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। २५८ : पद्मचरित मौर उसमें प्रतिपादित संस्कृति
और चन्द्रमा उसके राजा है ।२१८ ज्योतिश्चक्र के ऊपर संख्यात हजार योजन व्यतीत कर कल्पवासी देवों का महालोक शुरू होता है यही ऊर्ध्वलोक कहलाता है । २१ अर्वलोक में सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, सत्य, ब्रह्मोसर, लाम्तब, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत और मारण अच्युप्त ये आठ युगलों में १६ स्वर्ग है । उनके ऊपर प्रेयेयक कहे गये हैं जिनमें अहमिन्द्र रूप से उस्कृष्ट देव स्थित है। (नव प्रेषयक के आगे नव अनुदिश है मौर उनके ऊपर) विजय, धजयन्त, जयन्त, अपराजित तथा ससिद्धि में पांच अनुत्तर विमान हैं ।२२०
सिद्धक्षेत्र-इस लोकत्रय के ऊपर उत्तम देदीप्यमान तथा महाआश्चर्य से युक्त सिद्धक्षेत्र हैं, जो कर्म बन्धन में रहित जीवों का स्थान है। ऊपर ईषत्प्राग्मार नाम की यह शुभ पृथ्वी है जो ऊपर की ओर किए हुए धवलकत्र के आकार है, शुभरूप है, जिसके ऊपर पुनर्भव से रहित, महासुख सम्पन्न तथा स्वात्मपित से युक्त सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं ।२२५
२१८. पद्म १०५।१६५ । मेरुप्रदक्षिणाः नित्यगतयो नुलोके, ४।१३ तत्त्वार्यसूत्र । २१९. पश्य० १०५।१६६, मानिकाः ॥ तरवार्यमुत्र ४।१६ । २२०, सौधमख्यिस्तर्थशानः कल्पस्तक प्रकीर्तितः ।
ज्ञेयः सानत्कुमाररुच तथा माहंद्रसंज्ञक: ।। ब्रह्मा ब्रह्मोत्तरो लोको लान्तवश्च प्रकीर्तितः । कापिण्ठश्च तथा शुक्रो महाशुक्राभिषस्तथा ॥ घातारोऽय सहसारः कल्पश्चानतशब्दिप्तः । प्राणतश्च परिजेयस्तरपरावारणाच्युतौ ।। नवर्गवेयकास्ताम्यामुपरिष्टात्प्रकीर्तिताः । अहमिन्द्रतया येषु परमास्त्रिदशाः स्थिताः ।। विजयो वैजयन्तश्च अयम्सोऽथापराजितः । सर्वार्थमिद्धिनामा प पंचतेऽनुत्तराः स्मृताः ॥
पद्म १०५।१६७-१७१। उपर्युपरि-तत्वार्थसूत्र ४४१८ । सौश्चर्मशानसानमारमाहेमब्रह्मणह्मोत्तरलान्तकापिष्ठशुक्रमहामुकशतारसहसारेष्वानत प्राणतयोरारणाच्युतयो नवसु प्रैवेयकेष विजयबैजयन्तजयन्ता
पराजितेषु सर्वार्थसिद्धी प-तत्वार्थ सूत्र ४।१९ । २२१. प० १०५।१७३-१७४ ।