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धर्म मौर दर्शन २५०
२१४.
का परिवर्तन नहीं होता । मनुष्य मानुषोत्तर पर्वस के इसी ओर रहते है, इनके आर्य और म्लेच्छ की अपेक्षा मूल में दो भेद हैं तथा इनके उत्तर भेद असंख्यात हैं । देवकुरु, उत्तरकुरु रहित विदेहक्षेत्र तथा भरत और ऐरावत इन तीन क्षेत्रों में कर्मभूमि हूँ और देवकुरु, उत्तरकुरु तथा अन्य क्षेत्र भोगभूमि के है। मनुष्यों को उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की और जस्य स्थिति को है । तियंत्रों की उत्कृष्ट तथा जवन्य स्थिति मनुष्यों के समान तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त की है ।२१७
ऊर्ध्वलोक - ज्योतिपी भवनवासी, व्यन्तर और कल्पवासी के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। संसार के प्रत्येक प्राणी इनमें जन्म लेते हैं । २९१ व्यन्तर देवों के किन्नर आदि आठ भेद हैं। व्यन्तर और ज्योतिषी देशों का निवास ऊपर मध्यलोक में है । इनमें ज्योतिषी देवों का वक्र देदीप्यमान कान्ति का धारक है, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ निरन्तर चलता रहता है तथा सूर्य
२१४.* भतशवतक्षेत्रे वृद्धिहानिसमन्विते । शेषास्तु भूमयः प्रोक्तास्तुल्यबालब्यवस्थिताः - पद्म० ३३४७ 'भरत रावतयो वृद्धि हासी षट्समयाम्यामुत्खपिष्यवसर्पिणीभ्याम् । - तत्त्वार्थसूत्र ३ २७
२१५. विदेहकर्मणो भूमिर्भररावते तथा देवोत्तरकुरुर्भोगक्षेत्र शेषादच भूमयः ०५/१६२ | नार्या म्लेच्छा मनुष्याश्च मानुषा चलतो पराः । विज्ञेयास्तत्प्रभेदादच संख्यातपरिवर्जिताः ॥ प० १०५/१६१ । त्रिपल्यान्तर्मुहूर्त तु स्थिती नृणां परावरे
मनुष्याणामिव ज्ञेया विर्यग्योनिमु
पेयुषाम्, -
'प्रामानुषोत्तराम्मनुष्याः । -- तत्त्वार्थ सूत्र ३०३५ ॥
आर्या म्लेच्छाश्च ३।३६ त० सूत्र |
भरत रायत विदेहाः कर्मभूमयोऽन्यदेव कुरुतरकुरुभ्यः:-२० सूत्र ३१३७, 'स्थिती परावर त्रिपस्योपमान्तर्मुहूर्त' ३१३८ ० सूत्र । तिर्यग्योनिजानां ३।३९ ० सूत्र ।
२१६. ज्योतिषा भावना कल्पा व्यन्तराश्च चतुर्विषाः ।
देवा भवन्ति योग्येन कर्मणा जन्तवो भवे ॥
- पद्म० ५।१६३ ।
प० ३१८२, देवाश्चणिकायाः ४ १ तत्वार्थ सूत्र ।
२१७. 'भ्यन्तराः किन्तर किंपुरुष महो गगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः' ।
'अष्टभेदजुषो वेद्याभ्यन्तराः किन्नरादयः ॥
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तत्वार्थसूत्र ४|११ |
पद्म० १०५।१६४ ।