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कला : १७५ आहार मण्डप में मित्रों, मन्त्री आदि परिजनों और भाभियों के साथ भरत आहार करते थे । २८ सप्ताह मण्डप आयुधशाला को कहते थे । इसमें युद्ध के शस्त्रास्त्र और बरजे आदि रखे जाते थे । २८९ लताओं से बने मण्डपाकार गृह को लतामण्डप कहते थे। डॉ० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल के अनुसार क्षेत्रों, उद्यानों, सरिताओं, तड़ागतीरों तथा सागरबेला पर मण्डप का विकास हुआ। इन मण्डपों की रचना- कला सभा भवनों से आई। एक दो मुण्मय अथवा काष्ठमय स्तम्भों के न्यास से एवं ऊपर की छावनी, वनशाखाओं अथवा तालपत्रों से सम्पन्न कर छोटे-छोटे कामचलाऊ मण्डपों का आज भो विन्यास हम देखते हैं । मण्डप को आज की भाषा में मँढ़वा तथा महइया कहते हैं । इसमें स्तम्भ वौर छाद्य दोनों आवश्यक हैं। चूँकि यह एक प्रकार का क्षणिक विवश है सम्मका ल कोई भी काष्ठपठिका ग्रहण करती है । २१० कालान्तर में केन्द्र स्तम्भ के अतिरिक्त अनेक स्तम्भ जोड़कर विशाल मण्डप बनाये जाने लगे और इनसे विशाल भवनों का निर्माण हुआ । मण्डपाकार रचना होने के कारण इनको मण्डप के नाम से कहा जाने लगा। पद्मचरित में अयोध्या में ऐसे मण्डप बनाये जाने का उल्लेख है, जिनमें हजारों खम्भे (स्तम्भ ) लगे थे, जो मोतियों की सुशोभित थे, नाना प्रकार के पुतकों से युक्त थे तथा विविध प्रकार भवन - रचना -- पद्मचरित में भवन-रचना गेह २९२, २१४ मन्दिर २५ निलय १६ सद्म २९७, आलय' २९८
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२९९ वेदम गृह *००, कूट ३०२, चैत्व ३०३, शाला' विमान ३०५, मण्डप आदि के रूप में मिलती है । सुन्दर भवन ऊंचे-ऊंचे शिखरों से युक्त होना चाहिए । २०६ भवन में एक विशाल गग हो । सम्भवतः आंगन को लम्बाई, चौड़ाई भवन के आकार के अनुरूप बनाई जाती होगी। नाभिराज के भवन का आँगन ( अजिर )
२८८. पद्म० ८४।१४-१५ ।
२९०. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १९४ ।
२९१. पद्म० ८१ । १०४ ।
२९३. वही, ८३।४१ ।
२९५. वही, २१३९ ।
२८९. पद्म० १२।१८१ ।
२९७. वही, २४० २९९. वही, ५३।२०३ । ३०१. वही, २०३७ ।
३०३. वही, ६७११५ । २०५. वही, ११२३४ |
२९२. पद्म० ६।१३० । २९४. वही, २३७ ॥ २९६. वही, २४० ।
२९८. वही, ८० ६३ ।
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३००. वही ५३।२६६ । ३०२. बही, ११२।३२ ।
३०४. वही, ६८।११ । ३०६. वही, ३३३३३२ |
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