में अनेक गोपुर, कोट, सभा, शालायें, कूट, प्रेक्षागृह तथा कार्यालय आदि होना आवश्यफ था। राम-लक्ष्मण के यहाँ अनेक द्वारों तथा उन्ध गोपुरों से युक्त इन्द्रभवन के समान सुम्पर नन्धावतं भवन षा। किसी महागिरि के शिवरों के समाम नगा नापा का कोटा, वसनो गा को सभा थी। चन्द्रकान्तमणियों से निर्मित सुधीमी नाम को मनोहर शाला यी, अत्यन्त ऊंचा सब दिशाओं का अवलोकन कराने वाला प्रासाव-कुट या, विन्यगिरि के समान कॅचा बद्धमानक नागका प्रेक्षागृह पा, अनेक प्रकार के उपकरणों से युक्त कार्यालय थे, उनका गर्भगृह कुक्कुदी के अण्डे के समान अत्यन्त आश्चर्यकारी था । वह गर्भगृह एक खम्भे पर खड़ा था और कल्पवृक्ष के समान मनोहर था।३१२ ____ भवन की भूमियो घाँदी तथा स्वर्णादि के लेप से सुन्दर बनाना चाहिए । महल ऊँचे होना चाहिए, इनमें अनेक स्तम्भ लगाये जाय, मोतियों आदि मालाओं से सुशोभित हों, इनमें अनेक प्रकार के पुतलों से युक्त विविध प्रकार के मण्डप बनाये जायें । दरवाजे किरणों से चमकते हुए बड़े-बड़े रत्नों से खचित किये जायं । पद्मचरित में हमें अयोध्या के भवनों की रचना इसी प्रकार की देखने को मिलती है । ३९६ भवन का द्वार विशाल आकार का होना
चाहिए ।३९४
३०७. पम० २१८१-८३ । ३०९, वही, ८३३१८ । ३११. वही, ८३३१९1 ३१३. वहीं, ८१।११२, ११३-११५।
३०८. पम० ८३।१७ । ३१०. वही, १४।१२९ । ३१२. वही, ८३१४-८ । ३१४, वाही, ७१३१८ ।
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कला : १७७
सप-सभा, धापिका, विमान तथा बाग-बगीचे से सुशोभित भवन को सदम कहते थे ।१५ रायमान को रासदा१६ कह : य: । ३में सजा लोग रहते थे । १७ राजाओं के साथ-साथ उनके भाई-बन्धुओं के रहने के लिए यह उपयुक्त होता था।१८ स्वर्णमय सद्म (काश्चनसम११) भी उस समय बनाये जाते थे।
गेह-रचना की दृष्टि से किकुपुर नगर का वर्णन प्रकट करने योग्य है । पद्मचरित के अनुसार किकुपुर नगर में विद्याधरों ने महलों की ऐसी ऊँचीऊँची श्रेणियाँ मनाकर तैयार की थीं जिनके सामने उसुङ्ग दरवाजे थे, जिनकी दीवालें मणि और स्वर्ण से निर्मित थी, जो अच्छे-अच्छे बरामदों सहित था, रत्नों के स्वम्भों पर खड़ी थीं, जिनकी कपोतपाली के समीप का भाग महानीलमणियों से बना था और ऐसा जान पड़ता था कि रत्नों को कान्ति ने जिस अम्धकार को सब जगह खदेड़ दिया था मानो उसे यहां अनुकम्पायश ही स्थान दिया गया पा। उन महलों की देहली पद्मरागमणि से निर्मित होने के कारण लाल-लाल दोख रही थी। उनके बरवाओं के ऊपर अनेक मोतियों की मालायें लटकाई गई यौं। मालाओं का किरणों से वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्य भवनों की सुनदरता की हंसी उड़ा रहे हो । भवनों के शिखरों के ऊपर चन्द्रमा के समान आकार वाले मणि लगे हुए थे । मणियों के कारण रात्रि के समय असली चन्द्रमा के विषय में अम हो जाता था। चन्द्रकान्त मणियों को कान्ति से विद्याधरों के गेह उत्तम चांदनी की शोभा प्रकट करते थे तथा उनमें लगे नाना रत्नों की प्रभा से ऊँचे-ऊँचे तोरणों का सन्देह होता था। गेहों के मणिनिर्मित फशों पर रस्नमय चित्र बनाये गये थे । ३२०
गृह--सामान्यतः गृह राजन्यवर्ग से लेकर मध्यमवर्ग तक के व्यक्तियों के होते थे । पमचरित में विशेष वर्णन राजन्यवर्ग के गृहों का ही मिलता है । इस दृष्टि से बड़े-बड़े प्रासाद और गृहों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। ५३. पर्व में गृह और चश्म का प्रासाद के अर्थ में प्रयोग करना इसका बहुत बड़ा प्रमाण है ।१२* सामान्यतः गृह की यह विशेषता थी कि उसके वातायन सड़क के दोनों ओर खुले रहते थे। छत पर अलिन्द-झरोखे भी होते थे। गृह का अग्रभाग
३१५. पद्म० ५३४२०२ । ३१७, वही, ४९।४८ । ३१९. वही, ६६५ । ३२१. यहो, ५३।२६४-२६६ ।
३१६. पा० ६५९३ ३१८. यही, ५११७८ । ३२०. वही, ६।१२४-१३० ।
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१७८ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मुख कहलाता था, जिसको दूसरे शब्दों में हार भी कहते है । हार के ऊपर तोरण होता था, जो मत्स्य या मकर की आकृति का होता था। मथुरा की कला में मकराति तोरण अनेक उपलब्ध है । तोरण भवन का सबसे पहला फाटक होता था। यह कभी-कभी अस्थायी भी होता था। यहीं पर अतिथियों को अगवानी की जाती थी । ३२२ पवाचरित में कूद के समान सफेद, महानीलमणि के समान नील, पनरागमणि के समान लाल, पुष्पराज मणियों के समान प्रभास्वर और गमणि के समान गहरे मील वर्णवाले गृहों का वर्णन भाया है । १३ गृहों में सुरंगें होती थी। घोर लोग सुरंग द्वारा दूसरों के यहाँ जाते थे । ३२४ मामान्यतः यापत्तिकाल में घर से बाहर निकलने के लिए इस प्रकार की सुरंगें बनाई नाती होंगी। जिस उद्देश्य के लिए गृह निर्मित होता था उस उद्देश्य के आधार पर उसका नाम पड़ जाता था। जैसे-सूतिगृह । २५ रावण का गृह इम्भवन के समान था। उसका स्वर्णमय कोट था। तथा उसमें अनेक स्तम्भ लगे हुए
थे । २६
वेश्मर२७ भवनों का एक प्रकार वेषम है । साधारण साफ, स्वच्छ और मध्य भवन को वेश्म कहा जाता है। वेश्म में उपयोग की सभी वस्तुयें वर्तमान रहती है। वेश्म मोष्म ऋतु में सुखप्रद होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि यह शीतल बनाया जाता था। वायु-प्रवेश के लिए दोनों और गवाया रहते थे और छत पर्याप्त ऊंची होती थी । वेश्म दुमंजिले और तिमजिले भी होते थे । १२८
आगार ३२९..-आगार भी घर का एक प्रकार है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार भागार ऐसे भवन को कहा जाता था जिसमें आंगन और छोटे उपवन का रहना आवश्यक पा । आगार का जैसा वर्णन उपलब्ध होता है, उसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा मकता है कि वह प्राकारमण्डित होता था। आगार को सामान्य व्यक्ति भी पसन्द करने थे। यह इंटों और मिट्टी दोनों से बनाया जाता था । इष्टिकानिर्मित भागार पक्के होते पे और मृतिका से बनाए गए मागार कच्चे होते थे । आगार में वातायन और गवाक्ष भी रहते थे। पुष्प तथा लता भी आगार के सामने वाले आंगन में शोभित राहती थीं । आगार का द्वार
३२२.० नामचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, १०३०४ । ३२३, पम० ८५११, ५१२
३२४. पत्र० ५।१०३, १०४ । ३२५. वही, ७।२१३ ।
३२६. वही, ५३।२६४-२६६ । ३२७. वही, ५३।२०३ । ३२८. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० ३०५ । ३२९. पप. ७।१७७, १२१३७ ।
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कला : १७९
वृहदाकार रहता था और उसमें मजबूत किवाड़ लगाए जाते थे । आगारों का ही एक प्रकार अट्टालिका और तल्प है। अट्टालिका वस्तुतः लगाए प्रकोष्ठ वाले भवन को कहा जाता है । तल्प केवल शिखर प्रदेश में स्थित कमरे को कहा जाता है । ११० पद्मचरित में राजगृह नगर के आगारों के विषय में कहा गया है। कि वे आगार छूने से पुले सफेद महलों की पंक्ति से लसें जान पढ़ते थे मानो टोकियों से गढ़ चन्द्रकान्त मणियों से ही बनाए गए हों । ३११ एक स्थान पर सवागार का भी उल्लेख हुआ है ।
२३२
・급력
. ३३४
1
आलय 2 - भालय का सामान्य अर्थ होता है निवास। जिसका जहाँ निवास हो यह उसका आलय है । जैसे विद्यालयः - विश्वायाः (विद्या का ) आलय (निवास) - विद्यालयः । विद्या का अहो निवास हो वह विद्यालय कहलाता है । पद्मचरित के रावणालय ( रावण का आलय), शत्रुन्दमालये १५ (शत्रुदम का आलय) बादि राध्य इस अनि के प्रांत है। कार का था कि जब अङ्गद के पदाति उसकी मणिमय भूमि में पहुँचे तब मगरमच्छों से युक्त सरोवर समझकर भय को प्राप्त हुए पश्चात् उस भूमि के रूप की निश्च लसा देन जब उन्हें निश्चय हो गया कि यह तो मणिमय फर्श है तब कहीं आश्चर्यचकित होते हुए आगे बढ़े । ३३६ सुमेरु की गुहा के आकार बड़े-बड़े रत्नों से निर्मित तथा मणिमय तोरणों से देदीप्यमान अब भवन के विशाल द्वार पर पहुँचे तो वहाँ अंजनगिरि के समान, चिकने गण्डस्थल वाले बड़े-बड़े दातों वाले तथा अत्यन्त देदीप्यमान इन्द्रनीलमणि निर्मित हाथियों को देखा। हाथियों के मस्तक पर सिंह के बच्चों ने पैर जमा रखे थे। उन बच्चों की पूंछ ऊपर को उठी हुई घो। उनके मुख दाढ़ों से अत्यन्त भयंकर थे, नेत्रों से भय टपक रहा था तथा उनकी सटाएँ मनोहर थीं। इन सबको सचमुच के हाथी और सिंह
३३०. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : नादिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २०५ । ३३१. सुषारससमासङ्गपारागारपङ्क्तिभिः ।
कल्पित शितांशुशिलाभिरिव कल्पितम् ॥ पप० २३७ ।
३३३. पद्म० ८०१६३ |
३३५. वही, ३८।८२ ।
३३२. पद्म० ३।१७२
३३४ बही, ७१।१६ । ३३६. रावणालयमाहाक्ष्मामणिकुट्टिमसङ्गताः ।
ग्रहावर सरसोऽभिशास्त्रासमीयुः पदातयः ॥ पद्म० ७१४१६ । रूपनिश्चलतां दृष्ट्वा नितमणिकुट्टिमाः ।
पुनः प्रसरणं चक्रुर्भटाः विस्मयपूरिताः ॥ पद्म० ७१ । १७ ।
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१८० : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१३७
भवन में डरते-डरते उन्होंने
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समझ पैदल सैनिक मयभीत हो गए और उद्विग्न होकर भागने लगे। बाद में उनके यथार्थ रूप को जानने वाले अङ्गद ने उन पैदल सैनिकों को बहुत समझाया तब बड़ी कठिनाई से वे लोग वापिस लोटे । ३५८ इस प्रकार प्रवेश किया जिस प्रकार की मृगों झुण्ड सिंह के स्थान में प्रवेश करत है। बहुत से द्वारों को लांघकर जब से आगे जाने में असमर्थ हो गए तब सघन भवनों की रचना में जन्मान्ध के समान इधर-उधर भटकने लगे । १३९ वे इन्द्रनीलमणिनिर्मित दीवालों को देखकर उन्हें द्वार समझने लगते थे और स्फटिक मणियों से खचित भवनों को आकाश समझ उनके पास जाते थे जिसके फलस्वरूप दोनों ही स्थानों में शिलाओं से मस्तक टकरा जाने के कारण ये गिर जाते थे । वे अत्यधिक माकुलता को प्राप्त होते थे और वंदना के कारण उनके नेत्र बन्द हो जाते थे । २४० किसी तरह उठकर आगे बढ़ते तो दूसरी कक्ष में पहुँचकर फिर आकाशस्फटिक की दीवालों में वेग से टकरा जाते थे । *४९ उनके पैर और घुटने टूट रहे थे तथा वे ललाट की चोट से तिलमिला रहे थे । ऐसी स्थिति में वे लौटाना चाहते थे पर उन्हें निकलने का मार्ग ही नहीं मिलता था । ३४२ जिस किसी प्रकार इन्द्रनीलमणिमय भूमि का स्मरण कर वे लौटे तो उसी के समान दूसरी भूमि देख उससे छकाए गए और पृथ्वी के नीचे जो घर बने थे उनमें जा गिरे। बाद में कहीं पृथ्वी फट तो नहीं गई इस शंका से दूसरे घर में गए और वहाँ इन्द्रनीलमणिमय जो भूमियाँ थी, उनमें जान जानकर घोरे-धीरे कदम बढ़ाने लगे । १४४ कोई एक स्त्री स्फटिक की सीढ़ियों के ऊपर जाने के लिए उद्यत भो, उसे देखकर पहले तो उन्होंने समझा कि यह स्त्री अर
३३७. पर्वतेन्द्रगुहाकारे
गम्भीरे भवनद्वारे
महारत्न विनिर्मिते |
मचितोरणभासुरे । पदम ०७१।१८ ।
अञ्जनाद्विप्रतीकाशानिन्द्रनीलमयान् गजान् ।
स्तिगण्डस्थलान् स्थूलदन्तानरयन्तभासुरान् ॥ पद्म० ७१।१९ । सिहवालांदच तन्मूर्द्धन्यस्ताङ्ग्रीनृद्वालधीन् ।
दंष्ट्राकरालवदनान् भीषणाक्षात् सुकेसरान् || पद्म० ७११२० ।
दुष्ट्वा पादचरास्त्रस्ताः सत्यम्याला मिशङ्किताः ।
पलाधितुं समारब्धाः प्राप्ता विह्वलतां पराम् || पद्म० ७१।२१ । ३३८. पद्म० ७११२२ ।
३३९. पद्म० ७१।२३-२४ १
३४० वही, ७१ । २५-२६ ।
२४२. वही, ७१।२८ ।
३४४. वही, ७१।३० ।
३४१. वहीं, ७१२७ । ३४३. वही, ७१।२९
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कला : १८१
आकाश में स्थित है परन्तु बाद में पैरों के रखने उठाने की क्रिया से निश्चय कर सके कि यह नोचे ही हूं । ३४५ हे विलासिनि ! मुझे मार्ग दिखाओ' इस प्रकार कह कर किसी ३४६ स्तम्भ में लगी शालभंजिका का हाथ पकड़ लिया । सुभट आगे चलकर हाथ में स्वर्णमयी वेत्रलता को धारण करने वाला एक कृत्रिम द्वारपाल दिखाई दिया। उसे किसी सुभट ने पूछा कि शीघ्र ही शान्ति का मार्ग कहो ।
३४७
देता? जब कुछ उत्तर नहीं नहीं है, यह कहकर किसी उसकी अंगुलियाँ चूर-चूर
१४९
परन्तु वह कृत्रिम द्वारपाल क्या उत्तर मिला तो अरे यह अहंकारी युवक कुछ कहता ही सुभट ने उसे एक बंग में थप्पड मार दी, पर इससे हो गई ४८ बाद में हाथ से स्पर्श कर उन्होंने जाना कि यह सचमुच का द्वारपाल नहीं, अपितु कृत्रिम द्वारपाल है। ऐसा तो नहीं है कि कहीं यह द्वार न हो किन्तु महानीलमणियों से निर्मित दीवाल हो, इस प्रकार के संशय को प्राप्त हो उन्होंने पहले हाथ पसारकर देख लिया । ३५० उन सबकी भ्रांति इतनी कुटिल हो गई कि वे स्वयं जिस मार्ग से आए थे उसी मार्ग से निकलने में असमर्थ हो गए, अतः निरुपाय हो उन्होंने शान्ति जिनालय में पहुँचने का ही विचार स्थिर कर दिया । ३५१ पश्चात् किसी मनुष्य को देख उसकी बोली से सचमुच मनुष्य जानकर उससे कहा कि मुझे शान्ति जिनालय (शान्तिहर्म्यस्य) का मार्ग दिलाओ। उसके निर्देश से वे शान्सि- जिनालय में पहुँचे ।
पृथ्वी के भीतर वस्तुयें छिपाकर रखने के लिए गर्भालय बनाए जाते थे । इनका दूसरा नाम भूमिगृह था। एक बार अयोध्या में भरत ने जब भेरी बजवाई तब वहाँ के किसी धनी मनुष्य ने अनिष्ट की आशंका कर अपनी स्त्री से कहा कि ये स्वर्ण और चाँदी के घट तथा मणि और रत्नों के पिटारे भूमिगृह में रख दो। रेशमी वस्त्र आदि से भरे हुए इन गर्भालयों को शीघ्र हो बन्द कर दो और जो सामान अस्त-व्यस्त पड़ा है उसे ठीक तरह से रख दो । १५३
राजभवन को राजालय कहा जाता था । शत्रुदम का बालय अनेक प्रकार के निम्बूद्दों से युक्त था, रङ्ग बिरङ्गी ध्वजाओं से सुशोभित था तथा सफेद मेघाबलो के समान था । ३५४ विभीषणालय के मध्य में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का मन्दिर था। यह मंदिर रत्नमयी तारणों सहित या स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप
,
३४५. पद्म० ७१।३१ ।
३४७. वहो, ७१ ३५ ।
३४९. वही, ७१ ३७ ॥
३५१. वही, ७१।३९ ।
३५३. वही, ६५।१७-१८
३४६. एम० ७१ । ३४ ।
३४८. वही, ७१३६ । ३५०. वही, ७११३८ । ३५२. वही, ७१ ४०
३५४. वही, ३८८२
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१८२ : पधचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति स्थित महलों के समूह से मनोहर पा, शेष नामक पर्वत के मध्य स्थित था, स्वर्णमय हजार स्तम्भों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लम्बाई तथा विस्तार से मुक्त था, नाना मणियो के समूह से शोभित था, चन्द्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की वलमियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकते हुए मोतियों के बालों से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त तथा प्रतिसर आदि विविध प्रदेणों से सुन्दर था और पापनाशक था । ५५५
शालमञ्जिकापा-ऊपर शालभञिका पशब्द आया है। डॉ. वासुदेवशरा अप्रपाल ने अपनी हवरित क ति वन' नामक ग्रंथ में इस शब्द पर अच्छा प्रकाश डाला है ! सालमजिका शब्द का इतिहास बहुत पुराना है । आरम्भ में यह स्त्रियों की एक क्रीड़ा थी। सिले हए साल के नीचे एक हाथ से उसकी हाली झुकाकर फूल चुनचुनकर स्त्रियां यह खेल खेलती थीं। पाणिनि की मपटाध्यायी में प्राचां क्रीडायां (६, ७, ७४) निस्य कोडाजी बिकयो: (२, २, १७) और संज्ञायां (३, , १०९) सूत्रों के उदाहरणों में शालभजिका, उबालक पुष्पभजिका आदि कई क्रीडाओं के माम आए हैं, जो पूर्वी भारत में प्रचलित थीं। वारस्यायन को जयमंगला टीका में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है । बुर की माता माया देवी लुम्बिनी उद्यान में इसी प्रकार की शालमजिका मुद्रा में खड़ी थीं, जब बुद्ध का जन्म हुआ था। धीरे-धीरे इस मुद्रा में खड़ी हुई स्त्री के लिए सालजिका शब्द रुढ़ ही गया । सांची, भरहुत ओर मथुरा में तोरण को बंडेरी और स्तम्भ के बीच में तिरछे शरीर से खडी हुई स्त्रियों के लिए तोरणशालभक्षिका शब्द चल गया था। कुषाणकाल में अश्वघोष ने इसका उल्लेख किया है । १५७ इसी मुद्रा में खड़ी हुई स्थी मूर्तियां मथुरा के कुषाणकालीन वेदिका-स्तम्भों पर बहुतायत से मिलती हैं। उनके लिए स्तम्भशालभंजिका शब्द रूप हो गया। खम्भे पर बनी हुई स्त्री मूर्ति के लिए चाहे वह किसी मुद्रा में हो, यह शब्द गुप्तकाल में चल गया था। ३५८ इसी को रविषेण ने 'स्तम्भसभासक्तामगृहीतशालम्ञिकाम्' पद द्वारा व्यक्त किया है । ३५५
३५५. पद्म० ८०६६३-६७ ।
३५६. प. ७१॥३४ । ३५७. अबलम्ब्य गवाक्षपापर्वमरन्या शयिता चापविभुग्नगात्रयष्टिः । विरराज विलम्बिचारहारा रचिता तोरणशालभंजिकक ।।
-युवचरित ५।५२, (हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ०६१) ३५८. वासुदेवशरण भग्नवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. ६१, ६२ । ३५९. पप०७१।३४ ।
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कला : १८३
प्रासाद-प्रासाद-रचना वास्तुकला (स्थापत्य) का एक महत्वपूर्ण अंग है। प्रासाप शब्द बैसे तो अन-साधारण में राजाओं के महलों के लिए प्रायः प्रयुक्त होता है परन्तु वास्तुशास्त्रीय परिभाषा में प्रासाद का तात्पर्य विसुद्धरूप में देवमन्दिर से है। प्रासाद में राज शब्द जोड़ देने से वह राजमहल का बोधक बन जाता है । अतः संक्षेप में प्रासाद शब्द परम्परा से देवमन्दिरों एवं राजमहलों दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अमरकोश में 'हादि धनिन वासः प्रासादो देवभूभुजाम्' जो उल्लेख है वह उपर्युक्त कथन की पुष्टि करता है। शिल्परल में लिखा है :
'देवादीनां नराणां च येषु रम्यतया चिरम् ।
मनांसि च प्रसीदन्ति प्रासादास्तेन कीर्तिताः ।।' अर्थात् जिन भवन-विशेषों में पाषाण शिलाओं, इष्टिकाओं तथा मुधा एवं वचलेप आदि दृढ़ वस्तु संभारों से स्थायित्व प्रदान करने वाले वस्तुसौन्दर्य की चिर प्रतिष्ठा संस्थापित हो चुकी है और इसी सौन्दर्य के कारण ये भवन देवादिक एवं मनुष्यादि दोनों के मनों को प्रसन्न करते हैं, अन्तःकरण की कलिका खिलाते हैं, अत: ये भवन प्रासाद कहलाते हैं। पद्मचरित में प्रासाद शन्द का प्रयोग प्राय: राजप्रासाद के लिए ही हुआ है। नाभिराय के क्षेत्र के मध्य जी कल्पवृक्ष था वह प्रासाद के रूप में स्थित था और अत्यन्त ऊंचा था 1' उनका वह प्रासाद मोतियों की मालाओं से व्याप्त या, स्वर्ण और रत्नों से उसकी दीवालें बनी थीं, बायों और उद्यान से सुशोभित था और पृथ्वी पर एक अद्वितीय हो पा १२ भीमवन में दशानन का जो प्रासाद था, उसके सात लण्ड ये ।। एक अन्य स्थान पर रावण के प्रासाद की उपमा शक-प्रासाद से दी गई है। इस प्रासाद में अनेक स्तम्भ थे ।१४ राजा जनक ने विद्याधरों के ऐसे प्रासाद देखे थे जिनके शिखर सन्ध्या के बादलों के समान सुशोभित थे, जो गोलाकार स्थित थे तथा राजप्रासाप की सेवा करते हुए के समान जान पड़ते थे।५५ क्षेमामलि नगर में लक्ष्मण ने विमान के समान आभा वाले तथा पत्रमा के समान धवल उत्तमोत्तम भवनों को देखा । इन सब उल्लेखों से प्रासादों के सौम्य, रचना
३६०, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० २२०, २२१ । ३६१. पप. ३३८९ ।
३६२. पय ३।९० । २६३. वही, ८।२९, ३० ।
३५४. वही, ५३१२६४ । ३६५. वही, २८५८४ ।
३६६. वहीं, २८।८० ।
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१८४ : पप्रचरित और उसमें प्रशिविर संस्कृति
काल मादि का ज्ञान होता है। एक उल्लेख के अनुसार प्रासादों में रोने (गवाम) लगाये जाते थे । ३६७
हयं हयं को सात मंजिल वाला भवन कहा है । हर्ग की छत बहुत ऊँची होती थी | महाकवि कालिदास ने अपने मेघदूत काव्य में हम्यं का निर्देश किया है । हH ऊँची अट्टालिका वाले ऐसे भवन थे, जिनमें कपोत भी निवास करते थे। अमर कोष में ( 'हर्यादि घनिनां वासः' अमरकोप २।२।९) घनिकों के भवन को हर्य कहा है।३७.
मन्दिर-मन्दिर शब्द के दो अर्थ है : भवन तथा नगर । रामराङ्गण सूत्रधार (१८ वा अध्याय) में नगर-पर्यायों में मन्दिर शम्द का प्रथम उल्लेख किया गया है । अमरकोश तथा अन्य कोशों में मन्दिर शन्द भवन-वाचक है। प्राचीन भारत के इतिहास पर दष्टि डालेंगे तो पता चलेगा कि बहुत प्राचीन नगर मन्दिर स्थानों के विकास मात्र हैं। संसार के अन्य प्राचीन नगरों की यही कया है । ३६ प्राचीनकाल में किसी देवायतन के पूत पावन भूभाग के निकट थोड़े से जिज्ञासु एवं साधक सज्जनों ने सर्वप्रथम अपने आवासों का निर्माण किया । घोरे-धीरे वह स्थान अपने निजी आकर्षण से एक विशाल तीर्थस्थान या नगर में परिणत हो गया। इसके अतिरिक्त मन्दिर पदि सुचारु रूप से संचालित है तो उसके निकट किसी सुरम्प जलाशय, पुष्करिणी अथवा सरिता का होना आवश्यक है। अतः जीवन की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं में जलपूर्ति की साधन सम्पन्नता के कारण मन्दिर के सुन्दर, स्वास्थ्यप्रद एवं पावन वातावरण के कारण यहां आवास स्थापन सहज हो जाता है । ८५ पप्रचरित में राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसे शत्रों ने काममन्दिर तथा विज्ञान के ग्रहण करने में तत्पर मनुष्यों ने विश्वकर्मा का मन्दिर ( विश्वकर्मण; मन्दिरम् ) समन्ना था ।१७° पद्मचरित के इस उल्लेख से उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि होती है।
सभा--अर्थववेद, तैत्तिरीय संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद् आदि में सभाओं के निर्देश आये हैं। अति प्राचीन बैदिक युगीन सभाभवनों के विन्यास में दो ही प्रधान उपकरण थे-स्तम्भ तथा वेदिया। सभा एक प्रकार का द्वार, भित्ति आदि से विरहित स्तम्भ-प्रघान निवेश था। प्राचीन सभाभवन
३६७. पद्म० १९।१२२ । ३६७, नेभिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ. ३०३ । ३६८. भारतीय स्थापत्य, पृ. ५३ । ३६९. वही, पृ० ५४ ।
३७०. पपा २३९, २४१ ।
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कला : १८५
की यह रूपरेखा सदा वर्तमान रही। बाद में द्वारों और भित्तियों को प्रकल्पना से इन भवनों को अन्य भवनों के सादृश्य में लाने की परम्परा पल्लवित हई। सम्भवतः यह प्रभाव राजनैतिक था । सभा राजनैतिक निवेश का एक प्रधान अंग थी जिसको आजकल की भाषा में दरबार के माम से पुकारते है ।१७१ पारित में इस प्रकार के दरबार (राजसभा२७२) का वर्णन किया गया है। ३८वें पर्व में कहा गया है कि समाञ्जलि नगर में लक्ष्मण ऊंचे-ऊंचे देव मन्दिर, कुंओं, वापिकाओं, सभाओं, पानीयशालाओं और अनेक प्रकार के मनुष्यों को देखते हए प्रविष्ट हए 1१७३ राजसमा के अतिरिक्त अन्य लोगों की समायें होती थीं। अष्टालिक पर्व के अवसर पर लंका में मनुष्यों ने एक से एक बढ़कर सभायें बनाई थीं । ३७४ राजसभा के चारों ओर बहुत बड़ा खुला मैदान होता था जहां पर बहुत से लोग आकर बैठते थे। यह मैदान राजमहल की दीवारों से घिरा रहता था। राजमहल के सघन गवाक्षों (खिड़कियों) से स्त्रियाँ झांककर सभा में होने वाले कार्यकलापों को देखा करती थीं ।२५ सघन गवाक्षों से एक प्रकार का धुंधला चित्र ही दिखाई देता होगा अतः भागे मैदान की और छपरियाँ (नियूह) बनाई जाती भी, ना से सासद विज्ञापन। से हो नियूँह पर भाकर जितपया लक्ष्मण पर मोहित हो उसे शक्ति झेलने से इशारे से मना करने लगी थी ।३७६
महाभारत में सभाओं के बहुत सुन्दर वर्णन मिलते हैं। महाभारत का एक पर्व ही सभापर्व के नाम से विख्यात है, जिसमें इन्द्रसभा, वरुणसभा, कुबेरसभा तथा ब्रह्मसभा के वर्णन हैं। उन सभाभवनों में प्राचीन वैदिक सभा की रचनाप्रससि ही देखने को मिलती है। गणराज्यों में सभाभवनों की एक नवीन परम्परा विकसित हुई। तत्कालीन समाभवनों में न केवल राजनीतिक चर्चा अथवा व्यवहार-निर्णय ही सम्पन्न होते थे वरन् वाणिज्य-बार्ताओं के लिए भी वे स्थानविशेष उपयुक्त समझे जाते थे। सभाभवन के विकास का तीसरा सोपान वह था अब सभाभवनों में मनोरंजन, इत, आमोद, वादविवाद तथा विभिन्न प्रतियोगितायें पल्लवित हुई ।३७७ पमचरित में इस तीसरे सोपान की परम्परा में एक नृत्य-सभा का वर्णन मिलता है जहाँ इस प्रकार को नर्तकियों ने
३७१. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : मारतीय स्थापत्य, पृ० १९३ । ३७२. प. ३८५८९ ।
३७३. प. ३८६३-६४ । ३७४, वही, ६८।११।। ३७५, वही, ३८।९६ । ३७६. वहीं, ३८९७ । ३७७, द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १९३ ।
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१८६ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
नृत्य किया कि वे मतक्रिया जिस स्थान में ठहरती श्री, सारी सभा उसी स्थान में अपने नेत्र लगा देती थी। सारी सभा के नेत्र उसके रूप से, कान मधुर स्वर से और मन रूप तथा स्वर दोनों से मजबूत बंध गये थे । सामन्त लोग नर्तकियों को पुरस्कार देते-देसे अलङ्काररहित हो गये थे, उनके शरीर पर केवल पहिनने के वस्त्र ही बाकी रह गये थे ।२७८ सभा का दूसरा नाम सद्स भी मिलता है । सभा रमणीक उद्यान में भी बनाई जाती थीं। ४६३ पर्व में प्रमदवन में अनेक खण्डों से युक्त सभागृह विद्यमान होने का कथन रविषेश ने किया है । ९८०
दीधिका-राजा भरत के क्रीडास्थल (क्रीडनक स्थान) में सुन्दर-सुन्दर दौधिकाओं के होने का कषन ८३वें पर्व में किया गया है । ३८५ दीपिका एक लम्बी नहर होती थी जो राजमहलों के भागों में प्रवाहित होती हुई गृहोद्यान सक जाती थी। दीपिका के बीच में गन्धोदक से पूर्ण क्रीड़ावापियाँ बनाकर कमल, हंस आदि के विहारस्थल बनाये जाते थे । १८२ पनवरित में इस प्रकार की अनेक दीपिकाओं का वर्णन है जो उत्तमोत्तम बगीचों के मध्य में स्थित, अनेक प्रकार के फूलों से सुशोभित, उत्तम सीड़ियों से युक्त एवं क्रीड़ा के योग्य थीं ।३८३
ही बार छठी-पनी 'राटदी के मादों की माला की विशेषता थी । लम्बी होने के कारण इसका नाम दीपिका पड़ा ।३४४
गवाक्ष -रावण के रूप का वर्णन करते हए पचनरित में कहा गया है कि जब वह नगर में गमन करता हुआ आगे जाता था तब उसे देखने के लिए स्त्रियाँ अत्यन्त उस्कण्ठित हो समस्त कार्यों को छोड़कर झरोखों में आ जाती थी। गवाक्षों में झांकते हुए स्त्रीमख गुप्तकाल की विशेषता थी । कालिदास ने लिखा है कि झांकते हुए पुरस्त्रियों के मुखों से गवाक्ष भरे हुए थे । ३९८
३७८, पप्र० ३७.१०९-१११। ३५९. पद्म० ११०१८ । ३८०. बही, ४६११५२।
३८१. बहो, ८३।४२। ३८२. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०६ 1 ३८३. पम० ३८३३४२ । ३८४. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०६ । ३८५. पद्मा १२१३७ !
३८६ पय० ११।३२८, ३२९ । ३८७. वासुदेवशरण अप्नवाल : हर्षचरित एक मांस्कृतिक अध्ययन,
__ -पृ० ८५, ८६ । २८८. सान्द्रकुतूहलानां पुरसुन्दरीणां मुखैः गवाक्षाः च्याप्तान्तराः ॥
-रघुवंश ७५:११ ।
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कला : १८७ बॉ० कुमारस्वामी ने भारतीय रोशनदान या खिड़कियों (प्राचीन वातायन १८९, पाली - वातानाम) के विकास का अध्ययन करते हुए बताया है कि शुङ्गकाल और कुषाणकाल में बातापान तीन प्रकार के थे-बेदिका वातापान, जाल वातापाम तथा शलाका वातापान, किन्तु गुप्तकाल की वास्तुकला में सोरणों के मध्य में बने हुए वातायन गोल हो गये हैं। सभी उनका गबाज (बैल गोल) यह अन्वर्थ नाम पड़ा । ३९० विषेण ने निमित स्तावपिहिता बनिताननैः पद्म० २८/१६ ) इनकी सघनता की ओर संकेत किया है । जाल के समान होने के कारण इन्हें जालक भी कहते थे । १९५ इस प्रकार के जो जालक मणियों से युक्त या मणिनिर्मित होते थे, उन्हें 'मणिजालक' कहा जाता था |३९२
की आँख को तरह am मिला
"
क्रीडनक स्थान ११ – ( क्रीडास्थल) पद्मचरित में भरत के ऐसे क्रीडनक स्थान या क्रीडास्थल का वर्णन किया गया है जो निष्यूँ है ( छपरी ) वलभी (अट्टालिका, वङ्ग (शिखर) प्रवण ( देहली) की मनोहर कांति से युक्त पंक्तिबद्ध रचित बड़े-बड़े प्रासादों (महलों) से सुशोभित था, जहाँ के फर्श (कुट्टिम) माना प्रकार के रङ्ग र मणियों से बने हुए थे, जहाँ सुम्दर सुन्दर दीर्घिकायें थीं, जो मोतियों को मालाओं से व्याप्त था, स्वर्णजटित था, जहाँ वृक्ष फूलों से युक्त थे, जो अनेक आश्चर्यकारी पदार्थों से व्याप्त था, समयानुकूल मन को हरण करने वाला था, बाँसुरी (वंश) और मृदङ्ग (सुरज) के खजने का स्थान था, सुम्बरी स्त्रियों से युक्त था, जिसके समीप ही कपोलों से युक्त हाथी विद्यमान थे, जो मद की सुगन्ध से सुवासित था, घोड़ों को हिनहिनाहट से मनोहर था, जहाँ कोमल संगीत हो रहा था, जो नाना रत्नों के प्रकाशरूपी पट से आवृत या तथा देवों के लिए भी रुचिकर था। इस वर्णन को देखकर ऐसा लगता है मानो क्रीडनक स्थान के बहाने रविषेण सुन्दर राजप्रासाद का ही वर्णन कर रहे हों। सुन्दर राजप्रासाद निक्यूँ है, बलभी, शृङ्ग और प्रघण से युक्त होता है । उसमें अच्छा फर्श होता है । स्नान आदि के लिए सुवासित जल से परिपूर्ण दोषिकायें होना तो उस काल के राजप्रासाद की विशेषता ही मानी जाती थी । प्रासाद के अन्त:पुर में सुन्दर स्त्रियों का निवास होता ही था। मुख्य भवन के साथ-साथ उससे
३८९. १० १९। १२२ ।
३९० हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन |
३९१. पद्म० १९ । १२२ ।
३९३. वही, ८३४१-४५ ।
३९२. पद्म० १९११२२ ।
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१८८ : पचरिस और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सटे हुए मन्म भवन भी होते थे जहां अश्वशाला, गजवाला आदि का निर्माण किया जाता था। विनोद के नृत्य, गीन, वादिन भी राजप्रासादों में हुआ करते
प्रपा३१४-(पानीयशाला या प्या) प्राचीनकाल में स्थान-स्थान पर लोगों को पानी पीने के लिए प्याऊ (प्रपाः) बनाई जाती थीं । निजी उद्देश्य की पूर्ति के साथ-साथ इनसे जनकल्याण भी होता था । थे प्याक नगरों११५ उद्यानों३१॥ तथा मन्दिरों के साथ-साथ पों) (मागों) में भी बनाई जाती पी। मार्ग में बनाई गई प्रपाओं के ऊपर वृक्षों की छाया होती यो । इनके पानी को रविषेण ने सब प्रकार के रसों से युक्त (सर्वरसान्विताः) कहा है 1३१८
कूटगृह-भवन-निर्माण के प्रकारों में एक कूटरचना भी है। पद्मचरित में मिनफूट३१९ भानुकूट४०° तथा प्रासादकूट १ का उल्लेख मिलता है। राम, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न का अत्यन्त ऊंचा सब दिशाओं का अवलोकन कराने वाला प्रासादफुट था। ११२ पर्व में पादुकधन के जैन-भवन जन्मदिर) का रणन करते हुए इसकी उपमा भानुकूट से दी गई है तथा मन्दिर को उसमोसम प्राकार, तोरण, ऊँचे-केचे गोपुर, नाना रंग की पताकाओं, स्वर्णमय स्तम्भों एवं गम्भीर तथा सुन्दर छज्जे से युक्त बतलाया है। हा० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल ने हेमकूट को पंधशाल-भवन (द्विशाल + विशाल के संयोजन से) का एक प्रकार माना है । इस माधार पर उपर्युक्त कूटों को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है ।
समवसरण-तीर्थकर भगवान की यह सभा, जिसमें विराजमान होकर वे धर्मोपदेश देते है, समवसरण कहलाती है। समवसरण में तीन कोट बनाए जाते है।४०३ कोटों की चारों दिशाओं में चार गोपुर होते है जो बहुत ही ऊचे होते है। इन गोपुरों में चार बापियाँ होती हैं । ०४ गोपुर अष्टमंगलव्य से युक्त होते हैं तथा इनको शोभा अद्भुत होती है। १०१ समवसरण में स्फटिक की
३९४. प१० ३८५६३ ।
३९५. पद्म० ३८।६३ । ३९६, वही, ४६।१५२ ।
३९७. वहीं, ६८०११ ३९८. रेणुकण्टकनिर्मुक्ता रथ्यामार्गाः सुखावहाः ।
महात्तस्कृतच्छावाः प्रपाः सर्वरसान्विताः ।। पद्म० ३।३२५ । ३९९. पन. ११२।३२ ।
४००, पद्म ११२४४ । ४०१. वहीं, ८३।६।
४०२. वही, ८३।६। ४०३. वहीं, २।१३५1
४०४. वही, २११३६ । ४०५. वही, २।१३७ ।
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कला : १८९
यह समस्व
यह कल्पवृक्ष के
दीवालों से बारह कोठे बने होते हैं जो प्रदक्षिणा रूप से स्थित होते हैं । ४० बीच में अशोक वृक्ष के नीचे सिहासन पर तीर्थंकर विराजमान होते हैं, यह अशोक वृक्ष पार्थिव होता है। इसकी शाखायें बैडूर्म मणि की होती है, यह कोमल पल्लवों में शोभायमान होता है। फूलों के गुच्छों की काम्सि से दिशाओं को व्याप्त करता हुआ अत्यधिक सुशोभित होता है। समान रमणीय होता है, इसके पत्ते हरे तथा सघन होते हैं और यह नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित पर्वत के समान जान पड़ता है। तीर्थंकर का सिंहासन नाना रत्नों के प्रकाश से इन्द्रधनुष को उत्पन्न करता है, दिव्य वस्त्र से आच्छा दित होता है, कोमल स्पर्श से मनोहर होता है, तीनों लोकों की प्रभुतास्वरूप तीन छत्रों से सुशोभित होता है, देवों द्वारा बरसाए फूलों से व्याप्त रहता है । भूमण्डल पर वर्तमान रहता है तथा यक्षराज के हाथों में स्थित चमरों से सुशोभित होता है । दुन्दुभि माजों की शान्तिपूर्ण प्रतिध्वनि वहाँ निकलती है ।' सूर्य के प्रकाश को तिरस्कृत करने वाले प्रभामण्डल के मध्य में तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते हैं तथा गणधर के द्वारा प्रश्न किये जाने पर धर्मोपदेश देते ६ ।
४०
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जिनेन्द्रालय ४.०९.
यह ॐ के शिखरों से युक्त मन्दिर (बेवालय ) होता था । प्रवेश करते समय इसमें सबसे पहले बाह्य कक्ष मिलता था । ४१० अधिक भीड़ एकत्रित होने पर सम्भवतः लोग यहाँ रुक जाते होंगे। विशेष महोत्सव बावि के अवसर पर भी लोग यहाँ एकत्रित हो जाते होंगे। यह अनेक स्तम्भों से युक्त होता था । ४११ रावण का शान्तिनाथ जिनालय स्फटिक से निर्मित होने के कारण इसमें स्फटिक के खम्भे लगे थे । ४१२ वहां की उत्तमोत्तम वस्तुओं के कारण लोग, 'यह आश्चर्य देखो, यह आश्वर्य देखो' इस प्रकार कहकर परस्पर एक दूसरे को उत्तम वस्तुयें दिखलाते थे । ४१* बाह्य कक्ष के बाद मद्यमण्डप) ४१४ मिलता था । इसे मन्दिर का गर्भगृह कहा जा सकता है । इसकी दीवालों पर जिनेन्द्र भगवान् के मूक चित्र बनाए जाते थे। यहीं सामने जिनेन्द्र प्रतिमायें भी विराजमान होती थीं । जिनेन्द्रालय की ये विशेषतायें ७१वें पर्व में किए गए शान्ति - जिनालय के वर्णन से प्राप्त होती हैं । अन्यत्र वर्णन के आधार पर ज्ञात होता है कि महा
४०६. पद्म० २।१३८ । ४०८. वही, २११५३-१५४ ।
४१०. वही, ७१ । ४७ ।
४१२. वही, ७११४३ | ४१४, वही, ७१।४८
४०७ पद्म० २।१४७-१५२ । ४०९. वही, ९५।३७ ।
४११. नही, ७११४३
४१३. वही, ७१ ४४
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१९० ; परित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पर्वत (सुमेरु पर्वत), की गुफाओं के समान जिनालयों के विशेष द्वार बनाए जाते थे। वारों पर हार आदि से अलंकृत पूर्ण कलश स्थापित किये जाते थे । ४१५ मन्दिों की स्वर्णमयी लम्दी दौड़ी दीनालों पर मणिमय चित्रों से चित्त को आकर्षित करने वाले चित्रपट फैलाये जाते थे ।४११ स्वर्णमयी दीबालों और मणियों के अभाव में भी उस समय चित्रपट मन्दिर की दीवालों पर फैलाने की परम्परा रही होगी। स्तम्भों के ऊपर अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध मणियों के दर्पण (अथवा सुन्दर दर्पण) लगाए जाते थे और गवाशों (झरोखों) के अनमाग पर स्वच्छ निझर (झरन) के समान अत्यन्त मनोहर हार लटकाये जाते थे। १७ मनुष्यों के जहाँ चरण पड़ते थे, ऐसी भूमियों पर पांच वर्ण के रत्नमय चूर्णों से नाना प्रकार के बेल यूटे खींचे जाते थे।४१८ जिनमें सौ अथवा हजार कलिकायें होती श्री तथा जो लम्बो मण्डी से युक्त होते थे, ऐसे कमल उन मन्दिरों को देहलियों पर रखे जाते थे । ४१९ हाथ से पाने योग्य स्थानों में मत्त स्त्री के समान शब्द करने वाली उज्ज्वल छोटी-छोटी घंटियां लगाई जाती थीं 1४२० दक्षलक्षण पर्व या अन्य समारोहों पर अथवा कहीं-कहीं सदैव इस प्रकार की हांडिया लटका कर शोभा करने की परम्परा अब भी है। सुगन्धि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाली, उत्तम कारीगरों से निर्मित नाना प्रकार की मालायें फैलाई जाती थीं । सुन्दर वस्त्रों से द्वार की शोभा की जाती थी तथा कहीं विभिन्न प्रकार की पातुओं के रस से दीवालों को अलंकृत किया जाता था । १२१ ऊपर जिन माकर्षक चित्रपटों के फैलाए जाने का उल्लेख है, उनमें अधिकतर जिनेन्द्र भगवान् के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले चित्रपट ही फलाए जाते थे । २२ जिनेन्द्रालय के जो वर्णन उपलबन्न होते है, उनसे मात होता है कि इस प्रकार के अधिकांश आलय मन्दिरों का निर्माण आवासगृहों, महलों आदि में होता था। एक ही शान्ति-जिनालय के लिए शान्तिभवन,४२३ शान्ति-गेह,४२४ बान्त्यालय,४२५ शान्ति-हम्मे, २६ शान्तिनाथ-भवन,४२७ (शान्तिनाथ) सदम, १४ शान्तः परमालयम्४२२ शब्दों का प्रयोग यह सूचित करता है कि भवन, गेह, आलय, हम्मे ४१५. पप० ९५।३८1
४१६. पर. ९५१३९ । ४१७. वही, ९५/४० !
४१८, वही, ९५।४१ । ४१९. वही, ९५।४२ 1
४२०. वही, ९५।४३ 1 ४२१. वही, २९।५ ।
४२२, वहो, ५६२१ । ४२३. वही, ७१।३३ ।
४२४. वही, ७१।३५ । ४२५. वही, ७१॥३९ ।
४२६. वहीं, ७१।४१ । ४२७. वही, ७१५४२ ।
४२८, बही, ७१।४४ । ४२९. वही, ७१६४९ ।
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कला : १९१
तथा सत्र की रचनाओं में सामान्यतः कोई भेद नहीं माना आता था। प्राचीन काल में निश्चय ही ये या इनमें से अधिकांश शम्द अलग-अलग प्रकार के अपनों के वाचक थे, किन्तु रविषेण के काल तक आते-आते ये शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे, ऐसा उपर्युक्त प्रयोगों से सिद्ध होता है । जिनमेश्म शम्द भी जिनेन्द्रालय का वाचक हो गया था, क्योंकि २८ पर्व में जिनवेश्म का जो वर्णन आया है तदनुसार उसमें (रत्नमय) वातायन थे, (स्वर्णमय) हजारों स्तम्भ थे तथा मेरु के शिखर के समान प्रभा थी। महापीठ (भूमिका) बञ-निपञ्च के समान थी। ३१ में सभी विशेषतायें उपरि लिखित आलय में समाहित हो जाती हैं । आगे इसको उपमा रविषेण ने इन्द्र के क्रीड़ागृह तथा नौम्दालय ३२ से दी है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि मालय, गृह तथा वैश्म तोतों में कोई भेद नहीं माना जाता था 1 जिनालयों की शोभा के लिए उस समय उद्यान भी बनाये जाते थे।१४
चैत्य३५-ऊपर जिनालय के जिस रूप का वर्णन किया गया है उसी के बृहद् रूप चैत्य आवासगृहों के माम न होकर स्वतन्त्र रूप से बनाए जाते होंगे । इन चैत्यों में सुदृढ़ स्तम्भ लगाए जाते थे । कहीं-कहीं ये स्तम्भ रत्न और स्वर्ण के बने होते थे ।४३५ चैत्य योग्य चोड़ाई तथा ऊंचाई से युक्त होते थे। पे झरोखें, महल (हर्म्य) परभी (छपरी) आदि की रचना से सुपोमित होते थे।४३ इनमें अनेक शालायें निर्मित होती थो। इनके बड़े-बड़े द्वार तोरणयुक्त होते थे। इनके चारों भोर परिखा खोदी जाती थीं। सफेद और सुन्दर पता. काओं में ये युक्त होते थे। इनके अन्दर बड़े-बड़े घंटा लगाए जाते थे । इनमें सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमायें सुशोभित होती थी।४३५ ये मन्दिर परम विभूति से युक्त रहते थे ।४४० इनमें झरोखें बने रहते थे । झरोखों में मोतियों की मालायें लटका दी आती थीं ।४४५ ऊँचे-ऊंचे तोरणों तथा बजाओं में छोटी-छोटी घण्टियों से युक्त मोतियों की मालायें, चित्र-विचित्र घमर, मणिमय फानूस, दर्पण तथा वेगेले (बुद्बुदावत्यः) लगाये
- - ४३. पम० २८॥१०॥
४३१. पद्म० २८1८८ । ४३२. वही, २८१९१।
४३३. वही, २८१९२ । ४३४. वही, ६७२१ ।
४३५. वही, ३३.३३३ । ४३६, वही, ७३३८।
४३७, वही, ४०१२८ । ४३८, बही, ४०।२९ ।
४३९. वही, ४०1३२ । ४४०, वही, ६७।१८।
४४१. वही, ३२३३८ ।
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१९२ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जाते थे । ४४२ द्वारों पर वस्त्र तथा कदली आदि से शोभा की जाती थी । ४१ कणिकार, मति मुक्तक, कदम्ब, सहकार, चम्पक, पारिजात तथा मदार आदि के फूलों से निर्मित मालाओं से मन्दिर सजाया जाता था । ४४४ रत्नमयी ४५ मालाओं के लगाये जाने का भी उल्लेख मिलता है। चैत्यों में अनेक प्रकार के मणियों के खेल-बटे लगाये जाते थे। ४४१ चैत्यभमि में विस्तत वेदिकायें बनी होती थी। ये वेदिकाय वयं मणिनिर्मित दोवालों तथा हाथी. सिंह आदि के चित्रों से अलंकृत रहती थी। मृदङ्ग, बांसुरी, सुरज, मांझ, नगाड़े तथा शंखों के शब्दों से चैत्यों का वातावरण संगीतमय बनाया जाता पा ।४४७ चंत्य को चैत्यालय भी कहते थे ।४८ कृत्रिम चैत्य के अतिरिक्त भात्रिम ४५ चैत्यों का भी उल्लेख मिलता है।
विमान-भिमान-रचना की दृष्टि से पद्मचरित में पुष्पक विमान का सर्चश्रेष्ठ वर्णन उपलब्ध होता है। अष्टम पर्व के वर्णन के अनुसार पुष्पक विमान अत्यन्त सुन्दर था, शिखर युक्त पा, शिखर में विभिन्न प्रकार के रत्न जड़े थे । वातायन (मरोखे) उसके नेत्र थे। उसमें मोतियों की झालर लगी हुई थी. झालर से निर्मल कान्ति का समूह निकलता था। उसका अगला भाग पामरागमणियों से बना था। कहीं-कहीं इन्द्रनीलमणियों को प्रमा उसपर आवरण कर रही थी। चैत्यालय, बन, मकानों के अग्रभाग, नायिका तथा महल आदि गे युक्त होने के कारण वह किसी नगर के समान ऊँचा जान पड़ता था। यह बहुत ही ऊँचा था तथा देवभवन के समान जान पड़ता पा । ५०
४४२. पद्म० ४०१२-१३ ।
४४३, पप० ६८०१३ । ४४४, वही, ६८०१६-१७ ।
४४५. वही, २३।१५। ४४६. वही, २३।१३ ।
४४७. वही, ४०।३०-३१ । ४४८. वहीं, ३।४५ ।
४४९. वही, ९८१५६ । ४५०. अथ प्रवतित तस्य मनोज बानदाधिपम् ।
प्रत्युप्तरत्नशिखरं वातायनविमोचनम् ।। प० ८।२५३ । मुक्ताजालामुक्तेन समूहेमामलस्विषाम् । समुत्सृजपिवाजसमनु स्वामिवियोगतः ।। पद्मा ८।२५४ । पद्मरागविनिर्माणमग्रदेश पण्ड्रना । ताडनादिव संप्राप्तं हृदयं रमतता पराम् ।। पद्म० ८५२५५ । इन्द्रनीलप्रभाजालकूतप्रावरणं क्वचित् । शोकादिव परिप्राप्त श्यामलत्वमदारतः ।। पन० ८।२५६ ।
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कला : १९३
नरयान५१-(शिविका ४५२, पालको) नरवान का जो वर्णन पप्रचरित में उपलब्ध होता है उसके मूलद्रव्य (काष्ठ) तथा परिमाण आदि पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, केवल उसके भालंकारिक स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। तदनुसार नरयान के ऊपर पताका फहराई जाती थीं । ७५३ इनको रत्न और स्वर्ण से देदीप्यमान किया जाता था। छोटे-छोटे गोले, दर्पण, फानूस तथा नाना प्रकार के चमरों से उन्हें सुन्दर बनाया जाता था। साथ ही साथ दिव्य कमल (सुन्दर कमल) तथा नाना प्रकार के बेलबूटों से उन्हें सुसज्जित किया जाता था तथा मालाओं से इनकी शोभा बढ़ाई जाती थी ।४५४ वैराग्य होने पर भगवान ऋषभदेव जिस शिविका पर आरूढ़ होकर धन को गये थे वह शिविका रत्नों की कालिने निकायों को करत रही। जग ओर चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान चंबर डुलाये जा रहे थे । पूर्ण चन्द्रमा के समान उस पर दर्पण लगा हुआ था । वह बुबुद् के आकार के मणिमय गोलकों सहित पो । उसकी आकृति अर्द्धचन्द्राकार थी। पताकामों के वस्त्रों से उसकी शोभा बढ़ रही थी। वह दिव्य मालाओं से सुगन्धित थी, मोतियों के हार से विराजमान थी, देखने में सुन्दर थी, विमाम के समान जान पड़ती थी तथा छोटी-छोटी घण्टियां उसमें रुनझुन शब्द करती थीं । ४५५ ।
सिंहासन५६-इसको सिंहविष्टर४५७ भी कहते थे । मानसार के अनुसार सिंहासन ययानाम उस आसन को कहेंगे जिसमें सिंह की प्रतिमा बनी हो । ऋषभदेव की माता ने स्वप्न में ऐसा ही सिंहासन देखा था जो बड़े-बड़े सिंहों से युक्त, अनेक प्रकार के रत्नों से उज्ज्वल, स्वर्णनिर्मित तथा बहुत ऊंचा था। ४५८ सिंहासन सबके बैठने की वस्तु नहीं है, यह केवल राजाओं के लिए ही उचित है । सिंहासनों का विशेषकर राजाओं के अभिषेक के समय प्रयोग किया जाता
पत्यकाननदाद्यालोवाप्यन्तर्भयनादिभिः । सहित नगराकारं नानाशस्त्रकृतक्षतम् ।। पप ८।२५७ । भूत्यैरुवाहृतं तुझसुरप्रासादसग्निभम् ।
विमान पुष्पकं नाम विहायस्तलमण्डनम् ।। पप० ८।२५८ । ४५१. पा० ११३।१९।
४५२. पप्र० ३।२७८ । ४५३. वही, ११३।२१ ।
४५४. वही, ११३।२०-२१ । ४५५. वही, ३१२७५.२७८ । ४५६. वही, २।१११, २०४१। ४५७. वही, ३११७७ ।
४५८, वही, ३।१३५ ।
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१९४ : पचरित लौर उसमें प्रतिपादिन संस्कृति था। अतएव राजोचित सिंहासम के कई उपवर्ग:५९ वर्णित है । जैसे-मंगल, वीर तथा विजय आदि ।
शय्या -शम्पा के लिए दूसरा पान्द शयन' (पा पायनीय) भी आपा है। राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के अम्भोजकांड नामक पाश्यागृह में स्थित शच्या सुकोमल स्पर्श से युक्त तथा सिंह के समान पायों पर स्थित थी। १२ रानी केकशी की शय्या विशाल, सुन्दर तथा क्षौरसमुद्र के समान थी । उसपर रत्नों के दीपकों का प्रकाश फैल रहा था, रेशमी वस्त्र बिछे हुए थे, यषेष्ट गहा (गल्लक) मिला हुआ था तथा रंग-बिरंगी तकिया (उपधानक) रखी हुई थीं । उसके समीप हाथो दाँत को बनो चौकी रखी यो ।४१३
यद्यपि पद्मचरित में स्थापत्य को अनेक श्रेष्ठ कलाकृतियों के वर्णन मिलते है, तथापि समक्ष कविकल्पना में लिपट होने के कारण उनसे यह पता नहीं चलता कि इन भवनों में कैसी निर्माणसामग्री प्रयुक्त होतो थी। कवि सर्वत्र मणि जटित वातायनों, शिखरों, स्फटिक के फर्शों तथा स्वर्ण-रजत की दीवारों की प्रशंसा में बह गया है। वस्तुतः सोने-चांदी का इतना प्रसर उपयोग तब किया जाता था या नहीं, मह भाज निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर पुरातत्त्वविषयक खुदाई से प्रमाणित होता है कि स्वर्णकार और मणिकार की कलाओं में प्राचीन भारतीयों ने बहुत उन्नति कर ली थी ।
विविध कलायें उक्तिकौशल कला-उक्तिचित्र्य वादविजय और मनोबिनोद की कला है। भामह ने बताया है कि वनोक्ति ही समस्त अलंकारों का मूल है और वक्रोक्ति न हो तो काश्य हो ही नहीं सकता। भामह की पुस्तक पढ़ने से यही धारणा होती है कि कोक्ति का अर्थ उन्होंने कहने के विशेष प्रकार के ढंग को ही समझा था। वे स्पष्ट रूप से हो कह गये है कि 'सूर्य अस्त हुआ, चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा है, पक्षी अपने घोंसलों में जा रहे हैं' इत्यादि वाक्य काव्य नहीं हो सकते, क्योंकि इन कथनों में कहीं वन या भङ्गिमा नहीं है । पद्मचरित में केकया को उक्तिवैचित्र्य की कला में निपुण बतलाया है।
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-
४५१. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ. २०३ । ४६०. पच० ८३।१०।
४६१. पा. ७१७३, २२४ । ४६२. वही, ६३।१०।
४६३. वही, ७१७१-१७३३ ४६४. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, १० १२० । ४६५. पान० २४॥३५
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कला : १९५
उक्ति कौशल के भेद --- उक्ति कौशल के अनेक भेद होते हैं। विशेष रूप से स्थान, स्वर, संस्कार, विभ्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, समानार्थस्व और भाषा की अपेक्षा उक्तिकोशल के भेद किये गये हैं ।
४
स्थान – उरस्थल, कण्ठ और मूर्द्धा के भेद से स्थान सीन प्रकार का होता
है।
स्वर -- पज, ऋषभ, गांधार, गाथा, पन्चम क्षेत्र और निषार थे हाथ स्वर होते हैं ।
४३८
संस्कार -- लक्षण और उद्देश अथवा लक्षणा और अमिषा की अपेक्षा संस्कार दो प्रकार का होता है । ४३९
विन्यास - पद, वाक्य, महावाक्य आदि के विभागसहित जो कथन है वह विन्यास कहलाता है । ४०
काकु - सापेक्षा तथा निरपेक्षा के भेद से काकु दो प्रकार की होती है । ४७१ समुदाय --गद्य, पद्य और मिश्र (चम्पू) के भेद से समुदाय तीन प्रकार का होता है ।
४७२
विराम - किसी विषय का संक्षेप से उल्लेख करना विराम कहलाता है | ४७३
सामान्याभिहित — एकार्थक अथवा पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना सामान्याभिहित कहलाता है ।
४७४
समानार्थता - एक शब्द के द्वारा बहुत अर्थ का प्रतिपादन करना समा माता है । ४७५
भाषा - आर्य, लक्षण और म्लेच्छ के भेद से भाषा तीन प्रकार की होती
2009
है ।"
लेख
-रूप जो व्यवहार होता है उसे लेख कहते हैं । १७७
४६६. पथ० २४। २७-२८ । ४६८. वही, २४८, २४/२९ ।
४७०. वही, २४१३० । ४७२. यही,
२४/३१
४७४. वही, १४।३२ |
४७६. वही, २४१३३ ।
४६७. पद्म २४१२९ । ४६९. वहीं, २४।३० १
४७१, वही, २४/३१
४७३. वही, २४:३२ ।
४७५. वही, २४१३५ । ४७७. वही, २४ ३४ |
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१९६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जाति-लेखसहित उपर्युक्त भेदों (आर्य, लक्षण और म्लेच्छ) को प्राप्ति
मातृकाएँ–साधारणतः वर्गों को पृथक्-पृथक् अथवा वर्णमाला को समुदित रूप में मातृका कहा जाता है ।४७५ इन मातृकाओं और उपर्युक्त जातियों सहित जो भाषणचातुर्य है उसे उक्तिको शल कहते हैं।४४० ।
पुस्तक मिट्टी, लकड़ी आदि से खिलोना बनाने के कार्य को पुस्तकर्म कहते हैं । क्षय, उपचय और संक्रम के भेय से पुस्तकम तीन प्रकार का होता है ।।८१
क्षयजन्य पुस्तकम-लकड़ी आदि को छोल-छालकर को खिलौने आदि बनाये जाते हैं उसे भयजम्य पुस्तकर्म कहते हैं ।४८२
उपचयजन्य पुस्तकम-ऊपर से मिट्टी आदि लगाकर जो खिलौना आदि बनाये जाते हैं उसे उपचयजन्य पुस्तकर्म कहते है। १८३
संक्रमजन्य पुस्तकर्म-जो प्रतिबिम्ब अर्याल सांधे आदि ढालकर बनाये जाते है उसे संक्रमजन्य पुस्तकर्म कहते हैं ।।६४
पुस्तकर्म के एक अन्य प्रकार से चार भेद ४५ होते हैं-यन्त्र, नियन्त्र, सच्छिद्र तथा निश्छिद्र ।
यन्त्र-2 खिलौने जो यन्त्रचालित होते हैं। नियन्त्र-वे खिलौने जो बिमा यन्त्र के होते हैं। सच्छिद्र-त्रै खिलौन जो छिद्रसहित होते हैं। निश्छिद्र-वे खिलौने जो छिद्ररहित होते है।
पत्रच्छेद-किया पत्तियों को काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियाँ बनाने को पत्रम्छेध कहते हैं। ललितविस्तर में कलाओं की सूची में इसको भी स्थान दिया गया है। पत्रच्छेद-क्रिया पत्र, वस्त्र तथा स्वर्णादि के ऊपर की जाती है। यह स्पिर और चंचल के भेद से दो प्रकार की होती है।४८७
४७८. पण २४॥३४॥
४५९. पद्म: २४॥३४। ४८०. वही, २४।३५ ।
४८१. वही, २४॥३८ 1 ४८२. वही, २४।३८ ।
४८३. वहो, २४३९ । ४८४. वहीं, २४॥३९ ।।
४८५. वहीं, २४॥४०॥ ४८६. कॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद,
पू. १५७] ४८७. प० २४॥४३ ।
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कला : १९७
पत्रच्छेद के भेद-पत्रच्छेद तीन प्रकार ४८ का होता है। १. बुष्किम, २. छिन्न और ३. अविशन्न ।
बुष्किम-सुई अथवा दन्त आदि के द्वारा जो बनाया जाता है उसे बुष्किम कहते हैं । ८९
छिन्न-जो केची आदि से काटकर बनाया जाता है तथा अन्य अवयवों के सम्बन्ध से युक्त होता है उसे लिन्म कहते हैं । ४५०
अच्छिन्न-जो कैचो आदि से काटकर बनाया जाता है तथा अन्य अवयवों के सम्बन्ध से रहित होता है उसे अच्छिन्न कहते है।५१
- मालानिर्माण की कला मालानिर्माण की कला चार ४५२ प्रकार की होती है-आई, शुष्क, तदुम्मुक्त और मिध ।
आर्द्र-गीले (ताजे) पुष्पादि से जो माला बनाई जाती है उसे आई कहते है ।११
शुष्क-सूखे पत्र आदि से जो माला बनाई जाती है उसे शुष्क कहते
तदुन्मुक (तदुज्झित) चावलों के सीय अथवा जवा आदि से जो माला बनाई जाती है उसे तदुमित कहते हैं ।४१५
मित्र-जो माला उपर्युक्त तीनों के मेल से बनाई जाती है उसे मिश्र कहते
यह माल्यकर्म रणप्रबोधन, व्यूहसंयोग आदि भेदों सहित होता है ।
गन्धयोजना सुगन्चित पदार्थ निर्माण रूप कला को गन्धयोजना कहते हैं । ४९४
गन्धयोजना के अंग-योनिद्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म, गुणदोषविज्ञान तथा कौशल ये गन्धयोजना के अंग ९८ है।
४८८. पद्म० २४।४१ । ४९०, वही, २४१४२ । ४९२. वहो, २४॥४४ । ४९४. वही, २४|४५ । ४९६. वहीं, २४६४५ । ४९८. वही, २४|४७ ।
४८९, पद्म २४|४१ । ४९१. वही, २४|४२ । ४९३. वहीं, २४।४४ । ४९५. वही, २४१४५ । ४९७. बही, २४|४६ ।
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१९८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
योनिद्रव्य-जिनसे सुगन्धित पदार्थ का निर्माण होता है ऐसे तगर आदि योनिद्रव्य है ।४९९
अधिष्ठान-जो धूप, बत्ती आदि का आश्रय है उसे अधिष्ठान कहते
है।५००
रस-कषायला, मधुर, परपरा, कडुआ और खट्टा मह पांच प्रकार का रस होता है, जिसका सुगन्धित प्रश्य में विशेषकर निश्चय करना पड़ता
है।५०१
वीर्य-पदापों की जो शीतता अथवा उष्णता है वह दो प्रकार का वीर्य
है ।५०२
कल्पना-अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों का मिलाना कल्पना है । १०३
परिकर्म-सेल आदि पदार्थों का शोधन करमा तथा धोना आदि परिकर्म कहलाता है ।५०४
गुणदोषविज्ञान-गुण अथवा दोष का जानना गूगदोषविज्ञान है ।१०५ कौशल--परकीय तथा स्वकीय वस्तु की विशेषता जानना कौशल है ।
गंधयोजना कला के भेद-गन्धयोजना कला के स्वतन्त्र और अनुगत दो भेद है ।५०७
संवाहन-कका बौद्धग्रन्थ ललितविस्तर में संवाहनकला (शरीर पर मालिश करने की कला) को 'संवाहितम्' कहकर कलाओं को गणना में उसे स्थान दिया है ।५०६ संवाइनकला दो प्रकार की है.--१. कर्मसंश्या, २. शव्योपचारिका।
__ कर्मसंश्रया के भेद स्वचा, मांस, अस्थि और मन इन चार को सुख पहुँचाने के कारण कर्मसंश्रया के चार भेद है ।१०
मृदु अथवा सुकुमार जिस संवाहन से केवल त्वचा को सुख होता है वह मृदु अथवा सुकुमार कहलाता है।११
४९९. पत्र. २४१४८ ।
५००. पप० २४।४८ 1 ५०१. षष्ठी, २४०४१ ।
५०२. वही, २४१५० । ५०३. वही, २४१५० ।
५०४. वही, २४१५१ । ५०५. वही, २४१५१ ।
५०६. दही, २४/५० । ५०५. वहीं, २४.५१ । ५.०८. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, प.० १५६ । ५०९. पा. २४/७३ ।
५१०. पा. २४१७४ । ५११. वहीं, २४१७६ ।
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कला : १९९
मध्यम--जो स्वचा और मांस को सुख पहुँचाता है यह मध्यम कहलाता है । ५१२
उत्कृष्ट (प्रकृष्ट ) - जो त्वचा, मांस और हड्डी को सुख पहुँचाता है वह प्रकृष्ट कहलाता है । ५५६
मनःसुखसंवाह्न - त्वचा, मांस और हड्डी को सुख पहुँचाने के साथ जब कोमल संगीत होता है तब मनःसुखसंवाहन कहलाता है ।११४
इसके सिवा इसके संस्पृष्ट, गृहीत, मुक्तिल, चलित आहत भङ्गित,
"
fia पोडित और भिनपीडित ये भेद भी हैं । ११
+
कर्मसंश्रया संवाहनकला के लिखित ५१३ भेद हैं- १. शरीर के मांस नहीं है वहाँ अधिक दबाना, ६. अमार्गप्रयात, ७. अतिभुग्नक, ८. अदेशात
प्रतीपक ।
भेद — कर्मसंख्या संवाहनकला के निम्नरोमों का उद्वर्तन करना, २ . जिस स्थान में ३. केशाकर्षण, ४. अद्भुत, ५. सृष्टप्राप्त, ९. अत्यर्थ, १०. अवसुप्त
शय्योपचारिका - जो संवाहन क्रिया के अनेक कारण अर्थात् आसनों से की जाती है वह चित्त को सुख देने वाली शय्योपचारिका नाम की क्रिया है । ५५७ शोभास्पद संवाहन – जो संवाहन उपरिलिखित दोषों से रहित होता है । योग्य देश में प्रयुक्त हैं तथा अभिप्राय को जानकर किया जाता है ऐसा सुकुमार संवाहून अत्यन्त शोभास्पद होता है । ५१८
वेशकौशल कला
स्मान करना, शिर के बाल गूंथना तथा उन्हें सुगन्धित आदि करना यह शरीर के संस्कार वेश-कौपाल नाम की कला है । ११९
लेप्प-कला
पद्मचरित में लेप्यकला के पर्याप्त विकास होने के भी प्रमाण मिलते हैं । एक बार प्राणों का संकट उपस्थित होने पर जब राजा दशरथ वेष बदलकर राज्य से अन्यत्र चले गये तब मन्त्री ने उनके शरीर का एक पुतला बनवाया । वह पुतला मूल शरीर से इतना मिलता-जुलता था कि केवल एक चेतना की अपेक्षा ही भिन्न प्रतीत होता था । उसके भीतर लाख आदि का
रस भराकर
५१२. पद्म० २४१७६ । ५१४. वही, २४ । ७.६ । ५१६. वही, २४:७७, ७८ ।
५१८. वही, २४७९
५१३, पद्म० २४७६ ।
५१५. वही, २४ /७४-७५ 1 ५१७. वही, २४।८० ।
५१९. वही, २४८२ ।
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२४४ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सिर नीरा कोई भी स्थः कुन प्राणी के शरीर में जैसी कोमलता होती है वैसी ही कोमलता उस पुतले में रची गई थी। राजा वह पुतला पहले के समान ही समस्त परिकर के साथ महल के सातवें खण्ड में उत्तम आसन पर विराजमान किया गया था। वह मन्त्री तथा पुतला को बनाने वाला लेष्यकार ये दोनों ही राजा को कृत्रिम राजा समझते थे और बाकी सब लोग उसे यथार्थ रूप में राजा समानते थे। यही नहीं, उन दोनों को भी देखते हुए जब कभी भ्रान्ति उत्पन्न हो जाती थी।५२०
५२०, गते राजन्यमात्येन लेयं दाशरथं वपुः ।
कारितं मुख्यवपुषी भिन्न चेतनयंकया ।। पदम० २३६४१ । लाक्षादिरसयोगेन रुधिरं तत्र निर्मितम् । मार्दवं च कृतं तादृम्यादषसत्यासुधारिणा ।। पद्म० २३।४२ । वरासननिविष्टं तं वेश्मनः सप्तमे तले । युक्तं पुरैव सर्वेण परिवगेंण बिम्बकम् ।। पद्म २३३४३ । स मन्त्री लेप्पकारवप कृत्रिमं जज्ञतुर्नुपम् । भ्रान्तिहिं जायते तत्र पश्यतोषभयोरपि ।। पद्म २३६४४ ।
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अध्याय ५
राजनैतिक जीवन मानव जीवन के आरम्भिक काल से लेकर अभी निकट भूतकाल तक संसार के सभी देशों में राजतन्त्रात्मक शासनव्यवस्था विद्यमान रही है । इस प्रकार की धासनव्यवस्था में साधारणतया तो राजपद वंशानुगत होता था, लेकिम कमो-कभी राजा का निर्वाषन भी किया जाता था । फ्रांसीसी विचारक बोसे के अनुसार राजतन्त्र प्राचीनतम, सबसे अधिक प्रचलित, सर्वोत्तम तथा सबसे अधिक स्वाभाविक शासन का प्रकार है ।' पद्मचरित में हमें राजतन्त्रात्मक शासनप्रणाली के दर्शन होते है। इसका विस्तृत रूप से अध्ययन करने के लिए हमें पधचरित के अनुसार राज्य की उत्पत्ति, राजा और उसका महत्व, राज्य के अंग, सेना भोर युद्ध, न्यायव्यवस्था, गुप्तचर-व्यवस्था और दूस-व्यवस्था आदि विभिन्न पहलुओं पर विचार करना होगा ।
राज्य की उत्पत्ति---पाचरित के अध्ययन से राज्य की उत्पत्ति के जिस सिद्धान्त को सर्वाधिक बल मिलता है, यह है सामाजिक समझौता सिद्धान्त । आधुनिक युग में इस सिद्धान्त को सबसे अधिक बल देने वाले, हाम्स, रूसो और लोक है। इनमें भी पधचरित का राज्य की उत्पत्तिसम्बन्धी संकेत आधुनिक युग के रूसो और लोक के सिद्धान्त से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्म दैत्रीय न होकर एक मानवीय संस्था है जिसका निर्माण प्राकृतिक अवस्था में रहनेवाले व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के भावार पर किया गया है । इस सिद्धान्त के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीनकाल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य या राज्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी । सिद्धान्त के विभिन्न प्रतिपादकों में इस प्राकृतिक अवस्था के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है। कुछ इसे पूर्व सामाजिक तो कुछ इसे पूर्व राजनैतिक अवस्था मानते हैं। इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छानुसार प्राकतिक नियमों को आधार मानकर अपना जीवन व्यतीत करते थे। कुछ ने प्राकृतिक अवस्था को अत्यन्त कष्टप्रद और असहनीय माना है तो कुछ ने इस
१. पुखराज जैन : राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त, पु० २६१ । २. वही, पृ० १००।
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२०२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
बात का प्रतिपादन किया है कि प्राकृतिक अवस्था में मानव जीवन सामाम्यतया मानन्दपूर्ण था ! पद्मचरित में इसी दूसरी अवस्था को स्वीकार किया गया है ।' प्राकृतिक अवस्था के स्वरूप के सम्बन्ध में मतभेद होते हुए भी यह सभी मानते है कि किसी न किसी कारण मनुष्य प्राकृतिक अवस्था को त्यागने को विवश हुए और उन्होंने समझौते द्वारा राजनैतिक समाज की स्थापना की । पचरित के अनुसार इस अवस्था को त्यागने का कारण समयानुसार साधनों की कमी तथा प्रकृति में परिवर्तन होने से उत्पन्न हुआ भय' था। इन संकटों को दूर करने के लिए समय-समय पर विशेष व्यक्तियों का जन्म हुआ । इन व्यक्तियों को कुलकर' कहा गया। राज्य की उत्पत्ति का मूल इन कुलकरों और इनके कार्यों को ही कहा जा सकता है।
राजा और उसका महत्त्व-राजतन्त्र में राजा ही सर्वोपरि होता है, इस कारण समस्त संसार की मर्यादायें राजा द्वारा ही सुरक्षित मानी गई है। राजा धर्मों की उत्पत्ति का कारण है । राजा के बाहुबल की छाया का आश्रय लेकर प्रजा मुस्ल से मात्मध्यान करती है तथा आयमबासी विद्वान निराकल रहते हैं।' जिस देश का आश्रय पाकर साधुजन तपश्चरण करते हैं उसकी रक्षा के कारण राजा तप का छठा भाग प्राप्त करता है । पृथ्वीतल पर मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अधिकार है । वह राजाओं द्वारा सुरक्षित मनुष्यों को ही प्राप्त होता है ।११ राजा के होने पर जितने थावक आदि सस्पुरुष है वे भावपूर्वक पूजा करते हैं। वे अंकुर उत्तन्न होने की शक्ति से रहित पुराने धान्य
३..पा ३।४९.६३ । ४. पुनराज जैन : राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त, पृ० १०१ । ५. पप. ३७४ ।
६. पप ३३८५ । ७. वही, ३८८ । ८. भवता परिपाल्यन्ते मर्यादाः सर्वविष्टपे ।
धर्माणां प्रभवस्त्वं हि रत्नानामिव सागरः | पर० ६६.१०। नुपबाहुबलच्छायां समाधिस्य सुखं प्रजाः ।
ध्यायन्त्यात्मानमव्यग्रास्तथैवामिणो बुधाः ।। पम० २७।२७ । १०. यस्य देशं समाश्रित्य साधवः कुर्वते तपः।
षष्ठमंशं नृपस्तस्य लभते परिपालनात् ।। प० २७।२८ । ११. धर्मार्थकाममोक्षाणामधिकारा महीतले ।
जनानां राजगुप्तानां जामन्ते तेझ्यथा कुतः ।। पप० २७।२६ ।
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राजनैतिक जीवन : २०३
आदि के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करते है। निन्य मुनि क्षाम्ति आदि गुणों से युक्त होकर ध्यान में तत्पर रहते है तथा मोक्ष का माधमभूस उत्तम तप तपते है ।१३ जिनमन्दिर आदि स्थलों में जिनेन्द्र भगवान् की बड़ी बड़ो पूजार्थे तथा अभिषेक होते हैं । ४ पृथ्वी तल पर जो कुछ भी सुन्दर, थेट और सुखदायक वस्तु है, राजा ही उसके योग्य है ।१५ इस प्रकार राजा का महत्त्व दर्शामा गया है।
राजा के गुण-राजा को शूरवीर होना चाहिये। शूरवोरता के द्वारा वह समस्त लोगों की रक्षा करता है। इसके अतिरिक्त राजा को नीति में कार्य करना चाहिए ।" जो राजा अहंकार से ग्रस्त नहीं होता." शस्त्रविषयक व्यायाम से विमुख नहीं होता, आपत्ति के समय कभी व्यग्र नहीं होता, जो मनुष्य उसके समक्ष नन्नीभूत होते है उनका सम्मान करता है." दोषरहित सानों को ही रत्न समझता है,१५ जिसमें दान दिया जाता है ऐसी क्रियाओं को कार्यसिद्धि का श्रेष्ठ साधन समझता है, समुद्र के समान गम्भीर होता है तथा परमार्थ को जानता है, २२ ऐसा राजा श्रेष्ठ माना गया है। राजा को जिनशासन (पमं) रहस्य को जानने वाला, दारणागत वत्सल, परोपकार में सत्पर, दया से आम्रचिप्स,५३ विद्याम्', विशुद्ध हृदय वाला, निन्द्य कार्यों से निवृत्तबुद्धि, पिता के समान रक्षक, प्रागिहित में तस्पर, दीन-हीन आदि का तथा विशेषकर मातजाति का रक्षक, शुद्ध कार्य करने बाला, शत्रओं को नष्ट करने वाला,२५ शस्त्र और शास्त्र का अभ्यासी, शान्ति कार्य में पकावट से रहित, परस्त्री को अजगर सहित कूप के समान जानने वाला, संसारपात के भय से धर्म में सदा मासक्त, सस्यवादी और अच्छी तरह से इन्द्रियों को वश में करने वाला होना चाहिये । जो राजा अतिदाय बलिष्ठ सथा शूरवीरों की चेष्टा को धारण करने वाले होते है दे कभी भी भयभीत, ब्राह्मण, मुनि, निहत्थे, स्त्री, बालक, पशु और दूत पर प्रहार
१२. पप० २७१२० । १४. बहो, २७२२ । १६. वहीं, २१५३। १८. बहो, २०५४। २०. वही, २०५६ । २२. वही, ३७४९ । २४. वहीं, ९८०२१ । २६. वही, ९८२३ ।
१३. पम० २७।२१ । १५. वही, ७४।१२। १७, बही, २०५३ । १९. वही, रा५५ । २१. वही, ३७।४९। २३. वही, ९८४२० । २५. वही, ९२।२२ । २७. बही, ९८०२४ ।
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२०४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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नहीं करते हैं। बहुत बड़े कोष का स्वामी होकर जो राजा पृथ्वी की रक्षा करता है और परचक्र (0) के द्वारा अभिभूत होने पर भी विनाश को प्राप्त नहीं होता तथा हिसा धर्म से रहित एवं यज्ञ आदि में दक्षिणा देने वाले लोगों की जो रक्षा करता है उस राजा को भोग पुनः प्राप्त होते हैं । २१ श्रेष्ठ राजा लोकतन्त्र को जानने वाला होता है । राजा अस्त्र, वाहन तथा कवच आदि देकर अन्य राजाओं का सम्मान करता है । ३" राजा सत्य बोलने वाला तथा जीवों का रक्षक होता है। जीवों की रक्षा करने के कारण राजा ऋषि कहलाने योग्य है, क्योंकि जो जीवों की रक्षा करने में तत्पर हूँ मे ही ऋषि कहलाते हैं।
३०
दुराचारी राजा और उसके दुर्गुण - पद्मचरित में दुराचारी राजाओं का भी उल्लेख हुआ है। उदाहरण के लिए राजा सौदास जो कि नरमांस में अत्यकि आसक्त होने के कारण प्रजा द्वारा नगर से निकाल दिया गया था। * राजा कर्ण को दुराचारी सिद्ध करने के लिए उसे अध्यन्त क्रूर इन्द्रियों का वशगामी, मूर्ख, सदाचार से विमुख, लोभ में आसक्त, सुक्ष्म तत्व के विचार से शूम्य तथा भोगों से उत्पन्न महागर्व से दूषित कहा गया है।'
મ
राज्य के अंग - कोटिल्य अर्थशास्त्र में स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, दण्ड (सेना) और मित्र में सात राज्य के अंग कहे गये हैं । *५ पहले राजा के जो गुण कहे गये हैं, उन्हें ही स्वामी के गुण कह सकते हैं ।
4
अमात्य[-- अमात्य को पद्मचरित में सचिव तथा मन्त्री" नाम से उल्लिखित किया गया है। यहां इन्हें मन्त्रकोविद" ( मन्त्र करने में निपुण), महाबलवान् ( ( महाबलाः), नीति की यथार्थता को जानने वाले ( तययाथात्म्य
२८. पद्म० ६६ । ९० ।
२९. वही, २७७२४, २५ यक्ष यज्ञ को संरक्षण देने पर विशेष बल देने का कारण यज्ञवाद का प्राबल्य दिखाई पड़ता है। इतना विशेष है कि हिसक यज्ञों के स्थान पर अहिंसक यश को महत्त्व दिया जाने लगा था ।
३०. पद्म०७२।८८ ।
३१. पद्म० ५५८९
३३. वहो, २२०१३१-१४४ । ३५. कौटिल्य अर्थशास्त्र ८|१ |
३२. बहो, १११५८ ।
३४. वही, ३३३८१-८२ ।
३६. ५० ११३।४ ।
३७. वही, ६१२, ७३२२, १६, १५/२६, ८ ४८७, ११।६५ | ३८. वही, ८११६ ।
३९. पद्म० ८।१७ ।
·
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राजनैप्तिका जीवन : २०५ वैदिना),१° सब कुछ जानने वाले (निखिलर्वदिनः),४१ सदभिप्राय से युक्त (घृतमानसः)४२ विद्वान्,४३ निर्भीक उपदेश देने वाले, ४४ मिज और पर की क्रियाओं को जानने वाले, " प्रेम से भरे," (राजा के) परम अनुयायी आथि विशेषणों से भूषित किया गया है। इन मन्त्रियों की संख्या अनेक होती थी। सामान्य मन्त्रियों के अतिरिक्त बहुत से मुख्यमन्त्री भी होते थे।४८ सभी मन्त्रियों को मिलाकर मन्त्रिमण्डल बनता था । मन्त्रिमण्डल को पद्मचरित में मन्धिवर्ग:९ कहा गया है। किसी विशेष कारणवश आपत्ति के समय राजा विश्वस्त मन्त्री को राज्य सौंपकर कुछ समय के लिए राज्य कार्य से विरत हो जाते थे। प्राणों पर संकट आने पर एक समय दशरथ ने ऐसा ही किया था ।५०
मन्त्रिगण राजा के प्रत्येक कार्य में सलाह दिया करते थे। राजा 'मय' की पुत्री मन्दोदरी जब वारुण्यवती हो गई तब उसके योग्य घर को खोज के लिए राजा ने मस्त्रियों से सलाह दी !' मन्त्र करने में निपुण मारीच भादि सभी प्रमुख मन्त्रियों ने बड़े हर्ष के साथ राजा को उचित सलाह दी।५२ राजा महेंद्र की पुत्री अजना जन विवाह के योग्य हई उस समय महेन्द्र ने मी मन्त्रिजनों से योग्य वर बतलाने के लिए कहा और विचार-विमर्श कर योग्य वर की तलाश की 1 यम नामक लोकपाल के द्वारा रावण को प्रशंसा किये जाने पर जब इन्द्र (इस्त्र नामक राजा) युद्ध के लिए उद्यत हुशा तब नीति को यथार्थता को जानने वाले मन्त्रियों ने उसे रोका ।
राजा जब विभिन्न प्रकार के बाद-विवादों का निर्णय करता था उस समय मन्त्रिगण भी यादस्पल में उपस्थित रहते थे ।५ मगाए आदि मस्त्रियों ने रावण को समझाया कि सीता को छोड़कर राम के साष सन्धि रो। नीति
४०. पदम ८४८७ ।। ४२. वही, १५॥३५ । ४४. वही, ६६।३ । ४६. वही, ४८. वहीं, ७३।२५ । ५०. वही, २३॥४० । ५२. वही, ८.१६ । ५४. वही, ८१४८७ । ५६. कही, ६६८।
४१. पदमः १५।२६ । ४३. वही, १५।३१। ४५. वही, ४७. वही, १०३।६। ४९. वही, ८१४८७ । ५१. वही, ८१२ । ५३. वहीं, १५।२६ । ५५. वही, १११६५ ।
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२०६ : पामचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मुक्त बात कहने के कारण रावण उनकी बात टाल न सका और उसने सन्धि के लिए दूत भेजा, परन्तु दृष्टि के संकेत से रावण ने अपना दुरभिप्राय समक्षा दिया।" इसके बाद पुनः मन्दोदरी ने रावण को समझाने के लिए मन्त्रियों को प्रेरित किया तन्त्र मन्त्रियों ने स्पष्ट कह दिया कि दशानन का पासन यमराज के शासन के समान है। वे अत्यन्त मानी और अपने आप को ही प्रधान मानने वाले है । मन्त्रियों के इस काम से ही उनको विज्ञता सूचित होती है। ___मन्त्रिगण हृदय से राजा के प्रति प्रेम धारण करने वाले होते थें । जब हनुमान दीक्षा लेने का विचार व्यक्त करते हैं तो मन्त्री लोग पाोक से व्याकुल हो जाते हैं और कहते हैं कि हे देव ! भाप हम लोगों को अनाथ न करें । राजा की अनुपस्थिति में या अन्य किसी आपास में मन्त्री लोग अन्तःपुर की यत्नपूर्वक रक्षा करते थे । जब साहसगति विद्याधर ने सुग्रीव का वेष धारण कर लोगों को वास्तविक सुग्रीव के विषय में भ्रम डाल दिया तब मन्त्रियों ने सलाह की कि निर्मल गोत्र पाफर हो जााद आभूषण विभूपित , इसलिए इस निर्मल अन्तःपुर को यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ।
जनपद---आर्यों के वैदिक युग में किसी एक महान पूर्वज से उत्पन्न हुई सन्तान और उसके वंशज विभिन्न परिवारों में रहते थे। इन्ही परिवारों के समूह को 'जन' कहते थे। वैदिक युग के प्रारम्भ में मे जन एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमते-फिरते थे। धीरे-धीरे ये जन स्थायी रूप से बस गये। अपने निवास के ग्रामों तथा पायवर्ती भूभाग पर इन्होंने अपनी सत्ता स्थापित कर ली। अब ये जनपद राज्ध कहलाये । ५ पद्मचरित में छोटे-छोटे जनपदों के अस्तित्व का संकेत मिलता है। ये जनपद उम समय देश की सीमा के अन्तर्गत अमेक होते थे । ३२ देश के अन्तर्गत पत्तन, ग्राम, संवाह, मटम्ब, पुटभेदन, घोष और द्रोणमुम्न आदि आते थे । ३ आदि शब्द से यहां देश की सीमा के अन्तर्गत खेट.१४ नगर, कट को लिया जा सकता है। पदमचरित में इनमें से अधिकांश का केवल नामोल्लेख किया गया है । - ---..--.-.--. ५७. पाच ६:१३ ।
५८. पप०७३।२५ । ५९. वही, १०३।५ ।
६०, वाही, ७४।६५ । ६१. बी० एन० लूनिया : प्राचीन भारतीय संस्कृति, पृ० २४९ । ६२. पम० ४१६५६ ।
६३. पद ४११५७ । ६४. वही, ३२२५।
६५. वही, ३२।२५ 1 ६६. वही, ३५११५
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राजनैतिक जीवन : २०७
मगर भारतीय नगर एक ऐसा विशाल जनसमूह था जिसकी जीविका के प्रधान साधन उद्योग तथा व्यापार थे । पाणिनि ने ग्राम एवं नगर को विभिन्न अनसन्निवेश माना है (प्रायां ग्रामनगराणां)। मानसार में नगर यस्सों के क्रयविक्रय करते नालों से परिपूर्ण जैनः परि कनिकायलिभिः), विभिन्न जातियों का निवासस्थान (अनेकजाति संयूक्तम्) तथा कारीगरों का केन्द्र (कर्मकारैः समन्वितम्) कहा गया है।" पद्मचरित में नगरों की समृद्धि के बहुत से उल्लेख आये है। भरत के राज्य में नगर देवलोक के समान उत्कृष्ट सम्पदाओं से युक्त थे । ९ विजयाई पर्वत की दक्षिण घेणी की नगरियों का वर्णन करते हुए रविषेण कहते है-वहाँ की प्रत्येक नगरी एक से एक बढ़कर है, नाना देशों और ग्रामों से व्याप्त है, मटम्बों से संकीर्ण है तथा खेट और कट के विस्तार से युक्त है। वहां की भूमि भोगभूमि के समान है। वहां के मरने सदा मधु, दूध, घी धादि रसों को बहाते हैं 1७१ यहाँ पर्वतों के समान अनाज की राशियाँ हैं, वहाँ की खतियों (अनाज रखने को खोड़ियों) का कभी क्षय नहीं होता । वापिकाओं और बगीचों से घिरे हुए वहाँ के महल बहुत भारी कान्ति को धारण करने वाले हैं।७२ वहाँ के मार्ग धूलि और कण्टक से रहित सुख उपजाने वाले है। बड़े-बड़े वृक्षों के छाया से युक्त, सर्व प्रकार के रसासहित वहाँ प्याक है।
नगर के चारों ओर विशाल कोट का निर्माण किया जाता था। कोट के बारों और गहरी परिखा (खाई) खोदी जाती थी। इसकी गहराई को उपमा
६७. अष्टाध्यायी ७, ३, १४ 1 ६८. मानसार अध्याय १ (गोपीनाथ कविराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ ४४८)। ६९, पद्म ४०९। ७०. देशग्राम सभाकीर्ण मटम्बाकारसंकुलम् ।
सनेटकर्बटाटोप तत्रकै पुरोत्तमम् ।। पद्म ३१३१५ । ७१. भोगभूमिसमं शश्वद् राजते यत्र भूतलम् ।
मधुक्षीर.घृतादीनि यहन्ते तत्र निराः ।। पद्म० ३।३१८ । ७२. धान्यामा पर्वताकाराः पल्पोषाः क्षयवर्जिताः । __वाप्युधानपरिक्षिप्ताः प्रासादाश्च महाप्रभाः ।। पप- ३१३२४ । ७३. रेणुकण्टकनिर्मुक्ता रथ्यामार्गाः सुखावहाः ।
महातस्कृतच्छायाः प्रपाः सर्वसमान्विताः ।। पन ३।३२५ । ७४, पन० ४३११६९।
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२०८ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पाताल की गहराई से दी गई है ।५ । नगर ऊँधे-ऊंचे गोपुरों से युक्त होता था ।" बड़ी-बड़ी वापिकामों, अट्टालिकाओं और तोरणों से नगर को अलंकृत किया जाता था।
नगरनिवासी गृह" (घर), आगार, ७५ प्रासाद, तथा सम'' आदि स्थानों में रहते थे। आगार छोटे-छोटे महलों और प्रासाद तथा सम बसे-बड़े तथा ऊंचे महलों को कहा जाता था। इन सबको चूने से पोता जाता था । नगर में रंग-बिरंगी ध्वजायें लगाई जाती थीं। केशर आदि मनोश वस्तुओं से मिश्रित जल से पृथ्वी को सींचा जाता था । ४ काले, पीले, नीले, लाल तथा तथा हरे इस प्रकार पंचवर्णोय चूर्ण से निर्मित अनेक बेलबूटों से महलों को अलंकृत किया जाता था ।५ विभिन्न समारोहों के अवसर पर दरवाजों पर पूर्ण कलश रखे जाते थे, चन्दन मालायें बाँची जाती थी तथा उत्तमोत्तम वस्त्र लटका कर शोभा की जाती थी।
नगरनिवासी-नगर में प्रायः सभी प्रकार के लोग निवास करते थे। वितीय पर्व में राजगृह नगर में स्त्रियाँ, मुनिगण, वेश्यायें, लासक (नरम करने बाले), शत्रु, शस्त्रधारी, याचक, विद्यार्थी, बन्दिजन, धूर्त, संगीतशास्त्र के पारमामी विद्वान् (गीतशास्त्रकलाकोविद), विज्ञान के ग्रहण करने में तत्पर मनुष्य (विज्ञानमहणोधुन), साधु, वगिज (व्यापारी), शरणागत मनुष्य, वार्तिक (समाचारप्रेषक) विदग्ध जन (चतुर मनुष्य) विट, चारण, कामुक, सुखीजन तथा मातंग (चाण्डाल) रहते थे, ऐसा उल्लेख आया है।
पत्तम" प्राचीन ग्रन्थों में पत्तन शब्द समुद्री बन्दरगाह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । मानसार के अनुसार उस नगर को पत्तन कहते हैं जो कि समुद्रतट पर स्थित होता है । (अन्धितीरप्रदेशे) जिसमें विशेषतः ममिए रहते हैं (बणिग्जातिभिसकीर्णम्), जहाँ वस्तुयें खरीदी और बेचो जाती है (क्रयविक्रयपूरितम्) तथा
७५. पन० ४३।१७०, २।४९ । ७७. वही, ३।३१७। ७९. वही, २।३। ८१. वही, २८२२० । ८३. बही, १२३६६ । ८५. वही, १२३६७ । ८७. वही, २।३९-४५।
७६. पर० ३।३१७, ४३।१७० 1 ७८. वही, २८।५ । ८०. वही, ८।२६ । ८२. वहीं, २१३७ । ८४, वही, १२१३६६ । ८६. वही, १२।३६८ ८८. वही, ४२१५७।
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राजनैतिक ओषम : २०९
जो बाहरी देशों से (मी होता है।
कय-
लय
सामग्री से परिपूर्ण
प्राम
ग्राम को नगर का ही एक छोटा रूप कह सकते हैं । ये ग्राम ही व्यापारिकों के कारण जब बहुत अधिक विकसित हो जाते थे तो इन्हें नगर कहा जाता था। पमचरित में लम्बी-चौड़ी वापिकाओं तथा धान के हरे-भरे खेतों से घिर ग्रामों का उल्लेख हुआ है ।१५ पद्मचरित के उत्तरवर्ती ग्रन्थ आदिपुराण में बतलाया गया है कि जिनमें बाड़ से घिरे गृह हों, किसानों और शूद्रों का निवास हो, बहुलता से वाटिका तथा तालाबों से युक्त हों वे प्राम कहलाते हैं। जिस ग्राम में सौ घर हों अर्थात् सौ कुटुम्ब निवास करते हों वह छोटा प्राम और जिसमें पांच सौ घर हों वह बड़ा ग्राम कहलाता है ।१२ पद्मचरित में ग्रामों को समृद्धि का विवेचन हुआ है । भरत पक्रवर्दी के राज्य में ग्राम विद्याघरों के नगरों के समान सुखों से सम्पन्न थे।५३
संवाह संवाह उस समृद्ध ग्राम को कहते हैं, जो नगर के सुस्प हो । बृहत्कथाकोष में इसे अदिल्टम् (पर्वत पर बसा हुया प्राम) कहा है ।१५
मटम्बर मटम्ब को महम्ब भी कहते हैं। आदिपुराण में उस बड़े नगर को मडम्ब कहा गया है जो पांच सौ ग्रामों के मध्य व्यापार आदि का केन्द्र हो । ५०
८९. मानसार अध्याय १०
९०. प. ४१५७ । ९१. पम० ३३।५६ । ९२. ग्रामा वृतिपरिक्षोपमात्राः स्युरुचिताश्रयाः ।
शूब कर्षकभूयिष्ठाः सारामाः सजलाशयाः ।। आदिपुराण १६१६४ । ग्रामाः कुलशतभेष्टो निकृष्टः समधिष्ठितः।
परस्तस्पञ्चशल्या स्यात् सुसमृद्धकृषीबल: ।। मादिपुराण १६११५ । ९३. पप. ४१७१।
१४. पम० ४१।५७ । १५. बृहत्कथाकोष ९४।१६ ( नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराण में प्रतिपादित
भारत, पृ० ७१)। ९६. पप. ४१५७।
९७. आदिपुराण १६१७२ ।
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२१० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मम्ब वस्तुतः व्यापारप्रधान बड़े नगर को कहा गया है। इसमें एक बड़े नगर की सभी विशेषतायें वर्तमान रहती हैं ।
९८
पुटभेवन
बड़े-बड़े कापारिक को पुटभेदन कहा आता या बड़े नगरों में थोक माल की गाठें आती थीं जो मुहरबन्द हुआ करती थीं। मुहर को तोड़कर गाँठ खोल दी जाती थीं और उसके उपरान्त उसमें भरा हुआ माल फुटकरियों के हाथ बेच दिया जाता था। मुहरों के इस प्रकार तोड़े जाने के कारण ही विशिष्ट व्यापारिक केन्द्र पुटभेदन कहलाने लगे । १००
घोष '
१९
- १०१
अहीरों (ग्वालों) के छोटे से प्राम को घोष कहते थे ।
द्रोणमुख १०२
मानसार में द्रोणमुख को द्रोणान्तर कहा गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार यह नगर समुद्र तट के पास नदी के मुहाने पर स्थित होता है (समुझतदिनी युक्तम् ) इसमें वणिक तथा नाना जातियों के लोग रहते हैं (वणिग्भिः सह नानामितयुक्तं जनास्पदम् ) तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय अत्यधिक होता था ।' १०१ कोटिल्य earer में इसकी स्थिति चार सौ ग्रामों के मध्य कही गई है । १०४ खेद १०५
१०१. पद्म० ४१।५७ ।
१०२. व्ही ४१ ५७
१०४. 'चतुःशत साम्या द्रोणमुखम्
पाणिनि ने खेट को गहित नगर कहा है 19०६ इससे खेट बहुत साधारण प्रकार का सन्निवेश था तथा इसमें थे । मानसार के अनुसार इसमें बहुधा शूद्र ही रहते थे
।
९८. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० ७७ ।
९९. पद्म० ४१५७ ।
१००. गोपीनाथ कविराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४५१ ।
विदित होता है कि
सभ्य लोग नहीं रहते आधुनिक खेड़ा
१०७
१०३. मानसार अध्याय १० ।
फौटिलीयम् अर्थशास्त्रम् अधिकरण २ अध्याय १ ।
१०५. पद्म० ३२।२५ ।
१०६. ‘खेल-खेट-कडुक-काण्डं गयाम् ६१२।१२६ ।
१०७. 'शूत्रालय समन्वितं खेटमुक्तं पुरातनैः ॥ मानसार अध्याय १० ।
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राजनैतिक जीवन : २११ शब्द खेट से निकला है | आदिपुराण में नदी और पर्वत से घिरे हुए नगर को खेट कहा है ।१०८
कट०९ इसे खर्वट भी कहा है। फौटिल्य कशास्त्र के अनुसार इसकी स्थिति दो सौ ग्रामों के बीच होती है । यहाँ इसे सार्वटिक कहा है । '१० आदिपुराण में इसे पर्वतीय प्रदेश से वेष्टित माना है ।११ मानसार के अनुसार स्वर्वट बहुधा पर्वत के सन्निकट स्थित होता है तथा इसमें सभी जाति के लोग रहते है । ११२
दुर्ग परचक्र (शत्र) के द्वारा आक्रान्त होने पर कभी-कभी राजा लोग दुर्ग का आश्रय लेते थे ।११३ शत्रु पर आक्रमण करने के लिए भी दुर्ग का आश्रय लेना पड़ता था। राजा कुण्डलमण्डित दुर्गमगढ़ का अवलम्बन कर सदा राजा अनरम्य की भूमि को उस तरह विराषित करता रहता था जैसे कुशील मनुष्य कुल की मर्यादा को पिराधित करता है । १५४
कोश११५ राज्य के सात अंगों में कोश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार यदि राज्यकोश स्वल्प हो चले अथवा अतकित भाव से सहसा अर्थसंकट था पड़े तो राजा अर्थसंचय का उपाय करके राज्यकोश बढ़ाए । यदि राज्य का कोई जनपद बड़ा हो, किन्तु उसदे पास धन बहुत ही कम हो अथवा यदि उसकी खेती वर्षा के पानी पर निर्भर करती हो और उसमें प्रधुर अंश का उत्पादन होता हो तो राजा उस जनपद के निवासियों से तृतीयांश या चतुर्थाश भाग ले, किन्तु यदि कोई जनपद मध्यम तथा निम्न श्रेणी का हो तो वही अन्नोत्पादन का परिमाण जाँचकर ग्राह्य अंश निर्धारित करे ।१॥
१०८. सरिगिरिभ्यां संपद्धं बोटमाहर्मनीषिण: । आदिपुराण १६।१७१ । १०९. पद्म० ३।११६ । ११०. "विशतग्राम्या खाटिकम्'-कौटिलीय अर्थशास्त्रम् २११ । १११. 'केवलं गिरिसरुवं खर्ट तत्प्रयक्षते ।।' आदिपुराण १६।१७१ । ११२, 'परितः पर्वसर्युक्तं नानाजातिगृहव॒तम् ।' मानसार अध्याय १० । ११३. पम० ४३१२८ ।
११४. पद्म० २६१४० । ११५. नही, २३।४०, २७।१०।। ११६. कोशमकोशः प्रत्युत्पन्नार्थकच्छ : संगृहणीयात् । जनपदं महान्तमल्पप्रमाम
वा देवमातृकं प्रभूतधान्यं धामस्यांश तृतीमे चतुर्थे वा याचेत । यथासार मध्यमवरं वा ।। कौटिलीयम् अर्थशास्त्रम्, पंचम अधिकरण, अध्याय २ ।
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२१२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सेना समकार्म को चलाने के लिए दाव्यवस्था की आवश्यकता होती है। दण्डनोसि मप्राप्त वस्तु को प्राप्त करा देती है, जो प्राप्त हो चुका है उसकी रक्षा करती है, यह रक्षित वस्तु को बढ़ाती है और बढ़ी हुई वस्तु का उपयुक्त पार में उपयोग करती है। लोकगाथा सामाजिक व्यवहार) इम देपानीति पर मिर्भर है। अतएव जो राजा लोकयात्रा का निर्माण करने में तत्पर हो उसे पाहिए कि सदा दण्डनीति का उपयोग करने को उद्यत रहे ।१" दण्ड का भलीभौति प्रयोग करने के लिए सेना की आवश्यकता होती है। पपचरित में इसे बल कहा गया है। इस प्रकार के चतुरंग बल का यहाँ उल्लेख हुमा है ।१४ चतुरंग बल के अन्तर्गत निम्नलिखित सेनाएँ आती है
१. हस्तिसेना । २. अश्वसेना । ३. रथ सेना। ४. पदातिसेना। गणना की दृष्टि से इसके आठ भेद ५९ किये गये हैं
१. पति, २. सेना, ३. सेनामुख, ४. गुल्म, ५. वाहिनी, ६. पृतना, ७. चमू तथा ८, अनीकिनी।
पत्ति-जिसमें एक रथ, एक हाथी, पांच प्यादे और तीन घोड़े होते है यह पत्ति कहलाती है ।१२०
सेना–तीन पत्ति को एक सेना होती है । १२१ सेनामुख-तीन सेनाओं का एक सेनामुख होता है । १२२ गुल्म-तीन सेनामुखों का एक मुल्म होता है ।" वाहिनी-सीन गुल्मों की एक वाहिनी होती है ।२४ पृतना--तीन वाहिनियों की एक पृतना होती है । १२५
स्यात् ॥
११७. अलब्घलाभार्था लब्धपरिरक्षिणी रक्षितविधिनी वयस्य तीर्येषु प्रतिपादनी च । तस्यामायत्ता लोकयात्रा । तस्माल्लोकयावार्थी नित्यमुद्यतमः
___कौटिलीयं अर्थशास्त्रम्, १।४। ११८. पद्म० २७४४७ ।
११९. पन० ५६६ । १२०. वही, ५६।६।
१२१. बहो, ५६७। १२२, बही, ५६७1
१२३. वही, ५६७। १२४, बही, ५६३८ ।
१२५. वहीं, ५६८ ।
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१२७
चमू - तीन पृतनाओं की एक चमू होती है । १२३ अनीकिनी - तीन सू की एक अनोकिमी होती है ।' अक्षौहिणी - अनीकिनी की गणना के अनुसार दस अनीकिनी की एक बहिणी होती है ।' इस प्रकार अक्षोहिणी में रथ इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर, हाथी इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर पदाति एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास, घोड़े पंसठ हजार छह सौ चौदह होते हैं ।
૧૮
१२९
इन सेनाओं के अतिरिक्त पद्मचरित में विद्याघर - सेना तथा पालकी सेना (शिविका सेना) के भी उल्लेख मिलते हैं ।
हस्तिसेना' १३० - कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार अपनी सेना के आगे चलना, नये मार्ग, निवासस्थान तथा बाटनिर्माण के कार्य में सहायता देना, बाहु की तरह आगे बढ़कर शत्रुसेना को खदेड़ना, नदी आदि के जल का पता लगाने, पार करने या उतारने, विषम स्थान (तृणों तथा झाड़ियों से शंकेस्थान और शत्रुसेना के जमघट के संकटमय शिविर) में घुसना शत्रुशिविर में आग लगाना और अपने शिविर में लगी आग बुझाना, केवल हस्तिसेना से ही विजय प्राप्त करना, छितराई हुई अपनी सेना का एकत्रीकरण, संवद्ध शत्रु सेना को छिन्न-भिन्न करना, अपने को विपत्ति से बचाना, शत्रुसेना का मर्दन, भीषण आकार दिलाकर शत्रु को भयभीत कर देगा, मदधारा का दर्शन कराकर ही पत्र के हृदय में भय संचार करना, अपनी सेना का महत्व प्रदर्शन, शत्रुसेना को पकड़ना, अपनी सेना को शत्रु के हाथ से छुड़ाना, शत्रु के प्राकार, गोपुर, अट्टालक आदि का भंजन और शत्रु के कोश तथा वाहन का अपहरण ये सब काम तिसेना से हो सम्पन्न होते है । अश्वसेना १५२ पद्मचरित में घोड़ों की पीठ पर सवार हाथों में तलवार, बरही भाला लिये और कवच से आच्छादित वक्षःस्थल वाले योद्धाओं का उल्लेख आता है । ११३ घोड़ों की विशेषतानों में चपळता, ' १३४ १३५ चतुरता तथा
१३१
१३५
ग प्रमुख मानी गई हैं।
राजनैतिक जीवन : २१३
१२६. पद्म०५६।८ ।
१२८. वही, ५६९ ।
१३०. बल्ली ५७६६ ॥
१३१. कोटिलीय अर्थशास्त्रम् १०१४ |
१३२. पद्म० ५७६७ ।
१३४. वहीं, ५०१२० । १३६. वही, १०२ १९५
१२७. पद्म० ५६८ । १२९. वही ५६।१०-१२ ।
१३३. पद्म० ७४ ४२ । १३५. वहीं, ४५ ९३ ।
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२१४ : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
रथसेना-४२ पर्व में स्वर्ण मगी अनेक नेसन टों के पास ने सुन्दर, उत्तमोत्तम स्तम्भों, वेदिका तथा गर्भगह से युक्त, ऊँचे मोतियों की मालाओं से शरोने वाले, छोटे-छोटे गोले, दर्पण, फम्नुस (लम्बूष) तथा खण्ड चन्द्र की सामग्री मे अलंकृत, शयन, आसन, वादित्र, वस्त्र तथा गन्ध आदि से भरे, चार हाथी जिसमें जुते थे और जो विमान के समान था ऐसे रथ पर सीतासहित गम, लक्ष्मण के घूमने का उल्लेख मिलता है । १३७ रय में गरुड़१९८. अश्व, ब्याघ्र४१, सिंह४५, हस्ति१४२ आदि वाहनों को जोला जाता था 1 बड़े-बड़े सामन्त १४३, सेनापति ४४ तथा राजा ४५ लोग प्रामः युद्ध के लिए रथ का उपयोग करते थे। रथ पर बैठने के लिए तकिया के सहारे से युक्त आसन बनाया जाता था । ४३
पदाप्ति सेना-पद्मचरित में पदाति सेना की योरता का अनेक स्थलों पर उल्लेख आया है। उदाहरण के लिए बारहवें पर्व वाला युद्धवर्णनाणों से योद्धाओं का वक्षःस्थल तो खण्डित हो गया, पर मन खण्डित नहीं हुआ। इसी प्रकार योद्धाओं का सिर तो गिर गया, पर मान नहीं गिरा। उन्हें मृत्यु प्रिय थी, पर जीवन प्रिय नहीं था ।१४ कोई एक योद्धा मर सो रहा पा, पर शत्रु को मारने की इच्छा से क्रोषयुक्त हो अब गिरने लगा तो शत्रु के शरीर पर आक्रमण कर गिरा । १४८
विद्याधर-सेना-विद्याबल से भी युश होता था । विद्याबल से युक्त संकासुन्दरी ने हनुमान के हिमालय के समान ऊंचे रथ पर बजदण्ड के समान नाण, परशु, कुन्त, चक्र, शतघ्नी, मुसल तथा शिलाये उस प्रकार बरसाई, जिस प्रकार कि उत्पात के समय उच्च मेघावली नाना प्रकार के जल बरसाती है । १४९ रावण जब बहरूपिणी विद्या में प्रवेश कर युद्ध करता था तम उसका सिर लक्ष्मण के तीक्ष्ण बाणों से बार-बार कट जाता था, फिर भी बार-बार देदीप्यमान
१३७. पद्म ४२१२०५ ।
१३८. पप० ७४।३३ । १३९, वही, १०२।१९५ ।
१४७. बही, ५७५२३ १४१. वही, ५७१४८।
१४२. वही, ७४।६। १४३. वही, ५७८ ।
१४४. बही, ९७४५४-५५ । १४५. बही, ४५।९३ ।
१४६. वही, १७।८१ । १४७. अभिधत कारवक्षों भटानां न तु मानसम् ।
शिरः पात नो मानः कान्तो मुत्युनं जीषितम् । पप १२२२७६ । १४८, पद्म १२१२७८ ।
१४९. पा० ५२।४०-४१ ।
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राजनैतिक जीवन : २१५
कुण्डलों से सुशोभित हो उठता था। एफ सिर कटता था तो दो सिर उत्पान हो जाते थे और दो कटते थे तो चार हो जाते थे ।'५० लोग पीता५', गधा १५२. हंस'५३, भेड़िया'५५, शार्दूल १५५, हाथी, सिंह, सूकर, कृष्णमृग, सामान्यमृग, सामर, नाना प्रकार के पक्षी, बैल, ऊँट, घोचे, भैसे आदि जल थल में उत्पन्न हए नाना प्रकार के वाहनों पर सवार होकर निकलते थे । १५६ इनमें से अधिकांश को विद्यानिमित होना चाहिए । विद्या के बिना पक्षी आदि की सवारी करना सम्भव नहीं मालूम पड़ता । एक स्थान पर रावण द्वारा ऐन्न नामक विद्यारथ से युद्ध करने का वर्णन मिलता है।५७
शिबिका-सेना--पदमचरित के एक उल्लेख से सिद्ध होता है कि शिक्षिका (पालकी) सेना भी तैयार की जाती थी। शिनिकाओं से निकलकर योद्धा मुख करते थे।१५८
अस्त्र-शस्त्र-युद्ध में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता या। पहमपरित में निम्नलिखित अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख मिलता है
कुणी५९-तरकप्त ।
चक्र१५० एफ शस्त्र जिसका आकार यमराज के मुख के समान होता था और जिसकी पार तीक्ष्ण होती थी। शिला -बड़े-बड़े पत्थर ।। सायक -वाण । सप्ति -तलवार । ककोट -धनुष । सायकपुत्रिका -छुरी।
तामसास्त्र -ऐसा अस्त्र जिसका प्रयोग करने पर चारों मोर अन्धकार छा जाय ।
१५०. पन १७५।२२-२५ । १५२. बही, ७१४०। १५४. वहीं, ७१४०। १५६. वही, ५७१६६-६७ । १५८. वही, १०२११५२ । १६०, वही, ५२।४०, ३० । १६२. वही, ७४।३४, ८.१९६ । १६४. वही, १२।१८२। १६६. वही, ८१३५ ।
१५१. पद्मः ७।३९। १५३. वही, ७/४० । १५५. वही, ७१३९ । १५७. वही, ७४।५-६ । १५९, वही, ७४।३४ । १६१. वहीं, ५२।४० । १६३, वही, १२।१८२ । १६५. बहो, १२।१८३ ।
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२१६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
नागपाश -किसी को बांधने वाला विद्यानिमित अस्त्र । खड़ग१८-तलवार । लोहमुद्गर ४१-लोहे का मुद्गर । ककच-अत्यन्त तीक्ष्ण घार बाली करोंत । सूर्यावर्त ७१–सूर्यावर्त नामका एक धनुष । लांगलरत्न ७२, हल । सिद्धार्थ महास्त्र -विघ्नकारी अस्थ को नष्ट करने वाला महास्त्र । उरगास्त्र'७४-विषरूपी अग्नि के कणों से दुःसह अस्त्र 1 विघ्नविनायक'७५ अस्त्र-जिसका दूर करना अशक्य होता था ऐसा
अस्त्र।
बहुरूपा -एक विशेष प्रकार की विद्या, जिसके द्वारा अनेक रूप बनाये जा सकते थे।
माहेन्द्रास्त्र५७७-आकाश की व्याप्त करने वाला एक अस्त्र जो समीरास्त्र से नष्ट होता था।
वारुणास्त्र'७८-भाग्नेस अस्त्र का निराकरण करने वाला अस्त्र । इससे दिशायें प्रकापारहित हो जाती थीं । १७९
दन्दशूक अस्त्र -विद्यानिमित ऐसा अस्त्र जिसमें फनों का समूह उठता था। इसे पन्नगास्त्र भी कहते थे । १८१
ताय अस्त्र -गरुड़ माण । वज्रावर्त ४३...-एक प्रकार का धनुष ।
लांगूल १८४-विद्यानिमित एक प्रकार की पाश जिससे किसी को पकड़कर खींचा जा सके।
१६७. पम० ८१३५ । १६९. वही, ७२१७४ । १७१. वही, १०३१२ । १७३. वही, ७५।१९ । १७५. वही, ७४।१११। १७७. वहीं, ७४११००। १७९. वही, ६०९३ । १८१. वही, ७४।१०९ । १८३. वही, ७५।५५ ।
१६८, पद्म १७३। १७०, वही, ७२१७५ । १७२, वही, १०३।१३। १७४. वही, ७४।११० । १७६. वही, ६७१६ । १७८. वही, ७४.१०३ । १८०, वही, ७४।१०८। १८२. वही, ७४।१०९ १८४, वही, ७५।५७, १९५४ ।
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"ब्राण ।
शिलीमुख' समुद्रावर्त - एक धनुष रत्न |
१८६
ज्वलनचक्त्र शर१७ – अग्निमुखवाण ।
१८८
.१८५
नाराच -बाण ।
पवनास्त्र १८९.
1- दारुण अस्त्र का निराकरण करने वाला अस्त्र ।
नागसायक१९०
"नागबाण विषरूपी धूम का समूह छोड़ने वाले बाण । हयानम्' १९१ सिंहवाहिनी विद्या ।
(१९२ गरुडवाहिनी विद्या ।
-वायव्यास्त्र |
An
शक्ति २०६
गारुडम् मरुतु अस्त्र १९४
१९४
मण्डलाग्र ---तलवार ।
स्तम्भिनी विद्या ९५ आकाश प्रदेश में विद्याबरों को रोक देने की विद्या ।
१९६ के बने !
इसके अतिरिक्त धनुष १९७, परशु व दण्ड २०६ प्रास २०४
.
राजनैतिक जीवन : २१७
१३८
,
,
शूल २०५ सोम र १०१, चाप २१०, गदा २१९, समीरास्२१२,
१८५ १० ८३१४, ५८ ३४ । १८७. वही, ८९/३५ ।
१८९. वही, ६० ९० ।
१९१. वही, ६० | १३५ | ६६।४ | १९३. वही, ६०११३८ ।
१९५. वही, ५२/६९ । १९७. दही, ७४१३४ १
१९९. वही ५२/४०
२०१. वही, ५२०४० २०३. वही, ५२४० |
२०५. वही, ८९९६ ।
२०७. वही, २७८० 1
२०९. वही, २७/८२ ।
२११. वही, ७३ १६१ । २१३. वही, ७४११०२ ।
१९९
कुन्त शतघ्नी २००
·
1
२०७
"
मुसल २०१ बाण २०६ कृपाण . कनक २०८ आग्नेयास्त्र २१६ धर्म वस्त्र
.२१४
1
१८६, पद्म० ८९ ३५
१८८. वही, १०५।१२३ ।
१९०. वही, ६० । १०२ ।
१९२. वही, ६०।१३५ ।
१९४. वही, ६३१३४ ।
१९६. वही, १२/२५८ । १९८. वही, ५२४०
२००. वही, ५२।४० ।
२०२. बही ५२ ३९ ।
२०४. वही, १०३।१९ ।
२०६. वही, २७१७ ।
२०८. वही, २७।८२ ।
२१०. वही, २७८३ |
२१२. वही, ७४११०१ २१४. वही, ७४११०४ ।
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२१८ : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
इन्धन अस्त्र२१५, तामस वाण २१६, सहस्रकिरण अस्त्र२१७, हल२१८, उल्का २५९ मुद्गर २२९, परिघ२२१, कुठार २२२, सदर्शन चन२२१. रिका२२४. गा२२५ शर२२१. संवर्तक २२७, भिण्डिमाल २२८, वज्र २५, पाश२३०, पविटा, धन२१२, परिघ२९, आष्टि२३४, भुशुण्डी ३५, त्रिशूल२३६, शरासन२३५, करवाली२३८, अंलिप२१५, ग्राव२४०, दण्ड२४९, कोण२४२ इत्यादि शस्त्रों के नाम भी दिये गये है। शाल, वटवृक्ष तथा पहाड़ों के शिखर से भी युद्ध करने के संकेत मिलते हैं । १४१ ऐसा करना दिव्यमाया द्वारा सम्भव होता था और विद्या के प्रभाव से उसका निवारण होता था।२४४
| মিয় राज्य के सात अंगों में मित्र का महत्वपूर्ण स्थान है। राजाओं को विजय और पराक्रम बहुत कुछ उसके मित्र राजाओं पर अवलम्बित रहती है। वरुण को पराजित करने के लिए रावण ने विजयाई पर्वत की दोनों श्रेणियों में निवास करने वाले विद्याधरों को सहायता के लिए बुलाया । २४५ मित्र और शत्रु राजाओं की पहचान बड़ी मन्त्रणा ओर कसोटी के बाद तय की जाती थी। विभीषण जब राम की शरण में आया तन राम ने निकटस्थ मंत्रियों से सलाह की ।२४
२१५. प ७४११०५ । २१७. वही, ७४।१०८ । २१९. वहीं, ७५।५७ । २२१. वाही. ७५।५८ । २२३. वही, ७६७ । २२५. वही, ८३।१४।। २२७. वहीं, ५२०४५ । २२९. वही, ६०९। २३१. वही, ६२७। २३३, वही, ६२७ । २३५. बहो, ५०।१३२। २३७, वही, १२।१८८1 २३९. वही, २४१. वही, १०२५८ । २४३. वही, ५०।३२ । २४५. वहीं, १९।१।
२१६. पप ७४।१०६ । २१८. वही, ७५१५५ । २२०. वही, ७५।५७ । २२२. वही, ७५।५८ । २२४. वही, ७७।। २२६, याही, १०३।१७। २२८. वही, ५८/३४ । २३०. वही, ६२१७ । २३२. बही, ६२।७। २३४. वही, ६२१४५ । २३६. वही, ८२६२ । २३८. वही, १।२५७ । २४०. वहीं, १।२५८ । २४२. वही, २४४. वही, ५०॥३४। २४६. वही, ५५।५१ ।
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राजनैतिक जीवन : २१९
मतिकाम्त नामक मंत्री ने कहा कि संभवतः रावण ने छल से इसे भेजा है, क्योंकि राजाओं की चेष्टा बड़ी विचित्र होती है ।२४७ परस्पर के विरोध से कलुषता को प्राप्त हुआ कुल जल को तरह फिर से स्वच्छता को प्राप्त हो जाता है ।२४४ इसके बाद मसिसागर नामक मन्त्री ने कहा कि लोगों के मह से सूना है कि इन दोनों भाइयों में विरोध हो गया है। सुना जाता है कि विभीषण धर्म का पक्ष ग्रहण करने वाला है, महानोतिमान है, शास्वरूपी जल से उसका अभिप्राय धुला हुआ है और निरन्तर उपकार करने में तत्पर रहता है। इसमें भाईपना कारण नहीं है, किन्तु कर्म के प्रभाव से ही संसार में यह विचित्रता है, इसलिए दूत भेजने वाले बुद्धिमान विभीषण को बुलाया जाय । इसके विषय में योनि सम्बन्धी दृष्टान्त स्पष्ट नहीं होता अर्थात् एक योनि से उत्पन्न होने के कारण जिस प्रकार
दुष्ट है, उसी प्रक: दिनमो जुट होना चाहिए, यह बात नहीं है।२१९ मतिसागर मन्त्री का कहना मानकर राम ने विभीषण को, जबकि बह निश्छलता को शपथ खा चुका था तब यथेष्ट आश्वासन देकर अपनी ओर मिलाया । २५० एक स्थान पर कहा गया है फि दुष्ट मित्रों के लिए मन्त्रदोष, असत्कार. दान, पुण्य, अपनी शूरवीरता, दुष्ट स्वभाव और मन की दाह नहीं बतलानी चाहिये । २५१
राजा का निर्वाचन-राजा के निर्वाचन का आधार प्रमुख रूप से पित पितामह या वंशानुक्रम था। फिर भी राजा को म्याम व धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करना होता या । राजा बब धर्म से ग्युत हो जाता था तो जनता उसे रामसिंहासन से हटाकर बाहर निकाल देती थी। नरमांसभक्षो राजा सौदास को जनता ने सिंहासन से उतारकर नगर से बाहर निकाल दिया था । २५२
राज्याभिषेक-राजसिंहासन पर अधिष्ठित होने से पहले राजाओं का राज्याभिषेक होता था। इस अवसर पर अनेक राजा उपस्थित रहते थे। २५६ झभिषेक के समय शंख, पुन्दुभि, उनका, सालर, सूर्य तपा बांसुरी बादि बाजे बजाये जाते थे । २५४ तत्पश्चात होने वाले राजा को अभिषेक के आसन पर आरू कर चाँदी, स्वर्ण तथा नाना प्रकार के कलशों से अभिषेक किया जाता
२४७. पा. ५५५२ 1
२४८. पम० ५५०५३। २४९. वही, ५५।५४-७०
२५०. वही, ५५१७३ । २५१. मन्त्रदोषमसत्कारं दानं पुण्यं स्वशूरताम् ।
दुःशीलवं मनोदाहं दुमित्रेम्यो न वेदयेत् ।। पा० ४७।१५ । २५२. पद्म० २२।१४४ ।
२५३. पम ८८०२०, २५ । २५४. वही, ८८।२६-२७ ।
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२२० : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
था । २५" इसके बाद राजा को मुकुट, अंगद, केयूर, हार, कुण्डल आदि से विभूपित कर दिव्य मालाओं, वस्त्रों तथा उत्तमोत्तम विलेपनों से राजा को चर्चित किया जाता था । २५६ राजा के जयजयकार की वनि लगाई जाती थी ।२५७ राजा के अभिषेक के बाद उसकी पटरानी का भी अभिषेक होता था।२५८
प्रजापालन-प्रजापालन करते समय राजा सदायार की ओर विशेष ध्यान देता था, क्योंकि राजा जैसा करता था, प्रजा भी उसीका अनुसरण करने लगती थी । ११ जिस समय प्रजा के प्रतिनिधियों द्वारा राजा को शास हुआ कि चारों ओर यह चर्या है कि गजा दशरथ के पुत्र राम रावण द्वारा हरण की गई सीता को पुनः वापिस ले आये हैं,२६° उस समय उन्हें महान् दुःख हुआ और कदाचित् प्रजा बुरे मार्ग पर न चलने लगे यह सोचकर उन्होंने सीता का परित्याग कर दिया । कुल की प्रतिष्ठा पर रामा लोग अत्यधिक ध्यान देते थे । सीता का परित्याग करते समय राम लक्ष्मण से कहते है कि हे भाई! चन्द्रमा के समान निर्मल फुल मुझे पाकर अकीतिरूपी मेघ की रेखा से आवृप्त न हो जाय, इसीलिए मैं यत्न कर रहा हूँ । २५५ मेरा यह महायोग्य, प्रकाशमान, अत्यन्स निर्मल एवं उज्ज्वल कुल जम तक कलंकित नहीं होता तब तक शीघ्र ही इसका उपाय करो। जनता के सुख के लिए प्रो अपने आपको अर्पित कर सकता है, ऐसा में निर्दोष एवं शोल मे सुशोभित सीता को छोड़ सकता है, परन्तु कीर्ति को नष्ट नहीं होने दूंगा ।२६२ पिता के समान न्यायवत्सल हो प्रजा की अच्छी तरह रक्षा करना,२६३ विचारपूर्वक कार्य करना,२६४ दुष्ट मनुष्य को कुछ देकर देश में
२५५. पद्मा ८८३० ।
२५६. प ८८३१ । २५७, वही, ८८।३२ ।।
२५८, वही, ८८१३३ 1 २५९. वही, ९६।५।
किं च यादशभु:शः कर्मयोग निषेवते ।
स एव सहतेऽस्माकमपि नाथानुवर्तिनाम् ।। पद्य० ९६।५० । २६०. प ९६४८ । २६१. शशाङ्कविमल गोत्रमको तिघनलेखया ।
मा रुधेत्प्राप्य मां भ्रातरित्यहं यत्नतत्परः ।। पद्म० ९७१२१ । २६२. कुलं महार्हमेतन्मे प्रकाशममलोज्ज्वलम् ।
यावस्कल इक्यते नाऽरं तावदीपायिकं कुरु ।। पद्य० ९७।२३ । अपि त्यजामि वैयेही निर्दोषां शीलशालिनीम् ।
प्रमादयामि नो कीति लोकसौख्यहृतात्मक: ।। पद्म ९७।२४ । २६३. पद्म ९७५११८
२६४. पद्य ९७४१२६ ।
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राजा जयड : १
करना, आत्मीय जनों को प्रेम दिखाकर अनुकूल रखना, शत्रु को उत्तम शील अर्थात् निर्दोप आपग्ण से वश में करना, मित्र को सद्भावपूर्वक की गई सेवाओं से अनुकूल रखना,१६५ क्षमा से क्रोध को, मार्दव से मान को, बाउंव से माया को और धैर्य से लोभ को वश करना," राजा का धर्म माना जाता था ।
गुप्तचर तथा दुतव्यवस्था--प्रसिद्ध उक्ति है कि 'चारैः पश्यन्ति राजानः' राजा लोग चारों (गुप्तचरों) द्वारा देखते है। इस उक्ति से गुप्तचरों की महत्ता स्पष्ट होती है । पद्मचरित में भी इन्हें चार२६ कहा गया है। राजा माली के विषय में कथन है कि उसे वेश्या, बाहन, विमान, कन्या, वस्त्र तथा आभूषण आदि जो श्रेष्ठ वस्तु गुप्तचरों से मालूम होती थी, उस सबको धीरवीर माली बलात् अपने यहाँ बुलवा लेता था, क्योंकि वह विद्या, बल, विभूति आदि से अपने आपको थ' मानता था ।९५६ राजा मय' ने गुप्तचरों द्वारा दशानन में महल का पता लगाया था । २५९ गुप्तचर के साथ-साथ ब्रूतम्यवस्था भी उस समय पुरी-पूरी विकसित हो गई थी। माघ मे शिशुपालवध में चार को आँख और दूल को राजा का मुख बतलाया है !२७० द्रुत को शास्त्रज्ञान में निपुण राजकर्तव्य में कुशल, लोकव्यवहार का ज्ञाता, गुणों में स्नेह करने वाला,२७१ संकेत के अनुसार अभिप्राय को जानने वाला२७२ तथा स्वामी के कार्य में अनरस्त बुद्धि होना चाहिए ।२७१ महाभारत में निरभिमानता, अक्लीयता, निरालस्य, माषुर्य, दूसरे के बहकावे में न आना, स्वस्थता और बातचीत करने का सुन्दर तुंग पे आठ दूत के गुण कहे गये है।
दूत का का कार्य बड़ा साहसपूर्ण था। स्वामी के अभिप्राय के अनुसार उसे शत्रुपक्ष के सामने निवेदन करना पड़ता था। इतना होते हुए भी दूत मवष्य था ।२७५ रावण के पुष्ट अभिप्राय को व्यक्त करने वाले दूत पर ज्यों ही मामाल ने तलवार उठाई त्यों ही नीतिवान् लक्ष्मण ने उसे रोक लिया ।२७॥ यहाँ पर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रतिध्वनियों पर, लकड़ी आदि के बने पुरुषाफार पुतलों
२६५. पद्म० ९७४१२८ ।
२६६, पद्म० ९७११२९ । २६७. वही, ८।२२ ।
२६८. वही, ३५, ३६ । २६९. वही, ८।२२। २७०, 'चारेक्षणो दूतमुखः पुरुषः कोऽपि पार्थिवः । शिशुपालवध, २८२ २७१. पदम० ३९।८५ ।
२७२. पद्म० ६६।१३ । २७३, वही, ३९।८७ ।
२७४. महाभारत ५।३७४२७ । २७५. पद्म ६६१९०।
२७६, पद्म ६६।४।
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२२२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पर, सुआ आदि तिर्यकदों पर और यन्त्र से चलने वाली पुरुषाकार पुतलियों पर का क्या क्रोन करना है ?२७७ ऐसे ही एक स्थल पर दूत के प्रति कहा गया है -- ' जिसने अपना शरीर बेच दिया है और शोतं के समान कही बात को दुहराता है, ऐसे इस पापी दोन-हीन भृत्य का अपराध क्या है ?२७८ दूत जो बोलते हैं, विशाल की तरह अपने हृदय में विद्यमान अपने स्वामी से ही प्रेरणा पाकर बोलते हैं । दुत यन्त्रमयो पुरुष के समान पराधीन है। शत्रुपक्ष में इस तरह अपमान का सामना करते हुए भी सन्धिविग्रहादि की भूमिका निर्धारित कराने में दूत का अपना एक विशेष स्थान था, जिसके कारण स्वपक्ष में उसे पर्याप्त सम्मान प्राप्त था ।
२७९
सामन्त — दौत्य कार्य तथा विभिन्न युद्धों के प्रसंग में सामन्तों का उल्लेख पद्मचरित में आया है। एक बार जब रावण के मन्त्रियों ने रावण से राम के साथ सन्धि करने का आग्रह किया, तब रावण ने वचन दिया कि आप लोग जैसा कहते हैं वैसा ही करूंगा । २८० इसके बाद मन्त्र के जानने वाले मन्त्रियों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त शोभायमान एवं नीतिनिपुण सामन्तको सन्देश देकर शीघ्र ही द्रुत के रूप में भेजने का निश्चय किया । २०१ उस सामन्त दूत का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह बुद्धि में शुक्राचार्य के समान था, महाओजस्वी था, प्रतापी था, राजा लोग उसकी बात मानते थे तथा यह कर्णप्रिय भाषण करने में निपुण था । वह सामन्त सन्तुष्ट हो स्वामी को प्रणाम कर जाने के लिए उच्चत हुआ । अपनी बुद्धि के बल से वह समस्त लोक को गोष्पद के समान तुच्छ देखता था । २८२ जब यह जाने लगा तब अनेक शस्त्रों से युक्त एक भयंकर सेना जो उसकी बुद्धि से हो मानो निर्मित थी, निर्भय हो गई । दूत की तुरही का शब्द सुनकर वानर-पक्ष के सैनिक क्षुभित हो गए और रावण के आने की शंका करते हुए भयभीत हो आकाश की ओर देखने लगे । २८४
राजा अतिनो ने जिस
२७८. पद्म० ८ १८७ । २८०. वही, ६६।११ ।
२७७. पक्ष्म० ६६।५४
२७९. वही, ८।८८ ।
२८१, वही, ६६।१२ ।
२८२. अथ शुक्रसमो बुद्धधा महोजस्कः प्रतापवान् ।
कृतवाक्यों नृपैर्भूयः श्रुतिपेशलभाषणः । पद्म०६६/१५ ।
प्रणम्य स्वाभिनं तुष्टः सामन्तो गन्तुमुद्यतः ।
बृद्धघवष्टम्भतः पश्यन् लोकं गोष्पदसम्मितम् ॥ पद्म० ६६।१६ । २८३. पद्म० ६६।१७ १ २८४. पद्म० ६६।१८ ।
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राजनैनिक जीवन : २२३
समय भरत पर आक्रमण करने के लिए पुटकीपर राजा के पास सन्देश भेजा । अपमी तैयारी का वर्णन करते हुए वह लिखता है कि इस पृथ्वी पर मेरे जो सामन्त है वे कोष और सेना के साथ मेरे पास है ।२४" इन सब उल्लेखों से सामन्त की महत्ता स्पष्ट होती है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में सामन्त शब्द पड़ोसी राज्य के राजा के लिए आया है ।२८ शुक्रनीति के अनुसार जिसकी वार्षिक आय (भूमि से) एक लाख चाँदी के कार्षापण होती थी, वह सामन्त कहलाता था ।२८ वासुदेवशरण अग्रवाल ने सामन्त संस्था का विकास ऐसे मध्यान्य पधियों में तसने का पास किया है जिन्हें छोटे-मोटे रजबाड़ों के समस्त अधिकार सौंपकर शाहानुशाह या महाराजाधिराज मा बड़े सम्राट शासन का प्रबन्ध चलाते थे। युद्ध के प्रसंग में स्थ, हाथी, सिंह, सूकर, कृष्णमृग, सामान्यमृग, सामर, नाना प्रकार के पक्षी, बल, ऊंट, घोडे, भंस आदि वाहनों२८९ पर सवार, सिंह,१५० व्याघ्र,२९१ हाथियों,२१२ आदि से जुते रथों पर सवार तथा घोड़ों के वेग की तरह तीव्र गति वाले २९ सामन्तों का उल्लेख पनचरित में हुमा है।
लेखवाह ९४ (पन्नवाहक)-एक स्थान से दूसरे स्थान पर सन्देश भेजने के लिए राजा लोग लेख्वाह (पत्रवाहक) रखा करते थे। इन्हें उस समय की भाषा में लेखहारि२१५ भी कहा जाता था। ये लोग मस्तक पर लेख को पारण करते थे। इस कारण इन्हें मस्तक-लेखक भो कहा गया है ।२९
लेखक-पत्र को लिखने, पढ़ने आदि के लिए लेखक भी नियुक्त किये जाते थे। राजा पृथ्वीधर के यहां सन्धि-विग्रह को अच्छी तरह जानने वाला२९७ (साघुसधिनियहवेधने) एवं सब लिपियों को जानने में निपुण लेखक था ।२५८
युद्ध और उसके कारण-पदमचरित में अनेक युद्धों का वर्णन है । इन युद्धों के मूल कारण चार थे- (१) श्रेष्ठता का प्रदर्शन, (२) कन्या, (३) साम्राज्य विस्तार, (४) स्वाभिमान की रक्षा ।
२८५. पद्म ३७।१०। २८६. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, प० २१७ । २८७. वही, पृ० २१९ ।
२८८. वही, पृ० २१७ । २८९. पद्म० ५७।६६ ।
२९०, पद्म० ५७१४४ । २९१, वहो, ५७५२ ।।
२९२. वहीं, ५७।१८। २१३. वही, १०२।१९५ ।
२९४, बही, ३७।२। २९५. वही, १९६१ ।
२९६. वही, १९।४। २९७. वही, ३७।३।
२९८. वही, ३७४ ।
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२२४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
प्राचीनकाल में बीरभोग्या वसुंधरा का सिद्धान्त प्रचलित था। जो लोग शासन की अवहेलना करते थे या आज्ञा नहीं मानते थे ऐसे राजाओं के विरुद्ध दूसरे राजा जो अपने बुद्ध किया थे । राजा माली वेश्या, वाहून, विमान, कन्या, वस्त्र और आभूषण आदि जो श्रेष्ठ वस्तु गुप्तचरों से मालूम करता था उसे शीघ्र ही बलात् अपने यहां बुलवा लेता था । वह बल विद्या विभूति आदि में अपने आपको श्र ेष्ठ मानता था । २९९ इन्द्र का आश्रय पाकर जब विद्याधर राजा माली की माशा भंग करने लगे तब वह भाई तथा किष्किन्ध के पुत्रों के साथ युद्ध करने के लिए विजयागिरि की ओर चला । १००
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प्राचीन काल के अनेक युद्धों का कारण कन्या रही है । पद्मचरित में वर्णित राम-रावण का युद्ध इसका बड़ा उदाहरण है । इसके अतिरिक्त अभ्य भी अनेक उदाहरण यहाँ मिलते हैं। राजा शकषनु की कन्या अथचन्द्रा का विवाह जब हरिषेण के साथ हुआ तब इस कन्या ने हम लोगों को छोड़कर भूमिगोचरी पुरुष ग्रहण किया है ऐसा विचारकर कन्या के मामा के लड़के गंगाधर और महीधर बहुत ही क्रुद्ध हुए । बाद में युद्ध हुआ जिसमें हरिषेण विजयो हुआ । इसी प्रकार केकया ने जब दशरथ के गले में वरमाला डाली तब अन्य राजाओं के साथ दवारथ का मुद्ध हुआ ।
३०१
३०२
साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा के कारण राजा लोग अनेक युद्ध लड़ा करते थे । लक्ष्मण ने समस्त पृथ्वी को वश में कर नारायण पद प्राप्त किया था । १०३ सगर चक्रवर्ती छह खंड का अधिपति था तथा समस्त राजा उसकी माता मानते थे । ३०४ इस प्रकार साम्राज्य विस्तार की प्रवृत्ति अधिकांश बलशाली राजामों में दिखाई देती है । इसके कारण युद्ध अनिवार्य रूप से हुआ करते थे ।
कभी-कभी स्वाभिमान की रक्षा के लिए भी युद्ध हुआ करते थे । चक्ररन के अहंकार से चूर जब भरत ने बाहुबलि पर आक्रमण किया तब मैं और भरत एक ही पिता के दो पुत्र हैं इस स्वाभिमान के कारण उसने भरत के साथ मुख किया और दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध तथा जलयुद्ध में परास्त कर अन्त में विरमित के कारण दीक्षा ले ली । ३०५
गुणसिद्धान्त -- पद्मचरित के पष्ठ पर्व में राजा कुण्डलमण्डिल को गुणात्मक ( गुणों से युक्त ) कहकर उसकी विशेषता बतलाई गई है। यहाँ इन गुणों से २९९. पद्म० ७१३५-३६ ।
२०१. बही, ८३७४ ।
३०३. वहीं, ९४११० । ३०५. वही, ४१६७-७४ ।
३००, प० ३।३७ |
३०२ . वहीं, पर्व २४ । ३०४. वहीं, ५१८४
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राजनैतिक जीवन : २२५
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३०८
तात्पर्य क्या है, यह जान लेना आवश्यक है । कौटिल्य अर्थशास्त्र में सन्धि विग्रह, थान, आसन, संश्रय और द्वेषीभाव ये बाड्गुण्य अर्थात् छः गुण कहे गये हैं । किन्तु पद्मचरित में सन्धि ३०७ और विग्रह ३० इन दो गुणों का ख मिलता है । वातव्याधि ऋषि का कहना है कि सन्धि और विग्रह में दो ही मुख्य गुण हैं, क्योंकि इन्हीं दोनों गुणों से अन्यान्य छहों गुण स्वतः उत्पन्न हो जाते है । १०९ आसन और संश्रय का सन्धि में, यान का विग्रह में बोर द्वेषीभाव का सन्धि तथा विग्रह दोनों में अन्तर्भाव होता है ।
सन्धि - दो राजाओं के बीच भूमि, कोश तथा दण्ड आदि प्रदान करने की शर्त पर किए गये पणबन्ध (समझौते ) को सन्धि कहते हैं । १०
विग्रह — शत्रु के प्रति किये गये द्रोह या अपकार को विग्रह कहते हैं । * ११ आसन - सन्धि आदि गुणों की उपेक्षा का नाम आसन है । ११२ यान - शत्रु पर किये गये आक्रमण को यान कहते हैं । संश्रय - किसी बलवान् राजा के पास जाने को एवं अपनी स्त्री तथा पुत्र एवं धन धान्य आदि को समर्पण कर देने का नाम संप्रय है । द्वैधीभाव - सन्धि तथा विग्रह के एक साथ प्रयोग को द्वेषीभाव कहते
३१४
युद्ध की प्रारम्भिक स्थिति-युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व शत्रु राजाओंों के यहाँ दूता भेजा जाता था । दूत स्वाभी का अभिप्राय निवेदन कर लौट आता या । यदि शत्रु राजा वृत द्वारा कही गई बातों की अवहेलना करता था या उनको ठुकराता था तो युद्ध शुरू हो जाता था।' ३११ युद्ध करने से पूर्व बड़ों को सलाह
३०६. 'सन्धिविग्रहासनयानसंश्रयद्वैधीभावाः षाड्गुण्यमित्याचार्याः'
कौटिलीय अर्थशास्त्रम् ७ १ ।
३०८. पद्म० ३७३ ॥
३०७ १० ३७३, ६६।८ | ३०९. 'द्वैगुण्यमिति वातव्याधिः सम्धिविग्रहाभ्यां हि षाड्गुण्यं सम्पद्यत इति ॥ --कौटिलीय अर्थशास्त्रम् ७ । १ ।
३१०. 'तत्र पणबन्धः सन्धिः । कोटिलीय अर्थशास्त्रम् । ३११. 'अपकारो विग्रह' वहीं, ७१ ० ४२५ । ३१२, 'उपेक्षणं मासनं बही, ७११ । ३१३. 'बम्युच्चयो मानं बही, ७।१ । ३१४. 'परापणं संश्रयः, वही, ७१ ।
३१५. 'सन्धिविग्रहोपादानं द्वैधीभावः वही, ७११ ।
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३१६. पद्म० अष्टम पत्र - चषवण और सुमाली का युद्ध ।
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२२६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ली जाती थी । १७ इसके बाद मन्त्रियों से मन्त्रणा को जाती थी । २१८ सोच विचार कर ही कार्य किया जाता था, क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निम्फल हो जाता है । १९ खोत हार के विषय में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को महत्ता बी जाती थी। केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं है, क्योकि कार्य कागेशले माल का वर्णन मिना क्या सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । एक ही समान पुरुषार्य करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो आते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पात । १२° पूर्व जन्म के पुण्य के उदय से प्राणियों के लिए पर्वतों को चूर्ण करने वाला बन्न भी फूल के समान कोमल हो जाता है। अग्नि भी पन्द्रमा के समान शीतल विशाल कमल बन हो जाती है और खड्गरूपी लता भी सुन्दर स्त्रियों की सुकोमल भुजलता बन जाती है । २५
अच्छी सेना के लिए आवश्यक समझा जाता था कि उस सेना में न तो कोई मनुष्य मलिन, न दीन, न भूखा, न प्यासा, न कुस्सित वस्त्र धारण करने घाला और न चिन्तातुर दिखाई पड़े । सैनिकों के उत्साहवर्दन हेतु स्त्रियां भी पुरुषों के साथ जाती थीं । २२ युद्ध प्रारम्भ करने से पूर्व, मध्य में और अन्त में बाजे बजाये जाते थे 1 सबसे पहले यन्त्र आदि के द्वारा कोट को अत्यन्त दुर्गम कर दिया जाता था तथा नाना प्रकार की विधाओं के द्वारा नगर को गहरों एवं पाशों से युक्त कर दिया जाता था ।१२३ सच्चे शूरवीर युद्ध में प्राण त्याग करना अच्छा समझते थे पर शत्र के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं समझते
थे।३२४
वाद्यों का प्रयोग-पद्मचरित में अनेक बाधों के नाम आये हैं । ये मुर और विभिन्न माङ्गलिक समारोहों पर बजाये जाते थे। इनकी संख्या निम्नलिखित है
३१७. पन १२।१६३ ।
३१८. प. १२।१६४ । ३१९, वही, १२५१६४ । ३२०. भवत्यर्थस्य संसिवय केवलं च न पौरुषम् ।
कर्षकस्य विना दृष्टया का सिद्धिः कर्मयोगिन: ।। पप० १२।१६५ । समानमहिमानामां पठता च समादरम् ।
अर्थभानो भवास्येके मापरे कर्मणो दशात् ।। पप० १२।१६७ । ३२१. पप० १७।१०४-१०५ । ३२२. पत्र० १०२।१०६-१०७ । ३२३. वही, ४६१२३० ।
३२४. दही, १२।१७७ ।
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राजनैतिक जीवम : २२७ वोणा,३२५ बेणु,२॥ (बाँसुरी), शंख, २७ मृर्षम,२२८ सल्लर (झालर),२९ काहला,१३० मर्दक,*११ दुन्दुभि,१३९ भंभा," लम्पाक, धुन्धु, एक मण्ढुक, मम्ला,३५° अम्लातक, " हक्का,१ हुँकार,५४० दुन्दुकाणक, ४१ मर्डर,४२ हेतुकगुजा,३४१ दर्दुर, सूर्य,१४५ वंशाः, पटह' (नगाड़ा) लम्प, १४८ गुजा,२६१ रटित,३५० मला.१५१ का ५२ मा जुम्वा ।।
उपक्त वाद्यों से होने वाले शब्दों के अतिरिक्त हलाहला के शब्द, अट्टहास के शब्द, घोड़े, हापी, सिंह घोर ध्याघ्रादि के शब्द, भांड़ों के विशाल शब्द, बन्दीजनों के विरदपाठ,१५५ सूर्य के समान तेजस्वी रथों की मनोहर चीत्कार, पृथ्वी के कम्पन से उत्पन्न शब्द और इन सबकी करोड़ों प्रकार की ध्वनियों के शम्मा इस तरह विभिन्न प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है।
युद्ध की विधि (नियम)--पद्म चरित के अनुसार युद्ध की यह विधि (नियम) है कि दोनों पक्षों के खेदखिन्न तथा महाप्यास से पीड़ित मनुष्यों के लिए मधुर तथा शीतल जल दिया जाता है । १५७ भूख से दुःखी मनुष्य के लिए अमृत तुल्य अच्छा भोजन दिया जाता है । पसीना से युक्त मनुष्यों के लिए ३२५, पद्म० ६।३७९ ।
३२६. पप० ६४३७१। ३२७. वही, ६।३७१ ।
३२८. वही, ६६३७९ । ३२९. वही, ६१३७९ ।
३३०. वही, ६।३७९ । ३३१. वहीं, ६।३७९ ।
३३२, वही, ४९।४३ । ३३३. वही, ५८१२७ ।
३३४. वही, ३३५. वाही,
३३६. वही,
३३८. वही, ३३९. वहीं,
३४०. वहीं, ३४१. मही,
३४२. वहीं, ५८।२८ । ३४३. वही, ५८/२८ ।
३४४, बही, ५८।२८। ३४५. वही, ४३।३ ।
३४६. वही, ११०।३५ । ३४७. वही, ८२।३० ।
३४८. वही, ८२।३०। ३४९. वहीं, ८२॥३१
३५०. वही, ८२।३१ । ३५१. वही, ८०५५ ।
३५२. वही, ८०५५ । ३५३. वही, ८०५५ ।
३५४. वहीं, ८०।३२ । ३५५. वही, ८२१३३ ।
३५६. बाही, ८२॥३४॥ ३५७. खिन्नाम्यां दीयते स्वादु जलं तान्या सुशोतलम् ।
महातर्षाभिभूसाम्यामयं हिं समरे विधिः ।। पप. ७५।१ ।
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२२८ : पारित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
आलाद का कारण गोशीर्ष चन्दन दिया जाता है।५८ पंखे आदि से हवा की जाती है। बर्फ के जल के छीटें दिये जाते हैं तथा इनके सिवाय जो कार्य आबश्यक हों उनकी पूर्ति समीप में रहने वाले मनुष्य सत्परता के साथ करते है । ५९ युद्ध की यह विधि (नियम) जिस प्रकार अपने पक्ष के लोगों के लिए है उसी प्रकार दूसरे पक्ष के लिए भी है। युद्ध में निज और पर का भेद नहीं होता । ऐसा करने से ही कर्तव्य की सिद्धि होती है ।२१० जो राजा अतिशय बलिष्ठ शूरवीरों की चेष्टा को धारण करने वाले है वे न भयभीत पर, न ब्राह्मण पर, न मुनि पर, न निहत्थे पर, न स्त्री पर, न बालक पर, न पशु पर और न दूत पर प्रहार करते है ।३१ भयभीत शरणागत तथा शस्त्र डाल देने वाले पर भी प्रहार नहीं किया जा ३१२
सैनिक उत्साह-युद्ध के लिए जाते समय सैनिकों में अटूट उत्साह भर दिया जाता था ! इसके मूल में स्त्रियाँ, सेनापति, राजा, तरह-तरह के वाजे आदि अनेक होते थे। पद्मचरित का ७वा पर्व सैनिक उत्साह के वर्णन से भरा पड़ा है । यहाँ कुछ उदाहरण दिये जाते है
"जिसने महायुद्ध में अनेक बड़े-बड़े योद्धाओं का वर्णन सुन रखा था ऐसी किसी वीर परनी में पत्ति का आलिङ्गन कर इस प्रकार कहा-'हे नाथ ! यदि संग्राम में घायल होकर पीछे आओगे तो बड़ा अपयश होगा और उसके सुनने मात्र से ही मैं प्राण छोड़ दूंगी। क्योंकि ऐसा होने पर धीर किङ्करों की गीली परिनयाँ मुझे धिक्कार देंगी। इससे बढ़कर कष्ट की पास और क्या होगी जिनके - - - - - - - - --- ३५८. अमृतोपममन्नं च अधागलपनमीयुषोः ।
गोशीर्षचन्दनं स्वेदसंगिनो हादिकारणम् ।। पप ७५।२ । ३५९. तालवृन्तादिवातश्च हिमवारिफगो रणे ।
क्रियते तत्परैः कार्य मान्यदपि पार्श्वगः ॥ पद्म ७५३। ३६०. तथास्तयाऽन्येषामपि स्वपरवर्गतः ।
इति कर्तधाता सिक्षिः सकला प्रतिपयते ॥ पप० ७५३४ । ३६१, नरेश्वराः अजितशोर्यचेष्टा न भीतिभाजा प्रहरन्ति बातु । न ब्राह्मणं न श्रम न शुभ्यं स्त्रियं न बालं न पशु न दूतम् ।।
पप०६६१९.। यहाँ पर ब्राह्मणों के लिए विशेष संरक्षण से यह व्यनित होता है कि उस समय लोक में ब्राह्मणों की अधिक प्रतिष्ठा थी। ३६२. पम: ५७।२४ ।
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राजनैतिक जीवन : २२९ वक्षःस्थल में घाव आभूषण के समान सुशोभित हैं, जिनका कवच टूट गया है, प्राप्त हुई विजय से योवागण जिनको स्तुति कर रहे है, जो अतिशय धीर है तथा गम्भीरता के कारण जो अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं कर रहे हैं ऐसे आपको युद्ध से लौटा हुआ देखेंगी तो स्वर्णमय कमलों से जिनेन्द्रदेव की पूजा करूंगी । ३१ महायोडाथों का सम्मुखागत मृत्यु को प्राप्त हो जाना अभ्ठा है किन्तु पराङ्मुख हो धिक्कार, शब्द से मलिन जीवन बिताना अच्छा नहीं है ।३६४ कोई बोला-- हे प्रिये ! वे मनुष्य प्रशंसनीय हैं जो रणाग्रभाग में जाकर शत्रुओं के सम्मुख प्राण छोड़ते हैं तथा सुयश प्राप्त करते हैं । २५ किसी योद्धा ने नया मजबूत कवच पहिना था परन्तु हर्षित होने के कारण उसका शरीर इतना बढ़ गया कि फवध फटकर पुराने कवच के समान जान पड़ने लगा ।।
जब शत्रुघ्न ने मधु' पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया तब मन्त्रिसमूह ने इस बात की चर्चा की कि जो विद्याघरों के द्वारा दुःसाध्य था ऐसा महाशक्तिशाली मान्धाता जिसके द्वारा पहले युद्ध में जीता गया था वह मधु इस बालक के द्वारा कैसे जीता जा सकेगा।" कृताम्सवक्त्र सेनापति ने कहा कि जिसके मद को चारा घर रही हो ऐसा बलवान् हाथी यद्यपि अपनी सूंड से वृक्ष
३६३. वीरपत्नी प्रियं काचिदालिंग्यैबमभाषत ।
श्रुतानेकमहायोधपरमाहव विम्रमा ॥ पन्नः ५७३३ सङ्ग्रामे बिक्षतः पृष्ठे यदि नाथागमिष्यसि । दुर्यशस्तदहं प्राणान् मोक्ष्याभि श्रुतिमारतः ।। पय० ५७।४ । किङ्कराणामतः पत्न्यो वीराणामतिविताः । पिशब्दं मे प्रदास्यन्ति किन कष्टमतः परम् ॥ पद्म० ५७५ । रणप्रत्यागत धीरमरोवणविभूषणम् । विशीर्णकवचं प्राप्तजयं लब्धभटस्तवम् ॥ पम० ५७६ । द्रक्ष्यामि यदि धन्याहं भवातमविकत्यनम् ।
जिनेन्द्रानर्थयिष्यामि ततो जाम्बूनदाम्बुजैः ।। पच० ५७१७ । ३६४. आभिमुख्यगत मृत्यु पर प्राप्ता महाभटाः ।
पराङ्मुखाः न जीमन्तो घिकशब्दमलिनीकृताः ।। पद्म० ५७।८ । ३६५. नरास्ते दयिते श्याध्या ये गता रणमस्तकम् ।
त्यजन्त्यभिमुखा जीवं शत्रूणां लब्यकीर्तयः ।। पम० ५७१२१ । ३६६. पिन कस्यचिद्धर्म सुदुलं तोषहारिणः ।
वर्धा मानं ततः शीणं पुराणं फकटायितम् ।। पद्य० ५७३८ । ३६७. पद्म० ८९।४१ ।
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२३० : पमचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
को गिग देता है, तथापि यह सिंह के द्वारा मारा जाता है । मन लक्ष्मी और प्रताप से सहित है, धैर्यवान है, बलवान् है, बुद्धिमान् है और उत्तम सहायकों से युक्त है इसलिए अवश्य ही शत्र. को नष्ट करने वाला होगा । रामी सुप्रजा ने पुत्र शिशुध्न) को देखकर उसका मस्तक सुंघा और उसके बाद कहा कि हे पुत्र ! तू तीक्ष्ण बाणों के द्वारा शत्र समूह को जीते । ३५९ वोरप्रसविनी माता ने पुत्र को अर्घासन पर बैठाकर पुनः कहा कि हे वीर ! तुझे मुद्ध में पीठ नहीं दिखाना चाहिने :१७० पुरु ' मे रो ममी ही 'टा देर में स्वर्ण के कमलों से जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करूँगी।७१
युद्ध वर्णन----पद्मचरित में अनेक युद्धों का वर्णन हुआ है । इन युद्ध-वर्णनों को पढ़कर पढ़ने वाले के मन में वीर रस का संचार हो उठता है। उदाहरण के लिये द्वादश पर्व के कुछ उद्धरण ही पर्याप्त होंगे
युद्ध में घोड़ा घोड़े को मार रहा था, हाथी हाथी को मार रहा या, घुड़सवार घुड़सवार को, हाथी सवार हाथी के सवार को और रथ रथ को नष्ट कर रहा था । ३२ जो जिसके सामने आया उसी को चीरने में तत्पर रहने वाला पैदल सिपाहियों का झुण्ड पैदल सिपाहियों के साथ युद्ध करने के लिए उद्यत था । ७५ कोई एक योद्धा शिर कट जाने से यद्यपि कबन्ध दशा को प्राप्त हुआ श्रा तथापि उसने शत्र की दिशा में देग से उछलते हुए शिर के द्वारा ही रुधिर की वर्षा कर शत्रु को मार डाला था । जिसका चित्त गर्व से भर रहा था ऐसे किसी योद्धा का सिर यद्यपि कट गया था तो भी वह ओठों को सता रहा और हुंकार से मुखर होता हुआ चिरकाल बाद मीचे गिरा था ।५ कोई एक ३६८, पदम ८९।४६-४७ ।। ३६९, समीक्ष्य तनयं देवी स्नेहादानाय मस्तके ।
जगाद जय बरस स्वं शरैः शनगणं शितः ॥ पदम० ८९४२० । ३७०. वत्सम सने कृत्वा वीरसूरगवत् पुनः ।
वीर दर्शयितव्यं ते गृष्ठं संयति न विषाम् ।। पद्म ८९।२१ । ३७१. प्रत्यागतं कृतार्थ त्वां वीक्ष्य जातक संयुगात् ।
पूजां परी करिष्यामि जिनानां हेमपङ्कजैः ।। पदम० ८९५२२ । ३७२, पद्म० १२।१६४।
३७३. पदम० १।२६५ । ३७४, करिषत्कान्यता प्राप्तः शिरसा स्फुटरहसा ।
मुवस्तदिदशि कीलाल प्रतिपक्षमताश्यत् ॥ पदमा १२१२९२ । ३७५. कृत्तोऽपि कस्यचिम्मूर्धा गर्वनिर्भरचेतसः ।
दष्टदन्तच्छदोऽपप्तद्धुङ्गारमुखरपिचरम् ।। पद्म० १२।२९३ ।
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राजनैतिक जीवन : २३९ मयंकर योद्धा अपनी निकलती हुई भक्तों को बायें हाथ से पकड़कर तथा दाहिने १७ जो मोठ हाथ से तलवार उठा बड़े वेग से शत्रु के सामने जा रहा था । चाब रहा था तथा जिसके नेत्रों की पूर्ण पुत्तलियां दिख रही थीं ऐसा कोई योद्धा अपनी आँतों से कमर को मजबूत कसकर शत्रु की ओर जा रहा था ।
३७७
सैनिकों का विश्राम - किसी कारण जब युद्ध यन्द हो जाता था सब किङ्कर शिररहित घड़ आदि को हटाकर उस युद्धभूमि को शुद्ध करते थे और वहाँ कपड़े के ऊंचे-ऊंचे हेरे, कमातें तथा मण्डप आदि खड़े कर दिए जाते ये : उस भूमि को चौकियों से सुख दिया जाता थाओं में आवागमन बन्द कर दिया जाता था और कवच तथा धनुष को धारण करने वाले योद्धा बाहर खड़े रहकर उनकी रक्षा करते थे । १७९ लक्ष्मण को शक्ति लगने पर जब युद्ध विराम हो गया तब इसी प्रकार की व्यवस्था के बाद पहले गोपुर पर धनुष हाथ में लेकर नील बँठा, दूसरे गोपुर में गदा हाथ में धारण करने वाला मेघतुल्म नल लड़ा हुआ, तीसरे गोपुर में हाथ में शूल धारण करने वाला उदारता विभीषण खड़ा हुआ । यहाँ जिसकी मालाओं में लगे नाना प्रकार के रत्नों की किरणें सब ओर फैल रही थीं ऐसा विभीषण ऐशानेन्द्र के समान सुशोभित हो रहा था । १८० कवच और तरकस को धारण करने वाला कुमुद चौथे गोपुर पर खड़ा हुआ पांच गोपुर में माला हाथ में लिए प्रतापी सुषेण खड़ा हुआ जिसकी भुजायें अत्यन्त स्थूल थीं और भिण्डिमाल नामक शस्त्र से इन्द्र के समान जान पढ़ता था ऐसा वीर सुद्धोद स्वयं छठे गोपुर में सुशोभित हो रहा था तथा सातवें गोपुर में बड़े-बड़े नत्र राजाओं की सेना को मौत के घाट उतारने वाला भा मण्डल स्वयं तलवार खींचकर खड़ा था । १८२ पूर्व द्वार के मार्ग में शरभ विह्न से चिह्नित ध्वजा को धारण करने वाला शरभ पहरा दे रहा था। पश्चिम द्वार में जाम्बव कुमार सुशोभित हो रहा था । मन्त्रि समूह से युक्त उत्तर द्वार को घेरकर चन्द्ररश्मि नाम का बालि का महाबलवान् पुत्र खड़ा हुआ था । १८ युद्ध
३७६. कश्चित्करेण संरुध्य वामेनान्त्राणि सद्भटः ।
तरसा खङ्गमुद्यम्य ययौ प्रत्यरि भीषणः । पद्मः १२।२८५ ।
३७७. कश्चिन्निजैः पुरीतद्भिदृष्या परिकरं दृकम् ।
दष्टौष्ठोऽभिययी शत्रु
३७८. पम० ६३३२८ ।
३८०, वही, ६३३३०-३१ । ३८२. वही, ६३३३-३४ ।
हृष्टाशेषकनीनिकः ॥ पद्म० १२२८६ ।
३७९. पद्म० ६३।२९ ।
३८१. वही, ६३३२ । ३८३. वही, ६३।३५-३६ ।
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२३२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
ये नहीं लौटने वाले जो अन्य वातरध्वज राजा थे वे सब दक्षिण दिशा को व्याप्त कर खड़े हो गये ।३८४
युद्ध का फल-युद्ध के पश्चात् शान्ति स्थापित हो जाती थी। यही उसका फल था।
३८४, पद्म० ६३।३८ ।
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अध्याय ६
धर्म और दर्शन धर्म का लक्षण-जो धारण करे सो धर्म है । 'धरतीति धर्मः' यह उसका निरुक्त्यर्थ है ।' अच्छी तरह से आचरण किमा हुधा धर्म दुर्गति में पड़ते हुए जीवों को धारण कर लेता है, बचा लेता है, इसलिए वह धर्म कहलाता है। क्रोष, मान, माया और लोम ये चार कषाय (कषाय-.--जो आत्मा को दुःख दे) महाशत्र है, इन्हीं के द्वारा जोव संसार में परिभ्रमण करता है। समा से क्रोध का, मृदुता से मान का, सरलता से माया का और सन्तोष से लोम का निग्रह करना चाहिए ।' स्पर्शन, रसना (जीभ), नाण (नासिका), चक्षु और कर्ण ये पांच इन्ट्रियाँ प्रसिद्ध है, इनका जीतना घमं कहलाता है ।" त्याग भी विशेष धर्म कहा गया है।
धर्म का माहात्म्य-धर्म के माहात्म्य का वर्णन पदमचरित में विस्तार से किया गया है । इन सबके अध्ययन से ऐसा विदित होता है कि धर्म के फलस्वरूप अत्यधिक सांसारिक भोगों की प्राप्ति को बहुत अधिक विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। जैसे-धर्म से यम्स जीव को अत्यधिक गाय मंस आदि पशु, हाची, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते है। जो जीव धर्मपूर्वक मरण करते हैं वे ज्योतिश्चन को उल्लंघन कर गुणों के निवासभूत सोधर्मादिक स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं, धर्म का अर्जन कर कितने ही सामानिक देव होते हैं । कितने ही इन्न होते हैं, कितने ही अहमिन्द्र बनते हैं। धर्म के प्रभाव से उन महलों में उत्पन्न होते हैं जो कि स्वर्ण, स्फटिफ और बैडूर्य मणिमय, खम्भे के समूह से निर्मित होते है, जिसकी सुवर्णनिर्मित दीवाले सदा देदीप्यमान रहती है, जो अत्यन्त ऊँचे और अनेक
१. धारणार्थो धृतो धर्मशब्दो याचि परिस्थितः-पा० १४११०३ । २. पप० १४११०४।
३. पद्य १४|११० । ४. वही, १४।१११ ।
५. बहो, १४।११३ । ६. वही, १४॥३१३, १४।३११, ३१२, ८५।२२, ७४।५६-५८, १४।३२७,
१४:३१५-३१८, १४।१२६-१२८, १४.१२३-१२४, १४।१२०-१२२,
६०४१४२-१४३, ३५।८७-८९, ३०।१७०-१७१ मादि । ७. बहो, १४।३१५ ।
८. वही, १४॥३१६।
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२३४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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भूमियों (खण्डों) से युक्त होते हैं, आदि। धर्म के माहात्म्य को इस रूप में रखने का कारण यही जान पड़ता है कि लोग इन सांसारिक अभ्युदयों से आकृष्ट होकर धर्म के प्रति आस्था रखें। धर्म का वास्तविक उद्देश्य तो मोक्ष ही है। इसी को स्पष्ट करते हुए रविषेण ने कहा है कि जिस प्रकार नगर की ओर जाने वाले पुरुष को छेद निवारण करने वाला जो वृक्षमूल आदि का संगम प्राप्त होता है वह अनायास ही प्राप्त होता है उसी प्रकार जिनवासन रूपी मोक्ष की ओर प्रस्थान करने वाले पुरुष को जो बेव और विद्यावर आदि की लक्ष्मी प्राप्त होती है वह अनुषङ्ग से ही प्राप्त होती है, उसके लिए मनुष्य को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है । १०
उत्कृष्ट धर्म - चूंकि रविषेण जैनधर्म के अनुयायी थे। जैन धर्म के सिद्धान्तों का उन्होंने अम्स: परोक्षण करके उसे श्र ेष्ठ पाया था इसलिये उन्होंने कहाजिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कथित वाक्य ही उत्तम वाक्य है, जिनेन्द्र निरूपित तप ही उतम तप है, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रोक्त धर्म ही परमधर्म है और जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट मत हो परममत है ।" आज तक जितने सिद्ध ( मुक्त पुरुष) हुए हैं, जो वर्तमान में सिद्ध हो रहें और अल तक विद्ध होंगे वे जिनेन्द्र देव द्वारा देखे हुए धर्म के द्वारा ही होंगे अन्य प्रकार से नहीं ।'
१२
धर्म के भेद - आचरण की अपेक्षा धर्म के दो भेद हैं १२ १. सागारधर्म ( गृहस्थ धर्म ), २. अनगार धर्म ( मुनि धर्म) । इन दो प्रकार के धर्मों को मनुष्यों के दो आश्रम भी कहा गया है । *४ महाव्रत और अणुव्रत के भेद से भी धर्म दो प्रकार का कहा गया है। इनमें से पहला अर्थात् महाव्रत गृहत्यागी मुनियों के होता है और दूसरा अर्थात् अणुव्रत संसारवर्ती गृहस्थों के होता है ।'
१५
गृहस्थ धर्म- गृहस्थों का धर्म मुनिधर्म का छोटा भाई है ।"" गृहस्थ धर्म के द्वारा यह मनुष्य उत्तमोत्तम भांगों का भोग करता है 1 बाद में मुनिदीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त करता है ।" गृहस्थाश्रमवासी लोगों को पाँच अत चार शिक्षाक्षत, तोन गुणवत- इस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त यथाशक्ति हजारों नियम धारण करने पड़ते हैं । १६
९. पद्म० १४११२६-१२८ ।
११. वही, ६।३०० ।
१३. बड़ी, ३३ । १२१ । १५. हो, १४ १६४ । १७. वही, ९।२९६ । १९. बही, १४/१८२-१८३ १
१०. पद्म० ६।३०१-३०२१ १२. वही, ३१।१९
P
१४. वही ५।१९६ । १६. वही, ३२ १४६ ॥
१८. वही, ६।२९८ ।
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धर्म और दर्शन : २३५
पांच अणुव्रत १. स्थूल हिंसा का त्याग करना-धर्म का मूल दवा है और दया का मूल अहिंसा रूप भाव है ।२० संसार में समस्त वस्तुओं से प्यारा जीवन है, उसी के सब शाप है ।२१ मा को ऐसा जानकर कि जिस प्रकार मुझे अपना शरीर इष्ट है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना शरीर इष्ट होता है, सब प्राणियों पर दया करनी चाहिए । २२ जो मनुष्य मांस भक्षण से दूर रहता है, भले ही वह उपवासादि से रहित तथा दरित हो तो भी उत्सम गति उसके हाथ रहती है । इस प्रकार अहिंसा धर्म का प्रतिपावन और मांसभक्षण का निषेध पधचरित में बहुत विस्तार से किया गया है ।२४ _स्थूल झूठ का त्याग'--'जो वचन दूसरों को पौड़ा पहुंचाने में निमित्त है वह असल्म' कहा गया है क्योंकि सत्य इससे विपरीत होता है । २५ सत्यवसधारी के वचन सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीति से वह समस्त ससार को ग्याप्त करता है।२७
स्थल परद्रव्यापहरण का त्यागर-की गई चोरी इस जन्म में वष, पन्धन आदि कराती है और मरने के बाद कुयोनियों में नाना प्रकार के दुःख देती है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि चोरी का सर्व प्रकार से स्याग करें। जो कार्य तीनों लोकों में विरोध का कारण है वह किया ही कैसे जा
सकता है । २९
परस्त्री का त्याग-पाहे विधवा हो चाहे सघघा, चाहे कुलवती हो चाहे रूप से युक्त वेश्या हो, परस्त्रीमात्र का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर देना चाहिए । परस्त्री संसर्ग इस लोक तथा परलोक दोनों जगहों में विस्त है। लोगों को, जिस प्रकार अपनी स्त्री को कोई दूसरा मनुष्प छेहता है तो इससे अपने आपको
२०. पन ६।२८६ ।
२१. पद्म० ३८।६९ । २२. वही, १४१८६ ।
२३. वही, २६१९८॥ २४. वही, ३५।१६३, १६४, २६६६५, २६.६४, २६१६६, ६९, ७४, ७१,
१००-१०२, १०६, १०८, ३९१२२६, ५९।३०, ५३२६.३२८, ५।३४१३४२, ६।२८६-२८९, ११।७४, २७०, २७१, ११॥२७२-२७३, ८५२४
२५, ३२।१४९ । २५. वहीं, १४।१८४ ।
२६. वही, १४११८८ । २७. वहीं, ३२११५० ।
२८. वही, १४११०४। २२, वही, १४।१८९-१९० । ३०. वही, १२४-१२६ ।
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२३६ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति दुःख होता है उसी प्रकार दूसरे को भी दुःख होता होगा, ऐसा विचार करना
चाहिए ।३१
आन्त तृष्णा का माग- पनी इच्छा का सदा परिमाण करना चाहिए क्योंकि इच्छा पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो वह महादुःख देती है । ५३ परिग्रही मनुष्य के चित्त में विशुद्धता नहीं होती, जिसमें चित्त की विशुद्धता मूल कारण है ऐसे धर्म की स्थिति परिग्रही मनुष्यों से नहीं हो सकती है ।
चार शिक्षाशत-प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना. प्रोषधोपचास धारण करना, अतिथिसंविभाग और आयु का भय उपस्थित होने पर सल्लेक्षना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत है । ३४
सामाथिक-मन, वचन, काय और कुत (करना), कारित (कराना), अनुमोषना (करने की प्रशंसा करना), से पांचों पापों का रयाग करना सामायिक
प्रोषधोपवास--पहले और आगे के दिनों में एकासन के साथ अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास आदि करना प्रोषधोपचास है।"
अतिथि संविभाग—जिसने अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत नहीं दिया है, जो परिग्रह से रहित है और सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होकर घर भाता है, ऐसा मुनि अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथि के लिए वैभव के अनुसार आदरपूर्वक लोभरहित हो भिक्षा तथा उपकरण आदि देना चाहिए यही अतिथि संविभाग है ।१७ यश का अन्तर्भाव इसी के अन्तर्गत होता है।
सल्लेखना-इस लोक अथवा परलोक सम्बन्धी किसी प्रयोजन की अपेक्षा न करके शरीर और कषाय के कृश करने को सस्लेखना कहते है।"
३१. प. १४।१९२ ।
३२. प. १४११९४ । ३३. वही, २।१८० ।
३४. वही, १४।१९९ । ३५.५० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० १३१ (हिन्दी टीका) । ३६. वही, पृ० १३१ ।
३७. पप १४।२०१, २०० । ३८. पद्म० १११४० । ३९, तत्त्वार्थसूत्रकार (तस्वा० ७।२१) ने चार शिक्षाबत के अन्तर्गत अन्य भेदों
के साथ भोगोपभोग परिमाणवत को गिनाया। सहलेखना का कथन यहाँ चार शिक्षाप्रतों के अतिरिक्स, अलग से किया गया है । पद्मचरित में सल्लेखना को अलग से न कहकर भोगोपभोग परिमाणवत के स्थान पर सल्लेखमा को कहा है।
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धर्म और दर्शन : २३७ तीन गुणव्रत-अनर्थयों का स्याग करना, दिशाओं और विदिशाओं में आवागमन की सीमा निर्धारित करना और भोगोपभोग का परिमाण करना ये तीन गुणनत है ।१० प्रयोजन रहित पापवर्षक क्रियाओं का त्याग करना अनर्थदण्डवत है । मनर्थ दण्ड के पाँच भेद है
१. पापोपदेश (हिंसा आदि पाप के कामों का उपदेश देना)। २. हिंसादान (तलवार आदि हिंसा के उपकरण देना) । ३. अपध्यान-दूसरे का धुरा विचारना । ४. दुति-रागद्वेष को बढ़ाने वाले लोटे पाास्त्रों का सुनना ।
५. प्रमादचर्या--बिना प्रयोजन यहाँ वहाँ घूमना तथा पृथ्वी आदि का खोदना ।
भोगोपभोग-जो एक बार भोगने में आने उसे भोग और जो बार-बार भोगने में आये उसे उपभोग कहते हैं ।
ग्रत और उसकी भावनायें-हिंसा, मूठ, चोरी, कुशोल और परिग्रह इन पांच पापों से विरक्त होने को प्रत कहते है ।" येत भावनाओं से युक्त है। तत्त्वार्थसूत्र में व्रतों की स्थिरता के लिए प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनायें बतलाई है ।
४०. प५० १४।१९८ । सस्वार्थसूत्रकारने गुणवतों के अन्र्तगत दिग्वत, देशवत
और अनर्थदण्पन्नत ये सीन व्रत गिनाये है। पचरित में देशनत को अलग से न गिनाकर उसके स्थान पर भौगोपभोग का परिमाण करना गिनाया है। इसका मूल कारण यही मालूम पड़ता है कि दिग्नत और देशव्रत में समय की अपेक्षा अन्तर होता है। जीवनपर्यन्त के लिए दिन्नत में भी संकोच करके घड़ी, घण्टा, दिन, माह आदि तक किसी गृह, मुहल्ले आदि तक
माना-जाना रखना देशवत है। ४१. पं० पन्नालाल साहित्याचार्य की हिन्दी टीका सहित : मोक्षशास्त्र,
पृ० १३१ । ४२. वही, १० १३१ 1 ४३. हिंसामा अनुतात् स्तेयात् स्मरसङ्गात् परिमहात् ।
विरतितमुद्दिष्टं भावनाभिः समन्वितम् ।। पद्मा १११३८ ।
हिसानवस्तपाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वसम् । तत्त्वार्थसूत्र ७१। ४४, तत्त्वार्थसूत्र ७।३ । तत्स्थैर्यार्थ भावना: पंच पंच ।
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२३८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अहिंसा व्रत की पांच भावनाये वाग्गुप्ति-वचन को रोकना । मनोगुप्ति-मन की प्रवृत्ति को रोकना । ईर्यासमिति-चार हाथ जमीन खकार चलना ।
आदान निक्षेपण समिति-भूमि को जीवरहित देखकर सावधानी से किसी वस्तु को उठामा, रखना ।
आलोकितपानभोजन-देख शोधकर भोजनपान ग्रहण करना, ये पांच अहिंसानस की भावनायें हैं।
सत्यनत को नाममा क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग करना । लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग करना । भोरुत्वप्रत्याख्यान-मय का त्याग करना । हास्यप्रत्याख्यान-हास्म का त्याग करना । अनुवीचिभाषण-शास्त्र की आज्ञानुसार निर्दोषवचन बोलना 1 ये पांच सत्पन्नत की भावनायें हैं।
अचौर्यवत की भावनायें शून्यागारवास-पर्वतों की गुफा, वृक्ष को कोटर आदि मिर्जन स्थानों में रहना।
विमोचितावास-राजा वगैरह के द्वारा छुट्याए हुए दूसरे के स्थान में निवास करना।
परोपरोधाकरण-अपने स्थान पर ठहरे हुए दूसरे को नहीं रोकना । भेक्ष्यशुद्धि-शास्त्र के अनुसार भिक्षा की शुद्धि रखना।
सधर्माविसवाद-सहधर्मी भाइयों से यह हमारा है, वह आपका है इत्यादि कलह नहीं करना ।
ये पांच अचौर्यव्रत की भावनायें है।४७
४५. तत्त्वार्थसूय ७४ । ४६. 'क्रोघलोभभोरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च। वहीं, ७५ ४७. 'शून्यागारघिमोषितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माविसमादाः पञ्च'
तत्त्वार्थसूत्र ७६
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धर्म और दर्शन : २३९ ब्रह्मपर्वत की भावनायें स्त्रीराग कथा श्रवणत्याग-स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली फयाओं के सुनने का त्याग करना।
तन्मनोहराङ्गनिरीक्षण त्याग-स्त्रियों के मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना।
पूर्वरतानुस्मरण त्याग अग्रत अवस्था में भोगे हुए विषयों के स्मरण का श्याग
सुष्येष्टरस त्याग-कामवर्षक गरिष्ठ रसों का त्याग करना। स्वशरीर संस्कार त्याग- अपने शरीर के संस्कारों का त्याग करना । ये पाँच" ब्रह्मचर्य व्रत की भावनायें हैं।
परिग्रह त्यागवत की भावनायें-स्पर्श आदि पाँच इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट विषयों में कम से रागवेष का त्याग करना । ये पाच परिग्रहत्यागनत की भावनायें
नियम गृहस्थ मधु, मध, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से जो विरक्ति होती है उसे नियम कहते हैं ।१° एक स्थान पर कहा गया है कि जो मनुष्य मधु मांस और मदिरा नादि का उपयोग नहीं करते हैं वे गृहस्यों के आभूषण पद पर स्थित हैं।' पचचरित के चौदहवें पर्व में रविषेण ने करीव ५० श्लोको में रात्रि भोजन करने वालों को निन्दा तथा न करने वालों की प्रशंसा की है।५२ जिनके नेत्र अन्धकार के पटल से आच्छादित है और बुद्धि पाप से लिप्त है ऐसे प्राणी रात के समय मक्खी, कोड़े तथा बाल आदि हानिकारक पदार्थ खा जाते हैं । यो रात्रि भोजन करता है वह हाकिनी प्रेत भूत आदि नीच प्राणियों के साप भोजन करता है । जो रात्रि भोजन करता है वह कुत्ते, चूहे, बिल्ली आदि मांसाहारी जीवों के साथ भोजन करता है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जो रात में भोजन करता है वह सब अपवित्र पदार्थ खाता है। सूर्य के अस्त हो जाने पर जो भोजन करते हैं उन्हें विद्वानों में मनुष्यता से बंधे पशु कहा है। रात में अमृत
४८. 'स्त्रीरागकथाश्रवणसन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर
सस्कारत्यागाः पञ्च-तत्त्वार्थसूत्र ७७ ४९. मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागहषवर्धनानि पञ्च ७८। ५०. पच० १४।२०२।
५१. वही, १४।२१६ । ५२. वही, १४।२६७.३१८ । ५३. वही, १४।२७१-२७३ ।
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२४० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
मीना भी उचित नहीं है, फिर पानी की तो बात ही क्या है ?१४ जय नेत्र अपना व्यापार छोड़ देते हैं, जो पाप की प्रवृत्ति होने से अत्यन्त दारुण है, जो नहीं दिखने वाले सूक्ष्म जन्तुओं से सहित है तथा सूर्य का अभाव हो जाता है ऐसे समय भोजन नहीं करना चाहिए । ५५
आरम्भ का त्याग किया
७७
५८
अनगार धर्म (मुनि श्रम) - जब सब जाता है तभी मुनियों का धर्म प्राप्त होता है ।' ** यह धर्म बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा से रहित है । " अर्थात् अन्तर्मुखी है । आकाशरूपी वस्त्र धारण करने बाले अर्थात् नग्न दिगम्बर मुनियों के ही होता है । मुनि लोग यमी, वीतराग, निर्मुक्त शरीर, निरम्बर, योगी, ध्यानी, ज्ञानो, निस्पृह और बुध हैं अतः ये ही वन्दना करने योग्य हैं । चूंकि ये निर्वाण को सिद्ध करते हैं, इसलिए साधु कहलाते हैं, उत्तम आधार का स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरों को भी आपरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहे जाते हैं । ये गृहत्यागी के गुणों से सहित हैं तथा शुद्ध भिक्षा से भोजन करते हैं, इसलिए भिक्षुक कहलाते हैं और उज्ज्वल कार्य करने वाले हैं अथवा कर्मों को नष्ट करने वाले तथा परम निर्दोष धम में वर्तमान है इसलिए श्रमण कहे जाते है। १९
मुनि तथा मुनिधर्म के गुण -- पद्मचरित में मृनि तथा सुनिधर्म के बहुत से गुणों का निर्देश किया गया है जो निम्नलिखित हैं
प्रकार के
१. मुनियों का धर्म शूरवीरों का धर्म है 10
२. मुनिधर्म शान्त दशा रूप हैं
"
I
३. मुनिधर्म सिद्ध है 1२
४. मुनिधर्म साररूप है । ६६
हूँ। १५
ייני
५. मुनिधर्म क्षुद्रजनों को भय उत्पन्न करने वाला है १४
६. मुनि लोग अपने शरीर में राग नहीं करते हैं
६५
७. मुनिजन पाप उपार्जन करने वाले
५४. १५० १४/२७४ |
५५* वही, ६।२९३ ।
५७. वही,
५९. वही १०९८९-९० ।
६१. वही, ३०।८३ । ६३. वही,
६५. वही, १४०१७१ ।
बाला मात्र परिग्रह से रहित होते
५५. पद्म० १०६ । ३२, ३३ ।
५६. वही, ३३।१२१ ।
५८. वहो, १०९८८ ।
६०. वही ३०/६३
६२. वही,
६४. वही,
६६. षहो, १४।१७२ ।
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धर्म और दर्शन : २४१ ८. मुनिजन अत्यन्त धीरवीर गौर सिंह के समान पराक्रमी होते हैं।" ९. मनि लोग केशों का लोच करते हैं। १०. मुनिजन आत्मा के अर्थ में तत्पर रहते हैं। ११, चारित्र का भार धारण करते हैं।
१२. मुनिजन उत्तम बुद्धि को धर्म में लगाकर मनुष्यों का जैसा शुभोदय से सम्पन्न परम प्रिय हित करते हैं वैसा हित, न माता करती है म पिता करता है, न मित्र करता है न सगा भाई ही करता है।"
१३. मुनिजन पन्द्रम्प के माल गौम गौर दिलकर ( सूर्य ) के समान देदीप्यमान होते हैं । २
१४. से समुद्र के समान गम्भीर, सुमेरु के समान धोरवीर और भयभीत कछुए के समान समस्त इन्द्रियों के समूह को अत्यन्त गुस रखने वाले होते हैं।"
१५. मे क्षमा धर्म को धारण करते है । कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) के उद्रेक से रहित और चौरासी लाम्न गुणों से सहित है।४
१६. मुनि लोग सरल भावों को धारण करते है ।७५ १७. गाँव में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि तक हो ठहरते हैं।"
१८. पर्वत की गुफाओं, नदियों के तट अथवा भाग बगीचों में ही उनका निवास होता है।
१९, अन्याय करने वाले का कुछ भी प्रतिकार नहीं करते हैं। उपसर्ग (विघ्न-बाधा) को सहन करते है।
२०. यह भावना रखते हैं कि ज्ञानदर्शन ही मेरी आत्मा है । दूसरे पदार्थ के संयोग से होने वाले अन्य भाव पर पदार्थ हैं ।
२१. मरण समय समात्रि धारण करते हैं और सोचते है कि समाधिमरण के लिए न तृग ही संथारा (आसन) है, न उत्तम भूमि ही संथारा है किन्तु कलपित बुद्धि से रहित आत्मा ही संघारा है।"
६७. पद्म० १४।१७२ । ६१. वही, ३७।१६३॥ ७१. वहीं, ६१२१ । ७३, वही, १४११७५ । ७५. बही, १०९५८५ । ७७. वही, १०६।११८ । १७९, वही, ४१५६५ । ८१. वहीं, ८९:११०।
६८. पम० ३७११६१ । ७०. वही, ३७।१६४ । ७२. बड़ी, १४३१७४ 1 ७४, वहो, १४६१७६ । ७६. वही, १०६।११७ । ७८. वही, ४११७० । ८०. वही, ८९११०९।
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२४२: पद्मचरित और उसमें प्रतिपावित संस्कृति
२२. तर विचार में लीन रहते हैं।
२३. अधिकांश समय सद्ध्यान में लीन रहते हैं ।'
२४. मुनिधर्म का सर्वोत्कृष्ट गुण यह है कि उस धर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
४
मुनि के आवश्यक धर्म-पांच महाव्रत, ८५ परिषहों को सहन करना,'
८
८८
आठ भेदों को नष्ट करना
करना, सात भयों से रहित होना.' धर्म और अनुक्षा से युक्त होना ये सब मुनि के आवश्यक धर्म हूँ ।"
धारण करना,
८७
पांच महाव्रत - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पाँच पापों के पूरी तरह से (सर्वदेश) त्याग करने की पंच महाव्रत कहते हैं ।
९१
एषणा, आदान निक्षेपण और उत्सर्ग ये पाँच
पांच समिति ईर्ष्या, भाषा, समितियाँ हैं । १२
इयसमिति – नेत्रगोचर जीवों के समूह से बचकर गमन करने वाले सुनि के प्रथम ईर्यासमिति होती है। यह अत्तों में शुद्धता उत्पन्न करती है ।
१३
भाषासमिति- -सदा कर्कश और कठोर वचन छोड़कर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले यति का धर्म कार्यों में बोलना भाषा समिति है ।
૧૪
splendo
एषणासमिति - शरीर की स्थिरता के लिए पिण्ड शुद्धि पूर्वक मुनि का आहार ग्रहण करना एषणा समिति है ।'
14
तीन गुप्तियों का
पाँच समिति, अट्ठाईस मूलगुणों का पालन ८९ चारित्र,
-
आदाननिक्षेपण समिति — देखकर योग्य वस्तु का रखना और उठाना आदान निक्षेपण समिति है ।"
९७
उत्सर्ग समिति -- इसे प्रतिष्ठापन समिति भी कहते हैं । प्रासुक (स्वच्छजीव-जन्तु से रहित ) भूमि पर शरीर के भीतर का मल छोड़ना उत्सर्ग समिति
है ।
८२. पद्म० ८९११०८ ।
८४. वही, ६१२९५ ।
८६. वही, १०६ । ११४ ।
८८. वही, १०६।११३ ।
९०. वही, १९१२१९ ।
९२. वही, १४ । १०८ ।
९४. वही, २।१२३ ॥
९६. बही, २।१२५ ।
८३. पद्म० ३९।३३ ।
८५. वही, २०११४९ ।
८७. वही, ३७।१६५ ।
८९. वही, १०९१३० ।
९१. वही, १४ ३९ ।
९३. वही हरिवंशपुराण २११२२ ।
९५. हरिवंशपुराण २।१२४ ।
९७. वही, २।१२६ ॥
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वर्म और दर्शन : २४३ गुप्ति--वचन, मन और काय (शरीर) की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो माना अथवा नसमें कोमलता का आ जाना गुप्ति है।“ अज्ञानी जीव जिस कर्म को करोड़ों भवों में क्षीण कर पाता है उसे तीन गप्तियों का धारक ज्ञानी मनुष्य एक मूहूर्त में क्षय कर देता है ।१९
परिषह जय१०० --संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों का क्षय करने के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परिषह है । १०१ ये बाईस है । १०२
अट्ठाईस मूलगुण१०३ मुनिराज पाँच महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्माख्यान ये छः मावश्यक, स्नान त्याग, दन्तधावन त्याग, भूमिशमन, केशलोंच, नग्नता धारणा करना, सहे होकर नागर लेता, दिन में एक बार भोजन लेना, ये सात व्रत इस तरह अट्ठाईस मूल गुणों का पालन करते है ।१०४
सात भय१०५ इहलोक भय, परलोक भय, मरण भय वेदना भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय और आकस्मिक भय से सात भय हैं । १०५* मुनि इन सात भयों का त्याग करते हैं।
पाठ मदों का त्याग शान, पूजा (प्रसिष्ठा), कुल, जाति, शक्ति, ऋद्धि (धन सम्पत्ति), तप और
९८. पन १४।१०। २९. बहो, १०५।२०५ । १००. वही, ८७।१२। १०१. 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिसोढव्याः परिषहाः' । तत्वार्थ सूत्र ९५८ । १०२. 'क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकमाल्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याक्रोशषधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञा शानी दर्शनानि ।'
-तस्वार्थसूत्र १।९ । १०३. पद्मः ३९११६५ । १०४. आचार्य कुन्थुसागर : मुनिधर्मप्रदीप, पृ. ४ । १०५. पन० १०६।११३ । १०५.* पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र (हिन्दी टीका), पृ. १३२ । १०६. पन ११९१३० ।
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२४४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति शरीर इन आठ पदार्थों का आश्रय करके जो गर्व करना है वह मद कहलाता है।१०७ मुनि इन आठ मदों के त्यागी होते हैं।
चारित्र'०८ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय और यथाख्यात यह पा .. का है।५००
सामायिक-भेदरहित सम्पूर्ण पापों को त्याग करने को सामामिक चारित्र कहते हैं।१५०
छेदोपस्थापना-प्रमाद के वश से चारित्र में कोई दोष आ जाने पर प्रायश्चित्त के द्वारा उसको दूर कर पुनः निर्दोष चारित्र स्वीकार करना ।१११
परिहारविशुद्धि-जिस चारित्र में जीवों की हिंसा का त्याग हो जाने से विशेष शुद्धि हो जाती है उसको परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं । ११२
सूक्ष्मसापराय-अत्यन्त सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं ।१५
यथाख्यात-सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के शुद्धस्वरूप में स्थिर होने को यथास्यात चारित्र कहते हैं । १५४
धर्म १५ उपवास, अबमौदर्य (भूख से कम भोजन करना), वृप्तिपरिसंन्यान (मिक्षा को जाते समय गली आदि का नियम लेना) रस परित्याग (दुग्धादि रसों का त्याग), विविक्त शय्यासन (एकान्त स्थान में सोना बैठना), कायक्लेश (शरीर से मोह न रखकर योग आदि धारण करना) में छह बाह्य तप हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य (शरीर तथा अन्य वस्सुओं से मुनियों की सेवा), स्वाध्याय,
१०७. 'ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः 1 अष्टावाश्रित्यमानिरवं स्मयमाहर्गतस्मयाः' ।।
रनकरण्यश्रावकाचार, २५ । १०८, पत्र. ९।२१९। १०९. 'सामायिकद्रदापस्थापनापरिहारविशुद्धिसूकमसांपराय ययाख्यातमितिचारित्र ।'
तत्त्वार्थ ० ९।१८। ११०. मोक्षशास्त्र, पृ० १८२ (५० पन्नालाल जी)। १११. वही, पृ० १८२ ।
११२. वही, पृ० १८२। ११३. वहीं, पृ० १८२ ।
११४. वही, पृ० १८३ 1 ११५. पप० ९।२१९ ।।
११६. वही, १४।११४, ११५ ।
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धर्म और दर्शन : २४५
पुत्सर्ग ( बाय और आन्तरिक परिग्रह का त्याग ), और ध्यान से छह आम्एस्तर तप है । यह समस्त तप धर्म कहलाता है।
अनुप्रेक्षा शरीरादि अनित्य है, कोई किसी का शरण नहीं है, शरीर अपवित्र है, शरीर रूपी पिंजड़े से आत्मा पथक् है, यह अकेला ही सुख दुःख भोगता है। संसार के स्वरूप का चिन्तन करना, लोक की विचित्रता का विचार करना, आत्रयों (कर्मों का आना) के गुणों का ध्यान करना, संवर (मानव का मिरोष) की महिमा का चिंतन, पूर्वबद्ध कर्मों को निज रा का उपाय सोचना, बोधि अर्थात् सम्पनदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्म चारित्र को दुर्लभता का विचार करना और धर्म का माहात्म्य सोचना ये बारह अनुप्रेक्षाय (भावनायें) हैं । ११८ इन्हें हृदय में धारण करना चाहिए।
मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्यग्दर्शन, सभ्यग्ज्ञान और सम्य-वारित्र इनकी एकता को मोक्षमार्ग (मोक्ष प्राप्ति का उपाय) कहते है १११
सम्यग्दर्शन-तत्त्व का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।१२° एक अन्य स्थान पर कहा गया है जो पदार्थ जिस प्रसा: “यत है । सोर श्रदान करना परमसुख है और मिथ्या कल्पित पदार्थो का ग्रहण करना अत्यधिक दुःख है । इसका तात्पर्य यह है कि रविषेण सम्यग्दर्शन और सुख में अपेक्षया कोई भेद नहीं मानते थे ।
सम्यग्ज्ञान-जो वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित, अधिकता रहित और विपरीतता रहित जैसा का ससा सन्देहरहित जानता है उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । १२१
सम्यकचारित्र-सर्वज्ञ के शासन में कही हुई विधि के अनुसार सम्यमान पूर्वक जितेन्द्रिय मनुष्य के द्वारा जो आचरण किया जाता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं । १२ जिसमें इन्द्रियों का वशीकरण और वचन तथा मन का नियंत्रण ११७. पम १४।११६, ११७ । ११८. पद्म० १४॥२३७, २३९ । ११९, अहो, १०५।२१० ।
१२०. वही, १०५२११ । १२१. वहीं, ४३।३०। १२२. 'अन्यूनमनतिरिक्त याथातथ्यं विना च विपरीतात् । __ निःसन्देहं वेद पदाहस्तज्ज्ञानमागमिन' ||
-रमकरश्रावकाचार, ४२ । १२२२, पद्म १०५।२१५ ।
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२४६ : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
होता है,१२५ न्यायपूर्वक प्रवृत्ति करने वाले बस स्थावर जीवों की अहिंसा की जाती है,५२४ मन और वानों को आनन्दित करने वाले स्नेहपूर्ण, मधुर सार्थक और कल्याणकारी वचन कहे जाते हैं,१२५ अदत्त वस्तु के ग्रहण में मन, वचन, काय से निवृत्ति की जाती है तथा न्यायपूर्ण दी हुई वस्तु ग्रहण की जाती है,१२५ जहाँ देवों के भी पूज्य और महापुरुषों के भी कठिनता से घारण करने योग्य शुभ ब्रह्मचर्व धारण किया जाता है,१२५ जिसमें, मोक्षमार्ग में महाविघ्नकारी मूर्छा के त्यागपूर्वक परिग्रह का त्याग किया जाता है, १२५६ मुनियों के लिए परपीड़ा से रहित आदि गणे हि मिः . है। विनय, नियमशील धारण किया जाता है। उसे सम्यक चारित्र कहते हैं । १३०
सम्यग्दर्शन की महिमा-पाचरित में राम्यग्दर्शन की यत्र-तत्र बहुत अधिक प्रशसा तथा उसके विपरीत मिथ्यादर्शनादि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र) की निन्दा की गई है ।१३६ एक स्थान पर कहा है जो उत्कृष्ट है, नित्य है, आनन्दरूप है. उत्तम है, मुल मनुष्यों के लिए मानों रहस्यपूर्ण है, जगत्त्रय में प्रसिद्ध है, कर्मों को नष्ट करने वाला है. शुद्ध है. पविन है, परमार्थ को देने वाला है, जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है और यदि प्राप्त हुआभी है तो प्रमादी मनुष्य जिसकी सुरक्षा नहीं रख सके हैं, जो अभव्य जीवों के लिए. अज्ञेय है और दीर्घ संसार को भय उत्पन्न करने वाला है ऐसा मम्यग्दर्शन ही आत्मा का सबसे बड़ा कल्याण है । १३२ लक्ष्मण ने वनमाला के आग्रह पर पुनः वापिस आने के लिए जब बार-बार शपयें गाई और किसी प्रकार वनमाला को विश्वास नहीं हुआ तब अन्त में लक्ष्मण ने यह कहा-'गदि मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास वापिम न आऊँ तो सम्पग्दर्शन से हीन मनुष्य जिस गति को प्राप्त होते है, उमी गति को प्राप्त होऊ ।१३ सम्यग्दृष्टि मनुष्य सात आठ भवों में मनुष्य और देवपर्याय में परिभ्रमण से उत्पन्न हए सुख को भोगना हुमा अन्त में मुनि
१२३. पद्य १०५।११६ ।
१२४. पम० १०५।२१७ । १२५. वाहो, १०५।२१८ ।
१२६. वही, १०५।२१९ । १२७. वही, १०५६२२० ।
१२८. वही, १०५।२२१ ।। १२९, वही, १०५/२२२ ।
१३०. वही, १०५।२२३ । १३१, वह्नी, ४४४, १०५।२४२, २४०, २४३, ९९४४३, ४४, १४:३३४-३३६,
१४१२२९, १४।२०६, ६।३३४, २११८७, ५९।२९, २६।१०३,
११४६४३-४४, ८७।१२९, १३०, १०५।२२५-२२७ । १३२ वही, १२३४३-४५ । १३३, वही, ३८३३८ ।
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दीक्षा धारण कर मुक्त हो जाता हूँ । १६४
सम्यग्दर्शन के भेद - सम्यग्दर्शन दो प्रकार से होता है ।
१. स्वभाव से २ परोपदेश से । इसी अपेक्षा से इसके निसगंज और अधि गमन दो भेद किये हैं । १३५
सम्यग्दर्शन के पाँच अतीचार - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोष लगाना सम्यग्दर्शन के पांच अतीचार (दोष) है । {
११६
धर्म और दर्शन : २४७
शंका – जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए सुक्ष्म पदार्थों में सन्देह करना । कांक्षा - सांसारिक सुखों की इच्छा करना ।
विचिकित्सा - दुःखी, दरिद्री अथवा रत्नत्रय से पवित्र पर वाह्य में मलिन मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना ।
अन्यदृष्टि प्रशंसा - मिया दृष्टियों की प्रशंसा करना ।
पाँच अतीचार र विषेण ने प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोष लगाना कहा है जबकि तत्त्वार्थ सूत्र में अन्यदृष्टिसंस्तन ( मिथ्यादृष्टियों की स्तुति करना) कहा
११७
हे
जिन पूजा
पद्मचरित में जिनपूजा के माहात्म्य और उसके प्रकारों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है । जो मनुष्य जिनप्रतिमा के दर्शन का चिन्तन करता है वह बेला (दो उपवास) का, जो उद्यम का अभिलाषी होता है वह तेला (तीन उपवास) का, जो जाने का आरम्भ करता है वह चोला ( धार उपवास) का, जो जाने लगता है वह पाँच उपवास का, जो कुछ दूर पहुँच जाता है वह बारह उपवास का, जो बीच में पहुँच जाता है वह पन्द्रह उपवास का, जो मन्दिर के दर्शन करता है वह मासोपवास का, जो मन्दिर के आँगन में प्रवेश करता है, वह छह मास के उपवास को, जो द्वार में प्रवेश करता है वह वर्षोपवास का, जो प्रदक्षिणा देता है वह सौ वर्ष के उपवास का, जो जिनेन्द्रदेव के मुख का दर्शन करता है वह हजार वर्ष के उपवास का और जो स्वभाव से स्तुति करता है वह अनन्त उपवास के फल को प्राप्त करता है । यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर
१३४. पद्म० १०५।१४४ ।
१३५. तन्निसर्गादधिगमाद्वा || तत्त्वार्थसूत्र १३ ।
१३६. पद्म० १०५।२१३ ।
१३७. तत्त्वार्थसूत्र ७/२३ ० १०५।२११ ।
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२४८ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति उत्तम पण्य नहीं है । १३८ जो उत्तम वस्त्र का पारक है, जिसके शरीर से सुगन्धि निकल रही है, जिसका दर्शन सबको प्रिय लगता है, नगर की स्त्रियां जिसकी
सा कर रहा है, जो पन्चों को देखता हा चलता है, जिसने सब विकार छोड़ दिए हैं, जो उत्तम भावना से युक्त है और अछे कार्यों के करने में तत्पर है, ऐसा होता हुभा जो जिनेन्द्र देव की वन्दना के लिए जाता है उसे अनन्त पुण्य प्राप्त होता है । १३९ तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्य संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुए पुष्प को बराबरी नहीं कर सकते । १४० इत्यादि । १४°*
जिनेन्द्र पूजा की विधियाँ-पधचरित में जिनेन्द्र पूजा की निम्नलिखित विधियाँ उपलब्ध होती है
१. सुगन्धित जल से जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करना । २. दून की धारा से जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करना । १४५ ३. दही के कलशों से जिनेन्द्र का अभिषेक करना ।१४१ ४. घी से जिनदेव का अभिषेक करना ।१४४ ५. भक्तिपूर्वक जिनमन्दिर में रक्षावलि आदि का उपहार चढ़ाना । १४५ ६. जिनमन्दिर में गीत, नृत्य, धादित्रों से महोत्सव करना ।१४३ " तीनों कालों में जिनेन्द्र देव की वन्दना करना । १४७ ८. परिग्रह की सीमा नियत कर जिनेन्द्र भगवान् की भर्चा करना । १४८ ९. रत्न तथा पुष्पों से पूजा करना । १४५ १२. भावरूपी फूलों से जिनेन्द्र पूजा करना । ५० ११. चन्दन तथा कालागुरु आदि से उत्पन्न घूप पढ़ाना । ५५ १२. शुभभाव से दीपदान करना ।१५२
१३८. पम- ३१७८-१८२ । १३९, पद्म १४॥२१९, २२० ।। १४०. वही, ३२।१७४ । १४०*. वही, १४॥२०९, २१०, ३४४-३४६, २१२-२१४ । १४१. वहीं, ३२।१६५ ।
१४६. वही, ३२११६६ । १४३, वही, ३२।१६७ ।।
१४४. वही, ३२११६८ । १४५. घही, ३२११७१ ।
१४६. नहीं, ३२।१७१ । १४७. वहीं, ३२२१५८ ।
१४८, वही, ३२।१५३ । १४९. बहो, ४५।१०१, ३२११५९ । १५०. वही, ३२।१६० । १५१. वही, ३२॥१६१ ।
१५२. वही, ३२।१६२ ।
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धर्म और दर्शन : २४९ १३. छत्र, चमर, फम्नस, पताका, दर्पण आदि से जिनमन्दिर सजाना। ५२ १४. गन्ध से जिनेन्द्र भगवान् का लेपन करना ।
१५. सोरण, पताका, घंटा, लम्बूष, गोले, अर्धचन्द्र, चंदोबा, अत्यन्त मनोहर वस्त्र तथा अत्यन्त सुन्दर अन्यान्य समस्त उपकरणों के द्वारा पूजा
करना ।
१६. नवेद्य के उपहारों और उत्तम वर्ण के विलेपनों से पूजा करना । १५॥
दान दान चार प्रकार के होते हैं---१, आहारदान, ५७ अभयदान, १५८ औषधि हाम१५९ तथा शानदान । १०
पात्र और उसके गुण-पात्र की विशेषता से अनेकरूपता को प्राप्त हुए जीय दान के प्रभाव से भोगभूमियों में भोगों को प्राप्त करते हैं। जो प्राणि हिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और रागद्वेष से शून्य है उन्हें उत्तम पात्र कहते है । जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुख है ऐसा पात्र प्रशंसनीय है, क्योंकि उसके मिथ्वादृष्टि दाता के शरीर को शुद्धि होती है । १२ जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है। 'पातीति पात्रम्' इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थ है । चुकि मुनि सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते हैं अतः वे पात्र है । जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक पारित्र से सहित होता है यह उत्सम पात्र कहलाता है । जो मान, अपमान, सुख-सु.ख और तृण कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साघु पात्र कहलाता है। जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महातपश्चरण में लीन है और तत्त्वों के ध्यान में सदा तत्पर है ऐसे श्रमण मुनि उत्तम पात्र कहलाते है ।१६४
प्रशंसनीय दान-जिस प्रकार उत्तम श्रेत्र में बोया हया बीज अत्यषिक सम्पदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुवा दान अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है।'६५ जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने
१५३. पम० ३२११६३ । १५५. वही, ९५।३२, ३३ । १५७. वही, ३२१५४ । १५९. वही, १४१७६ । १६१. वही, १४१५२ । १६३, वही, १४१५५.५७ । १६५. वहो, १४॥६० ।
१५४. पप ३२।१६४ । १५६. वही, ६९।५ । १५८, वही, ३२।१५५ । १६०. वही, ३२११५६ । १६२. वही, १४।५३, ५४ । १६४. वही, १४.५८ ।
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२५० : पंपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
पानी पिया और सांप ने भी । गाय के द्वारा पिया पानी दूध हो जाता है और सांप के द्वारा पिया पानी विष हो जाता है उसी प्रकार एक ही गृहस्थ से उत्तम पात्र ने दान लिया और नीच ने भी। जो दान उत्तम पात्र को प्राप्त होता है उसका फल उत्तम होता है और जो नीच पात्र को प्रास होता है उसका फल नीना होता है।५ कोई पात्र मिथ्यादर्शन से युक्त होने पर भी सम्यग्दर्शन की भावना से युक्त होते हैं ऐसे पात्रों के लिए भाव से जो दान दिया जाता है उसका फल शुभअशुभ अर्यात् मिश्रित प्रकार का होता है। दीन तथा अन्रे आदि मनुष्यों के लिए कशाप्टान कहा गया है और उसग यापि फल की प्राप्ति होती है पर वह फल उत्तम फल नहीं कहा जाता । जो दाम निन्दित बताया है वह भी पात्र के भेद से प्रशंसनीय हो जाता है। जिस प्रकार शक्ति के द्वारा पिया पानी मोती हो जाता है ।१६१ भूमि का दान यद्यपि निन्दित है फिर भी यदि जिनप्रतिमा आदि को उद्देश्य कर दिया जाता है तो वह दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाले भोग प्रदान करता है ।१५० एक स्थान पर कहा गया है कि सामर्थ्य के अनुसार भक्तिपूर्वक सम्यग्दृष्टि लोगों के लिए जो दान देता है, जभी का एक दान है बाकी तो चोरों को लुटाना है ।१७१
निन्दनीय दान--जिरा प्रकार कमर जमीन में दीज बोया जाय तो उससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार भिध्यादर्शन से माहित पापी पात्र के लिए दान दिया जाय तो उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता । १७२ को रागद्वेष आदि दोषों से युक्त है वह पात्र नहीं है और न वह इच्छित फल देता है । ७३ लोम के वशीभूत दुष्ट अभिप्राय से युक्त तथा हाथी, घोड़ा, गाय आदि जीवों का दान भी बतलाया है पर तत्त्व के जानकार लोगों ने उसकी निन्दा की है । उसका कारण यह है कि जीव दान में जो जीव दिया जाता है उसे स्रोमा ढोना पड़ता है । नुकुली, परी आदि से उसके शरीर को आंका जाता है सपा लाठी आदि से उसे पीटा जाता है इन कारणों से उसे महा दुःख होता है और उसके निमित्त से अन्य जीवों को बहुत दुःख उठाना पड़ता है। यहाँ पर भूमिदान की भी निन्दा की गई है क्योंकि उससे भूमि में रहने वाले जीवों को पोड़ा होती है ।
१६६, पम० १४।६४ । १६८. वही, १४।६६ । १७०, वही, १४१७८। १७२. वही, १४॥६१ । १७४. वही, १४/७३ । १७६. वही, १४।७५ ।
१६७. प १४०६५ । १६९. वही, १४॥७७ । १७१. वहीं, १४.९५ । १७३. वहीं, १४॥६३ । १७५. वही, १४१७४ ।
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धर्म और दर्शन २५१
उपद्रव से रहित होना, १७८ १८१ आदि सुफल
विशाल सुख,
१७७
दान का फल –दान से भोग प्राप्ति, विशाल सुखों का पात्र होना, उतम गति, १८०
१७९
प्राप्त होते हैं ।
तीर्थंकर की प्राप्ति - शीषों की नाना दशाओं का निरूपण करते हुए रविषेण ने कहा है कि कितने हो धैर्यवान मनुष्य षोडश कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तीर्थकर पद प्राप्त करते हैं । १८ षोडश कारण मावनायें ये हैं
१. दर्शनविशुद्धि - जिनोपदिष्ट निश्च मोक्षमार्ग में दषि दर्शन विशुद्धि
१८३
हूँ ।
२. विनयसम्पन्नता - सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान के निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कृपाय की निवृत्ति करना विनयसम्पन्नता है । १९४
३. शीलवतेष्वनतिचार - अहिंसा आदि व्रत या उनके परिपालन के लिए कोषदर्जन आदि गीलों में काय, वचन और मन को निर्दोष प्रवृत्ति शीलतेब्बनविचार है । १८५
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग — जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने वाले मति आदि पांच ज्ञान है। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात्फल है तथा हित प्राप्ति अतिपरिहार और उपेक्षा व्यवहित फल हैं। इस ज्ञान को भावना में सदा तत्पर रहता अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है ।
1
१८६
५. संवेग - शरीर मानस आदि अनेक प्रकार के प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, इष्टका अलाम आदि रूप सांसारिक दुःखों से नित्यभीरता संवेग है | १८
६. त्याग पर को प्रीति के लिए अपनो वस्तु देना त्याग है । १२८
७. तप - अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है । १८२
८. साधुसमाधि - जैसे भण्डार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शाम्त
१७७. पद्म० ३२।१५४ १४ ९४-९५ १७९. वही ३२।१५६
१७८. पच० ३२ । १५५ १ १८०. वही,
१४४५२
१८१, वही, ३२ १५६ ।
१८२. वही, २१९२
१८२. तत्त्वार्थवार्तिक ६।२४ की व्याख्या वार्तिकनं० १ ।
१८४. वही, बार्तिक २ ।
१८६. वही वातिक ४ ३ १८८. हो, वार्तिक, ६ ।
१८५. वही, यातिक ३ ।
१८७. वही, वार्तिक, ५ ।
१८९. वही वार्तिक, ७
"
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२५२ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
की जाती है उसी तरह अनेक व्रत शीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साघु समाधि है । १५०
९. वैयावृत्य-गणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वयावृत्य है ।१९१
१, १२, ११ अदाचाटनानप्रवचनभकि-केवलज्ञान श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारो परहितप्रयण और स्वसमयविस्तार निश्चयज्ञ अर्हन्त आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले मोक्षगहल की सीढ़ी रूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग रखना अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचन भक्ति है ।१९२
१४. आवश्यकापरिहाणि-सामायिक, पतुर्विशतिस्राव, वन्दना, प्रति. क्रमण, प्रत्यास्पान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किार स्वाभाविक क्रम में करते रहना आवश्यकापरिहाणि है । सर्व सावळ योगों को त्याग करना, चित्त को एकाग्ररूप से शान में लगानः मामायिक है। तीर्थरों के गुणों का स्तवन चक्षुपिशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोन्नति और आवर्त पूर्वक धन्दना होती है। कृत दोषों को निवृत्ति प्रतिक्रमण है । भविष्य में दोष न होने देने के लिए मन्नर होना प्रत्याख्यान है। अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । ११३
१५. मार्गप्रभावना-महोपवास आदि सम्यक सपों से तथा सूर्य प्रभा के समान जिनपूजा से सशर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है ।१४
१६. प्रवचन वस्सलत्व-जैसे माय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह रखती है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचन वस्सलस्व है ।१९५
तीर्थ करत्व की प्राप्ति से युक्त जीय बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाता है । पदमचरित में कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव के आसनस्थ होने पर देव तिथंच और मनुष्यों से रोवित एक योजन की पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती है। भगवान् के आठ प्रातिहार्य और चौंतीस महातिशय प्रकट होते हैं तथा उनका रूप हजार सूर्यों के समान देदीप्यमान एवं नेत्रों को सुख देने वाला होता है । ५६ सुरेन्द्र असुरेन्द्र,
१९०, तत्त्वार्थबार्तिक ६।२४ की व्याख्या वार्तिक २० ८ । १९१. वही, नातिक, ९ ।
१९२. वही, वातिक, १० । १९३. वही, वार्तिक, ११ । १९४. वही, वार्तिक, १२ ।। १९५. वही, यातिक, १३ ।
१९६, पम. १४२६१, २६२ ।
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धर्म और दर्शन : २५३
i उनके जन्म
५९७
अमरेन्द्र तथा चक्रवर्ती उनकी कीर्ति का गान करते है । वे शुद्धशील के धारक देदीप्यमान, गवरहित और समस्त संसार रूपी सघन ज्ञेय को गोद के समान तुच्छ करने वाले सेज से सहि क्लेश खड़ी कठिन सन्धन को तोड़ने वाले, मोक्ष रूपी स्वार्थ से सहित अनुपम निर्विघ्न मुख स्वरूप वाले होते हैं लेते ही संसार में सर्वत्र ऐसी शान्ति छा जाती है कि सब रोगों है तथा दाप्ति को बढ़ाती है । उत्तम विभूति से हर्ष से जिनका कि आसन कम्पायमान होता है, आकर मेरु के अभिषेक करते हैं । राज्य अवस्था में वे बाह्य चक्र के तथा मुनि होने पर ध्यान रूपी चक्र के द्वारा अन्तरंग शत्रु को जीतते हैं। १९८ आठ प्रातिहार्य तीर्थकर भगवान् के माठ प्रातिहार्य, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, ये हैं१९९
का नाश करती भरें हुए इन्द्र,
युक्त,
शिखर पर भगवान् का
द्वारा बाह्य शत्रुओं को
१. अशोकवृक्ष का होना जिसके देखने से शोक नष्ट हो जाय ।
२. रत्नभय सिंहासन ।
३. भगवान् के सिर पर तीन छत्र फिरना ।
४. भगवान् के पीछे भामण्डल का होना ।
५. भगवान् के मुख से निरक्षरी दिव्यष्वनि का होना ।
६. देवों द्वारा पुष्पवृष्टि होना ।
७. यक्ष देवों द्वारा चौसठ चेवरों का बोला जाना ।
८. दुन्दुभि बाजों का बजना |
चौंतीस अतिशय --- [--आठ प्रातिहार्यो के अतिरिक्त ३४ अतिशयों के होने का भी उल्लेख ऊपर आया हूँ। चौतीस अतिशय निम्नलिखित हैं । इनमें से १० अतिशय जन्म से होते हैं, १० केवलज्ञान होने पर होते हैं और १४ देवकृत होते हैं ।
जन्म के १० अतिशय - १. अश्यन्त सुन्दर शरीर, २. अति सुगम्बमय शरीर ३ पसेवरहित शरीर, ४. मल सूत्र रहित शरीर, ५ हित मित प्रिय वचन बोलना, ६ अतुल्य बल, ७ दुग्ध के समान सफेद रुधिर ८ शरीर में १००८ लक्षण ९. समचतुस्त्र संस्थान शरीर अर्थात् शरीर के अंगों की बनावट स्थिति चारों तरफ से ठीक होना, १०. वज्र वृषभनाराचसंहनन ।
"
केवलज्ञान के १० अतिशय २०११. एक सौ योजन तक सुभिक्ष अर्थात्
-२००
१९७. पद्म० ८०११३१-१३३ । १९८ ० ८०।१४- १६ । १९९. बाबू शानचन्द्र जैन (लाहौर) जैन बाल गुटका, प्रथम भाग, पृ० ६८ । २०० ही ० ६५ ६६ / २०१. वहीं, पु०६६, ६८ ।
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२५४ : पद्मचरित्र और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जहाँ केवली भगवान् रहते हैं २. आकाश में गमन
है ।
उससे चारों ओर सौ-सौ योजन तक सुमिन होता ३. चार मुखों का दिखाई पड़ना । ४. अक्षया का अभाव, ५. उपसर्ग का अभाव, ६. कवल ( ग्रास) अहार का न होना, ७ समस्त विद्याओं का स्वामीपना, ८. केशों और नाखूनों का न बढ़ना, ९. नेत्रों की पलक नहीं टिमकाना, १०. छाया रहित शरीर |
देवकुल १४ अतिशय २०५
-
१. भगवान् को अ मागधी भाग का होना । २. समस्त बोबों में परस्पर मित्रता होना |
३. दिशा का निर्मल होना ।
४. आकाश का निर्मल होना ।
५. सभ ऋतु के फल-फूल धान्यादि का एक ही समय फलना ।
६. एक योजन तक की पृथ्वी का दर्पणवत निर्मल होना ।
७. चलते समय भगवान् के चरण कमल के तले स्वर्ण कमल का होना ।
८. आकाश में जय-जय ध्वनि का होना |
९. मन्द सुगन्ध पवन का चलना ।
१०. सुगन्धमय जल की वृष्टि होना ।
११. पवनकुमार देवों द्वारा भूमि का कण्टक रहित करना ।
१२. समस्त जीवों का आनन्दमय होना ।
१३. भगवान् के आगे धर्मचक्र का चलना ।
१४. छत्र, अमर, ध्वजा, घण्टादि अष्ट मंगल द्रव्यों का साथ रहना ।
द्रव्य निरूपण
धर्म, अवर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल के भेव मे द्रव्य छह प्रकार २० के है । धर्म- -गमन में परिणत पुद्गल और जीवों को गमन में सहकारी द्रव्य है- -जैसे मछलियों के गमन में जल सहकारी है। गमन न करते हुए पुद्गल व जीवों को धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता ।
-
।२०४
अधर्म - ठहरे हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म
२०२. बाबू ज्ञानचन्द जैन बाल गुटका, प्रथम भाग १० ६७ ।
२०३. १०० १०५।१४२ ।
२०४, गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण रामण सहयारी ।
तोयं जह मच्छाणं अशा व सो मेई ||१७|| - द्रव्यसंग्रह 1
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धर्म और दर्षन : २५५
दव्य है । जैसे-छाया यात्रियों को ठहरने में सहकारी है । गमन करते हुए जीव तथा पद्धगलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता ।२०५
आकाश–जो जीन आदि द्रव्यों को अवकाश देना है उसे साकाश सम्य कहते हैं ।२० लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो मेंदों से आकाश दो प्रकार का है । धर्म, अधर्म, काल, पुदगल और जीव जितने माकाश में है वह लोकाकाश है और आकाश से बाहर अलोकाका है ।२०७
लोक रचना-यह लोक अलोकाकाश के मध्य में स्थित दो मृदंगों के समान है, नीचे बीच में तथा ऊपर की ओर स्थित है। इस तरह तीन प्रकार से स्थित ष्ठोने के कारण इस लोक को पिलोक अथवा त्रिविध कहते है।
अधोलोक-मेरु पर्वत के नीचे मात भूमियों हैं। उनमें पहली भूमि रत्नप्रभा है, जिसके अम्बाल भाग को छोड़कर (नीचे के भाग को छोड़कर) ऊपर के दो भागों में भवनवासी तथा व्यन्तरदेष रहते हैं। उस रत्नप्रभा के नीचे महभय उत्पन्न करने वाली शर्करा प्रभा, बालुका प्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा नाम की छह भूमि है जो अत्यन्त तीन टुःख देने वाली है तथा निरन्तर धोर अन्धकार से व्याप्त रहती है ।२९८ एन मारकियों का तथा उनके दुःख का वर्णन पद्मचरित में अति विस्तार से किया गया है ।
मध्यलोक-मध्यलोक में जम्बूदीप को आदि लेकर शुभ नाम बाले असंख्यात द्वीप और लक्षण समुद्र को आदि लेकर असंख्यात समुद्र कहे गए हैं। ये द्वीप समुद्र पूर्व के द्वीप समुद्र से दून विस्तार वाले हैं, पूर्व-पूर्व को घेरे हुए है
२०५. ठाणजधाण अधम्मो पुग्गलजीवाणठाण सह्यारी ।
छाया जह पहियाणं अचठता णेच सो धरई ।। व्यसंग्रह । गाषा १८ २०६, अवगासदाण जोग्ग जीवादीण वियाण आया ।
जेण्ई लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ।। द्रव्यसंग्रह गाथा, १९ । २०७. घमावमा कालो पुग्गलजीवा य सति जावदिय ।
मायासे सो लोगो सत्तो परदो अलोगुत्ति ।। द्रव्यसंग्रह गाथा, २० । २०८, पदम १०९।११२, २६।७५-७६ ॥ २०९. वही, २६।७८-९४, १४०२७-६३, ६५३०८-३१०, १०५।११३-१३८ । २१०. जम्बूद्वीप मुना दीपा लवणाद्याश्च सागरोः । प्रकीर्तिताः शुभानाम
संख्यात परिवजिता : पद्म० १०५।१५४ । जम्बूदीप लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप समुद्राः ।। तत्त्वार्थ सूत्र ३७ ।
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२५६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति तथा वलय के आकार है। सबके बीच में सम्बद्वीप है ।११ जम्बद्वीप मेरुपर्वत रूपी नाभि से सहित है, गोलाकार है तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है, इसकी परिधि तिगुनी से कुछ अधिक कही गई है।५१२,
उस जम्बूद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक लम्बे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुकमी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। ये सभी समुद्र के जल से मिले है तथा इन्हीं के द्वारा जम्बुद्वीप सम्बन्धी क्षेत्रों का विभाग हुआ है । २१३ यह भरत क्षेत्र है इसके आगे हेमवत्, इसके आगे हरि, इसके मागे विदेह, इसके आगे रम्यक, इसके आगे हैरण्यवत और इसके आगे व्यहि रावत ये सात क्षेत्र जम्बूद्वीप में हैं। इसी जम्बद्वीप में गंगा आदि नदिया है। घातकीखंड तथा पुष्कराध में जम्बूद्वीप से दूनी-दूनी रचना है ।२१४ भरत और ऐरावत ये दोनों क्षेत्र वृद्धि और हानि से सहित हैं। अन्य क्षेत्रों की भूमियों व्यवस्थित है अर्थात् उनम कालचक्र २११. पूर्वाद द्विगुणविष्कम्भाः पर्वविक्षेपवर्तिनः ।
-वलयाकृत मोमध्ये जम्बू द्वीप : प्रकीर्तितः पद्म० १०५।१५५ । द्विििवष्कम्भाः पूर्व-पूर्व परिक्षेपिणो वलयाकृतयः । तत्वार्थसूत्र ३३८ । २१२. मेहनाभिरसौवृत्तौ लक्षयोजनमानमृत् । त्रिगुणं तत्परिक्षेपाधिकं परिकोतिसम् ।
-पद्० १०५।१५६ । तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्पविष्कम्भो जम्बू द्वीपः ।
तत्मार्थसूत्र ३९ २१३. पूर्वापरायतास्तत्र विशेयाः कुलपर्वताः ।
हिमवांश्च महाजयो निषघो नील एव च ।। रुक्मी च शिखरी चेति समुद्रजलसंगताः । वास्यान्यभिविभक्कानि जम्बूदीपगतानि च । -पा० १०५.१५७-१५८ । 'तविभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषचनीलरुक्मिशिस्त्ररिणो
वर्षघर पर्वताः' तत्वार्थ मुष ३।११ । २१४. भरतास्यमिदं क्षेत्रं ततो हैमवतं हरिः ।
विदेही रम्यकाख्यं च हरण्यवतमेव च ऐरावतं च विजेयं गड़गाद्याश्चापि निम्नगाः । प्रोक्तं द्विधातिकोखण्डे पुष्करा च पूर्वकम्, पन० १०५।१५९-१६० । 'भरतहमवतहरिविवह रम्यकहरण्यवतैरावत वर्षाः क्षेत्राणि ।।
-तत्त्वार्थसूत्र ३1१० गङ्गासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धारकान्तागीतागोतोदानारीनरकान्ता 'सुवणरूप्यकुलारकारक्तादाः सरितस्तन्मध्यगाः' तत्वार्थसूत्र, ३।२० द्वितिकीखण्टे ३।२३।.
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धर्म मौर दर्शन २५०
२१४.
का परिवर्तन नहीं होता । मनुष्य मानुषोत्तर पर्वस के इसी ओर रहते है, इनके आर्य और म्लेच्छ की अपेक्षा मूल में दो भेद हैं तथा इनके उत्तर भेद असंख्यात हैं । देवकुरु, उत्तरकुरु रहित विदेहक्षेत्र तथा भरत और ऐरावत इन तीन क्षेत्रों में कर्मभूमि हूँ और देवकुरु, उत्तरकुरु तथा अन्य क्षेत्र भोगभूमि के है। मनुष्यों को उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की और जस्य स्थिति को है । तियंत्रों की उत्कृष्ट तथा जवन्य स्थिति मनुष्यों के समान तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त की है ।२१७
ऊर्ध्वलोक - ज्योतिपी भवनवासी, व्यन्तर और कल्पवासी के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। संसार के प्रत्येक प्राणी इनमें जन्म लेते हैं । २९१ व्यन्तर देवों के किन्नर आदि आठ भेद हैं। व्यन्तर और ज्योतिषी देशों का निवास ऊपर मध्यलोक में है । इनमें ज्योतिषी देवों का वक्र देदीप्यमान कान्ति का धारक है, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ निरन्तर चलता रहता है तथा सूर्य
२१४.* भतशवतक्षेत्रे वृद्धिहानिसमन्विते । शेषास्तु भूमयः प्रोक्तास्तुल्यबालब्यवस्थिताः - पद्म० ३३४७ 'भरत रावतयो वृद्धि हासी षट्समयाम्यामुत्खपिष्यवसर्पिणीभ्याम् । - तत्त्वार्थसूत्र ३ २७
२१५. विदेहकर्मणो भूमिर्भररावते तथा देवोत्तरकुरुर्भोगक्षेत्र शेषादच भूमयः ०५/१६२ | नार्या म्लेच्छा मनुष्याश्च मानुषा चलतो पराः । विज्ञेयास्तत्प्रभेदादच संख्यातपरिवर्जिताः ॥ प० १०५/१६१ । त्रिपल्यान्तर्मुहूर्त तु स्थिती नृणां परावरे
मनुष्याणामिव ज्ञेया विर्यग्योनिमु
पेयुषाम्, -
'प्रामानुषोत्तराम्मनुष्याः । -- तत्त्वार्थ सूत्र ३०३५ ॥
आर्या म्लेच्छाश्च ३।३६ त० सूत्र |
भरत रायत विदेहाः कर्मभूमयोऽन्यदेव कुरुतरकुरुभ्यः:-२० सूत्र ३१३७, 'स्थिती परावर त्रिपस्योपमान्तर्मुहूर्त' ३१३८ ० सूत्र । तिर्यग्योनिजानां ३।३९ ० सूत्र ।
२१६. ज्योतिषा भावना कल्पा व्यन्तराश्च चतुर्विषाः ।
देवा भवन्ति योग्येन कर्मणा जन्तवो भवे ॥
- पद्म० ५।१६३ ।
प० ३१८२, देवाश्चणिकायाः ४ १ तत्वार्थ सूत्र ।
२१७. 'भ्यन्तराः किन्तर किंपुरुष महो गगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः' ।
'अष्टभेदजुषो वेद्याभ्यन्तराः किन्नरादयः ॥
13
तत्वार्थसूत्र ४|११ |
पद्म० १०५।१६४ ।
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। २५८ : पद्मचरित मौर उसमें प्रतिपादित संस्कृति
और चन्द्रमा उसके राजा है ।२१८ ज्योतिश्चक्र के ऊपर संख्यात हजार योजन व्यतीत कर कल्पवासी देवों का महालोक शुरू होता है यही ऊर्ध्वलोक कहलाता है । २१ अर्वलोक में सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, सत्य, ब्रह्मोसर, लाम्तब, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत और मारण अच्युप्त ये आठ युगलों में १६ स्वर्ग है । उनके ऊपर प्रेयेयक कहे गये हैं जिनमें अहमिन्द्र रूप से उस्कृष्ट देव स्थित है। (नव प्रेषयक के आगे नव अनुदिश है मौर उनके ऊपर) विजय, धजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा ससिद्धि में पांच अनुत्तर विमान हैं ।२२०
सिद्धक्षेत्र-इस लोकत्रय के ऊपर उत्तम देदीप्यमान तथा महाआश्चर्य से युक्त सिद्धक्षेत्र हैं, जो कर्म बन्धन में रहित जीवों का स्थान है। ऊपर ईषत्प्राग्मार नाम की यह शुभ पृथ्वी है जो ऊपर की ओर किए हुए धवलकत्र के आकार है, शुभरूप है, जिसके ऊपर पुनर्भव से रहित, महासुख सम्पन्न तथा स्वात्मपित से युक्त सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं ।२२५
२१८. पद्म १०५।१६५ । मेरुप्रदक्षिणाः नित्यगतयो नुलोके, ४।१३ तत्त्वार्यसूत्र । २१९. पश्य० १०५।१६६, मानिकाः ॥ तरवार्यमुत्र ४।१६ । २२०, सौधमख्यिस्तर्थशानः कल्पस्तक प्रकीर्तितः ।
ज्ञेयः सानत्कुमाररुच तथा माहंद्रसंज्ञक: ।। ब्रह्मा ब्रह्मोत्तरो लोको लान्तवश्च प्रकीर्तितः । कापिण्ठश्च तथा शुक्रो महाशुक्राभिषस्तथा ॥ घातारोऽय सहसारः कल्पश्चानतशब्दिप्तः । प्राणतश्च परिजेयस्तरपरावारणाच्युतौ ।। नवर्गवेयकास्ताम्यामुपरिष्टात्प्रकीर्तिताः । अहमिन्द्रतया येषु परमास्त्रिदशाः स्थिताः ।। विजयो वैजयन्तश्च अयम्सोऽथापराजितः । सर्वार्थमिद्धिनामा प पंचतेऽनुत्तराः स्मृताः ॥
पद्म १०५।१६७-१७१। उपर्युपरि-तत्वार्थसूत्र ४४१८ । सौश्चर्मशानसानमारमाहेमब्रह्मणह्मोत्तरलान्तकापिष्ठशुक्रमहामुकशतारसहसारेष्वानत प्राणतयोरारणाच्युतयो नवसु प्रैवेयकेष विजयबैजयन्तजयन्ता
पराजितेषु सर्वार्थसिद्धी प-तत्वार्थ सूत्र ४।१९ । २२१. प० १०५।१७३-१७४ ।
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धर्म और दर्शन २९९
1
काल — जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रस्मों के हर समान परस्पर न्न होकर एक-एक है में काला बसस्यात द्रव्य है । २२१ * इन्द्रियों के द्वारा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता फिर भी महात्माओं ने बुद्धि में दृष्टान्त की कल्पना कर उसका निरूपण किया है। कल्पना करो कि एक योजन प्रमाण आकाश सब ओर से दीवालों से वेष्टित है तथा तत्काल उत्पन्न हुए भेड़ के बालों के अप्रभाग से भरा हुआ है | यह गर्त किसने लोदा किसने भरा एक-एक रोमखण्ड निकाला जाय, जितने समय में खाली हो जाय उतना समय एक पल्य कहलाता है । दश कोड़ाकोड़ी पहयों का एक सागर होता है और दश कोड़ाकोटी सागरों की एक अवसर्पिणी होती है। उतने ही समय की उत्सर्पिणी भी होती है। जिस प्रकार शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष निरन्तर बदलते रहते हैं उसी प्रकार कालय के स्वभाव से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल निरन्तर बदलते रहते हैं। इन दोनों में से प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं । संसर्ग में आने वाली वस्तुओं के वीर्य आदि में भेद होने से इन छह-छह भेदों की विशेषता सिद्ध होती है | अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा सुषमा काल कहलाता है। इसका बार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण हैं। तीसरा भेद सुषमा-दुषमा कहा जाता है। इसका दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । चोथा भेद दुःखमा सुखमा कहलाता है। इसका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोड़ी सागर प्रमाण है । पचिया भेद दुःखमा और छठवाँ भेद दुःखमा दुःखमा कहलाता है। इसका प्रत्येक का प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है २२२
जीव - शेय और दृश्य स्वभावों में जीव का जो अपनी शक्ति से परिणमन होता है वह उपयोग कहलाता है, उपयोग ही जीव का स्वरूप है २ आत्मा के चैतन्यगुण से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं । उपयोग जोब का तभुत लक्षण २४४ है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का हूँ । २२५ ५ह जीवराशि अनन्त है । इसका क्षय नहीं होता है । जिस प्रकार बालू के कणों का अन्त नहीं है, आकाश का अन्त नहीं है और चन्द्रमा तथा सूर्य की किरणों का अन्त नहीं है उसी प्रकार जीवराशि का भी अन्त नहीं है । २२६
२२१. लोवायासपसे कि जे ठिया हु इक्किस्का ।
रयणाण रासी इवते फालाणू असंलदम्वाणि । व्यसंग्रह-गाथा २२ । २२२. पद्म० २०७३-८२ । २२३. वही, १०५ | १४७ ॥ २२४. पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० ३४ । २२५. पद्म० १०५।१४७ ।
२२६. वही, ३१ १६
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२६.: पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
ज्ञानोपयोग-सानोपयोग के मति श्रुत अननि, मनःपर्यय और केवलज्ञान तथा कुपति, कुश्रुत और कुअवधि ये आठ भेद हैं । १०
दर्शनोपयोग-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अषि दर्शन, केवलदर्शन ये चार भेद दर्शनोपयोग के है।
जीव के भेद-जीब के संसारी और मुक्त की अपेक्षा दो भेद है । १२८ संसारी जोव के संज्ञी (मन सहित) और असंझी (मनरहित) भेद से दो प्रकार हैं।२१ जीव शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म और बादर (स्थूल) के भेद से दो प्रकार के है ।२३० इन्हीं जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक (आहारादि को अपूर्णता) की अपेक्षा भी दो भेद है।३१ गति, काय, योग, बंद, लेश्या, कषाय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मुणस्थान, निसर्गज एवं अधिगमज सभ्यग्दर्शन, नामादि निक्षेप और सस, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शग, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहत्व इन आठ अनुयोगों को अपेक्षा जीव तत्व के अनेक भेद होते हैं ।
गति-गतिनामकर्म के उदय से होने वाली जोय की पर्याय को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते है। उसके चार भेद हैं-नरक गति, निर्यगति, मनुष्यगति, देवगति १२३३ पप्रचरित में इन गतियों के दुःखों फा निरूपण किया गया है .२१४
इन्द्रिय-- इन्द्रियों की अपेक्षा जीव के पांच मंद है----एकन्द्रिय, वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पांच इन्द्रिय ।२१५
काय-जाति नाम कर्म के अधिनाभावी ( जाति नाम कर्म के होने पर होने पाले और न होने पर न होने वाले) अस और स्थावरमाम कर्म के उदय से होने वाली आत्मा को पर्याय (अवस्था) को काय कहा है। य" पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु
२२७. पं० पन्नालाल साहिल्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० ३४ । २२८. संसारिणो विमुक्तारम-पद्मचरित १०५।१४८, 'संसारिणो मुक्ताश्च',
-तत्त्वा० २।१०। २२९. सषितविचेतसः-पद्य १०५:१४८ । २३०. सूक्ष्मबादरभेदेन जेमास्ते च धारीरतः-पप० १०५।१४५ । २३१. पर्याप्ता इतरे व पुनस्ते परिकीर्तिताः-पद्म० १०५।१४५ । २३२. पदम २।१५९-१६० । २३३. गोम्मदसार जोनकर, पु. ५९ । २३४, पद्म २११६५, १६६, १४॥३५, २॥१६४, २६७८-९४ । २३५. पप १४॥३७1 २३६. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, १८० ।
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धर्म और दर्शन : २६१
और वनस्पति ये पाँच स्थावर कहलाते हैं, दोष त्रस कहलाते हैं। इन छहों को मिलाकर जीव के छह निकायें हूँ । २२७
योग- काय, वचन और मन की क्रिया योग है । २३८ पातञ्जल योगदर्शन में चित्तवृति के निरोध को योग कहा गया है। (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ) जैन ग्रन्थों में भी इसका यह अर्थ कहीं-कहीं देखने को मिलता है। लेकिन यहाँ इसका अर्थ यही है जो ऊपर दिया गया है।
वेद - पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद कर्म के उदय से भाव पुरुष भावस्त्री, भाव नपुंसक होता है । और नामकर्म के उदय से द्रव्य पुरुष, दृश्य स्त्री और द्रव्य नपुंसक होता है। यह भाववेद और द्रव्यवेद प्राय: करके समान होता है, परन्तु कहीं-कहीं विषम भी होता है । २३९
लेश्या - जिसके द्वारा जोब अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे उसको लेश्या कहते हैं । २४० तत्त्वार्थवार्तिक में कबाय के उदय से अनुरक्त योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है । २०१ यह कृष्ण, नील, कापोट, पीत, पद्म, शुक्ल के भेद से ६ प्रकार की होती है ।
कषाय - जो आत्मा को कर्ष अर्थात् चारों गतियों में भटकाकर दुःख दे २४२ क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं । २४०
ज्ञान --- जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायों (अवस्थाओं) को जाने उसे ज्ञान कहते हूँ । २४४ यह गति श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल के भेद से पोच प्रकार का
"
। इनमें आदि के दो परोक्षज्ञान हैं शेष तीन प्रत्यक्ष २४५
दर्शन - सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके केवल
२३७. पद्म० १०५/१४९, १०५।१४१ ।
२३८. 'कायवाङ्मनः कर्म योगः तत्त्वार्थसूत्र ६१
२३९, मोक्षशास्त्र - पं० पन्नालाल साहित्याचार्य (१० १०६) ।
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२४०. गोम्मटसार जीबकांड गाथा, ४८८
२४१. स्वार्थवार्तिक २२६ व सूत्र, वातिक नं० ८ ।
गोम्मटसार जीवकांड गाया, ४८९ ।
२४२. पं० पन्नालाल जी मोक्षशास्त्र पृ० १६ .
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२४३, पद्म० १४। ११० ।
२४४. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, २९८ ॥
२४५. मतिश्रुतावधिमनः पर्ययके वलानि ज्ञानम्,
तत्त्वार्थसूत्र
·
वही, १०१०, आधे परोक्षम् प्रत्यक्षमन्पत्' ११११ ( तत्वार्थसूत्र ) ।
१२९ तरप्रमाणे,
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२६२ : पप्रचस्ति और उसमें प्रतिपादित संस्कृति सामान्य अंश का जो निर्विकल्प रूप से ग्रहण होता है, उसे दर्शन५४६ कहते है।
चारित्रचारित्र का विवेचन इसी अध्याय में मुनि धर्म के प्रकरण में किया जा चुका है।
गुणस्थान-गुणों के स्थानों को अर्थात् विकाम की क्रमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं । जैनशास्त्र में गुणस्थान इस पारिभाषिक शब्द का अर्थ आत्मिक वाक्तियों के आविर्भाव की उसके शुद्ध कार्यकप में परिणत होते रहने की सरप्तम भावापन्न अवस्थाओं से है ।१४४ मिथ्यात्व, सासादन. मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण मूक्ष्म साम्पराय, उपशान्तमोह, श्रीणमोह, मयोग केव लिजिन तथा अयोगकेवलो इस प्रकार १४ गुणस्थान है ।२४६
निसर्मज एवं अधिगमज सम्यग्दर्शन-सम्यग्दर्शन के प्रकरण में इसो अध्याय में इनका विश्लेषण किया गया है।
नामादि न्यास-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार न्यास (मिक्षेप) कहे गये हैं ।२४९ इनके द्वारा बीवतत्त्व के अनेक भेद होते हैं । २५० प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोकव्यवहार को निक्षेप कहते हैं ।२५१
नाम निक्षेप-गण, जाति, दैव्य और क्रिया की अपेक्षा के विना ही इच्छानुसार नाम रखने को नाम निक्षेप कहते है। जैसे किसी का नाम जिनदत्त है । अधपि यह जिनदेव के द्वारा नहीं दिया गया है तथापि लोकाब्य कहार चलाने के लिए उनका नाम जिनदत्त रख लिया गया है ।२५२
स्थापना निक्षेपन्यातु, काष्ठ, पाषाण आदि की प्रतिमा में यह वह है इस प्रकार की कल्पना करना स्थापना निशेप है । अम पावमाष की प्रतिमा में पापर्वनाथ की कल्पना करना या सतरंज की गोटों में बादशाह आदि की कल्पना करना २५३
द्रव्य निक्षेप-मूत, भविष्यत् पर्याय की मुख्यता लेकर बड़गान में कहना
२४६. गोम्मटसार जीवकांड माथा,.४८१ । २४७, 40 सुखलाल जो दर्शन मौर चिन्तन, प० २६३ । २४८. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, ९।१० । २४९. 'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः', सत्त्वार्थसूत्र १।५ । २५०. पय०२।१६० । २५१. मोक्षशास्त्र, पु० ५ (टीकाकार ६० पन्नालाल जी माहित्याचार्य) । २५२. वही, पृ० ५। . .
२५३, बहो, पृ० ५।
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. धर्म धीर दर्शन : २६३ द्रव्य निक्षेप है । जैसे कभी पूजा करने वाले पुरुष को वर्तमान में पुजारी कहना और मषिष्यत् में ग़जा होने वाले राजपुष को राजा कहना ।२५४
भावनिक्षेप-केवल वर्तमान पर्याय को मुख्यता से अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूप कहना भावनिक्षेप है। जैसे काष्ठ को काष्ठ अवस्था में काष्ठ, आग होने पर आग और कोयला हो जाने पर कोयला कहना । २५५
अनुयोग-आगम में सत्, संख्या, थोष, स्पर्शन, काल, अम्तर, भाव, अरूपबहुत्त्व५५ इन आठ अनुयोगों का सामान्य से भागाधान पारमार्गमाओं की अपेक्षा किया जाता है । यहाँ जनका सामान्य निर्देश किया जाता है
सत्-वस्तु के अस्तित्व को सत् कहते हैं । संख्या-वस्तु के परिणामों की गिनती को संख्या कहते हैं । क्षेत्र-वस्तु के वर्तमान काल के निवास को क्षेत्र कहते हैं। स्पर्शन-वस्तु के तीनों काल सम्बन्धी निवास को स्पर्श न कहते हैं । काल-वस्तु के ठहरने की मर्यादा को काल कहते हैं। अन्तर-वस्तु के विरहकाल को अन्तर कहते हैं। भाव-मोपशामिक क्षायिक आदि परिणामों को भाव कहते है। .अल्पबहुत्व-अन्य पदार्थ की अपेक्षा किसी वस्तु को हीनाधिकता वर्णन करने को अल्पबहुम कहते हैं ।
भव्य और अभव्य जीव-जीवों के भव्य और अभव्य इस प्रकार दो भेद और भी हैं। जिस प्रकार सर्द आदि अनाज में कुछ सो ऐसे होते है जो पफ जाते है-सोस जाते है और कुछ तो ऐसे होते हैं कि प्रयत्न करने पर भी नहीं पकते हैं-- नहीं सीमत है । उसी प्रकार जीवों में भी कुछ जीव तो ऐसे होते हैं जो कर्म नष्ट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो सकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो प्रयत्न करने पर भी सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते । जो सिद्ध हो सकते हैं के भव्य कहलाते हैं और जो सिद्ध नहीं हो सकते वे अभव्य कहलाते हैं। इस तरह भव्य और अभव्य की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं ।२५७ भव्य की सामर्थ्य और अभव्य की असामय का पनचरित में विस्तार से उल्लेख किया गया है । २५६ २५४, पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ. ६ । २५५. वही, पृ०६। २५६. सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च । तत्त्वार्थसूत्र ११८ ।
सदाचष्ट्रानुयोगच भिद्यते चेतना पुनः ।-पत्र. २।१६० ।
मोक्षशास्त्र (टीका पं० पन्नालाल साहित्याचार्य) पु० ८। २५७. पद्म २११५६, १५७, १०५।२०३ । २५८. पद्मा १०५।२६०,२६१,१०५।२००-२०२; ३११३, १४, ७३१७ ।
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२६४ : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जीव की दशा उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन प्रकार की कही गई है। अभव्य जीव की दशा जघन्य है, भव्य की मध्यम है और सिद्धों को उत्तम है । १५९ मध्यम भव्य प्राणी शीन ही महान् आनन्द अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सेते है पर जो असमर्थ है, किन्तु मार्ग को जानते हैं ये कुछ विश्राम करने के बाद महाआनन्द प्राप्त कर पाते हैं । जो मनुष्य मार्ग को न जानकर दिन में सौ-सौ योजन तक गमन करता है वह भटकता हो रहता है तथा चिरकाल तक इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता।१०
सिद्ध जीव-एमचरित में सिद्ध जोव तथा उनके गुणों का बहुत विस्तार से कम किय: है : मन दम, गन्स ज्ञात वीर्य और अनन्त सुख मह पतुष्टय आत्मा का निज स्वरूप है और बह सिद्धों में विद्यमान है। ये तीन लोक के शिखर पर स्वयं विराजमान है, पुनर्जन्म से रहित है," संसार सागर से पार हो चुके हैं, परमकल्याण से युक्त हैं, मोक्षसुख के आधार है, जिनके समस्त कर्म क्षोण हो चुके हैं,२३२ जो अवगाहन गुण से युक्त हैं, अमृतिक है, सूक्ष्मत्वगुण में राहित है, गुरुता और लघुता से रहित है तथा असंख्यात प्रदेशी हैं ।२३॥ अनन्त गुणों के आधार है, क्रमादि से रहित हैं, आत्मस्वरूप की अपेक्षा समान हैं, आत्म प्रयोजन को अन्तिम सीमा को प्राप्त कर चुके हैं (कृतकृत्य हैं) जिनके भाव सर्वथा शुद्ध है, गमनागमन से विमुक्त २५ हैं, जिनके समस्त क्लेश नष्ट हो चुके हैं,२५५ जो सब प्रकार की सिद्धियों को धारण करने वाले हैं,२५७ जिन्होंने जपमा रहित नित्य शुद्ध, आत्माश्रय, उत्कृष्ट और अत्यन्त दुरासद निर्वाण प्रा मानाज्य प्राप्त कर लिया है। ऐसे मिच जीव होते हैं । सिद्ध भगवान् का जो सुख है वह निस्य है. उत्कृष्ट है, आबाघा से रहित है, अनुपम है और आत्मस्वभाव से उत्पन्न है । चक्रवर्ती सहित समस्त मनुष्य और इन्द्र सहित समस्त देव अनन्तकाल में जिस सांसारिक सुख का उपभोग करते है वह कर्मरहित सिद्ध भगवान के अनन्त, सुख की भी सदशता को प्राप्त नहीं होता, ऐसा सिद्धों का सुख है ।२७०
२५९. पद्म०, ३१०११ ।।
२६०, यही, १४।२२५,२२६ । २६१, वही, ४८१२००,२०१ । २६२. वही, ४८।२०२। २६३, वही, ४८।२०३।
२६४, वही, ४८२०४। २६५. वही, ४८।२०५ ।
२६६. बही, १०५।१९४ । २६७. वही, ४२२०७ ।
२६८. बहो, ८०1१८ । २६९. बहो, १०५।१८१ तत्त्वार्थसूत्र, रा३३। २७०. बही, १०५।१८६-१८७ |
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धर्म और दर्शन : २६५ संसारी जीवों का जन्म-संसारो जीवों का अम्म तीन प्रकार का होता है१. गर्भजन्म, २. उपपाद जन्म, ३. सम्मूच्छन जन्म |
गर्भजन्म-पोतज, अण्डज तथा जरायुज के गर्भजन्म होता है ।२७१
जरायुज-जाल के समान मांस और खून से व्याप्त एक प्रकार की थैली से लिपटे हुए जो जीव पैदा होते हैं अम्हें जरायुज कहते हैं। जैसे- गाय, भैंस, मनुष्य आदि ।२७२
अण्डज-जो जीव अपडे में उत्पन्न हों उन्हें अण्डज कहते हैं जैसे-धील, कबूतर मादि ।२५३
पोत--पैदा होते समय जिन जीयों पर किसी प्रकार का बावरण नहीं हो और जो पैदा होते ही चलने फिरने लग जावें उन्हें पोत कहते हैं जैसे—हरिण, सिंह भादि ।२७४
उपपाद जन्म-देवों और नारकियों के उपपाद जन्म होता है ।
सम्मर्छन जन्म-गर्भ और उपपाद जम्म बालों से बाकी बचे हुए जीवों के सम्मुर्छन जन्म होता है ।२७६
शरीर--औदारिक, वैक्रिमिक, माहारक, तैजस और कार्मण ये पांच शरीर हैं । २७ जो शीर्ण हो शरीर है। माप मदादि पदार्थ भी विवरणशील है परन्तु उनमें नाम कर्मोदय निमित्त नहीं है, अतः उन्हें शरीर नहीं कह सकते 1 जिस प्रकार गच्छतीति गौः यह विग्रह रूद्ध पान्दों में भी किया जाता है उसी तरह शरीर का भी विग्रह समझना चाहिए ।२४
औदारिक-उदार अर्थात् स्थूल प्रयोजन घाला या स्थूल जो शरीर वह औदारिक है । २७९
वेक्रियिक- अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य के कारण अनेक प्रकार के छोटे बड़े रूप जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक है ।२८० पधचरित में भी २७१, पद्मा १०५।१५० ।। २७२. मोक्षशास्त्र, पृ० ४५ (टीकाकार ५० पम्नालाल जी साहित्याचार्य) । २७३. वही, पृ० ४५ ।
२७४. वही, पृ. ४५ । २७५. पर० १०५।१५० 'देवनारकाणामुपपादः'-तत्त्वार्थमूत्र २०३४ 1 २७६. पन० १०५।१५१ 'शेषार्ण सम्मूर्छनम्'-तत्त्वार्थसूत्र २।३५ । २७७. वही, १०५।१५२ (पम०) । २७८. औदारिकर्व क्रियिकाहारकर्तजसकामणानि शरीरागि'-तत्त्वार्थसूत्र २२३६,
तत्त्वार्थवातिक, २१३६ की व्याश्या, कातिक १,२,३ । २७९. वही, वार्तिक ५ ।
२८०. वही, बार्तिक ६।
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२६६ : पयपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सौधर्मादि स्वर्ग के घेवों के अणिमा आदि पाठ सिद्धियों को प्राप्ति का संकेत किया गया है ।२८१
आहारक-प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा सूक्ष्म तत्वज्ञान और असंयम के परिहार के लिए जिसकी रचना की जाती है वह आहारक है । २८२
तेजस-जो दीप्ति का कारण होता है, वह तैजस है । कार्मण-कर्मों के समूह को या कार्य को कार्मण कहते है।८४
ये पांचों शरीर आगे-आगे सूक्ष्म-सूक्ष्म है ।२८५ औदारिक, वैक्रियिक आहारक ये तीन शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित है ।२८६ तंजस और कार्मण पे दो शरीर उत्तरोत्तर अनन्त गुणित है ।२८७ तेजस और फार्मण ये दो शरीर अनादि सम्बन्ध से युक्त है अर्थात जोव के साथ अनादि काल से लगे है ।२०८ उपयुक्त पांचों शरीरों में से एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं ।२८९
___ मनुष्य गति और उसकी सार्थकता जीवों को मनुष्य पद प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है, २९° इससे भी अधिक दुर्लभ सुन्दर रूप का पाना है, इससे अधिक दुर्लभ धन समृद्धि का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ आर्यकुल में उत्पन्न होना है, उससे अधिक दुर्लभ विधा का समागम है, उससे अधिक दुर्लभ हेयोपादेय पदार्थ को जानना है और उससे अधिक दुर्लभ धर्म का समागम होना है।२९१ जो मनुष्य भय पाकर भी धर्म नहीं करते है मानो उनकी हथेली पर आया अमृत नष्ट हो जाता है १२१५ जो मनुष्य संयम उत्पत्ति के योग्य समय में भी उनका मनोमार्ग वास्तव में वैसा
२८१. पप १४।२८६ । २८२. तत्त्वाथषार्तिक २३६ की व्याख्या वार्तिक ७ । २८३. तत्वार्थचार्तिक ८। २८४. पही, वार्तिक ९ । २८५. पनः १०५।१५२ । परं परं सूक्ष्मम्-तस्वार्थसूत्र २।३७ । २८६. वही, १०५।१५३ । प्रदेशतोऽसंख्येमगुणं प्राक्तजसात-तत्त्वार्थसूत्र २।३८ । २८७. वही, १०५।१५३ । अनन्तगुणे परे-तत्त्वार्थसूत्र २।३९ । २८८. वही, १०५।१५३ । अनादिसम्बन्ध य २१४१ तत्त्वार्यसूत्र, २८९. बही, १०५।१५३ । तदादीनिभाज्यानि मुगपदेकस्याचतुर्म्यः ।
तत्त्वार्थ सूत्र ४३ । २९०. वही, १४१५९, ६।२१६ । २९१. वही, ५/३३३-३३४ । २९२. वहीं, २११६७ ।
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धर्म और दर्शन : २६७
हो रहा आता है, क्योंकि मनुष्य का अपना चरित्र हो उसे वात्मकार्य में प्रेरित करता है ।२५३ यह मनुष्यक्षेत्र भयंकर संसार सागर में मानौ रत्नदीप है । इसकी प्राप्ति बड़े दुःख से होती है । इस रत्नष्टोप में आकर बुद्धिमान् मनुष्य को अवश्य हो नियम रूपी रत्न ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान शरीर को छोड़कर पर्यायान्तर में अवश्य जाना होगा। इस संसार में जो विषयों के लिए धर्मरूपी रत्नों का चूर्ण करता है यह वैसा ही है जैसा कि कोई सूत प्राप्त करने के लिए, मणियों का पूर्ण करता है ।२१४ गुण और वत से समझ तथा नियमों का पालन करने वाले प्राणी को यदि यह संसार से पार होने की इच्छा करता है तो उसे प्रमाद रहित होना चाहिए । जो बुद्धि के दरिन मनुष्य खोटें कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जन्माध मनुष्य के समान संसार में भटकते रहते हैं।९५ अनेक प्रकार के व्यापारों से जिनका हुदय आकुल हो रहा है तथा इसी के कारण जो प्रतिदिन दुःख का अनुभव करता रहता है ऐसे प्राणो को आयु हथेली पर रखे न के समान नष्ट हो जाती है । २१६ ___मैं यह कर चुका, यह करता हूँ और यह आगे करूंगा, इस प्रकार मनुष्य मिश्चय कर लेता है पर कभी मरूँगा भी इस बात का कोई विचार नहीं करता है । मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहों करती कि प्राणो कौन काम कर चूत और कौन काम नहीं कर पाये । वह तो जिस प्रकार सिंह मग पर आक्रमण करता है उसी प्रकार असमय में आक्रमण कर बैठती है । २९७ सखे इंधन में अग्नि की तुप्ति जिस प्रकार महीं हो सकती, नदियों के जल से समुष्ट तृप्त नहीं होता उसी प्रकार विषयों के आस्वाद से प्राणी तृप्त नहीं हो सकता २९८ जल में डूबते हुए खिन्न मनुष्य के समान विषय रूपी आमिष से मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहाम्धीकृत होकर मन्दता को प्राप्त हो जाता है ।२९५ जिस प्रकार निर्धन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका खजाना व्यर्थ चला जाता है । इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य भव पाकर विषय स्वाद के लोभ में पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्य पर्याय व्यर्थ चली जाती है ।२०° तात्पर्य यह कि मनुष्य गति पाकर धर्म में प्रमाद नहीं करना पाहिए।
चारों गतियों में परिभ्रमण-जीवों के जीवन को नष्ट कर प्राणी कों
२९३. पद्म ५६:३६ । २९५. वही, १४।३५१-३५२ । २९७. बही, १०५।२५३-२५४ । २९९. वही, १०६।१०० ।
२९४, वहो, १४।२३४, २३५, २३६ । २९६. पय ११११२१ । २९८. वही, १०६।९९ । ३००. वही, १०६।१८ ।
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२६८ : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
1
से
च्युत होकर विष्ठा
अस्यन्त दुःसह गर्भ
जाल से बाच्छादित
स्थित रहते हैं और नालद्वार से व्युत आस्वादन करते हैं ।
उनके
के भार से इतने भारी हो जाते हैं कि वे पानी में लोहपिण्ड के समान सीधे नरक में परिभ्रमण करते है । १०१ जो वचन से तो मानो मधु भराते हैं पर हृदय में विष के समान दारुण हैं। जो इन्द्रियों के वश में स्थित हैं और बाहर से जिनका मन कालिक सन्ध्याओं में निमग्न रहता है ०२ जी योग्य आचार से रहित हैं और इच्छानुसार मनचाही प्रवृत्ति करते हैं. ऐसे दुष्ट जोव तिर्यंच योनि में भटकते ०३ हैं। कितने ही लोग धर्म करके उसके प्रभाव से स्वर्ग में वेदियों आदि के परिवार से मानसिक सुख प्राप्त करते हैं । ३०४ वहाँ तथा सूत्र से लिप्त बिलबिलाते कोडों से युक्त दुर्गन्धित एवं गुरु को प्राप्त होते हैं।०५ गर्भ में यह प्राणी चमड़े के रहते हैं, पित्त, लेष्मा आदि के बीच में माता द्वारा उपभुक्त आहार के द्रव का समस्त अंग संकुचित रहते हैं और दुःख भार से पीड़ित रहते हैं, वहाँ रहने के बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त करते हैं। १०७ यदि कोई प्राणो मृदुता और सरलता से सहित होते हैं तथा स्वभाव से ही सन्तोष प्राप्त करते हैं तो ये मनुष्य होते मनुष्य में भी मोटी जीव परम सुख के कारणभूत कल्याणमार्ग को छोड़कर क्षणिक सुख के लिए पाप करते हैं । १०९ कोई अपने पूर्व उपार्जित कर्म के अनुसार कार्य होते हैं, कोई म्लेच्छ होते हैं, कोई धनाढ्य होते हैं और कोई अत्यन्त दरि होते हैं । ११० इस प्रकार मनुष्यगति में होने वाले दुःखों का पद्मचरित में विस्तार से वर्णन किया गया है । १११ कुछ ही मनुष्य ऐसे होते हैं जो षोडवा कारण भावनाओं का चिन्तयन कर तीनों लोकों में मोक्ष उत्पन्न करने वाले तीर्थङ्कर पद प्राप्त करते हैं और कितने ही लोग निरन्तराय होकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना में तत्पर रहते हुए
के
हैं।
वो तीन भषों में ही अष्ट कर्म रूपी कलंक से मुक्त जीवों के उत्कृष्ट एवं निरुपम स्थान को उत्तम सुख का उपभोग करते हैं ।'
मुक्त हो जाते हैं। ११२ फिर पाकर अनन्तकाल तक निर्वाध
३११
३०१. पद्म० ५।३३० ।
३०३. वही ५।३३२ ३०५. वही, ५।३३६ ।
३०७, बही, ५१३३८ ।
३०९. वही, १४ ४० । ३११. वही, २११६९-१९१ । ३१३. वही, २।१९४ |
३०२ वही ५।३३१
३०४. वही ५०३३५ ॥
३०६. वही ५।३३७ ॥
३०८. वही, १४/३९ ।
३१०. यही १४१४१ | ३१२. व्हो, २५१९२, १९३ ।
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धर्म भौर दर्शन : २६९
पुदगल-जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और वर्ण पाया जाय वह पुरगल
का सिद्धारा--. :
अना इ ए म से जिसकी आत्मीय शमि. छिप गई है ऐसा यह प्राणी निरन्तर भ्रमण कर रहा है । १४ अनेक लक्ष योनियों में मामा इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख दुःख का सवा अनुभव करता रहता है । १५ कर्मों का जब जैसा तो मन्द या मध्यम उदय प्राता है वैसा रागी द्वेषी अथवा माही होता हुआ कुम्हार के चक्र के समान चतुगंति में घूमता रहता है। इस प्रकार चारों गतियों में घूमने का वर्णन पदमचरित के चौदहवें अध्याय में विस्तृत रूप से किया गया है । १७ यह जीव अशुभ संकल्प से दुःख पाता है, शुभ संकल्प से सुख पाता है और अष्ट कमो के क्षय से मोक्ष प्राप्त करता है ।११८ इस प्रकार इस प्राणी का बन्धु अथवा शत्रु उसका कर्म ही है । १९ इसलिए जिनके साथ अवश्य ही वियोग होता है ऐसे भोगों का त्याग कर देना चाहिए । १५० मैं दीक्षा लेकर पृथ्वी पर कब विहार करूंगा और कब कर्मों को नष्ट कर विद्यालय में पहुँचूंगा, जो निर्मल चित्त का धारी मनुष्य प्रतिदिन ऐसा विचार करता है, कर्म भयभीत होकर ही मानो उसको संगति नहीं करते हैं । कोई-कोई गृहस्थ प्राणी सात आठ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते है
और उसम हृदय को धारण करने वाले कितने ही मनुष्य तोषणा तप कर दो तीन भव में ही भुरू हो जाते है ।२५
अष्टकर्म-ऊपर अष्टकमों का निर्देश हुआ है. ये अष्टकर्म निम्नलिखित ११२३.- १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, , मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अंतराय ।
ज्ञानावरण-जो ज्ञान को आवत करे या जिसके द्वारा ज्ञान का आवरण किया जाय वह ज्ञानावरण है।
दर्शनाबरण-जो आत्मा के दर्शन गुण को आवुत करे या जिसके द्वारा दर्शन गुण का आवरण किया जाय वह दर्शनावरण है।
३१४. पण. १४।१८। ३१५. वह्नी, १४।१९।
३१६. वही, १४।२०। ३१७. वही, १४।२१-५०
३१८. वही, १४१५१ । यहाँ कई स्थानों पर तत्त्वापसूत्र के अनुसार वर्णन है । ३१२. पद्म ११२।९० ।
३२०. पद्म ११२२९१ । ३२१. वहीं, ४।२२२-२२४ । ३२२. वही, १४४१८ । ३२३. तत्त्वार्षसूत्र, ८१४, ज्यास्पा सत्त्वार्थवासिक ८।४।२ ।
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२७० : पपवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
वेदनीय-जो अनुभव किया जाय वह वेदनीय है अर्थात् जिसके द्वारा सुस्न दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय है।
मोहनीय-गो मोहन करे या जिसके द्वारा मोह हो वह मोहनीय है । आयु-जिससे नरकादि पर्यायों (अवस्थाओं) को प्राप्त हो वह आय है।
नाम-जो आत्मा का नरकादि रूप से मामकरण करे मा जिमके द्वारा मामकरण हो वह नाम है।
गोत्र---रच और नीच रूप शब्द व्यवहार जिससे हो वह गोत्र है ।।
अन्तराय—जिसके द्वारा दाता और पात्र आदि के बीच में विघ्न आवे वह अन्तराय है अथवा जिसके रहने पर दाता आदि दानादि क्रियायें न कर सकें, दानादि को इतना से पराङ्मुल हो जायें वह अन्तराम है।
घाति तथा अघाति कर्म---जैन आगम में घाति तथा अघाति कमों का वर्णन आता है। पद्मपरित में भी इनका निर्देश दिया गया है । १२४ ज्ञानाधरण, दर्शनावरण भारतीय और असराय ये कार
व अ . सद्भाव रूप गुणों के घातक) हैं और दोष धार कम अघातिया (प्रतिजीवीअभावरूप गुणों के घातक) है । घातिकर्म का नाश कर केवलज्ञान और अघाति कर्म का नाश कर मोक्ष होता है । १२५
प्रमाण और नय प्रमाण- पदार्थ के ममस्त विरोधी घर्मों का एक साथ वर्णन करना प्रमाण है ।
नय-पदार्थ के किसी एक धर्म का सिद्ध करना नय है । १२" इसी अभिप्राय का खुलासा करते हुए कहा है कि प्रमाण से जाने हुए पदार्थ के एकदेश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । इस अभिप्राय के द्वारा ज्ञाता जानी हुई वस्तु के एकदेश को स्पर्श करता है । वस्तु अनन्त धर्म बाली है 1 प्रमाणशान उसे समग्रभाव से ग्रहण करता है, उसमें अंधविभाजन करने की और उसका लक्ष्य नहीं होता । जैसे मह घड़ा है इस ज्ञान में प्रमाण घड़े को अखण्डभाव में उसको रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि अनन्त गुण धर्मों का ३२४. पद्म २१४५, १२२१७१ । ३२५. पद्म० १२२१६९-११, २१।४५ । ३२६, 'प्रमाणं' सकलाबेशों, पद्म १०५।१४३ । ३२७. नयोऽवयवसाधनम्', पद्म० १०५.१४३ 1 ३२८. 'प्रमाण गृहीसाथैक देशग्राहो प्रमातुरभिप्रायविशेषो नयः ।'
'नयो ज्ञातुरभिप्रायः' (लघीयस्त्रमाविस ग्रह का० ५२)
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धर्म और वर्शन : २७१
विभाजन करके पूर्ण रूप में जानता है, जबकि कोई भी नय उसका विभाजन करके रूपवान घट: रसवान् घटः आदि रूप में उसे अपने अपने अभिप्राय के अनुसार जानता है । प्रमाण और नय ज्ञान की ही बत्तियां है, दोनों ज्ञानारमक पर्यायें हैं । जब ज्ञाता की सकल के ग्रहण की दृष्टि होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाण से गृहीत वस्तु को खंडशः ग्रहण करने का अभिप्राय होता है सब वह अंशग्राही अभिप्राय नम कहलाता है । प्रमाण ज्ञान नय के लिए भूमि तयार करता है । ३२९
अनेकांत जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति में पदमचरित के नवें सर्ग में कहा गया है कि आत्मा रागादि विकारों से शून्य है ऐसा उपदेश आपने सबके लिए दिया है। आत्मा है, परलोक है इत्यादि आस्तिष्पवाद का भी उपदेश आपने दिया है, संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक है इस पक्ष का निरूपण जहाँ आपने किया है वहाँ (न्यायिक नय से) समस्त पदार्थों को नित्य भी आपने दिखाया है । हमारी आत्मा समस्त पर पदार्थों से पृथक् अम्खण्ड एक द्रव्य है ऐसा कथन आपने किया है, आप सबके समक्ष अनेकान्त धर्म का प्रतिपादन करने वाले हैं । ३२१ यहाँ अनेकान्त चाय विशेष महत्त्व का है। जैन दर्शन में वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनेक धर्मात्मक) निर्णोत किया गया है। इसलिए जनदर्शन का मुख्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद है। अनेकान्स का अर्थ है परस्पर विरोधी दो तत्त्वों का एकत्र समन्वय । तात्पर्य यह कि जहां दूसरे दर्शनों में वस्तु को कंचल सत् या असत्, सामान्य या विशेष, नित्य या अनित्थ, एक या अनेक और भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है वहीं जैनदर्शन में वस्तु को सत और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य और मनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्थीकार किया गया है और जनदर्शन की यह मान्यता परस्पर विरोधी दो तत्वों के एकत्र समन्वय को सूचित करती है । ३३२
सप्तभङ्गी सप्तभङ्गी पदार्थ के निरूपण करने का एक मार्ग है। रविण ने इसे प्रशस्त माग कहा है ।३१३ ऊपर नय का विवेचन किया गया है। ये नय द्रव्यायिक और पर्यायाधिक दो प्रकार के होते हैं। उनमें द्रव्याथिक नय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानकात्मक अर्थ का विभाग करके पर्यायाथिक नय ३२९. पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, जैनदर्शन, पृ० ४४१ ।। ३३७. पद्मा ९।१८३ ।
३३१. पन० ९.१८४ । ३३२. न्यायदीपिका, पृ. ३ (प्राक्कथन)। ३३३. पद्म १०५:१४३ ।
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२७२ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ उसको स्थिति मात्र को स्वीकार कर अपने विषय द्रव्य को अभेद रूप व्यवहार करता है। अन्य नय के विषय का निषेष नहीं करता । इसोनिरसन के बिना को शासन को सात नाय. सम्यक् नय अथवा सामान्य नय कहा है | जैसे यह कहना कि सोना लावो । यहाँ प्रध्याथिक के अभिप्राय से सोना लामो कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, कैमूर इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोने लए से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है पर जब पर्यायार्थिक नय की विवक्षा होती है तब दम्यार्थिक नय को गोण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायाधिक नय की अपेक्षा से कुण्डल लाओ यह कहने पर लाने वाला कड़ा मादि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा आदि पर्याय से कुण्डल पर्याय मिन्न है । अतः दग्यायिक नय की विवक्षा मे भोना कथंचित् एक रूप ही है, पर्यायाधिक नय के अभिप्राय से कथंचित अनेक रूप ही है और क्रम से दोनों नयों के अभिप्राय से कथंचित एक
और अनेक रूप है । एक साथ दोनों के अभिप्राय से कचित् अवक्तव्य स्वरूप है, क्योंकि एक साथ प्राप्त हए दो नयों से विभिन्न स्वरूप वाले एकत्व अथवा अनेकत्व का विचार अथवा कथन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कि एक साथ प्राप्त हुए दो शब्दों के द्वारा घट के भिन्न स्वरूप वाले रूप और रस इन दो धर्मों का प्रतिपादन महीं हो राकता अतः एक साथ प्राप्त दवयार्षिक और पर्यायाथिक दोनों नयों के अभिप्राय से सोना कथंचिल अबवतव्य स्वरूप है। इस अवक्तव्य स्वरूप को द्रव्याथिक, पर्यावार्थिक और म्यार्षिक पर्यायाथिक इन तीन नयों के अभिप्राय से प्राप्त हुए एकत्वादि के मिला देने पर सोना कथंचित् एक और अवक्तव्य है, कथंचित अनेक और अवतब्य है तथा कपंचित् एक, अनेक और अवक्तव्य है, इस तरह तीन मयाभिप्राय और हो जाते है जिनके द्वारा भी सोने का निरूपण किया जाता है। नयों के कथन करने की इस शैली को ही सप्तभंगी कहते हैं । यहाँ भंग शब्द वस्तु के स्वरूप विशेष का प्रतिपादक है। इससे यह सिद्ध हया कि प्रत्येक वस्तु में नियत सात स्वरूप विशेषों का प्रतिपादन करने वाला शब्द समूल सप्तभंगी है । १३४
सर्वशसिद्धि राजा मझवान के संवर्त नामक याजक और नारद के बीच हुए वाद-विवाद में नारद द्वारा सर्वशको सिसि अनेक युक्तियों द्वारा की गई है । पूर्वपक्षी के रूप में संवर्त कहता है कि नारद का मत है कि कोई पुरुष सर्वश वीतराम है किन्तु वह सर्वज्ञ वक्ता आदि होने से दूसरे पुरुष के समान सर्वज्ञ बोतराम सिद्ध ३३४, न्यायदीपिका, पृ० १२५, १२७ ।
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धर्म और दर्शन : २७६
नहीं होता क्योंकि जो सर्वज्ञ वीतराग है वह वक्ता नहीं हो सकता और जो सकता । अशुद्ध अर्थात् रागी द्वेषी मनुष्यों और इनसे विलक्षण कोई सर्वज्ञ नहीं,
वक्ता है वह सर्वज्ञ श्रीतराग नहीं हो के द्वारा कहे हुए वचन मलिन होते हैं क्योंकि उसका साधक कोई प्रमाण नहीं पाया जाता । १६५
?
इसके उत्तर में नारद कहता है कि संवर्ष के मत के अनुसार यदि सर्व प्रकार के सर्वश का अभाव है तो शब्दसर्वज्ञ, अर्थसर्वज्ञ और बुद्धिसर्वश इस प्रकार सज के तीन वह बाधित होता है । ११७ यदि शब्दसर्वंश और बुद्धिसर्वज्ञ तो है पर अर्थ सर्वज्ञ कोई नहीं है तो यह कहना नहीं बनता क्योंकि गो आदि समस्त पदार्थों में शब्द अर्थ और बुद्धि तीनों साथ हो साथ देखे जाते हैं । १३८ यदि पदार्थ का बिलकुल अभाव है तो उसके बिना बुद्धि और शब्द कहीं टिकेंगे। इस प्रकार का अर्थ वृद्धि और वचन के व्यतिक्रम को प्राप्त हो जायगा । १९ बुद्धि में जो सर्वश का व्यवहार होता है वह गौण है और गौण व्यवहार सदा मुख्य की अपेक्षा करके प्रवृत्त होता है। जिस प्रकार चैत्र के लिए सिंह कहना मुरूप सिंह की अपेक्षा रखता है उसी प्रकार बुद्धिसर्वज्ञ वास्तविक सर्वज्ञ की अपेक्षा रखता इस अनुमान से सर्वज्ञ नहीं है इस प्रतिज्ञा में विशेष बाता है। २४१ हमारे मत में सर्वश का सर्वथा अभाव नहीं माना गया जिसकी महिमा व्याप्त है ऐसा यह सर्वदर्शी सर्वज्ञ कहाँ रहता है उत्तर में कहा गया है कि दिव्य ब्रह्मपुर में आकाश के समान सुप्रतिष्ठित है। तुम्हारे इस आगम से प्रतिज्ञावाक्य विरोध को प्राप्त होता है। यदि सर्वया सर्वज्ञ का अभाव होता तो तुम्हारे आगम में उसके स्थान आदि की चर्चा क्यों की जाती ? और इस प्रकार साध्य अर्थ के अनेकान्त हो जाने पर अर्थात् कथंचित् सिद्ध हो जाने पर वह हमारे लिए सिद्ध साधन है क्योंकि हम भी तो यही कहते हैं ।
४०
#s पृथ्वी में इस प्रश्न के निर्मल आरमा
भी
१४४
सर्वेश के अभाव में जो वक्तृत्व हेतु का होता है - सर्वथा अयुक्त वक्तृत्व
३३५. पद्म० ११।१६५ । ३३७. पद्म० ११ । १७२ ।
३३९. पद्म० ११ १७४ ।
३४१. वही, ११।१७६ । ३४३. वही, ११।१७७३
te
दिया गया है वह वक्तृत्व तीन प्रकार युक्त वक्तृत्व और सामान्य वक्तृत्व ।
३३६. पथ० ११ १६६ ।
३३८. वही, ११।१७३ । ३४०. वही, ११।१७५ ।
יו
३४२. बही, ११।१७६ । ३४४. वही, ११।१७८ ।
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२७४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
545
उनमें से सर्वथा प्रयुक्त वक्तृत्व तो बनता नहीं है क्योंकि प्रतिवादी के प्रति वह सिद्ध नहीं हैं । यदि स्याद्वाद सम्मत वक्तृत्व लेते हो तो तुम्हारा हेतु असिद्ध हो हो जाता है क्योंकि इससे निर्दोष घरता की सिद्धि हो जाती है। आपके (जैमिनि आदि के ) वेदार्थवता हम लोगों को भी हृष्ट नहीं हैं। वक्तृत्व हेतु से देवदत्त के समान वे भी सदोष वक्ता सिद्ध होते हैं, इसलिए आपका यह वक्तृत्व हेतु विरुद्ध अर्थ को सिद्ध करने वाला होने से विरुद्ध हो जाता' है। प्रजापति आदि के द्वारा दिया गया यह उपदेश प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि वे देवदत्तादि के समान रागी द्वेषी ही है और ऐसे रागी द्वेषी पुरुषों से जो आगम कहा जायेगा वह भी सदोष हो होगा। अतः निर्दोष आगम का तुम्हारे यहाँ अभाव सिद्ध होता है । १४३ एक को जिसने जान लिया उसने सद्रूप से अखिल पदार्थ जान लिए । अतः सर्वश के अभाव की सिद्धि में तुमने दूसरे पुरुष का दृष्टान्त दिया है, उसे तुमने ही साध्यविकल कह दिया है, क्योंकि वह चूंकि एक को जानता है, इसलिए वह सबको जानता है, इसकी सिद्धि हो जाती है । १४७ दूसरे तुम्हारे मत से सर्वथा युक्त वचन बोलने वाला पुरुष दृष्टान्त रूप से है नहीं अतः आपको दृष्टान्त में साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखलाना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार आप अन्य दृष्टान्त में अम्बय पाप्ति करके घटित बतलाते हैं उसी प्रकार व्यतिरेक व्याप्ति भी घटित करके बतलानी चाहिए तब साध्य की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं। आपके यहाँ सुनकर अदृष्ट वस्तु के विषय में वेद में प्रमाणता आती है, मतः वक्तृत्व हेतु के बल से सर्वश के विषय में दूषण उपस्थित करने में इसका आश्रय करना उचित नहीं है । १४९ अर्थात् वेदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान न होने से उसके बल से सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं की जा सकती । सर्वशता के साथ वक्तृत्व का विरोध क्या है ? सर्वशता का सुयोग मिलने पर यह पुरुष वक्ता अपने आप हो जाता १५० है । जो बेचारा स्वयं नहीं जानता वह बुद्धि का दरिद्र दूसरों के लिए क्या कह सकता है ? इस प्रकार व्यतिरेक और अविनाभाव का अभाव होने से वह साधक नहीं हो सकता ।'
૨૪૮
१५९
हमारा पक्ष सो यह है कि जिस प्रकार सुर्वणादि धातुओं का मल बिलकुल क्षीण हो जाता है उसी प्रकार यह अविद्या और रागादिक मल कारण पाकर किसी पुरुष में अत्यन्त क्षीण हो जाते हैं जिसमें क्षीण हो जाते हैं वही सर्वज्ञ कहलाने
११।१८२ ।
३४५. पद्म० ११११७९-१८० । ३४७. वही, ३४९. वही, ११।१८४ । ३५१. वही, ११।१८६
३४६. वही, ११११८१ ।
३४८. वही, ११।१८३ । २५०. वही, ११।१८५ ।
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धर्म और दर्शन : २७५ लगता है ।३५८ हमारे मिशान्त से पदायों के जो धर्म अर्थात् विशेषण है वे अपने से विरुद्ध धर्म को अपेक्षा अवश्य रखते है। जिस प्रकार कि उत्पल आदि के लिए जो नील विशेषण दिया जाता है उससे यह सिद्ध होता है कि कोई उत्पल ऐसा भी होता है कि जो नील नहीं है ।१५३ इसी प्रकार पुरुष के लिए जो आपके यही असर्वश विशेषण दिया है वह सिद्ध करता है कि कोई पुरुष ऐसा भी है जो असर्वश नहीं है अपति सर्वश है।
। सृष्टि कर्तृत्वनिषेष पारित के एकादश पर्व में कहा गया है कि ब्रह्मा (स्वयम्भ) के द्वारा लोक की सुष्टि हुई यह कथन विचार करने पर जीर्ण तण के समान नि:सार जान पड़ता है । २१४ सुष्टि कर्तृत्व के विरोध में यहां निम्नलिखित युक्तियां दी गई है___ यदि स्रष्टा कृतकृत्य है तो उसे सष्टि की रचना करने से क्या प्रयोजन है ? यदि कहो कि क्रीड़ावश वह सृष्टि की रचना करता है तो कृतकृत्य कहाँ रहा ? जिस प्रकार क्रीड़ा का अभिलाषी बालक अकृतकृत्य है उसी प्रकार कीड़ा का अभिलाषी स्रष्टा भी अकृतकृत्य कहलायेगा ।३५५ सष्टा बन्य पदार्थों के बिना स्वयं ही रति को क्यों नहीं प्राप्त हो जाता जिससे सष्टि निर्माण की कल्पना करनी पड़ी।
दूसरा प्रश्न यह है कि जब सष्टा सृष्टि की रचना करता है तो इसके सहायक करण अधिकरण आदि कोन से पदार्थ है।३५७ तीसरी युक्ति यह है कि संसार में सब लोग एक सदृश नहीं है, कोई सुखी देखे जाते हैं और कोई दुःखी देखे जाते हैं। इससे यह मानना पड़ेगा कि कोई तो स्रष्टा के उपकारी है उन्हें यह सुखी करता है और कोई अपकारी है, उन्हें यह दुःखी करता है। यदि कहो कि ईश्वर कृतकृत्य नहीं है तो वह कर्मों से परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं कहलाएमा । जिस प्रकार कि आप फर्मों के परतन्त्र होने के कारण ईश्वर नहीं है । ३५१
३५२. पप० १११८७ । दोषावरणयोहानिः निशेषास्त्पतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्तर्मलमयः ।।
-आचार्य समन्तभद्र : आप्तमीमांसा ३५३. वही, ११॥१८८ ।
३५४, वाही, १९१२१७ ३५५. वही, १११२१८
३५६. वही, १९२१९ । ३५७. वही, ११।२१९ ।
३५८. वही, १२।२२० । ३५९. वही, १९१२२१ ।
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२७६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
जिस प्रकार रप, मकान आदि पदार्थ विशिष्ट आकार से सहित होने के कारण किसी बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयन से रचित होना चाहिए। जिसकी धुद्धि से इन सबकी रचना होती है वही ईश्वर है । इस अनुमान से सृष्टिकर्ता ईश्वर की सिद्धि होती है, यह कहना ठीक नहीं क्योंकि एकान्सवादी का उक्त अनुमान समीचीनता को प्राप्त महीं है। विचार करने पर जाम पड़ता है कि रण बादि जिप्तने पदार्थ है वे एकान्त से बुद्धिमान् मनुष्य के प्रयत्न से ही उत्पम्म होते है, ऐसी बात नहीं है क्योंकि रष मादि वस्तुयों में जो लकड़ी आदि पदार्थ भवस्थिर नही स्थारि भाजपना होता है। जिस प्रकार रथ आदि के बनाने में बहई को क्लेश उठाना पड़ता है उसी प्रकार ईश्वर को भी क्लेश उठाना पड़ता होगा। इस प्रकार उसके सुखी होने में बाघा प्रतीत होती है । यथार्थ में तुम जिसे ईश्वर कहते हो वह नामकर्म है । १२ ।
ईश्वर सशरीर है या अशरीर ? यदि अशरीर है वो उससे मूर्त पदार्थों का निर्माण सम्भव नहीं है। यदि सशरीर है तो उसका वह विशिष्टाकार बाला शरीर किसके द्वारा रचा गया है ? यदि स्वयं रचा गया है तो फिर दूसरे पदार्थ स्वर्य क्यों नहीं रचे जाते ? यदि यह माना जाय कि वह दूसरे ईश्वर के यत्न से रचा गया है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होगा कि उस दूसरे ईश्वर का शरीर किसने रचा? इस तरह अनघस्था दोष उत्पन्न होगा। इस विसंवाद से बचने के लिए यदि माना जाय कि ईश्वर के शरीर है ही नहीं तो फिर अमूर्तिक होने से वह सुष्टि का रचयिता कैसे होगा? जिस प्रकार अमूर्त होने से आकामा सृष्टि का कर्ता नहीं है उसी प्रकार अमूर्त होने से ईश्वर भी सृष्टि का कर्ता नहीं हो सकता। यदि बढ़ई के समान ईश्वर को कर्ता माना जाय तो यह सशरीर होगा न कि अशरीर 1३१३
यज्ञ का प्रचलन-रावण की दिग्विजय का वर्णन करते हुए पद्मचरित में कहा गया है कि जब रावण ने उत्तर दिशा की बोर प्रस्थान किया तब उसने सुना कि राजपुर का राजा बड़ा बलवान् है। वह अहंकारी, दुष्टचित्त, लौकिक मिथ्या मार्ग से मोहित और प्राणियों का विध्वंस कराने वाले यश दीक्षा नामक महापाप को प्राप्त है । इससे स्पष्ट है कि रावण के समय हिंसामय यश होते ३६०. पद्मा १११२२२-२२३ । ३६१. वही, ११।२२४ । ३६२. वहीं, ११५२२५ ।
३१३. वही, १९६२२६-२२८ ! ३६४. वही, ११३८,९ । रावण ने उत्तर की ओर जाते हए जो राजपुर के प्रयल
नरेश के क्रूर हिंसात्मक या की बात सुनी उसका अभिप्राय यौधेय (पंजाब) की राजधानी राजपुर के उसी मारिदास नामक राजा से होना चाहिए
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धर्म और दर्शन : २७७ थे। जैन परम्परा के अनुसार रावण मुनिसुव्रतनाथ तोपकर के तीर्थ में हुआ था। अतः यज्ञ भी कम-से-कम उतना ही प्राचीन होना चाहिए, क्योंकि उपर्युक्त वर्णन रावण के समय का ही है।
यज्ञ की उत्पत्ति-यज्ञ की उत्पत्ति के विषय में ११वें पर्व (पमधरित) में एक कथा दी गई है जो इस प्रकार है
अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुकुल में एक ययाति नामक राजा हुआ। उसके सुरकान्ता नामक स्त्री से वसु नाम का पुत्र हा । उसने क्षीरकदम्बक नामक गुरु से शिक्षा पाई । ३६५ नारद और नई तामले काके
मे र एक दिन पारण मुनियों के द्वारा प्रबोध को प्राप्त हुआ क्षीरकदम्बफ मुनि हो गया । १६ अयाति भी यह समाचार जानकर श्रमण (जैन-मुनि) हो गया। बाद में वसु सिंहासन पर बैठा। उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । आकाश स्फटिक को लम्बी चौड़ी शिला पर उसका सिंहासन स्थित था। अतः तीनों लोकों में ऐसी प्रसिद्धि हुई कि सत्य के बल पर वसु आकाश में निराधार स्थित है । एक दिन नारद और पर्वत के बीच में धर्मचर्चा में 'अजेयष्टमम्' इस वाक्य पर विवाद छिड़ गया। नारद ने कहा कि इसका अर्थ यह है कि अब उस पुराने धान्य को कहते हैं जिसमें कारण मिलने पर भी अंकुर उत्पन्न नहीं होते। ऐसे पान से ही यज्ञ करना चाहिए। पर्वत ने कहा कि अज नाम पशु का है अतः उनकी हिंसा करनी चाहिए । यही यज्ञ कहलाता है ।३७० अपने पक्ष की प्रबलता सिद्ध करने के लिए नारद ने कहा कि हम दोनों कल राजा वसु के पास चलें, वहाँ जो पराजित होगा उसका जीभ काट ली जावे ।।०१ पर्वत ने जब अपनी मासा को यह हाल सुनाया तो उसने कहा कि तुने मिथ्या बात कही है। अनेकों पार व्याख्या करते हुए तेरे पिता से मैंने सुना है कि अग उस पान्य को कहते हैं जिससे अंकुर नहीं होते। तू देशान्तर में जाकर मांस खाने लगा है अतः तूने मिथ्या अहंकार वश यह बात कही है। देशान्तर में आकर मांस खाने शली बात से इस बात की पुष्टि होती है उस समय इस देश में मांस नहीं खाया जाता पा, अन्य देशों में ही इसका प्रचलन था। यथार्थ अभिप्राय जानती हुई भी पर्वत को
जिसके नरबलि विधान का मार्मिक विवरण सोमदेवकृत यशस्तिलकपम्पू
न पुष्पदन्तकृत जसहरपरिउ आदि अनेक काव्यों में पाया जाता है। ३६५. पद्मा ११११३-१४ ।
३६६. वही, ११।१५,१६, २६ । ३६७. वही, १२३४
३६८. वही, १९६३५,३६ । ३६९. वहीं, ११।४२ ।
३७०. वहीं, ११६४३ । ३७१. वही, १९६४५ ।
३७२. वही, १११४८-४९ ।
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२७८ : पपपरित और नसमें प्रतिपादित संस्कृति माता ने गुरु-दक्षिणा के वचन का स्मरण दिलाकर वसु को इस बात के लिए राजी कर लिया कि पर्वत के पक्ष में निर्णय देना है। बाद में जब शास्त्रार्य इया तो बसु ने पर्वत के पक्ष में निर्णय दिया जिससे उसका स्फरिक सिंहासन पृथ्वी पर गिर पड़ा 139 नारद द्वारा समझाए जाने पर भी उसने अपनी कही हुई बात को ही पुष्टि की । अतः यह शोघ्र ही सिहासन के साथ पृथ्वी में धंस गया । पर्चत लोक में धिक्कार रूपी दण्ड प्राप्त कर कुतप करने लगा। इसके बाद वह मर कर प्रबल पराक्रम का धारक राक्षस हुआ |101 अपने पूर्व जन्म के पराभव का स्मरण करते हुए उसने बदला लेने के लिए कपटपूर्ण शास्त्र रचकर ऐसा कार्य करने का निश्चय किया जिसमें आसक्त हुए मनुष्य तिर्यंच अथवा नरक गति में जावे ।२७७
इसके बाद उस राक्षस ने मनुष्य का वेष रखा, बायें कन्चे पर यनोपवीत पहिना और हाथ में कमण्डल सथा अक्षमाला अादि सपकरण लिए । ७० भविष्य में जिन्हें दुःख प्राप्त होने वाला था ऐसे मूर्ख प्राणो उसके पक्ष में इस प्रकार पड़ने लगे जिस प्रकार अग्नि में पतंगे पड़ते है ।५७९ वह उन लोगों से कहता था कि मैं वह ब्रह्मा हूँ जिसने चराचर विश्व की रचना की है। यज्ञ की प्रवृत्ति चलाने के लिए मैं स्वयं इस लोक में आया हूँ । १८० मैंने बड़े भादर से स्वयं ही यज्ञ के लिए पशुओं की रचना की है। यथार्थ में यज्ञ स्वर्ग की बिमति प्राप्त कराने वाला है इसलिए मन में जो हिंसा होती है वह हिंसा नहीं है । ८१ सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरा पीना दोषपूर्ण नहीं है और गोसव नामक यश में अगम्या अर्थात् परस्त्री का भी सेवन किया जा सकता है । ३८२ मातृमेघ यज्ञ में माता का और पितमेष यज्ञ में पिता का षष वेदी के मध्य में करना चाहिए इसमें दोष नहीं है । ३८ कछुए की पीठ पर अग्नि रखकर जुलक नामक देव को बड़े प्रयत्न से स्वाहा शब्द का उच्चारण करते हुए साकल्य से संतप्त करना पाहिए । १५४ अदि इस कार्य के लिए कक्षा न मिले तो एक गजे सिर वाले पोले रंग के शुद्ध ब्राह्मण को पवित्र जल में मुख प्रमाण नीचे उतारे अर्थात उसका शरीर मुख तक पानी में डूबा रहे ऊपर केवल कछुआ के आकार मस्तक निकला
३७३. पम० १११६२ । ३७५. वही, १९७१ । ३७७. वही, १११७७-७८ । ३७९. वही, ११३८२ । ३८१. वही, १९८४ । ३८३. वही, ११०८६ ।
३७४. वही, ११।६८ ।। ३७६. वही, ११७५-७६ । ३७८. बही, ११२७९ । ३८०. वही, ११।८३ । ३८२. वही, ११३८५ । ३८४. वही, ११५८७ ।
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धर्म और दर्शन : २७९
६८१
रहे उस मस्तक पर प्रचण्ड अग्नि जलाकर आहुति देना चाहिए । १८५ जो कुछ हो चुका है अथवा जो आगे होगा, जो अमृतस्व का स्वामी है और जो अन्नजीबी है वह सब पुरुष ही है। इस प्रकार सर्वत्र जब एक ही पुरुष है तब किसके द्वारा कौन मारा जाता है इसलिए यज्ञ में इच्छानुसार प्राणियों की हिंसा करो ३०७ यज्ञ में यज्ञ करने वाले को उन जीवों का मांस खाना चाहिए क्योंकि देवता के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण वह मांस पवित्र माना जाता है । यज्ञविषयक वाद
यज्ञ की पुष्टि में शास्त्र प्रमाण - नारद और संवर्त के विवाद में संवर्त कहता है कि अकर्तृक वेद ही तीनों वर्णों के पदार्थ के विषय में प्रमाण है । उसी में यज्ञ कर्म का कथन किया यश के द्वारा अपूर्व नामक प्रवधर्म प्रकट होता है जो जीव को विषयों से उत्पन्न फल प्रदान करता है । ३० वेदी के होता है वह पाप का कारण नहीं है क्योंकि उसका गया है इसलिए निश्चित होकर यश आदि करना चाहिए की सृष्टि यश के लिए ही की है। इसलिए जो जिस कार्य उस कार्य के लिए उनका विघात करने में दोष १२ नहीं है
के
।
३८५. वही, १९८८-८९ ।
३८६. सर्व पुरुष एवेदं यद्भूतं यद्भविष्यति ।
लिए अतीन्द्रिय
गया है। ३८९ स्वर्ग में इष्ट
मध्य पशुओं का जो बघ निरूपण शास्त्र में किया
वेद के अपौरुषेयत्व का निषेध — ऊपर वेद को जो अकर्तृक कहा गया है उसका लण्डन करते हुए नारद कहता है कि वेद का कोई कर्ता नहीं है, यह बात युक्ति के अभाव में सिद्ध नहीं होती है जबकि वेद का कर्ता है इस विषय में अनेक हेतु सम्भव है । जिस प्रकार दृश्यमान घट पटादि पदार्थ सहेतुक होते है उसी प्रकार वेद सकती है इस विषय में भी अनेक हेतु सम्भव हैं । १९३ चूँकि वेद पद और वाक्यादि रूप हैं तथा विषेय और प्रतिषेध्य अर्थ से युक्त है अत:
257 " ब्रह्मा ने पशुओं
लिए रखे गये हैं
३८७ १५० ११९१ ।
१८९. वही, ११।१६७ । ३९. वहीं, ११।१६९ । १९३. वही, ११।१८९ ।
ईशानो योऽमृतत्वस्य यदन्नेनातिरोहति पद्म० ११.९० । पुरुष एवं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यवनातिरोहति ॥ पुरुष सूक्त — ऋश्वेद | यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुषा ।
यज्ञस्य भूमै सर्वस्य तस्माद यशे वषौऽवषः || मनुस्मृति ५३९ ।
३८८. वहीं, ११।९२ ।
३९०. वही, ११।१६८ । ३९२, वही, ११।१७० ।
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२८० : पमापरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति कर्तमान् हैं । लोक में यह सुना जाता है कि वेद की उत्पत्ति ब्रह्मा तथा प्रजापति आदि पुरुषों से हुई है अतः इस प्रसिशि का दूर किया जाना शक्य नहीं है। पदि तुम्हारा यह विचार हो कि ब्रह्मा आदि वेद के कर्ता नहीं है किन्तु प्रवक्ता अर्थात् प्रवचन करने वाले हैं तो वे प्रवचनकर्ता आपके मत से रागद्वेषादि से युक्त ही ठहरेंगे ।१५ यदि सर्वज है तो वे अन्यथा उपदेश कैसे देंगे, अन्यथा व्याख्यान कैसे करेंगे, क्योंकि सर्वज्ञ होने से उनका मत प्रमाण है। इस प्रकार सर्वज्ञ की सिद्धि होती है।
वेद शास्त्र नहीं है-संवर्त द्वारा यज्ञ के विषय में शास्त्र प्रमाण देने पर भारद कहता है कि बेदी के मध्य में पशुओं का जो बघ होता है यह पाप का कारण नहीं है, यह कहना अयुक्त है उसका कारण सुनो । २५८ सर्वप्रथम तो वेद शास्त्र है यही बात अशिक्षा : क्योंवि. शा५ यह कहता है जो माता के समान समस्त संसार के लिए हित का उपवेषदे। जो कार्य निर्दोष होता है उसमें प्रायश्चित्त का निरूपण करना उचित नहीं है परन्तु इस याशिक हिंसा में प्रायश्चित्त कहा गया है इसलिए यह सपोष है। उस प्रायश्चित्त का कुछ वर्णन ४००
___जी सोमयज्ञ में सोम अर्थात् चम्नमा के प्रतीक रूप सोमलता से या करता है उसका तात्पर्य यह होता है कि वह देवों के वीर सोम राजा का हनन करता है, उसके इस यज्ञ को दक्षिणा एक सौ बार गौ है।४०१ (गवां शतं द्वादशं वा
३९४, पद्म ११।१९० ।
३९५, पद्म० ११११९१ । ३१६. वही, ११।१९२ ।
३९७. वही, ११५११३ ॥ ३९८. वही, ११।२०८।
३९९, बहो, १११२०१ । ४००, बहो, ११।२१० ।
४०१. वही, ११४२११ । सोमया-सोमरस की भाति देने से यह सोमयाग कहलाता है। सोमयाग ही
आर्यों का प्रसिद्ध याग है । पारसी लोगों में यह प्रचलित था। यह बहुत ही विस्तृत दीर्घकालीन तथा बहुसाधनध्यापी व्यापार है। इसके
प्रधानतः कालगणना की दृष्टि से सीन प्रकार है(१) एकाह-एक दिन में साध्य याम ।। (२) अहीन-दो दिन से लेकर १२ दिन तक चलने वाला याग । (३) सत्र-१३ दिनों से प्रारम्भ कर पूरे वर्ष तथा एक हजार वर्षों तक चलने
वाला याग 1 द्वादशाह दोनों प्रकार का होता है-अहीन तथा सत्र ! इसके अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, पोस्शी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तोर्याम इस प्रकार ७ भेद है। इनका विशेष विवरण आचार्य
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धर्म और दर्शन : २८१ अतिक्रामति' कात्यायन श्रौतसू* १०१।१० पयाराभं शदश द्वादशाभ्यः षड् षड् द्वितीयेभ्यश्चतसश्चततश्चतस्त्रस्तुतीयेभ्यस्तिस्रस्तिन इसरेभ्यः' कात्यायन श्रौतसूत्र १०।२।२४) इन एक सौ बारह दक्षिणाओं में से सौ दक्षिणायें देवों के वीर सोम का शोषन करती है, दस दक्षिणायें प्राणों का तर्पण करती है। ग्यारहवीं दक्षिणा आत्मा के लिए है४०२ और जो बारहवीं दक्षिणा है वह केवल दक्षिणा ही है। अन्य दक्षिणाओं का व्यापार तो दोषों के निवारण में होता है।४७३ पशुयज्ञ में यदि पशु पक्ष के समय शब्द करे या अपने अगले दोनों पैरों से छाती पीटे तो हे अनल ! तुम मुझे इससे होने वाले समस्त दोष से मुक्त करो। ०४ इत्यादि रूप दोषों के बहुत से प्रायश्चित्त कहे गए है इनके विषय में अन्य आगम से प्रकृत में विरोध दिखाई देता है। १०५ ___ अपूर्व धर्म का निषेध-पश से अपूर्व धर्म व्यक्त होता है, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अपूर्व धर्म तो आकाश के समान नित्य है वह कैसे व्यक्त होगा? और यदि व्यक्त होता ही है तो फिर बह नित्य न रहकर घटादि के समान अनित्य होगा ।१०६ जिस प्रकार दीपक के व्यक्त होने के बाद रूप का झान उसका फल होता है उसी प्रकार स्वर्गादि की प्राप्ति रूपी फल भी अपूर्व धर्म के व्यक्त होने के बाद ही होना चाहिए पर ऐसा नहीं है ।१९७
यज्ञ सम्बन्धी विविध युचियों का खण्डन--ब्रह्मा ने यदि पशुओं की सृष्टि यज्ञ के लिए की है तो फिर पशुओं से बोझा होना आदि काम क्यों लिया जाता है ? इसमें विरोध आता है । विरोध ही नहीं, यह तो थोरी कहलायेगी।४०८ यदि प्राणियों का वध स्वर्ग प्राप्ति का कारण होता तो थोड़े ही दिनों में यह संसार शून्य हो जाता 1४०९ उस स्वर्ग के प्राप्त होने से भी क्या लाम है जिससे फिर ज्युत होना पड़ता है। यदि प्राणियों का वष करने से मनुष्य स्वर्ग
बलदेव उपाध्याय कृत 'वैदिक साहित्य और संस्कृति' नामक ग्रन्थ से
जान लेना चाहिए। ४०२, पद्म ११।२१२ ।
४०३. पद्म. ११।२१३॥ ४०४. पद्मः १११२१५ । ४०५. तथा च यत्पशुर्मायुमकृतोरोदनवाहमा (?) पादाम्याननसस्तनमाद्विश्व
स्मान् मुन्चे स्वनल: ११।२१४ यस्पार्मायुमकृतोरोवा पभिराहते। अग्निर्मातस्मोदनसो विश्वस्मात् मुञ्चत्व' एनसः (कात्यायन श्रौतसून
२५।२) १३३५ । ४०६. पदम० १११२०६ ।
४०७. पद्म० ११।२०७१ ४०८. वही, १११२२९ ।
४०९. वही, १११२३५ । ४१०. वहीं, ११॥२३६ ।
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२८२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
में जाते हैं तो फिर प्राणिवध की अनुमति मात्र से वसु नरक क्यों गया २४११ वसु नरक गया, इसमें प्रमाण यह है कि ब्राह्मण अपने पक्ष के समर्थन में आज मी हे बसो ! उठो स्वर्ग जाओ इस प्रकार जोर-जोर से चिल्लाते हुए अग्नि में आहूति डालते हैं । यदि वसु नरक नहीं गया होता तो उक्त मन्त्र द्वारा आहुति देने की क्या आवश्यकता को २४१२ चूर्ण वाले लोग भी नरक गए हैं। फिर अशुभ करने वाले लोगों की तो कथा ही क्या है।
द्वारा पशु बनाकर उसका धात करने संकरूप से साक्षात् अन्य पशु के व
४१३
यज्ञ से देवों को तृप्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि देव को तो मनचाहा दिव्य अन्न उपलब्ध होता है। जिन्हें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप की अपेक्षा मनोहर आहार प्राप्त होता है उन्हें इस मांसादि घृणित वस्तु से क्या प्रयोजन हूँ ? जो रज और भीर्य से उत्पन्न है, अपवित्र है, कीड़ों का उत्पत्ति स्थान है तथा जिसकी गन्ध और रूप अत्यन्त कुत्सित है ऐसे मांस को देव लोग किस प्रकार खाते है ? ४१४, ४
४१५
यदि भूखे देव होम किए गए पदार्थ से तृप्ति को प्राप्त होते हैं तो वे स्वयं ही क्यों नहीं तृति को प्राप्त हो जाते, मनुष्यों के होम को माध्यम क्यों बनाते है ४१६ जो देव ब्रह्मलोक से आकर योनि से उत्पन्न होने वाले दुर्गन्ध युक्त शरीर को खाता है उसको यहाँ कौए शृगाल और कुत्ते के समान कहा गया है । ४१७
श्राद्ध, तर्पण आदि के द्वारा मृत व्यक्ति की तृप्ति मानना भी ठीक नहीं । ब्राह्मण लोग लार से भींगे हुए अपने मुख में जो अन्न रखते हैं वह मल से भरे पेट में जाकर पहुँचता है। ऐसा अन्न स्वर्गवासियों को किस प्रकार तृप्त करता होगा । ४१८
जिस प्रकार व्याथ के द्वारा किया हुआ वष दुःख का कारण होने से पापबन्धका निमित होता है उसी प्रकार वेदी के मध्य में पशु का जो वध होता है वह भी दुःख का कारण होने से पापबन्ध का निमित्त है ।
४१९
मनुष्य देवों की मान्यता का निषेध - शतपथ ब्राह्मण में दो प्रकार के
४११. पद्म० ११ / २३७ १
४१३. वही, ११।२४० ।
४१५. वही, ११३२४७ ४१७. वही, ११।२५० । ४१९. वही, ११।२१६ ।
४१२. वही, ११।२३८-२३९ । ४१४. ० ११।२४५-२४६ ।
४१६. वही, ११।२४९ । ४१८. वही, ११।२५१ ।
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धर्म और पर्शन : २८३
वेब माने गये है-अग्नि मादि हविर्भोजी तथा मनुष्यदेव (ब्राह्मण)। दोनों के लिए यश का दो विभाग किया गया है। आहुति देवों के लिए और दक्षिणा मनुष्य-देवों के लिए होती है । ४२० हविर्भोजी देवों द्वारा मांस भक्षण न किए जाने को पुष्टि करने के बाद मनुष्य देवों के विषय में पारिस में कहा गया है कि लोक में जो मनुष्य देव के रूप में प्रसिद्ध है वे साधारणजन के समान ही भोजन के पात्र है, अर्थात् भोजन करते हैं, कषाय से युक्त है और अवसर पर
आशिक कामादि का सेवन करते है। ऐसे देव दान के पात्र कैसे हो सकते हैं। कितनी ही बातों में वे अपने ही भक्त जनों से गये गुजरे अथवा उनके समान है तब उन्हें उत्तम फल कैसे दे सकते हैं।७२१ यद्यपि वर्तमान में उनके शुभ कर्मों का उदय देखा जाता है तो भी उनसे अन्य दुःखी मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? ऐसे कुदेवों से मोक्ष की इच्छा करना बालू से तेल प्राप्त करने की इच्छा के समान है । अथवा अग्नि की सेवा से प्यास नष्ट करने की इच्छा के समान है। यदि एक लँगड़ा दूसरे मनुष्य को देशाम्तर में ले जा सकता है तो इन देवों से दूसरे दुःखी जीवों को भी फल की प्राप्ति हो सकती है । १२२
विविध धार्मिक मान्यतायें उपयुक्त मान्यताको के आंतरिक्त अन्य पार्मिक मान्यताय भी उस समय पीं, जिमका उल्लेख उनका निषेध करने की दृष्टि से ही पद्यपि पधचरित में हुआ है फिर भी उनसे तत्कालीन मान्यताओं पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। हन मान्यताओं से युक्त व्यक्तियों या वर्गों को हम निम्नलिखित भागों में बाट सकते है
१. तापस २१(१)ये आश्रम में रहते थे। जटायें धारण करते थे। सरीर पर बल्कल धारण करते थे। स्वादिष्ट फलों को खाते थे। इनके अपने मठ भी थे। इन मठों में तोता, मैना, हरिण, गाय आदि पालते थे। इनके यहाँ जटाधारी पालक पढ़ने के लिए आया करते थे। कुछ तापस सूखे पसे खाकर तथा वायु का पान कर जीवन व्यतीत करते थे। यह अतिथि सत्कार में निपुण थे। अपने आप उत्पन्न होने वाले पान्य इनका माहार था।१२२(१) बत्कलों को धारण करने के कारण इन्हें बल्कलतापसा भी कहा गया है। इनकी उत्पत्ति बतलाते हुए कहा गया है कि स्त्री को देखकर उनका चित्त दूषित हो जाता था और जननेन्द्रिय में विकार दिखने लगता था इसलिए उन्होंने ४२०. वैविक साहित्य और संस्कृति (तृ० सं०), पृ० २०८ । ४२१. पन १४८५-८४ । ४२२, पन० १४१८५-८६ । ४२३ (१). वही, ४१६११९। ४२३(२). वही, ३३।११२ ।
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२८४ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जननेन्द्रिय को लंगोट से बाच्छादित कर लिया । ये यज्ञोपवीत धारण१२४ करते थे । भृगु, अगिशिरस, पन्हि, कपिल, अषि तथा पिर आदि अनेक एसे तापसों का यही नाम आया है।४२५
२. पृथ्वी पर सोने २५ वाले-ऐसे व्यक्ति जो पृथ्वी पर सोने में धर्म मानते थे।
३. भोजन त्यागी २७-जो चिरकाल तक भोजन का त्याग रखते थे ।
४. पानी में डूबे रहने वाले ऐसे व्यक्ति जो रात दिन पानी में डूने रहते थे। पद्मपरित में धर्म मानकर ऐसा करने वालों को दुर्गसि का पात्र बतलाया है।४२९
५. भृगुपाती-पहाड़ को चोटी से गिरने वाले । ५० जो इसी में धर्म मानते थे।
६. शरीरशोषिणी क्रिया करने वाले कुछ व्यक्ति ऐसे थे जो शरीर सुखाने वाली क्रियायें करते थे, जिनसे मरण भी हो सकता था। यह भी कुछ लोगों के धर्म साधन का एक प्रकार था । पद्मचरित में इन समका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भले ही इस प्रकार की क्रियायें करे, लेकिन पुण्यरहित अपना मनोरथ सिद्ध नहीं कर सकता ।
७. तीर्थ क्षेत्र में स्नान करने वाले, दान देने वाले तथा उपवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों के विषय में कहा गया है कि यदि ये मांस भोजन करते है तो उनके उपर्युक्त कार्य नरफ से बचाने में समर्थ नहीं है।४३६
८. शिर मुंडाना (शिरसो मुण्डन), स्नान तथा नाना प्रकार के वेष धारण करना (विलिंग ग्रहण)-इन कार्यों से भी मांसभोजी मनुष्य की रक्षा नहीं हो राकती ।४३४
९. अग्नि प्रवेश करने वाले १५–पपरित में ऐसे लोगों के विषय में कहा गया है कि जो इस प्रकार के पाप करते हैं वे आत्महित के मार्ग में मूढ है और दुर्गति को प्राप्त होते हैं।४३६
४२४. पद्म० ४११२७-१२८ । ४२६. वही, ७।३१९॥ ४२८. वही, ७३१९ । ४३०. वही, ७१३१९ । ४३२. वही, ७।३२० । ४३४. वही, २६६८। ४३६. वही, १०५:२३८ ।
४२५. पन. ४६१२६ । ४२७. वही, ७।३१९ । ४२९. वही, १०५।२३८ । ४३१. वही, ७।३२० । ४३३. वही, २६६६८। ४३५. वही, १०५:२३८ ।
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धर्म और वर्षान : २८५
१०. कुलिंगी जो गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहता है, निरन्तर ऊपर की ओर भुजा उठा रहता है, माह में एक बार भोजन करता है, मृगों के साथ जंगल में शयन करता है, भृगुपात करता है, मौन से रहता है और परिग्रह का त्याग करता है वह मिच्यादर्शन (विपरीत श्रद्धान) से दूषित होने के कारण कुलिंगी है। ऐसे जीन पैरों से चलकर अगम्य स्थान (मोक्ष) महीं प्राप्त कर सकते । १७
११. मस्करी४८
१२. कृतान्त, विधि, देव तथा ईश्वर को मानने वाले--ऐसे लोगों के मत के विषय में कहा गया है कि पूर्व पर्याय में जो अच्छा या बुरा कर्म किया है वही कृताम्त, विधि, दैव अथवा ईश्वर कहलाता है। मैं पृथक् रहने वाले कृतान्त के द्वारा इस अवस्था को प्राप्त कराया गया हूँ ऐसा जो मनुष्य का निरूपण करना है वह अज्ञानमूलक है।४१५
१३. इसके अतिरिक्त काल, कर्म, स्वभाव, पुरुष, क्रिया अथवा नियति को मानने वाले लोगों के अस्तिख का पता भी पद्मपरित से चलता है ।४४० ___ अधार्मिक क्रियायें-दया, दम, क्षमा, संवर, (कर्मों का बागमन रोकना) का मान तथा परित्याग का न होना, ४१ हिंसा, झूठ, पोरी, कुशील और परिप्रह का आश्रय करना,४४२ दीक्षा लेकर पाप में प्रवृत्ति करना," धर्म के बहाने सुख प्राप्त करने के लिए छह काय (पृथ्वी, आप, तेज, वायु, तथा वनस्पति काय या स) के जीवों को पीड़ा पहुँचाना,१४ मारना, ताड़ना, बापना, औफमा, तथा दोहना आदि कार्य करना तथा दीक्षा लेकर भी ग्राम, नेत आदि में आसक्त होना,४४५ वस्तुओं के खरीदने बेचने में आसक्त होना, स्वयं भोजनादि पकाना, दूसरे से याचना करना, स्वर्णादि परिग्रह साप रखना," मर्दन, स्नान, संस्कार, माला, घूप, विलेपन, आदि का सेवन करना, हिंसा को निर्दोष कहते हुए शास्त्र वेष तथा चरित्र में दोष लगाना। ये सब अधार्मिक क्रियायें कही गई है।
कुकृत-सुकृत-अत्यधिक क्रोध करना, परपीड़ा में प्रीति रखना और रूक्ष (कठोर, रूखे) वचन बोलना यह कुकूत है । विनय, श्रुत, पोल, दयासहित वचन, ४३७. पन १०५।२३५-२३७ । ४३८. पप. ४१।६१ । ४३९, वही, ९६१९,१० ।
४४०, वही, ३१२१३ । ४४१. वही, १०५।२२७ ।
४४२. पण. १०५।२२८ । ४४३. वही, १०५।२२९ ।
४४४, पप० १०५।२३० । ४४५, वही, १०५४२३१ । ४४६. वही, १०५।२३२ । ४४७. वही, १०५।२३३ ।
४४८. वही, १०५।२३४ ।
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२८६ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अमात्सर्य और क्षमा ये सुकृत है।४४९ मुकुत के फल से यह जीव उच्च पद तथा उत्तम सम्पत्तियों का भण्डार प्राप्त करता है और पाप के फल से फुगति सम्बन्धी दुःख को पाता है।५०
मुक्ति का साधन-मुक्ति के लिए राग छोड़ना आवश्यक है क्योंकि वैराग्य में आरून मनुष्य को मुक्ति होती है और रागी मनुष्य का संसार में डूबना होता है। जिस प्रकार कण्ठ में शिला बाँधकर नदी नहीं तेरी जा सकती उसी प्रकार रागादि से संसार नहीं सिरा जा सकता । जिसका चित्त मिरन्तर ज्ञान में लीन रहता है तथा जो गुरुजनों के कहे अनुसार प्रवृत्ति करता है ऐसा मनुष्य ही शान, शील आदि गुणों की आसक्ति से संसार को तैर सकता है।५९
४५७. वही, १२३।१७६ ।
४४२, पप० १२३।१७५.। ४५१. वही, १२३।७४-७६ ॥
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अध्याय ७
पद्मचरित का सांस्कृतिक महत्त्व
पाचरित में उस्कृष्ट काव्य गुणों के अतिरिक्त सांस्कृतिक सामग्री विपुल रूप में पाई जाती है। यह एक महत्त्वपूर्ण मानवीय समाजशास्त्र है। मनुष्य अपनी प्रारम्भिक प्राकृतिक अवस्था में किस प्रकार रहता था इसका सजोष वर्णन उपस्थित करने के साथ-साथ यह तत्कालीन युग की सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक स्थिति पर प्रकाश डालता है। उस समय के लोगों का भोजन-पान क्या : 5 की श्रेषभूषा कला हो। यी लोग अपना मनोरंजन कैसे करते थे? उनका रहन-सहन किस प्रकार का था ? कौन-कौन से कला-कौशल समाज में विकसित थे? नगर-निर्माण, शासन व्यवस्था, युद्ध-संचालन, अस्त्र-शस्त्र, यातायात के साधन इत्यादि कैसे थे? सामाषिक-पारिवारिक सम्बन्ध किस प्रकार के ये ? विवाह और प्रेम का आर्दश क्या था? समाज में नारियों का क्या स्थान या ? शिक्षा कहाँ तक विकसित हुई थो ? जीवन के प्रति लोगों का क्या दृष्टिकोण था? उनकी लौकिक एवं पारलौकिक महत्त्वाकांक्षायें क्या थीं ? इस प्रश्नों का उसर इनमें सम्पक रूप से मिलता है। इस प्रन्य में जीवन का सभी दृष्टिकोणों से विवेचन किया गया। नगर, ग्राम, नदी, पर्वत, वन प्रदेश, विभिन्न प्रकार की वनस्पति, जीव-जन्तु, राजा, मंत्री, सेनाध्यक्ष, सैनिक, गृहस्थ, मुनि आदि का इसमें पर्याप्त विवेचन उपलब्ध होता है। अतः सांस्कृतिक दृष्टि से इस प्रम्ब का विशेष महत्व है।
भारतीय कथा साहित्य में पधचरित का स्थान भारतीय कथा साहित्य बहुत विशाल है। प्राकृत, पालि, वैदिक संस्कृत, लौफिक संस्कृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं में इस प्रकार का साहित्य विपुल रूप से लिखा गया। कथा साहित्य का उदय भारतवर्ष में हमा और इसने संसार के सामने इस साहित्यिक साधन की उपयोगिता सर्वप्रथम प्रवशित की।' भारत में कयामें केवल कौतुकमयी प्रवृत्ति को चरितार्थ करने के अतिरिक्त पार्मिक शिक्षण के लिए भी प्रयुक्त की जाती थी और यही कारण है कि ब्राह्मणों ने, जैनियों ने तथा बौद्धों ने समान भाव से साहित्य के इस अंग का परिवर्षन और उपहण किया है। बौखों के जातकों का साहित्य के इतिहास . १. अल्वेव उपाध्याय-संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४२४ ।
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२८८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादिप्त संस्कृति में तथा कला के संवर्धन में विशेष महत्त्व रहा है। कहानी लिखने में जैनियों को शायद ही कोई पराजित कर सके। भारतीय कथा साहित्य में राम-कथा का अस्तित्व बहुत प्राचीन है। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् प्रभूति जितने भो भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ है उन सबमें सर्वत्र रामकथा की व्यापकता वर्तमान है ।२ बौद्ध और जैन साहित्य में भी रामकथा को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है। जैन कवि विमलसूरि रचित पउम परिय प्राकृत भाषा का रामकथा सम्बन्धी आद्यग्रन्थ है। विमलमूरि के बाद संस्कृत में रविषेण ने पमपरित की रचना की। पपपरित संस्कृत में जैन रामकथा का आद्य ग्रन्थ होने के साथ-साथ संस्कृत जैन कथा साहित्य का भी आद्यपन्य है । भारतीय कथा साहित्य को उपदेशात्मक, मनोरंजक और शिक्षाप्रद इस प्रकार तीन भागों में विभक्त किया गया है। इनमें से उपदेश प्रधान कथाओं का यह श्रेष्ठ-भांडार है 1 उपदेश के साथ-साथ इसमें शिक्षा और मनोरंजन के भी तत्त्व विद्यमान है। प्रषानता उपदेश की ही है।
राम, लक्ष्मण और रावण को जैन परम्परा में प्रेसठ शलाका पुरुषों (महापुरुष, विशिष्ट पुरुष) में स्थान दिया गया है। प्रेसठ पालाका पुरुषों के अन्तर्गत २४ तीपंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ नारायण बोर ९ प्रतिनारायण का समावेश होता है । इनका उल्लेख परवरित में किया गया है। राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवें बलदेव, नारायण' और प्रतिनारायण' माने गये है। यही यह मी जात होता है कि नारायण बलदेव के साथ मिलकर प्रतिनारायण का वध करते हैं। इसके अतिरिक्त इसमें (पारित की रामकथा में) निम्नलिखित अन्य विशेषतायें मिलती है
यहाँ हनुमान, सुग्रीव आदि वानर नहीं किन्तु विद्याधर थे। उनके छत्र आदि में वानर का चिह्न होने के कारण ये बानर कहलाने लगे।
राक्षसों के विषय में कहा गया है कि राक्षसवंशी विद्याधर राक्षस जातीय देवों के द्वीप की रक्षा करते थे इसलिए वह दोष राक्षस (द्वीप) के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उस द्वीप के रक्षक विद्याधर राक्षस कहलाने लगे ।'' इस उल्लेख २. वाचस्पति मेरोला-संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, १० १५५ । ३. वही, पृ. ८८२ । ४. पम पर्व २० ।
५. पपः २१।। ६. वही, ३५१४४, १०३।४०। ७. वही, ७३१९९-१०२ । ८. वही, ७३३९९-१०२,७३।११८-१२२ एवं रामकथा, पृ० ६६ । ९. पा० ६२१४ ।
१०. पप ५।१८३, ४३१३८, ३९, ४० ।
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पद्मचरित का सांस्कृतिक महत्त्व : २८९
में रावण आदि राक्षस योनि वाले न होकर राक्षसवंशी विद्याधर राजा ठहरते हैं । पद्मचरित के पंचम पर्व में राक्षस वंश की कथा दी गई है। तदनुसार मनोवेग नामक राक्षस के राक्षस नाम का ऐसा प्रभावशाली पुत्र हुआ कि उसके नाम से उसका वंश ही राक्षस वंश कहलाने लगा ।'
११
रचना की । तदनुसार
थे
वे पृथ्वी पर अमुर २
१३
असुर यक्ष, किन्नर, गन्धर्व आदि की उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि इन्द्र नामक विद्याधर ने इन्द्र के समान विभूति की विद्याधर के असुर नामक नगर में जो विद्याधर रहते नाम से प्रसिद्ध हुए । यक्षगीत नगर के विद्याधर वक्ष' कहलाए। किन्नर नामक नगर के निवासी किन्नर १४ कहलाए और गन्धर्व नगर के रहने वाले विद्यावर गन्ध नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार अश्विनीकुमार विश्वावसु और वैश्वानर आदि विद्याबल से समन्वित ( विधाघर) थे। ये देवों के समान क्रीड़ा करते थे। १
१५
रावण का प्रारम्भिक नाम दशानन था । हजार नागकुमार द्वारा रक्षित एक हार को रत्नश्रवा के केकसी से उत्पन्न प्रथम पुत्र ने खींच लिया। उस हार में बड़े-बड़े स्वर लगे हुए थे। उसमें असली मुख के सिवाय नी मुख और भी प्रतिविम्बित हो रहे थे इसलिए उस बालक का नाम दशानन नाम रखा गया । १७ रावण नाम उसका बाद में पड़ा जब कि बालि मुनिराज के प्रभाव से वह कैलास पर्वत नहीं उठा सका | पर्वत के बोझ से वह दबने लगा। उस समय चूंकि उसने सर्वप्रयस्त से चिल्ला कर समस्त संसार को शब्दायमान कर दिया था इसलिए वह पीछे चलकर रावण इस नाम को प्राप्त हुआ
डॉ० हीरालाल ने पउमचरिय को कतिपय
विशेषताओं का उल्लेख किया है । उनके अनुसार पद्मवरित उपचारेय का ही पल्लवित अनुवाद है अतः पउमचरिय को उन विशेषताओं को पद्मचरित को भी विशेषतायें कहा जा सकता है । पद्मचरित को देखने पर इन विशेषताओं की पुष्टि भी होती है। ये विशेषतायें निम्नलिखित है
११. पद्म० ५। ३७८ ।
१३. वही, ७ ११८ ।
१५. वही, ७ ११८ ।
१२. बही, ७ ११७ । १४. वही, ७१११८ ।
१६. वहीं, ७।११९ ।
१७. बड़ी, ७२१३, २१४, २२२ ।
१८. खं च सवं यत्नेन कृत्वा रावितवान् जगत् ।
यतस्ततो गतः पश्चाद्रावणाख्यां समस्तगाम् ।। पय० ९।१५३ ।
१९. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान ( डॉ० हीरालाल ), पु० १३२ ।
१९
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२९० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सीता यथार्थ में जनक की हो ओरस कन्या वो, उसका एक भाई भामंडल मी था । राम ने लेखों द्वारा किए गए आक्रमण के समय जनक की सहायता को, उसी के उपलक्ष्य में जनक ने सीता का विवाह राम के साथ करने का निश्चय किया । 21 सीता के भ्राता भामंडल को उसके बचपन में ही एक विद्याघर हर ले गया था । २२ युवक होने पर तथा अपने माता-पिता से अपरिचित होने के कारण उसे सीता का चित्रपट देखकर उसपर मोह उत्पन्न हो गया था, वह उसी से अपना विवाह करना चाहता था । इसी विरोध के परिहार के लिए धनुष परीक्षा का आयोजन किया गया जिसमें राम की विजय हुई। दशरथ ने जब वृद्धावस्था आयी जान राज्य भार से मुक्त हो वैराग्य धारण करने का विचार किया, तभी गम्भीर स्वभाव वाले भरत को भी वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया। इस प्रकार अपने पुत्र सोनों के साथ वियोग की आशा से भयभीत होकर केकया ने अपने पुत्र को गृहस्थी में बांधने की भावना से उसे हो राज्य पद देने के लिए दशरथ से एकमात्र वर माँगा और राम दशरथ की आज्ञा से नहीं, किन्तु स्वेच्छा से वन को गए ।२४ इस प्रकार कैकेयी ( केकया) की किसी दुर्भावना के कलंक से बचाया गया है। रावण के आधिपत्य को स्वीकार करने के प्रस्ताव को ठुकराकर बाकि स्वयं अपने लघु भ्राता सुग्रीव को रावण को राज्य देकर दिगम्बर मुनि हो गया था, राम ने उसे नहीं मारा यहाँ ज्ञानी और व्रती चित्रित किया गया है। वह सीता का अपहरण तो कर के गया, किन्तु उसने उसकी इच्छा के प्रतिकूल बलात्कार करने का कभी विश्वार या प्रयत्न नहीं किया और प्रेम की पोड़ा से घुलता रहा। जब मन्दोदरी ने रावण के सुधार का कोई दूसरा उपाय न देख सच्ची पत्नी के नाते उसे बलपूर्वक अपनी इच्छा पूर्ण कर लेने का सुझाव दिया तब उसने यह कहकर उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया कि मैंने अनन्तवीर्य केवली के समीप किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध कभी संभोग न करने का व्रत ले लिया है, जिसे मैं कभी भंग न करूँगा | 28 रावण के स्वयं अपने मुख से इस व्रत के उल्लेख द्वारा कवि ने न केवल उसके चरित्र को उठाया है, किन्तु सीता के अखंड पातिव्रत का प्रमाण उपस्थित कर दिया है। रावण को मृत्यु यहाँ राम के हाथ से नहीं अपितु लक्ष्मण के हाथ से कही गई है। २७ राम के पुत्रों के नाम यहाँ अनङ्गलवण
२१. बही, २७।१२ ।
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२०. पद्म० २६ / १२१ ।
२२. हो, २६१२१ ।
२३. वही, २८।१६९-१७१, २४१-२४३ ।
२४. वही, पर्व २१ ।
२५. वही, ९।५० ९० । २६. वही, ४६२५०-५३, ५५, ६५०६९ । २७. वहीं, ७६।२८-३४ ।
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पनवरित का सांस्कृतिक महत्व : २९१ और मदना कुश कहे गए है। इसके अतिरिकह सम्म कारमा शिक्षा भो पद्मचरित में मिलती हैं जिनमें से अधिकांश विशेषतामों की घोर संकेत डॉ० रेवरेंड फादर कामिल गुरूके ने अपने अन्य रामकथा (उत्पत्ति और विकास) में परमचरिय के प्रसंग से कर दिया है। इस अन्य में परमचरिय और पप्र. चरित की जिन मान्यतामों में वैशिष्ट्य है, उन्हें भी कह दिया गया है, अतः उनको यहाँ दुहराना पिष्टपेषण ही होगा। जैन रामकथा ने ब्राह्मण रामकपाओं को व्यापक रूप से प्रमावित किया। उनमें से कतिपय प्रसंगों की ओर बल्क साहब ने संकेत किया है। ये प्रसंग निम्नलिखित है जो पमचरित में भी बाए है
सीता स्वयंवर के अवसर पर अन्य राबाओं की उपस्थिति में राम द्वारा धनुर्भङ्ग ।३० कैकेयी का पश्चात्ताप ।" ___ लंका में विभीषण से हनुमान् फी भेंट-२ अर्वाधीन रामकथाओं में विभीषण को रागभक्त के रूप में चित्रित किया गया है। आनन्द रामायण में लिखा है कि रावण की लंका में सीता की खोज करते हुए हनुमान ने विभीषण को कीर्तन संलग्न पाया था। रामचरित मानस, गुजराती रामायणसार आदि रचनाओं में भी हनुमान् तथा विभीषण की भेंट का वर्णन किया गया है। वास्तव में जैन रामायणों में पहले-पहल इस भेंट का उल्लेख मिलता है। पउमरिम तथा पमचरित को अनुसार विभाषण ने लंका में हनुमान् का स्वागत किया था तथा सोता को लौटाने के लिए रावण से आग्रह करने की प्रतिमा की थी।
लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा (चन्द्रनखा) के पुत्र का घ- वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में जो शम्धूक वर्ष का वृत्तान्त मिलता है, इसके अनुसार नारद से यह जानकर कि शुद्ध की तपस्या के कारण किसी ब्राह्मण पुत्र की अकाल मृत्यु हई, राम पुरुपक पर चढ़कर शूद्र का पता लगाते है तथा उसका वध भी करते है ।" पडमचरिय (पद्मचरित में भी) इस कथा को एक दूसरा रूप दिया गया है-खरदूषण तथा चन्द्रनखा का पुत्र शम्बूक सूर्यहास नामक खड्ग प्राप्त करने के उद्देश्य से साधना करता है। १२ वर्ष की तपस्या के पश्चात् यह खड्ग प्रकट
२८. पथ० १००।२१। २९. वही, रामकथा, पृ. ७३५ । ३०. वहीं, पर्व २८। ३१. वही, ३२१०४-११०। ३२. वही, ५३११-१२ । ३३. वही, ५३।१-१२, सन्मति सन्देश, पृ० ११ वर्ष १५ अंक ३ । ३४. वही, पर्व ४३। ३५. सन्मति सन्देश, पृ० १३ वर्ष १५ अंक ३ (मार्च १९७०)।
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२९२ : पद्म चरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति होता है । संयोग से लक्ष्मण वहां पहुंचकर उसे देखते हैं तथा उसे हाथ में लेकर बांस को काटते समय शम्बूक का सिर भी काट लेते हैं। चन्द्रनरला अपने पुत्र से मिलने आती है तथा उसे मृत देखकर विलाप करते-करते वन में घूमने लगती हैं । अन्त में वह राम लक्ष्मण के पास पहुँचकर उन पर आसक्त हो जाती है। दोनों के अस्वीकार करने पर वह अपने पति स्वरदूषण तथा अपने भाई रावण को शम्बूक वष की सूचना देती है। इस प्रकार लक्ष्मण द्वारा शम्बूक या सीता हरण तथा राम रावण युद्ध का कारण बन जाता है।"
मधुकर तान्त प्राधिक पारित : सत्य अनेक राजथाओं में पाया जाता है। उदाहरणार्थ-सानन्दरामायण, तेलगू तिपद रामायण, कन्नड़ी तौरखें रामायण, जावा का सेरत काण्ड, मलय का सेरीराम, श्याम की रामकाति १३७
युद्ध से पूर्व राक्षस-राक्षसियों के संभोग श्रृंगार का वर्णन ।
राम सेना से लवकुश का युद्ध-वाल्मीकि रामायण में राम के अश्वमेध की पज्ञ भूमि में कुछ और लय रामायण का गान करते है और इस तरह राम अपने पुत्रों का परिचय प्राम करते हैं । ४० बहुत सी परवर्ती रामकथाओं में कुश और लव का राम सेना तथा राम से भी युद्ध का वर्णन किया गया है । उस युद्ध के भिन्न-भिन्न कारण बतलाए जाते हैं, किन्तु सबमे प्रचलित कारण यह है कि कुश लव ने राम के अश्वमेघ का घोडा बाँध लिया था। कुश लव का युद्ध वर्णन कथासरित्सार, उत्तररामचरित, जैमिनीय अश्वमेध, पद्मपुराण का पाताल खण्ड, रामलिंगामृत का कृत्तिवास रामायण, रामचन्द्रिका, गुजराती रामायणसार, काश्मीरी रामायण, कम्बोडिया की रामकीति तथा श्याम की रामकीति आदि में मिलता है।" विमलमूरि प्राचीनतम रचना है, जिसमें सौता के पुत्रों के युद्ध का वर्णन है । पधचरित में भी यह वर्णन इसी रूप में मिलता है। इसके अनुसार लवण (मनगलवण) और अंकुश (मदनाङकुश) अपनी माता के साथ पुण्डरीकपुर के राजा ब घ के यहाँ रहते हैं। उनके विवाह के बाद नारद उनके पास जाकर उन्हें उनकी माता के परित्याग की कथा सुनाते हैं। इस पर दोनों सेना लेकर अयोध्या पर आक्रमण करते है । अन्त में लवण राम
३६. पय पर्व ४३,४४, सन्मति सन्देश पृ० १३ वर्ष १५ अंक ३। ३७. सन्मति सन्देश, पृ. १३ वर्ष १५ अंक ३ । ३८. पपा पर्व ७३ ३९. वही. पर्व १०२-१०३ । ४०. सन्मति सन्देश, पृ० १३, वर्ष १५ अफ ३ । ४१. वही, पृ० १३ ।
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पनवरित का सांस्कृतिक महत्त्व : २९३ से युद्ध करते हैं तथा अलता म" से तुम करते हैं। बुद्ध अस्चित होने पर सिद्धार्थ लवण और अंकुश का परिचय देता है। इस पर राम अपने पुरों से मिलकर दोनों को अपने पास रखते हैं ।४२
रावण के चरित्र में अन्तर-रामभक्ति के पल्लवित होने के पश्चात् रावण के परिष चित्रण में अस्तर आ गया है और यह कहा गया है कि रावण ने मोक्ष प्राप्त करने के उद्देश्य से सीता का हरण किया था। राक्षस होने के कारण बह राम-भक्ति का अधिकारी महीं था, किन्तु वह सम के द्वारा मारे जाने पर ही परमपद प्राप्त कर सकता था। अर्वाचीन रामकथाओं के अनुसार रावण ने इसी उद्देश्य से सीता का अपहरण किया था। अध्यात्म रामायण में इसका स्पष्ट शम्मों में उल्लेख किया ममा है कि रावण ने सीता का माता के समान पालन किया था ।४३ उन रचनामों के शताब्दियों पूर्व ही विमलमूरि और रविण ने रावण का चरित्र ऊपर उठाने का प्रयास किया था। इन दोनों अन्यों के अनुसार रावण में केवल एक दुर्बलता है। यह सोता के प्रति आसक्ति है । वह एक भक्तिमय जैनधर्मावलम्बी है जो नलकूबर की पत्नी जपरम्भा का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करता है और किसी केवला का उपदेश सुनकर यह धर्मप्रतिज्ञा करता है कि मैं विरक्त परनारों का स्पर्श नहीं करूंगा। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में यह सीता का राम के प्रति प्रेम देखकर मीता हरण पर हार्दिक पश्चात्ताप करता है। ___ उपर्युक्त वर्णन से यह नहीं समझना चाहिए कि पद्मचरित में केवल समकथा ही कही गई है। रामकथा तो एक आधार है। उसके माध्यम से इसमें भगवान् महावीर, राजा श्रेणिक, कुलकर, ऋषभदेव, राजा श्रेयांस और सोम, भरत चक्रवती, बाहुबली, अजितनाथ भगवान्, सगर चक्रवर्ती, शवन दणि, सहस्रनयन तथा पूर्णधन, आयलि तथा चन्द्र, रम्भ, भीम, सुभीम, मेघवाहन, सगर के पुत्र, महारक्ष विद्याधर, राजा श्रीकण्ठ, विद्युत्केश, किष्क्रिम्ब और अन्नकरूढि, माली-सुमाली, राजा सहस्रार, इन्द्र विद्याधर, वैश्रवण, दशानन, भानुकर्ण, विभीषण, मन्दोदरी, सुरसुन्दर, इन्द्रजित, हरिषेण चक्रवर्ती, बालो, खरदुषण, विराधित, सुग्रीय, साहसगति विद्याधर, सहस्ररश्मि, राजा वसु, नारद-पर्वत, नारद,
४२. पन पर्व १०२, १०३ । ४३. सन्मति सन्देश, वर्ष १५, अंक ३, पृ० १२ । ४४. वही, पप० १२९७-१५२, १४६३७१, सन्मति सन्देश, पृ० १२ वर्ष १५
अंक ३ । ४५. पय० ७२।४९-६९, सन्मति सन्देश पृ० १२ वर्ष १५ अंक ३ ।
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२९४ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति मरुत्व, हरिवाहन, सुमित्र और प्रमव, राजा मछु, नलकूबर, कुलकान्ता, अनन्तबल मुनिराज, उपयना कन्या, सहनभट पुरुष, राजा महेन्द्र, अंजना-पवनंजय, हनूमान्, वरुण, चौबीस तीर्थङ्कर, दारह चक्रवर्ती, शान्ति, कुन्थु, अर चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवती, सुभम चक्रवर्ती, महापद्म चक्रवर्ती, जयसेन चक्रवर्ती, ब्रह्मदत्त मक्रवती, नौ बलभद्र, नो नारायण, नौ प्रतिनारायण, आठवें बलभद्र राम, मुनिसुबत भगवान्, वनबाड, कीर्तिधर मुनि, सुकौशल मुनि, हिरण्यगर्भ. मांसभक्षो सुदास, दशरथ, जनक, केकया, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, एर ब्राह्मण, पिङ्गल ब्राह्मण, कुण्डलमण्डित, भामण्डल, मीता, म्लेच्छों का आगमन, चन्द्रगति विद्यावर, सुप्रभा रानी. अतिभूति, उरि हाय, वन, मिहोदर मालिग, दाणा कपिल श्रामण, वनमाला, अतिवीर्य, जितपद्या, देशभूषण-कुलभूषण मुनि, उदित
और मुदित, अग्निप्रभदेव, जटायु, शम्बूक, चन्द्रमस्खा, रत्नजटी विद्याधर, मनदस विनयक्त, शुद्र, आत्मशेय, पन्द्रलेखा, विद्युत्प्रभा और तरङ्गमाला, लंकासुन्दरी, गिरि और गोभूति , कुबिन्दा और उसके पुत्र अहिदेव महोदेव, हस्त प्रहस्त, नल नील, अंगद, घनप्रतिभ, विशल्या, इन्द्रजित और मेघवाहन के पूर्व भव, मन्दोदरी के पूर्वभव, अभिमाना, श्रीवर्षित तया उसके परिवार के पूर्वभव, त्रिलोकमण्डन हाथी, सूर्योदय और चन्द्रोदय, कृतान्तवक्त्र सेनापति, अमल, अहद्दत्त सेठ, मनोरमा, सीता के जनापवाद, धनजंघ, अनङ्गलवण और मदनाकुश, कनकमाला के विवाह, राम लक्ष्मण तथा सीता भोर रावण के पूर्वभव, प्रियङ्कर और हितङ्कर, विद्युत्रा और सर्वभूषण, सोता जी की अग्नि परीक्षा, मधु कैटभ, मधु चन्द्राभा, लक्ष्मण के पुत्र, वनमाली, सीतेन्द्र द्वारा रावण और लक्ष्मण के जीव को संबोधन, रावण और लक्ष्मण के आगामी भव तथा सीता के आगामी भन को कथामें कही गई है। ये सभी कथायें संस्कृत जन कथा साहित्य की बहुमूल्य निधि हैं। इनसे प्रेरणा प्राप्त कर मनुष्य ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की सिद्धि कर सकता है।
पचरित और हरिवंश पुराणा आचार्य जिनसेन ने शक सं० ७०५ ( विक्रम सं० ८४० ) में हरिवंश पुराण की रचना की थी। इस रचना में उम्होंने अन्य आचार्यों के साथ रविण को भी प्रशंसा की है। उनकी कविता के विषय में वे लिखते है--रविणाचार्य की काव्यमयी मूर्ति सूर्य की मूर्ति के समान लोक में अत्यन्त प्रिय है क्योंकि जिस प्रकार सूर्य की मूर्ति 'कृतपनोदयोद्योता है अर्थात् कमलों का विकास और उग्रोस (प्रकाश) करने वाली है उसी प्रकार रविषण की काव्यमयी मूर्ति भी 'कृतपयो
४६. हरिवंश पुराण, ६६५२ ।
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पद्मचरित का सांस्कृतिक महत्व : २९५
दयोद्योता' अर्थात् श्री राम के अभ्युदय का प्रकाश करने वाली है और सूर्य की मूर्ति जिस प्रकार प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है उसी प्रकार रविषेणाचार्य की मी मूर्ति भी प्रतिदिन परिवर्तित (अभ्यस्त ) होती रहती है । ४७ इससे स्पष्ट है कि जिनसेन नवश्य ही रविषेण की काव्यात्मकता से प्रभावित थे । इसके अतिरिक्त जिनसेन के पुराण की वर्णन शैली रविपेण के पद्मचरित को वर्णनशैली से अत्यधिक प्रभावित है । उदाहरणतः -
पद्मचरित के प्रथम पर्व में मङ्गलाचरण (तीर्थङ्करादि की स्तुति) सज्जन प्रशंसा, दुर्जन निन्दा, पूर्वाचार्यों की परम्परा, ग्रन्थ का अवतरण ग्रन्थ के वर्ण नीय अधिकार तथा निरूप्यमाण विषयों का सूत्र रूप में संकलन है । हरिवंश पुराण के प्रथम सर्ग में मङ्गलाचरण (तीर्थंकरादि की स्तुति), पूर्वाचायों का स्मरण सज्जन प्रशंसा, दुर्जन निन्दा, प्रम्यक प्रतिज्ञा ग्रन्थ के वर्णनीय अधिकारों तथा निरूप्यमाण विषयों का सूत्र रूप में संकलन है ।
४८
पद्मचरित में भगवान् महावीर का राजगृह के समीप विपुलाचल पर्वत पर आगमन होता है। राजा थेणिक भगवान् के दर्शन के लिए जाता है। वहीं जाकर दूसरे दिन गौतम स्वामी ( भगवान् महावीर के प्रमुख गणधर ) से रामकथा श्रवण की इच्छा प्रकट करता है। गौतम स्वामी इसके उत्तर में रामकथा कहते है । हरिवंश पुराण भगवान् महावीर विहार करते हुए विपुलाचल पर आते हैं । राजा श्रेणिक चतुरंग सेना के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँचता है | वहीं वह गौतम गणधर से तीर्थंकरों, चक्रषसियों, बलभद्रों, नारायणों तथा प्रति नारायणों के चरित, वंशों की उत्पत्ति तथा लोकालोक के विभाग के निरूपण के लिए प्रार्थना करता हूँ।*
में
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अन्तर केवल यही है कि पद्मचरित में भगवान् महावीर और उनके जीवन माहात्म्य आदि का संक्षिप्त वर्णन ही दिया गया है, जबकि हरिवंश पुराण में भगवान् महावीर के जन्म से लेकर विपुलाचल पर्वत तक पहुँचने की घटनाओं का वर्णन विस्तार से किया गया है । ५०
पद्मचरित में लोक- रचना का अत्मन्त संक्षिप्त रूप से विशेषकर तीसरे पर्व में वर्णन किया गया है । हरिवंश पुराण में लोक रचना का विस्तृत रूप से चतुर्थ से सप्तम सर्ग तक वर्णन किया गया है।
४७. कृपया प्रत्यहं परिवर्तिता । मूर्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव एवं प्रिया - हरिवंशपुराण १।३४ ।
४८, पद्मपर्व २, ३,
४९. हरिवंश पुराण सर्ग २, ३ ५०. १० पर्व २, ३, हरिवंश पुराण सर्ग २, ३ .
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२९६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
गमवरित में क्षेत्र-माल निरूपण के पश्चात् भोगभूमि, चौदह कुलकर, अंतिम कुलकर नाभिराय तथा उनके यहाँ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म, भगवान् के भग्त बाहुबली आदि पुत्रों का वर्णन, भरत की दिग्विजय, भगवान् को दीक्षा लेना तथा निर्वाण प्राप्त करना आदि का वर्णन संक्षिप्त रूप से किया गया है। हरिवंटा पुराण में क्षेत्र-काल निरूपण के पश्चात् भोपभूमि, चौवह कुलकर, अन्तिम कुलकर नाभिराय तथा उनके यहां प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म, भगवान् के भरत बाहुबली आदि पुत्रों का वर्णन, भरत को दिग्विजय, भगवान का दीक्षा लेना तथा निर्वाण प्राप्त करना आदि का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । पप्रचरित के पञ्चम पर्व में चार महावंशों का वर्णन कर अजितनाथ भगवान् तथा मगर चक्रवती का वर्णन किया गया है। हरिवंश पुराण के अयोदश सर्ग में सूर्यवंश और चन्द्रवंश के अनेक राजाओं का समुल्लेख, अजितनाथ भगवान् सथा सगर चक्रवर्ती का वर्णन किया गया है।
पभचरित के इक्कीस पर्व में भगवान मुनिसुव्रतनाथ का वर्णन संक्षिप्त रूप से किया गया है। हरिवंश पुराण के पोडश सर्ग में भगवान् मुनिसुयतनाय का वर्णन विस्तृत रूप से किया गया है।
पषचरित के एकादपा पर्व में यज्ञ की उत्पत्ति का प्रारम्भिक इतिहास बतलाते हए अयोध्या के क्षीरकदम्बक गुरु, स्वस्तिमती नामक उनकी स्त्री, राजा वसु तथा नाग्द और पर्वत का अजयंष्टब्यं शब्द के अर्थ को लेकर विवाद, वसु द्वारा मिथ्या निर्णय तथा उसका पतन निरूपित किया गया है। हरिवंश पुराण के सत्रहवें सर्ग में भी राजा वसू. श्रीरकदंबक के पुत्र और नारद का 'अजैर्यष्टव्यं' वाक्य के अर्थ को लेकर विवाद, वसु द्वारा मिथ्या पक्ष का समर्थन, वसु का पतन और नरक गमन का निरूपण किया गया है ।
पद्म चरित के बाईस पर्व में नरमांसभक्षी सौदास की कथा कही गई है । हरिवंश पुराण के चौबीसवें सर्ग में भी मनुष्यभनी सौदास की कथा है, लेकिन इन दोनों ग्रन्थों को कथाओं में कुछ भेद है। पद्मचरित में सुदास को राजा नत्रुष५ मा पुत्र तथा हरिवंश पुराण में इसे काञ्चनपुर के राजा जितशत्रु का पुत्र कहा गया है । पचरित में अंत में वह किसी सा । से अनत का" घारी हो अंत में महावैराग्य से युक्त हो तपोवन को चला जाता है । हरिवंश पुराण में उसकी मृत्यु वसुदेव के हाथों से होती है। ५१. पद्म पर्व ३, ४ ।
५२. हरिवंश पुराण सर्ग ७-१३ ॥ ५३. पक्ष्म० २२।१३९ । ५४. हरिवंश पुराण २४५११-१३ । ५५. पद्म २२११४८ ।
५६. वही, २२॥१५२ । ५७. हरिवंश पुराण सर्ग २४ ।
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पद्मचरित का सांस्कृतिक महत्त्व : २९७
पद्मचरित में विशेषकर आठवें बलभद्र राम और आठवें नारायण लक्ष्मण तथा प्रतिपक्षियों के जीवन तथा उनसे सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन किया गया हैं। हरिवंश पुराण में नवें बलभद्र और नवें नारायण तथा उनके प्रतिपक्षियों से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन किया गया है ।
पद्मचरित में राम के पिता दशरथ का रावण के भय से राज्यभार मन्त्रियों को सौंपकर इधर-उधर परिभ्रमण, उनका अनेक राजाओं से युद्ध तथा केकया नामक कन्या की प्राप्ति का वर्णन है। हरिवंश पुराण में कृष्ण बलदेव के पिता वसुदेव अपने बड़े भाई समुद्रविजय द्वारा महल के बाहर न घूमने की पाबन्दी के कारण छल से नगर के बाहर निकलकर अनेक देशों में भ्रमण कर वीरोचित कार्य करते हुए अनेक सुन्दर राजकुमारियों के साथ विवाह करते हैं । हरिवंशपुराण के १९ से ३१ तक १३ सर्गों में वसुदेव की इसी प्रकार की चेष्टाओं तथा तत्सम्बन्धी अन्य कथाओं का उल्लेख किया गया है जबकि पद्मचरित में केवल २३वें और २४वें पर्व में ही राजा दशरथ की उपर्युक्त चेष्टाओं का वर्णन है । अन्त में जिस प्रकार दशरथ कैकयी के स्वयंवर के बाद घर पर आ जाते हैं उसी प्रकार वसुदेव भी रोहिणी के स्वयंवर के बाद घर पर आ जाते हैं। पद्मचरित के २६ वें पर्व में राजा जनक के नवजात शिशु भामण्डल को पूर्व भव के और के कारण महाकाल नाम का असुर हरकर ले जाता है बाद में दयार्द्र होकर उसे आकाश से नीचे गिरा देता है । हरिवंशपुराण के ४३ सर्ग में श्रीकृष्ण के पुत्र, प्रद्युम्न को पूर्वभव का वंरी धूमकेतु नाम का असुर हकर ले जाता है और खदिराटनी में यक्षशिला के नीचे दबा आता है । बाद में पुण्य योग से दोनों को विद्यावर राजा अपने यहाँ ले जाते हैं। पद्मवरित में मामuse अपनी बहिन सीता के चित्रपट को देख अज्ञानवश उसके प्रति आकर्षित हो जाता है। क्षन्त में इसी आकर्षण के कारण यथार्थ स्थिति जान वह अपने माता-पिता आदि से मिलता है । हरिवंश पुराण में कालसंबर की स्त्री कनकमाला, जिसने कि पुत्रवत् प्रद्युम्न का पालन किया था, पूर्वजन्म के मोहवश उसपर आसक्त हो जाती है। इसी आधार पर प्रद्युम्न यथार्थ का पता लगाकर अपने माता पिता आदि से मिलता है। ५२
पद्मचरित के १०९ वे पर्व में प्रद्युम्न तथा उसके भाई शास्त्र के पूर्वभवों का वर्णन है। हरिवंश पुराण के ४३ वें सर्ग में प्रद्युम्न तथा शाम्ब की कथा का निरूपण इसी प्रकार किया गया है।
पद्मचरित के अट्ठाईसवें पर्व में नारद सोता के महल में जाते हैं । सीता ५९. हरिवंश पुराण सर्ग ४७ ।
५८. पद्म० २८, २९, ३० ।
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२९८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
उस समय दर्पण में अपना मुख देख रही थी। नारद की प्रतिकृति दर्पण में देख वह भयभीत हो उठी। इस पर क्रुद्ध हो नारद ने भामण्डल को सीता प्राप्ति के लिए उकसाया। हरिवंश पुराण के ५४ में सर्य में नारद द्रौपदी के घर जाते हैं। द्रौपदी उस समय आभूषण धारण करने में व्यस्त थी इसलिए नारद ने क प्रवेश किया और कब निकल गये यह यह नहीं जान सकी। इसपर नारद ने पूर्ववाकी खण्ड के भरत क्षेत्र के एक राज पद्मनाभ के पास जाकर द्रौपदी के सौंदर्य का वर्णन किया, जिससे उसने द्रौपदी का हरण कर लिया 1
पद्मचरित के बीस पर्व में तीर्थंकर तथा अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन किया गया है। हरिवंश पुराण के ६० सर्ग में त्रेसठ शलाकापुरुषों का वर्णन किया गया है, जो पद्मचरित से मिलता जुलता है तथा विस्तार में पद्मचरित से कुछ अधिक है । इसके अतिरिक्त यहां भविष्यत्कालीन शट डालाकापुरुषों की नामावली भी दी गई है। पद्मचरित में राम लक्ष्मण का राम के पुत्रों लव और कुश के साथ युद्ध होता है । युद्ध में राम लक्ष्मण उनको जीतने में असमर्थ रहते हैं तब नारद की सम्मति से सिद्धार्थ नाम का क्षुल्लक उनका परिचय दे कर मिलन कराता है। 10 हरिवंश पुराण में भी प्रद्युम्न का कृष्ण बल्देव के साथ युद्ध होता हूँ | कृष्ण बल्देव उसको जीतने में असमर्थ रहते हैं, उसी समय fert के द्वारा प्रेरित नारद आकर पिता पुत्र का सम्बन्ध बतला दोनों का मिलन कराता है । १
पद्मचरित में राम कृतान्तवक्त्र सेनापति के दीक्षा लेने के समय उससे कहते हूँ कि यदि तुम अगले जन्म में देव होओ तो मोह में पड़े हुए मुझे सम्बोधित करना न भूलना 142 हरिवंश पुराण में बलदेव सिद्धार्थ नामक सारथि से जो उनका भाई था, उसके दीक्षा लेते समय कहते हैं कि कदाचित् में मोहजन्य व्यसन को प्राप्त होऊं तो मुझे सम्मोषित करना । 3 बाद में कहे अनुसार दोनों ने मोह के समय शेमों (राम और वलदेव) की सहायता की ।" यहाँ पर राम और बलदेव की चेष्टाओं में बहुत कुछ समानता है ।
धर्म की निरूपण की पद्धति दोनों प्रम्यों में एक सी है। कि पद्मचरित में यह संक्षेप रूप में और हरिवंश पुराण में मिलती है ।
६०. पद्म० पर्व १०२, १०३ ।
६१. हरिवंश पुराण ४७।१२६-१३२ ।
६३. हरिवंश पुराण ६१०४१ ।
६४. पद्म पर्व ११८, हरिवंश पुराण सर्ग ६३ ।
इतना विशेष है विस्तृत रूप से
६२. पद्म० १०७/१४-१५ ।
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पाचरित का सांस्कृतिक महत्त्व : २९९ पनवरित के प्रत्येक एवं के अन्तिम श्लोक में रमि शब्द आता है । हरिवंश पुराण के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिन शब्द आता है ।
पदमचरित और पउमचरिउ कवि स्वयम्भू ने परमचरिउ की रचना की। शा. देवेन्द्रकुमार ने इनका काल आठवीं शताब्दी का प्रथम चरण निर्धारित किया है। कवि की उक्त रचना का आधार आचार्य रविषेण कृत पगचरित है। पतमचरित की पनमो संधि (प्रथम संधि) में कवि में स्वयं इस बात को स्वीकार किया है। पूर्वाचार्यों की परम्परा भी कवि ने वही दी है जो रविषेण ने अपने पक्षचरित में दी है। इतना विशेष है कि उसमें रविषण का नाम जोड़कर ताद में अपने नाम का निर्देश किया है । तदनुसार भगवान् महावीर के मुख पर्वत से निकलकर क्रम में बहती हुई" रामकथा रूपी नदी में क्रमशः आचार्य इन्द्रभूति, गुणों से अलंकृत सुधर्मा, संसार से विरक्तप्रभव, कीर्तिघर, उत्तरवाम्मी, रावण और स्वयम्भू को रामकथा रूपी नदी में अवगाहन करने का अवसर मिला" यहां यह बात उल्लेखनीय है कि रविषण को उत्तरवारमी मुनि के साक्षात् मुख से रामकथा प्राप्त न होकर उनके द्वारा लिखी हुई रामकथा प्राप्त हुई थी । गुरु परम्परा उत्तरवारमी के बहत बाद की है, जो इस प्रकार प्राप्त होती है-इन्द्रगुरु के शिष्य दिवाकरयति थे, उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि घे और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविण थे । ** (4) कथानक के लिए तो स्वयम्भू ने पूरी तरह से पमचरित का अनुसरण किया ही ६५. पउमचरित--भाग १ (महाकवि स्वयम्भू) सम्पादक अनु० डा. देवेन्द्रकुमार
जन, (भानपीठ प्रकाशन, १९५७) । ६६. बक्षमाण मूह कुहर चिणिग्गय । रामकहागणइ एह कमागम ।।
-पउममरिख ।१। ६७. एह रामकह सरि सोहन्ती । गणहर देवेहि दिछ वहन्ती ।।
पच्छइ इन्दभूइ आयरिएं । पुण धम्मेण गुणालंकरिए । पुणु पहचे संसाराराएं । कितिहरेण अमुसरवाएं ।। पुणु रविणायरिय-पसाएं । बुद्धिए अषगाहिय काराएं ।।
-पउमचरिउ ११२१६-९ । वर्द्धमानमिनेन्द्रोक्तः सोऽयमों गणेश्वरम् । इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्मधारणीभवम् । प्रभवं कमतः कीर्ति ततोऽनु (न) त्तरपास्मिनम् ।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेयनो यमुद्गतः ।।-पदम० १।४१-४२ । ६७ (म). आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरयतिः शिष्योऽस्य पाहन्मुनिः ।
तस्माल्लक्ष्मणसेनतन्मुनिरवाशिष्यो रविस्तु स्मृतम् ।।
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३०० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
है जो दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है। साथ ही रविषेण की अनेक काव्यात्मक कल्पनाओं आदि में अपनी कल्पना का पुट देकर इसे विशिष्टता प्रदान की है। रविषण के दाय को स्वयम्भू ने कितने अधिक का में ग्रहण किया, यह तो दोनों के ग्रन्थों (पमचरित और पउमचरित) के स्वतन्त्र रूप से तुलनास्मक अध्ययन का विषय है। यहाँ उदाहरण के लिए पद्मचरित और पामचरित के प्राग के कुल संशों की तलना ही पर्याप्त होगी
पधचरित के प्रथम पर्व के आदि में मंगलाचरण स्वरूप तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है । पउमचरिउ में भी तीर्थकरों की स्तुति की गई है । ___ तीर्थकरों की स्तुति के बाद पमचरित में पत्कया की प्रशंसाकर रविषेण ने अपनी आचार्य परम्परा दी है । पउमचरित में मंगलाचरण के बाद सीधे आचार्य परम्परा का उल्लेख किया गया है ।
पधचरित का दूसरा पर्घ मगध देश के वर्णन से प्रारम्भ किया गया है। पचमचरित की प्रथम सन्धि में ही पद्मचरित की भाँति संक्षिप्त कथावस्तु का निर्देशन करके मगध देश का वर्णन किया गया है । मगध देश का वर्णन करते हुए रविषण कहते हैं-'जहाँ कि भूमि अत्यन्त उपजाऊ है, जो धान के श्रेष्ठ खेतों से अलंकृत है और जिसके भूभाग मंग और मोठ की फलियों से पीले-पीले हो रहे है। स्वयम्भू मगध देश के पके हुए धान्य का सीधे रूप में वर्णन न करके इस रूप में कहते हैं कि जहां पके हुए धान्य पर जंठी लक्ष्मी (शोभा) तारुण्य न पाने वाली खिन्न वृद्धा के समान दिखाई देती है। ___ मगध देश के पौड़ों और ईखों के वनों का वर्णन करते हुए पद्मचरित में कहा गया है-'जो दूध के सिंचन से ही मानों उत्पन्न हुए थे और मन्द-मन्द वायु से जिनके पसे हिल रहे थे, ऐसे पोड़ों और ईखों के वनों के समूह से जिस देश का निकटवर्ती भूभाग सश व्याप्त रहता है । पउमचरित में इसी को सीधे रूप में इस ढंग से व्यक्त किया गया है जहाँ पवन से हिलते डुलते ईस के खेत पौड़न के भय से कांपते हुए से आम पड़ते थे । ६८. उबंगयां वरीयोभिः यः शालेयरलङ्कृतः ।
मुद्गक्रोशीपुटेयस्मिन्नुद्देशाः कपिलस्विषः ।।-पद्म० २१७ । ६९. जेहिं पक्क कलमे कमलणिणिसण्णा ।।
अलहन्त तरणि घेर वविसण्णा ||-पस. ११४॥२॥ ७०. क्षीरसेकादिवोद्भूतमन्दानिलचलहलैः ।
पुण्डे वाटसन्तानव्याप्तितानन्तरमूलतः ।।पद्म० २।४ । ७१. जहि उच्छू वणई पचणाहयाई ।
कम्यन्ति व पोलण-भय मयाई ।।-पउम० १।४।४।
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पद्मवरित का सांस्कृतिक महत्त्व : ३०१
अनार के बगीचों के विषय में पद्मवरित में कहा गया है - जिनके फूल तोताओं की चोचों के अग्रभाग तथा वानरों के मुखों का संशय उत्पन्न करने बाले है ऐसे अनार के बागों से यह देश युक्त है । पउमचरिउ में इसी को इस रूप में व्यक्त किया गया है - ( जिस देश में ) खुले हुए अनारों के मुख कपि के मुख की तरह जान पड़ते हैं ।
७३
केतकी की धूलि से युक्त प्रदेशों का वर्णन करते हुए रविषेण 'जिस देश के ऊँचे ऊँचे प्रदेश केतकी की धूलि से सफेद-सफेद हो ऐसे जान पड़ते हैं मानों मनुष्यों से सेवित गंगा के पुलिन ही हो। विषय में स्वयम्भु कहते हैं-जहां सुन्दर भौरों की पंक्तियाँ केतकी के से घूसरित हो रही थी बर
समूह सन्तुष्ट होते हैं। को रमपो जल पिलाते हैं ।
पद्मचरित में फलों के द्वारा श्रेष्ठ वृक्षों के समान गृहस्थों में पथिकों के पचमचरिउ में हिलते-जुलते दालों के इससे पथिक सन्तुष्ट होते हैं ।
लतागृह पथिकों
७७
के
पद्मचरित में मगध देश मनोहर राजगृह नगर के विषय में ही हो ।
सब ओर से सुन्दर तथा फूलों को सुगन्धि से कहा गया है कि मानों वह संसार का यौवन पउमचरिउ में एक कदम और आगे चलकर कवि कहता है- 'उस मगध देश में धन-धान्य और स्वर्ण से समृद्ध राजगृह नाम का नगर था, जो
७८
७२. कोटिभिः शुकञ्चूनां तथा शाखामृगाननः ।
संदिग्धकुसुमैर्युक्तः
७३. जहि फाहिम गई दाडिमई ।
णज्जन्ति ताई पंकई मुहाई || - पउमचरिउ १०४ ६ ।
पृथुभिर्वामिनः ॥ पद्म० २।१६ |
७४. केतकोधूलिधवला यस्य देशाः समुन्नताः ।
गङ्गातिसङ्काशा विभान्ति जनसेविताः ॥ पद्म० २।१४ ।
७५, जहिं महयर पन्ति केयढ़ केसर रम
७६. तर्पिताव संघातः
कहते हैं
रहे हैं और
इसी के कणों
सुन्दराउ |
धूसरा ॥ -- पउमचरिउ ११४३७ । फलैर्भरतरूपमः ।
महाकुटुम्बिभिनित्यं प्राप्तोऽभिगमनोयताम् ॥ - पद्म० २०३० । ७७. जहि दक्खा मण्डव परियन्ति |
पुणु पन्थिय रस सलिलई पियन्ति । पउम० ११४१८ ७८. तत्रास्ति सर्वतः कान्तं नाम्ना राजगृहं पृरम् ।
कुसुमामोदसुभगं भुवनमेव यौवनम् ।। प० २१३३ ।
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३०२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
धरती रूपी नवयुवती के सिर पर बंधे हुए मुकुट होता था
समान सुशोभित
८०
राजगृह नगर के वर्णन के बाद पदमचरित में राजा अंगिक का वर्णन किया गया है । परित में भी राजगृह वर्णन के बाद राजा श्रेणिक का वर्णन किया गया है | श्रेणिक वर्णन के बाद एक श्लोक में उसकी पत्नी खेलना का
वर्णन करने के पश्चात् विपुलाचल पर्वत पर उनकी महिमा का वर्णन किया गया है । याद भगवान् महावीर का इसी प्रकार वर्णन किया गया है।७
भगवान् महावीर के आने का तथा पउमचरिउ में श्रेणिक वर्णन के
पद्मचरित में समवसरण का विस्तार से पउमचरिउ में अपेक्षाकृत कम विभागका गर्णन किया गया है । ४
पद्मचरित में शंकायुक्त हो राजा श्रेणिक गौतम गणधर से रामकथा सुनने को प्रार्थना करता है । पउमचरिउ में भी ऐसा हो निरूपण है 14 श्रेणिक द्वारा प्रश्न किए जाने पर गौतम गणधर पहले क्षेत्र, काल के विषय में निरूपण कर बाद में कुलकरों का निरूपण करते हैं। पउमचरिउ में भी ऐसा ही किया गया है । ६
कुलकरों के वर्णन के बाद अन्तिम कुलकर नाभिराय की पत्नी मरुदेबी तया उनके सालह स्वप्नों व फलों का निरूपण है, पउमचरित में भी ऐसा ही विवेचन है । ८७
इस प्रकार पूरा पउमचरिउ पद्मचरित के प्रभाव से ओतप्रोत है । अन्तर यही है कि पद्मचरित में विस्तार और पउमचरिज में संक्षेप पाया जाता है। साथ ही स्वयम्भू ने निजी काव्यात्मक प्रतिभा का भो पउमचरिउ में उपयोग किया है ।
७९. हि तं पट्टणु रायगिहु धण-कणय समिद्धव । र्णे पिहिविए गय जोषणए सेहरू आइ ॥
८०. पद्म० २।३३-७० ।
उमचरिउ ४२४ । ९ ।
८१. पउमचरिउ १०४, ५, ६ ।
८३. पउमचरिउ ४ । ६, ७ ।
८२. पद्म० २७१-१३४ ।
८४. पद्म० २।१३५-१५४, पउमचरिउ १०८ ।
८५. पद्म० २१२३०-२४९, ३२३, १६-२२, पउमचरिउ १।९, १० ।
८६. पद्म० ३ २४ ९० पउमचरिउ १।११, १२, १३ ।
८७. पद्म० ३।९१-१५३, पउमचरिउ १।१३, १४-१६ ।
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संस्कृत ग्रन्थ
१. पद्मपुराण (पाचरितम्) - भाग १
२. पद्मपुराण (पचरितम्) -
४. कामसूत्रम्
३. पद्मपुराण (पचरितम्) - भाग ३
५. चन्द्रप्रभ चरित
सहायक ग्रन्थों की सूची
६. मनुस्मृति
७. अमरकोश
८. रघुबंध
९. ऋग्वेद
१०. अथर्ववेद संहिता
११. शतपथ ब्राह्माण १२. साहित्य दर्पण
] - भाग २
आचार्य रविषंण,
साहित्याचार्य, काशी,
१९५८) ।
आचार्य रविषेण, अनु० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम आवृत्ति (फरवरी, १९५९) ।
आचार्य रविषेण, अनु० पं० पन्नालाल साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम आवृत्ति (नवम्बर, १९५९) ।
• पन्नालाल
अनु० पं० भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम आवृत्ति (जुलाई
वात्स्यायन, व्या० देवदत्त शास्त्री चौखम्भा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी. (१९६४ ई० ) । वीरनन्दी, चौखम्भा प्रकाशन,
वाराणसी ।
मनु, भाष्य० स्व० पं० तुलसीराम स्वामी, जवाहर बुक डिपो, गुजरी बाजार, मेरठ शहर (१९५४ ई० ) | अमरसिंह |
कालिदास (मल्लिनाथ टीका )
( सूरत, १९५० ) ।
( सूरत, १९५० ) ।
(काशी वि० सं० १९९४) ।
विश्वनाथ, व्या० डा० सस्यव्रत सिंह चौखम्भा विद्याभवन, चौक, वाराणसी (१९५७) ।
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३०४ : पारित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
१३. हरिवंश पुराण
१४. तत्त्वार्थसूत्र-(मोक्षशास्त्र)
१५. रत्नकरन श्रावकाचार
१६, तश्वार्थवातिक
१७. लघीयस्त्रयादि संग्रह
१८. न्यायदीपिका
जिनसेन, अनु० ५० पन्नालाल साहित्याचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन (प्रय सं०)। जमास्वामी, टीका. पं० पन्नालाल साहित्याचार्य, प्रका० मूलचन्द किशानदास कापडिया, सूरत, वीर सं० २४८२ । आचार्य समन्तभद्र, जैनेन्द्र प्रेस, ललितपुर । अकलंकदेव, सं० ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी) (प्र० सं०) अफलेकदेव, सं पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, (भारतीय ज्ञानपीठ, काशी), F० सं०। अभिनव धर्मभूषणयति, अनु। डा. दरबारीलाल कोठिया, प्रका: वीरसेवा मन्दिर, देहली, वि. आवृत्ति । कौटिलीय अर्थशास्त्रम्, रामतेज शास्त्री, पं. पुस्तकालय, कासी सं० २००० । आचार्य पाणिनि 1 महाकवि मात्र । चित्रशाला प्रेस, पूना । भरतमुनि, बम्बई सं० । आचार्य शानदेच, अडयार सं० । वड़ोदा सं०, तृतीय खंर । जिनसेन, अनु० ५० पम्नालाल साहित त्याचायं, भारतीय ज्ञानपीठ, कानी । बाचार्य कुंयुसागर, कुंधुसागर अन्यमाला, पुष्प नं० ३०, सन् १९४१ ।
१९. कोटिलीय अर्थशास्त्रम्
२०. अष्टाध्यायी २१. शिशुपाल वष २२. महाभारत २३. नाट्यशास्त्र २४, मंगीतरत्नाकर २५. अभिनव भारती २६. आदिपुराण
२७. मुनिधर्मप्रदीप
प्राकृत अन्य २८. माघारांग २९. नायाधम्मकहाओ
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३०. निशीथ
३१. अंतगदाओ
३२. सुयगडंग
३३. द्रव्यसंग्रह
३४. गोम्मटसार ( जीवकांड)
पालिग्रन्थ ३५. दीघनिकाय
३६. केवट्टसुत
अपभ्रंश प्रत्य
३७. पउमचरिउ - (भाग - १, २, ३)
हिन्दी प्रत्य ३८. जैन साहित्य और इतिहास ३९. संस्कृत साहित्य का इतिहास
४०. रामकथा (उत्पत्ति और विकास)
४१. संस्कृत साहित्य की रूपरेखा
४२. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त
इतिहास ४३. कालिदास और उसकी काव्यकला
४४. संस्कृत साहित्य का इतिहास
४५. भारतीय संस्कृति में अंनधर्म का
मोगदान
२०
सहायक ग्रन्थों की सूखी : ३०५
J
मित्रवर्य, गणेदि०जैन ग्रन्थमाला, खरखरी, धनबाद, बिहार, ( १९५८) । नेमिचन्द्राचार्य, रायचन्द्र जैन ग्रंथमाला, शोलापुर ।
(बम्बई सं १९४३) | ( बम्बई सं० १९४३ ) |
कवि स्वयम्भू, अनु० डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, एम० ए० साहित्माचार्य, भार तीय ज्ञानपीठ, काशी (प्र० सं० ) ।
नाथूराम प्रेमी (द्वि० [सं० ) । कीथ, प्र० मोतीलाल बनारसीदास, काशी ।
डॉ० रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के हिन्दी परिषद् प्रकापान, प्रयाग विश्ववि० ।
चन्द्रशेखर पांडेय तथा शान्तिकुमार नानूराम व्यास, साहित्य निकेतन, कानपुर (१९६४) ।
वाचस्पति गैरोला, चम्भा विद्याभवन, काशी (१९६०) । वागीश्वर विद्यालंकार, प्र० मोतीलाल बनारसीदास |
बल्देव उपाध्याय शारदा प्रकाशन, वाराणसी (सप्तम सं० ) ।
मध्यप्रदेश
डॉ० हीरालाल जैन, शासन साहित्य परिषद, भोपाल (१९६२) ।
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३०६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
४६. आदिपुराण में प्रतिपादित भारत
५९. वर्ण जाति और धर्म
४७. भारतीय संस्कृति का इतिहास
नरेन्द्रदेव सिंह शास्त्री, साहित्य भंडार, सुभाष बाजार, मेरठ ( वि० सं०) 1 दीपचन्द्र शर्मा, साहित्य भंडार, सुभाष बाजार, मेरठ (प्र० सं०] ।
४८. संस्कृत काव्य में शकुन
४९, कादम्बरी: एक सांस्कृतिक अध्ययन वासुदेवशरण अग्रवाल, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी (१९५८) । ५०. प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद हजारीप्रसाद द्विवेदी — हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई ( सितम्बर, १९५२) ।
५२. प्राचीन भारतीय वेशभूषा
डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, गणेशप्रसाद वर्णं प्रन्थमाला, वाराणसी ( प्र०
५५. प्राचीन भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका ५६. वैदिक साहित्य और संस्कृति ५७. जैन बाल गुटका (प्र० भाग )
सं०] १९६८ ) ।
५८. जैन दर्शन
पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी (प्र० सं०, १९६३) ।
डा० मोतीचन्द्र सस्ता साहित्य मण्डल, कनाट सर्कस, नई दिल्ली, सं० २००७ ।
५३. हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन वासुदेवशरण अग्रवाल, बिहार राष्ट्र
५४. रामायणकालीन संस्कृति
भाषा परिषद्, १९५३ । शान्तिकुमार नानूराम व्यास, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, प्र० सं० १९५८ ।
.
रामजी उपाष्पाय लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद (मार्च १९६६) । बलदेव उपाध्याय (तु० सं० १९६७ ) । बाबू ज्ञानचन्द्र जैनी, लाहौर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय अनारकली, जैन गली, लाहौर |
पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, गणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन (द्वि० [सं० ) |
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५९. राजनीति विज्ञान के सिद्धान्त
६०. प्राचीन भारतीय संस्कृति
६१. गोपीनाथ कविराज अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकार अखिल भारतीय संस्कृत परि•
षद्, लखनऊ (७ सितम्बर, १९६७ ) । ४० वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद (tas #* (946) |
६२. कला और संस्कृति
६३ प्राचीन भारतीय कला एवं संस्कृति
६४. संगीत शास्त्र
६५. भरत का संगीत सिद्धान्त
६६. बरैया स्मृति थ
६७. भारतीय मूर्तिकला
६८. भारतीय स्थापत्य
सहायक ग्रयों की सूची: ३०७
पुखराज जैन, प्रका० साहित्य भवन आगरा - ३ (सन् १९७०) । बी० एन० लूनिया, प्र० लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, शिक्षा साहित्य के प्रकाशक, आगरा (प्र० सं० जनवरी १९६६) ।
६९. सार्थवाह
राजकिशोर सिंह यादव, उषा यादव, हिन्दी प्रिंटिंग प्रेस, विनोद पुस्तक भंडार, आगरा ( प्र० सं० १९६८ ) । के० वासुदेव शास्त्री, सूचना विभाग, उ० प्र०, (सन् १९५८ ) । कैलाशचन्द्र देव बृहस्पति, प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग,
उ० प्र०
( सन् १९५९ ) ।
दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद, सन् १९६७ ।
रायकृष्ण दास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, सं० २००९ । द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल, हिन्दी समिति, सूचना विभाग, उ० प्र० प्र० सं० १९६८) ।
डॉ० मोतीचन्द्र, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९५३ ॥
७०. Introduction to Prakrit.
७१. New standard dictionary of the English Language vol.
III Funk & wagnal,
७२. The century dictionary vol, V,
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३०८ : परित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ७३. Encyclopdedia of religton and e:hics. पत्र-पत्रिकायें ५४. मार्डन रिव्य ०५. महावीर जयन्ती स्मारिका प्रका० राजस्थान जैन सभा, जयपुर
७६. सन्मति सन्देश
प्रका प्रकाश हिसषी शास्त्री, ५३५, गांधीनगर, दिल्ली (वर्ष १५ अंक, ३)।
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शब्दानुक्रमणिका
[अ] अकृष्टपथ्यसस्म ८३ अजितनाथ ९८ अजनगिरि हाथी १०५ अञ्जना १०५ अग्नि ३४ अग्निभूत ५१ श्रङ्कुश ९ अङ्गा १८० अङ्गकलिका १७४ अङ्गहाराश्रय १५२ अच्छिन्न १९७ अजितनाथ ५ अजितंजय ११ अट्टालक १६७, १६९, १७० अट्टालिका १७९, २०८ अणुव्रत २३४ अविभुग्नक १९९ अतिमुक्तक १३२ अतिमुक्त लता १३१ अतिवीर्य ७ अतीन्द्रिय २७९ अत्यर्थ ११९ अथर्ववेद १८४ अद्भुत १९१ अर्दशाहत १९९ अधिष्ठान १६३, १९८ अध्यात्म रामायण २९.
अन्तर २६० अनगार धर्म २३४ अनङ्गलवण ९, २९० अनन्त २५९ अनन्तनाथ ९९, १०० अनिवृत्तिकरण २६२ अनीकिनी २१३ अनुत्तरवाग्मी १, ४ अनुमती (देवी) ५६ अपध्यान २३७ अपभ्रंश २८, २९, ३० अपर्याप्तक २६० अपूर्वकरण २६२ अभिनन्दन ९९ अभिनन्दननाथ १०० अभिशयाश्रय १५२ अभिलाषार्थ चिन्तामणि १५७ अभिषेक १३३ अमरकोष १८३, १८४ अमात्य २०४ अमार्गप्रयात १९९ अमितगति २९ अम्मोजकाण्ड ८७, १९४ अम्लातक २२७ अयोगकेवली २६२ अयोध्या ११,८७, १००, २७७, २९२ अजितनाष ९९ अरनाथ ९९, १००
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३१० : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अहमिन्द्र २३३ सक्षमाला २७८ अक्षोहिणी २१३ अत्रि ३४
भर्थसर्वज्ञ २७३ अर्थशास्त्र २१० अघि ६८ अर्द्धवर्वरदेश १०१ महंाति १ अरिष्टपुर ९९ अरी २५० अरुचि ५७ अरुणग्राम ९८ अलंकारपुर ९८ अल्पबहाव २६० अवगाहनगुण २६४ अवधि २६१ अवपिणी २५९ अवसुप्तप्रतीपक १९९ अविद्ध चित्र १५७ अविनाभाव २७४ अविरतसम्यग्दृष्टि २६२ असुर २८९ असुरनगर ९८ असुरसंगीतनगर ९८ अशोकमालिनी (यापी) ११९ अशोकवृक्ष १३०, १८९ अश्वघोष १४ अश्वपरीक्षक ६० अश्वमेघ १५६, २९२ अस्विनीकुमार २८२ अश्वसेना २१२ अश्वशाला १७२ अष्टापद १२ अष्टाध्यायी १८२ अष्टशाल १७३
[ या] आकाशगामिनी विद्या ११ आक्सफोर्ड १६३ वाल्यात ४९ भाचार्य ४८, २४० आठ अनुयोग २६० आठ प्रातिहार्य १५९ आतोद्यशाला १७२ (डॉ.) आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ५ आदिपुराण २७९, २११ बाधुनिक भारतीय भाषा ६८. आनन्द रामायण २९१, २९२ आवाषा २६४ आयुधशाला १६५ (छ:) आवश्यक २४३ आचित्र १५७ आई (माला निर्माण कला) १९७ आर्य २५७ आरण्यक २८८ भारण्यक शास्त्र ४९ आस्तिक्यवाद २७१ आस्थानमा १७४ भास्थानी १७४ अष्टालिक पर्व ६, ८ आहत १९१ आहवनीयाग्नि ३३ आहारमण्डप १७४ आक्षेपणी १२३
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शब्दानुक्रमणिका : ३११ उरोघात ५७
[1] इन्द्र ५, ३२, २२४ इन्द्रगृह १, २९९ इन्द्रजित ८,१०१ इन्द्रनीलमणि १६१, १८०, १९२ इन्द्रभूति १, २, २९९ इन्द्र सभा १८५ इन्द्रसेन १ इन्द्राणी ३३ इक्ष ८३ इक्ष्वाकु ६ इक्ष्वाकुकुल २७७ इक्षुरस ४४
ईषत्प्राग्भारनामकी पृथ्वी २५८ ईश्वर २८५
[उ] उत्तरकुरु २५७ उसरपुराण १२ उत्तररामचरित २९२ उत्तरवारमी २, २९९ उत्सपिणी २५१ उद्दालक पुष्पभनिका १८२ उद्यान १७१ उद्योतनसुरि ३ उपनिषद् २८८ उपयोग २५९ उपरच्या १६५ उपरम्भा २९३ उपसर्ग ७, ४९ उपशाम्तमोह ४८, ७१ उरगास्त्र २१६
ऊर्जयन्त ९३
[ए, ऐ] ऐरावत हाथी १२८
[अं] अंकुश २९२, २९३ अंगिशिरस ३४ अंजनगिरि १६१, १७९ अंजनक्षोणीघर ९३ अंजना ५, ५० अंजना पवनजय २७
[ ] ऋषभ ५ ऋषभदेव ५, ४४, ६२, ६३, ६५,
६६, ९८, १००, १७, १२७,
१७१, २९६ ऋषि ३४ ऋक्षराज १०९
[क] कोट २१५ कणिकार १३२, १९२ कपिल ३४ क्रकष २१६ कर्णरवानदी ९२ कृषक ८४ कृत्रिममयूरपत्र १३१ कन्चुकी ७१ कृतान्तवक्त्र ९, ६६, २२९ कृत्तिवास रामायण २१२ कृत्रिमसुपौष ७
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________________
११२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कृत्रिम उद्यान १६७
कदलीगृह १३१ कमण्डलु २७८
कम्नदभाषा १२
कम्बोडिया की रामकीर्ति २९२
कवच २२९
कवि परमेश्वर १२
फट २०६
( ८६ पुरुष ) कलायें १३८ (७१) कलायें १३९
( ६४ सुनारों की ) कलायें १३८ ६४ कलायें (याओं की ) १३
६४ कलायें १३८
कायस्थों को फलायें १३८
कथासरित्सार २९२
कदम्ब १३२, १९२
कनकमाला ९
कपाटजीबि ७२
कपाटयुगल १७३
कम्प १७३
कर्मा १९८ कलाविलास १३८
कला भवन २१
कल्पना १९८
कल्पवासी १५८, २५७
करुववृक्ष ३५ ६२, १७०, १७१,
१७६
कर्वट १६२
कवि परमेश्वर १३
काकु १९५
कांचनपुर ९८
काला २५९
कात्यायन श्रौतसूत्र २८१
कामसूत्र २१ कामुक ६९ काम्पिल्यनगर ४९ ८२
कालिदास २१ १८६
काश्मीरी रामायण २९२
काहल १३३
किष्किन्ध २२४
किष्किन्धपुर ९८
क्रीडागृह १९१
कापर्यंत ११८
काञ्चनपुर २९६
कार्यालय १७६
कांस्यषातु १५६
काल २६०
काष्ठमयस्तम्भ १७५
काहली २२७
कामदेव १३०
किन्नर १८९
किन्नर नामक नगर २८९
किमिच्छुक दान ५७
किसान २२६
किष्कुपुर ९८, १२१, १२३, १७७
की तिघर ६, २९९
फ्रोडावल ८७
कुण्डलमण्डित २११ २२४
.
कुन्यु १००
कुन्थुनाथ ९९
कुन्दमण्डप १७४
कुमेर ९८
कुबेर सभा १८५
कुम्भकरण ८, १३
कुम्हार २६९
कुमुद २३१
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________________
शबहानकमणिका : ३१?
खेट १६२, २०६, २०७, २१०
कुवलयमाला ३ कुलकर ५, ३५, २०२, २९६, ३०२ कुलभूषण ८ कुश ३७ कुशाग्रगिरि ९२ कुशागमगर ९८ कुशीलच १४ कुषाणकाल १५९ कूचिभट्टारक १३ कूप १६७ केकया ६, २२४ केकेयी १०, १२, ३६, २११ केवलज्ञान ५ नौलाश पर्वत ५,५६, १६० कैम्बिज १६३ कैवर्त ७० कैवल्य ५ कोट्ट १६३ कोश २०४, २११ कोटिशिला ७ कौशल १९८ कौशल्या ८ कौशाम्बी १९ कौशाम्बी १२० फौटिल्य १६८, १६९, २२१, २२३,
२२५
गजशाला १७२ गणिका १३६ गणित शास्त्र ४९ गन्धर्व ३७, २८९ गन्धर्वनगर २८९ गन्धमाला ३३ गन्धोदक १३३ गर्भालय १८१ गरुड १७२ गरुड़वाहिनी ७ गारहम् २१७ गृहोस १९९ ग्राम १४०, २०६ गलगण्ड २३ गीत १३९ गीत शास्त्रकौशलको विद६८ गुजराती रामायणसार २९१ गुञ्जा २२७ गुणदोषविज्ञान १९८ गुणभद्र १०, १२, १३ गुणवत २३४ गुरुगह १६३ गुल्म २१२ गोप ७० गोपाल ६८ गोपुर १६९, १७०, १७४ गोसव नामक यज्ञ २७८ गोष्टी १२१ गोशाला १७२ गौतम ५
खड्ग २९६ सत्तियां २०७ खदिरादवी २९७ खरदूषण खलधाम ८४ सर्वट २१० खान ८५
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________________
३१४ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति गङ्गाधर २२४
छावनी १७५ [ ]
छान्दोग्य उपनिषद् १८४ घटीयन्त्र ८३
छात्रावास १६३ घोष ६९, २०६, २१०
चिन्न १९७ घंटा १३१
ज] [ ]
जठराग्नि ३३ चक्र ११, २१५
जनक ६ चक्रपुर ४
जनपद २०४, २०६ चक्ररत्न ८
जम्बूद्वीप ४९, १०१ चक्रवर्ती ८५
जम्बूस्वामी २ चतुरङ्गबल २१२
जनानन्द (बन) ११८ पतुःशाल ८६, १७२, १७३, १७६ जन्मोत्सब १२७ सन्दनगिरि ९३
जयमित्र १६१ चन्द्रप्रभ १९
जयवान् १६१ चन्द्रप्रभचरित ५३
जलक्रीड़ा ५, २७ चन्द्र सागर २९
जातक २८७ चलित १९९
जाति १४०, १९६ चाण्डाल ६४
जाम्बव २३१ चतुरङ्गिणी सेना १६५
आल्लवी ९१ चमू २१३
जयचन्द्रा २२४ चम्पा ९९
ज्योतिषी २५७ चम्पफ १३२, १९२
ज्योतिषी देव १२८ चमरेन्द्र ८
जलयुद्ध २२४ चन्द्रवंश २९६
ज्वलनवक्त्रशर २१७ चन्द्रकीत्ति २९
जितपशा ७, १८५ चन्द्रनखा ८, २९१
जिनचैत्य १६० चन्तरश्मि २३१
जिनदत्त २६२ चन्द्रशाला १७२
जिनदास २८ चपलवंग १०
जिनकूट १८८ च्यवनमहर्षि १४
जिनमूर्ति १६० चित्रपट १९०, २९०
जिनरस्नकोष २९ [छ]
जिनवाणी १५ छदि ५७
जिनवेश्म १९६
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________________
जिनसेन १३, २९४
जिनालय १३०
जिनेन्द्रदेव २४८
जिनेन्द्रालय १८९ जुह्वकदेव २७८
जैमिनी २७४
जैमिनीय अश्वमेध २९२
[स]
सम्ला २२७
नर्भर २२७
झल्लर २२७
ठक्का २२७
[@]
[त ]
तस्वार्थवार्तिक २६१ तत्वार्थ सूत्र २३७ तदुन्मुक्त १९७
तक्ष ७०
तापस ६९
ताम्बूल ४३
ताम्बूलिक ७२
तामसास्त्र २१५
ताम्रपत्र १३३
ताल १४०
तिलक (उद्यान) १०१
तिलोत्तमा १७
तीर्थंकर १३०, २६८
तीर्थंकर प्रतिमा ९५९
तीर्थस्थान १८४
तुम्बुरु १२९
तुरही १३३
तुलसीदास २९, ३०
तूयं २२७
सुणीगति ९३
वेला २४७ तैत्तिरीय संहिता १८४
तोरण १३१, १९१. २०८
तोरणशालभञ्जिका १८२ तोरवे रामायण २९२
[]
शब्दानुक्रमणिका ३१५
दण्ड २०४
दण्डनीति २१२
दण्डव्यवस्था २१२
दण्डकवन ७
दर्दुर २२७ - त्रिमुख ४४
दर्पण ११५, १९१
व्रत १२०
द्रव्याथिक नय १७२
दृष्टियुद्ध २२४
दर्शनाग्नि ३३
दशशाल १७३
द्राक्षा ८३
द्वार १६७
द्वारपाल १८१
द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल १८८
द्विपद रामायण २९२
दशरथ ६, १०, १२, ११२, २२४
दशानन ५, १०, १०७, २०६२८९ दक्षिणाग्नि ३३
दासी ७१
दिव्यास्त्र ७
दुर्गं १६३
देवकुरु २५७
देवन ११५
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________________
३१६ : वधूमचरित और उसमें प्रतिपाषित संस्कृति
देशभूषण कुलभूषण ७
दुन्दुकाणक २२७
दुन्दुभि २२७
दुर्गं २०४
दीनार ८२ द्वाम् ७२
दिक्कुमारियाँ १२७
दिगम्बर परम्परा ४
दिवाकरयति १ २९९
दो० य० केशवराव ध्रुव ३
दीक्षा कल्याणक ५
द्रुत १४४
इसा १४०
दुश्रुति २३७
देवमन्दिर १८३
देवायतन १८४
देशविरति २६२
देशभूषण ८
द्रोणख १६२, २०६
द्रौपदी २९८
दौलतराम २८
[ष]
धनुर्वेद ४९ धनुषपरीक्षा २९०
धर्मकीर्ति २९
धर्मनाथ ९९, १०० परीक्षा २९
धातकीखण्ड ९८
धानुष्क ६७, ८५
धार्मिक ६७
घात्री ७१
धीरोदात्त २५ धम् २२७
पूर्व ६८ धूर्तपत्तन ९८
तकियान २९
धूलिचित्र १५७, १५८ [न]
नगादे १३३
नर १३६
नघुष २९६
नमिनाथ ९९
नर्मदा ९२
नूल्य १३६, १३९
नृत्यकार ८५
नट ७०
नन्द्यावर्त ८६, १७६ नमिनाथ १००
नर्मदा १८
नय २७०
नल ५, ७, २३१
नलकूबर २९३
नवशाल १७३
नन्दीश्वर द्वीप १३२
नागकुमार १५८, २८९
नागपाश २१६
नागपुर ९९
नागसायक २१७
नाट्य १३९
नाट्यशाला १३२, १३९
नाथूराम प्रेमी १, ३, १२
नाभिराय ५५, १७१, १८३
नाम ४९
नायिका १८
नारद ६, ११, ४९, १५८, २७७,
२९२
नाराच २१७
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________________
मानामा मणिका : ३१७
निकुञ्जगिरि ९३ निधिशान ६२ निबोध (उद्यान) ११९ नियम २३९ निर्वेदनी १२३ नियंह १८५ निन्थ ८ निगात ४९ निषाद ७२ निर्वाण १. निषष ९३ निक्षेपणी १२३ मील ५, ७, ९३, २३१ नोलाजना ६६, १०१ नुकूली २५० नेमिनाथ ९९, १०० नैमिष १०१ मौ निषियो ८५
[प] पताका १३१ पट्टशाला १३२ पत्तन २०६ पत्ति २१२ प्रति सन्ध्या १२० पृथ्वीसुम्घर ११ प्रभव १ प्रमत्त संयत २६६ प्रमाण २७० पउमचरिउ ४ पउमचरिय , ३, ४, १२, २९१ पटह २२७ पक्षाति सेना २१३ पण्यवीची १६५
पग ९१ पनदेवविजयगणि २८ पानाथ २९ पलकनगर ४९ पधचरित १३२, १३९, १६४, १६६,
१६८, २०९, २८९, २९२ आवि पपपुराण २९२ पद्मप्रभ ९९ पद्मप्रभ जिनेन्द्र का मन्दिर १८१ पप्रमुनि २ पपराग १७६ पचरागमणि १९२ पं० पन्नालाल साहित्याचार्य ५ परिकर्म १९८ परिखा ३४ पर्याप्तक २६० पर्यक १६२ पर्यायाथिक नय २७२ पल्य २५७ पवनम्जय ५, ६ पर्वत २७७ पचनास्त्र २१७ पर्सनेलिटी १३८ पत्रच्छेद्य १२६ पृतना २१२ प्रजाग १०१ प्रयाग १६३ प्रजापति २८० प्रतीन्द्र ९ प्रतीहारी १३० प्रतोली १६९ पृथुला १४८ पृथ्वीपर २२३
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________________
३१८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
प्रद्युम्न २९७, २९८ प्रभब २१९ प्रमवषन ११९ प्रमस विरत २६२ प्रमादचर्या २३७ प्रसूतिका गृह १२९ प्रसवागार १७९ प्रहस्त ७ पाकशाला १७२ पाठशाला १७२ पाणिनि २०७ प. ॥ जिन : लिग : ६० पाण्डुपावन १८८ पाण्डकशिला १२९ पाणिनि २१० प्राकार १६७ प्राकृत २८ प्राग्रहर ७२ पाताल लंका ९८ पातञ्जल योगदर्शन २६१ पानीयशाला ११९, १२० पापोपदेश २३७ पार्श्वनाथ ९, १००,२६२ पारिजाश १९२ पारिजातक १३२ प्रासाद १७१ प्रासादकूट ८६, १७६, १८८ प्रेक्षागृह १३९, १७६ प्रेक्षकशाला १३१, १३९, १७२ पालक ६८ पालगी ११ पिण्ड खजूर ८३ पिशाच २२२
पीठमई ७० पीड़ित १९९ पुण्डरीकिणी ९८, ९९ पुतला १९९ पुण्ड ८६ पुरुषार्थचतुष्टय २५ पुरोहित ६९ पुलस्त्म १० पुलिन्द ६९,८५ पुष्पक ११ पुष्पदन्त ९९ पुश्कर ani पूर्वधातकी झण्ड २९८ पोत ८२ पंचशाल १७३
फ] फानूस ११५ फॉयड २१
बढ़ई २७६ बनारस १२ बह्म सभा १८५ प्रमा ६५, २७५, २८०, २८१ बृहत्कथाकोश २०९ बृहस्पति ५० बलदेव २९८ बलभद्र ८७ बहुरूपा २१६ बहुरूपिणी विद्या १२५ बालपर्यक १६२ बाल्मीकि १४ बाल्मीकि रामायण १३, २९, २९१
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________________
बालखिल्म ६ बालि ५, ११ ब्राह्मयोग ५० माह्मण ५, ६४, २८८ बुद्धचरित १४ बुझिसर्वश २७३ बुध ५० (iv) बुलनर ३ पुष्किम १९७
शब्दानुक्रमणिका : ३१९ भिन्नपीडित १९९ भिण्डि गाल २३१ भिषक् ७२ भिक्षु १६३ भेषजकला १३८ भूत १५८ भूतिकम ६२ भूमि का दान २५० भूमिगृह १८१ भंभा २२७
मङ्गित १९९ भद्र (नामक पुरुष) ८२ भगवान् महावीर २९३ भूगु १४, ३४ भरत ६, ८, १०,८४, ६२,९,
२९६ भरत क्षेत्र ३५, १०१, १०९, १६०,
१७०, २९८ भरत बाहुबली युद्ध ५ भरहुत १८२ भृष्टप्राप्त १९९ भवननासी (देव) १२८, २५७ भविष्यवक्ता १० भाण्डागारिक ७१ भानूकूट १८८ भामण्डल ६, ९, २९०, २९७ भार्गवच्यवन १४ भारवि २१ भावनपुंसक २६१ भावपुरुष २६१ भावस्त्री २६१ भाषा १९५
[म] मकर १७१ मगध ८४, ९८, ३०० मगरमबाट १८ गरम २.६, २० मझ्या १७५ मड़वा १७५ मण्डक २२७ मण्डलाम २१७ मणिजालक १८७ मणिमय फानूस १९१ मणिमती १० मति २६१ मतिकान्त २१.. मतिसागर २१९ मथुरा ८, १८२ मदनासश ९, २९१ मदनोत्सव १३४ मदनोत्सवा १३४ मधु ८ मधुपर्वत ९८ मन्त्री २०४
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________________
३२० : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
म्लेच्छ २५७ महल युद्ध २२४ मल्लिनाथ १०० मृदुपति १२० महादाह ज्वर ५७ महादेव ३२ महाभारत १३, १४, १६५
मन्त्रकोविद २०४ मन्त्रिमडल २०५ मधुपान २७ मन्दार १९२ मन्दोदरी ८, १०, १०७, २०६,
२६१,२९० मनोवेग २८९ मय ८ मरुदेवी १२७ महापा ९१ महामेरु ९२ मंजूषा १० मध्य १४४ मध्यमा १४० मनोरमा १ मनोवैज्ञानिक २१ मन्दार १३२ मन्दिर १७४ मन्त्रशाला १७२ मय २२१ मर्दक २२७ मुदङ्ग २२७ मरुत अस्त्र २१७ मल्लिनाथ ९९ मस्तक लेखक २२३ महाराजाधिराज २२३ महीधर २२४ मृगाख २०५ मृच्छकटिक १३६ मुग्मय स्तम्भ १७५
महारक्ष ११८ महाव्रत ६६, २३४ महाहिमवान् ९३ महेन्द्र ७, १०९ मागधी १४८ माघ २१, २२१ मातङ्ग ६९, २०८ मातृकायें १९६ मातृमेध यस २७८ मानसार १६२, १९३, २०७४ मानुष पर्वत ९३ मानुषोत्तर पर्वत २५७ मान्धाता २२९ मायामय कोट १६८ मारीचि ११ मार्कण्डेय मुनि १५७ माली २२४ माहण ४ माहिष्मती ११६ माहेन्द्रास्त्र २१६ मित्र २०४ मिथ्यादर्शन २८५ मिथ्यात्व २६२ मिश्र (गुणस्थान) २६२ मिश्र (माला निर्माण कला) १९७
महदेवी १५, ३७ म्लेच्छ ६,८२
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________________
मीन ५० मेष ५० मुक्त जीव १५ मुक्तिक १९९ मुनि ४८ मुनिगण २०८ मुनिराज ५१ मुनिसुव्रत २५ मुनिसुव्रतनाथ ६,९८, १९, १६० मुक्ताफल १७ मूर्खगोष्ठी १२२ मूर्छना १४० मूलगुण २४३ मेगस्थनीज २७० मेघरवतीर्थ १.१ मेघवाहन ८, १०१ मेरु पर्वत १०१ मोम २३४ मौखिक (गाना) १३९ मङ्गल ५०
शन्दानुक्रमणिका : ३२१ युद्धकाडा १२५ योगशास्त्र २८ योनित्रज्म १९८
[ ] रजक ६९, ८५ रटित २२७ रस्नजटी ७, १०१ रस्नस्तम्भ १७४ रत्नसंचयपुरी ९९ रत्नश्रवा १०९, २८९ रथ ३३, १६२, १७१ रथ्या १६५, १६६ रथसेना २१२ रम्भा ४९ रथनूपुर ९८, १०६, ११२, १३४,
[4]
रविषेण १, १०, १८, २९, ६४, ६५,
२९३, २९५, २९९ रवीन्द्रनाथ टैगोर १३८ रस १९८ रसचित्र १५७ राजगृह ३१, ४९, ८७, ९८, १६८,
१७९, १८४, २०८, २९५,
यति ४८ यथार्थ गुग्रीव ७ अमपत्तन ९८ यमराज ३२, ९८, २०६ यमी २४० यपाति २७७ यक्षगीतनगर २८९ यज्ञ ११ यज्ञशाला १७२ यज्ञोपवीत ३३, २८४ यक्ष १३०, १५९ यक्षिणियां १५९ यानपत्र ८२
राजपुर २७६ राजसिंहासन २१९ राजहऱ्या १५५ राजा चक्रध्वज ४६ राज्याभिषेक ८ राजा श्रेयांस ४४ राम ७, ८, ९, २८, २१२, २१८ रामकथा २९१ रामकीति २९२
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________________
३२२ : पप्रचरित और उसमें प्रसिंपादित संस्कृति रामचम्भिका २९२
लक्ष्मणसेन १ रामचरित २८, ३०
लॉक २०१ रामचरितमानस ३०, २९१ रामचरित्र २९
(डॉ.) लाममन ३ रामदेवपुराण २८
लासक ६८ रामपुरी ६, ९८ .
लेखवाह ७० राम-लक्ष्मण ६, ७, ८, ९, १०९,
लुब्धक ६९,८५
लेख १९५ रामलिंगामृत २९२
लेण्यकला ११२ रामायण १७२
स्टोक यात्रा २१२ रामायण कथानका २९
लोह मुद्गर २१६ (डॉ०) रायकृष्णदास १५८
लौहपिण्ड २६८ रावण ७, ८, १०
लंका ७,११
लंकानगरी १६८ राक्षस द्वीप २८८
लंका सुन्दरी रोहिणी २९७
1 [व] (डॉ.) रेवरेण्ड फादर कामिल बुल्के बचकर्ण ६.१०८, ११२, १३६ २८, २९१
वनजंघ ९ रूपमी ९३
वन्नावतं ६, ३९, १०६, २१६ रुक्मिणी २९८
बचोदर १३६ रसो २०१ rल]
बणिविधि ६२ लघुत्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित २८,
वणिज ८२
वत्सनगरी ९९ लतामण्डप १७४
वर्द्धमान १,२,१०० लम्प २७७
वर्तमानक (प्रेक्षागृह) ८६, १७६ लम्पाक २२७
वन्दि ६९ लम्बूष १३१
वनमाला ६ लय १४०, १४४
वन १६७, १६८ लव ३७
वराहमिहिर ५२ लव-कुश १२
वल्कल ३४ लवण २९३
ज्यस्तर २५७ लक्ष्मण ६, ७, ८९, १००, ११२, व्याकरण २१, ४९ २२१
परुण ५, ६,२१८
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________________
वरुण सभा १८५ वनक्रीड़ा ११८ ध्यन्तर १२८ व्याम ७२ वसम्तोत्सब १३० वसु २७७, २९६ वसुदेव २९६, २९७ वक्षारगिरि ९२ यात्स्यायन २१, १२१, २८ वातायन १७८ वातथ्याधि २२५ । वामरत्वज राजा २३२ वापिका १८५, २०८ वार्तिक २०८ बायनशाला १३१ वानरवंश ५ बापिका १३२ पातिक ६८ वायुभूत ५१ वाराणसी १०,११,१६३ वारुणास्त्र २१६ वास्तु विश्वकोश १६२ वास्तु शास्त्र १७३ वादित्र १३९ (डॉ) वासुदेवशरण अग्रवाल १८२ बाहिनी २१२ वापी १६७, १७१ वासुपूज्य ९९ व्यायामिक १५२ वृस्ति १४० विघ्नविनायक २१६ विजयगणिवर २८
शब्दानुक्रमणिका : ३२३ विजयाई ९२, ९८, १००, १०१,
१६४, २०७, २१८ विजयावती १०१ विट ६८ विदग्ध ६८ विद्यार्थी ६८ विद्याधर २८९ विद्यालय १७९ द्विानों की गोली १२६ विदेह ९८ विदेहा ६ विद्ध १५७, १९९ हो. विन्टरमिज ३ विन्ध्यवन १०१ विनाम १० विनय १६१ विन्यात १९५ विपुल ९२ विपुलाघल ५, २९५ विभीषण ७, ९, ११, २१८, २१९,
२३१, २९१ विमल ३ विमलसूरि २, १२, २९, २८८, २९२ चिराधित ७ विराम १९५ विलम्बित १४४ विलम्बिता १४० विलासिनी १३६ विमलनाथ ९९, १०० विश्वानल १२० विश्वावसु १२९, २८९ विश्वकर्मा का मन्दिर १८४ विश्वनाथ २४
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________________
३२४ : पपपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
विशल्या ८ विष्णु ३२ विष्णुधर्मोत्तर पुराण १५६ विष्णुपुराण १२ विज्ञानग्रहणोयुक्त ६८ वीणा २२७ वीतशोका ९९ वीरपुरुष की गोष्ठी १२१ वीर्य १९८ वेगु २२७ वेणुसावक २१७ वेद २८८ वेदियाँ १८४ वैश्या ६८, ११५, १३६, २०८ वजयसपुर १२२ बैजयन्ती ८६ वैवस्वत ४९ वैश्य ६३, ६४ वंशागिरि पर्वत १६० वंश पर्वत ९२ वंशस्थ पर्वत १५८ वंशस्थलपुर ७, ११४ वंशानि ९३
स्पर्शन २६० सप्तशाल १७३ सप्तर्षि ९ सभा १६५ समामण्डप १७४ समराङ्गणसूत्रधार. १७२ सम्मवनाथ १८ सरोवर १६७ स्वर १४०, १९५ स्वर्ग २५८ समाव :१ सम्मेदशिखर ९२ सम्यक् चारित्र २४५ सम्यग्दर्शन २४५ सम्यग्ज्ञान २४५ समवसरण ५, ६३, १३०, ३०२ स्वयम्भू ४, २९१ सल्लेखना ९ समानार्थता १९५ समुच्चय ११९ समुदाय १९५ समुद्रलंघन २% समुद्रविजय २९७ समुद्रावर्त २१७ स्वर्णमृग ११, १२ सर्वशूल ५७ स्वामी २०४ सहस्ररश्मि ५, ४९, ११५ सिंहवाहिनी ७ सहकार १३२, १९२ सहनार १५१ साफेता ९९ सागरावर्त (धनुष) १०६
सगर चत्वर्ती २२४, २९६ सचिव २०४ सत् २६. स्तम्भ १७४ स्तम्भिनी विद्या २१७ सज्जन ६८ स्नानगृह १२० सम्माहमण्डप १७४, १५५ सप्ति २१५
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शब्दानुक्रमणिका : ३२५
सुप्रजा २३० सुबाला १० सुमति ९९ सुमहानगर ९९ सुमादिका १९ सुमित्रा ८ सुमेरु १७३ सुरकान्ता २७७ सुरप्रभ ५, ११४ सुरमभ्यु १६१ सुरसुन्दर १२६ सुविधि १०० सुवीयी ८६, १७६ सुसीमा ९१ सूत १४ सूतिगृह १७८
सागारधर्म २३४ सासस्वर १४० साहसति २०६ सांची १८२ सार्थवाह ८२ सामन्त २२३ सामान्याभिहित १९५ सायक २१५ सायकत्रिका २१५ सासादन २६२ साहसगति ३३ साहित्यदर्पण २४ सिद्ध परमेष्ठी २५८ सिद्धालय २६९ सिद्धार्थ महास्त्र २१६ सिंहनाद करना १३६ सिंहविष्टर १९३ सिंहोदर ६, ११२, १३६ सीता ७, ८, ९, १०, ११, २९० सीता रावण कथानकम् २८ सेरतकाण्ड २९२ सेरीराम २९२ सेना २१२ सेनामुख २१२ सेनसंघ १ सेवक ६७ सहयान २१७ सुकोशल ६ सुखसेव्य (धन) २१८ सुग्रीव ५,९,१३१, १३४ सुवर्मा १, २, २९९ सुन्द २२७ सुपार्श्व ९९, १००
सुपकारी ७२ सूर्य ५० सूर्यरज १०१ सूर्यवंश २१६ सूर्यहास खड्ग ७, २९१ सूर्यावर्त २१६ सूक्ष्मसाम्पराय २६२ सोलह स्वप्म ३७, ५५ सोमयश २८० सोमसेन २८ सोमेश्वर १५७ सौत्रामणि २७८ सोवास २१९, २९६ सौधर्मेन्द्र ९, १२९ संगीत रत्नाकर १४८, १५५ संभाषिता १४८
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३२६ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
संयंत ३४
संवाह २०६ सर्व सुन्दर १६१ स्यन्दन १६२
संक्रम] (पुस्तक) १३७
संख्या २६० सङ्गीत १३९
संगीतन ८५
संधारा २४१
संवर्त २७२, २७९
संस्कार १९५
संस्कृत २८
सं १९९
संवेजिनी १२३
संज्ञौ २६०
षट्शाल १७३
[व]
[ श ]
शकट ८२
शक्रषनु २२४
शक्रप्रासाद १८३
शतद्वार ९८
शतपथ ब्राह्मण २८२
शनि ५०
शब्दकल्पद्रुम १६३, १६९
शब्द सर्वज्ञ २७३
शबर ७२ ८५
शम्बूक ७,
२९१
श्याम को रामकीर्ति २९२
शोपचारिका १९८
शर्वरी (नदी) ९२
शरभ २३१
श्रमण ६७, २४७, २७७
श्रवण नक्षत्र ५० श्री चन्द्र २९
श्रीक्षमा ९
श्री निश्चय १६१
श्रीमन्यु १६१
श्रीहर्ष २१
श्रुत २६१ श्रुतकेवली २६ श्रुतसाग जुन २०
श्रेणिक ५, १३, २९३
श्रेयांस ९९, १००, १०७
श्रेष्ठ ६९, ८५
शलाका पुरुष ६
शत्रुघ्न ८, ९, १०, २२९, २३०
शत्रुजय माहात्म्य २९
श्वेताम्बर परम्परा ४
शान्ति १००
शान्ति जिनालय ८ १८१, १८९
शान्तिनाथ ९९
शन्तिभवन १९०
शालभवन १७१
शालभञ्जिका १८१
शिखरी ९३
शिल्पकार १२३
शिल्परल १८३
शिला २१५
शिलीमुख २१७ शिविका १६२, १९२
शिक्षाव्रत २३४
शीतल ९९ शीतलनाथ १००
शुक्र ५०, १६३, १६४ शुक्रनीति १३८
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________________ शब्दानुक्रमणिका : 327 शुक्राचार्य 165, 222 हुंकार 227 शुल्बसूत्र 172 हेतुक गुजा 227 शुष्क 197 हेमवूद 188 शुष्कचित्र 157 हेमचन्द्र 28 शूद्र 63, 64, 210 हेमस्तम्भ 174 पाल 227 हेका 227 शुगकाल 187 [A] भत्रिय 63 हमका 227 क्षम (पुस्तकम) 137 हनुमान् 6, 7, 9, 109 आदि क्षत्रिय 64, 67 (डॉ०) हर्मन जैकोबी 2 क्षीण मोह 262 हर्षनरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन 182 सीरकदम्बक 49, 227, 296 हरिभद्र 29 हरिवंश पुराण 294, 295 क्षुल्लक 51,298 क्षेमा 99 हरिषेण 105 क्षेमाजलि 185 हरिषेणकृत कथाकोश 29 क्षेमाजलिपुर 183 हलवाहक 83 क्षेमेन्द्र 138 हस्त-प्रहस्त 7 क्षेत्र 260 हस्तिनापुर 107 हस्तिसेना 212 [ ] हाब्स 201 त्रिकूटाचल 92, 118 वाट इज आर्ट 138 त्रिपुर 31,98 हिमवान् 93 त्रिलोकमण्डन 8 हिरण्यकशिपु 33 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 28 हिंसाध्यान 237 बेसठ शलाका पुरुष 288 हिंसामश 5 (डॉ.) हीरालाल 5, 289 ज्ञानाग्नि 33