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धर्म और दर्शन २९९
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काल — जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर रस्मों के हर समान परस्पर न्न होकर एक-एक है में काला बसस्यात द्रव्य है । २२१ * इन्द्रियों के द्वारा उसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता फिर भी महात्माओं ने बुद्धि में दृष्टान्त की कल्पना कर उसका निरूपण किया है। कल्पना करो कि एक योजन प्रमाण आकाश सब ओर से दीवालों से वेष्टित है तथा तत्काल उत्पन्न हुए भेड़ के बालों के अप्रभाग से भरा हुआ है | यह गर्त किसने लोदा किसने भरा एक-एक रोमखण्ड निकाला जाय, जितने समय में खाली हो जाय उतना समय एक पल्य कहलाता है । दश कोड़ाकोड़ी पहयों का एक सागर होता है और दश कोड़ाकोटी सागरों की एक अवसर्पिणी होती है। उतने ही समय की उत्सर्पिणी भी होती है। जिस प्रकार शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष निरन्तर बदलते रहते हैं उसी प्रकार कालय के स्वभाव से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल निरन्तर बदलते रहते हैं। इन दोनों में से प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं । संसर्ग में आने वाली वस्तुओं के वीर्य आदि में भेद होने से इन छह-छह भेदों की विशेषता सिद्ध होती है | अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा सुषमा काल कहलाता है। इसका बार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण हैं। तीसरा भेद सुषमा-दुषमा कहा जाता है। इसका दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । चोथा भेद दुःखमा सुखमा कहलाता है। इसका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोड़ी सागर प्रमाण है । पचिया भेद दुःखमा और छठवाँ भेद दुःखमा दुःखमा कहलाता है। इसका प्रत्येक का प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है २२२
जीव - शेय और दृश्य स्वभावों में जीव का जो अपनी शक्ति से परिणमन होता है वह उपयोग कहलाता है, उपयोग ही जीव का स्वरूप है २ आत्मा के चैतन्यगुण से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं । उपयोग जोब का तभुत लक्षण २४४ है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का हूँ । २२५ ५ह जीवराशि अनन्त है । इसका क्षय नहीं होता है । जिस प्रकार बालू के कणों का अन्त नहीं है, आकाश का अन्त नहीं है और चन्द्रमा तथा सूर्य की किरणों का अन्त नहीं है उसी प्रकार जीवराशि का भी अन्त नहीं है । २२६
२२१. लोवायासपसे कि जे ठिया हु इक्किस्का ।
रयणाण रासी इवते फालाणू असंलदम्वाणि । व्यसंग्रह-गाथा २२ । २२२. पद्म० २०७३-८२ । २२३. वही, १०५ | १४७ ॥ २२४. पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० ३४ । २२५. पद्म० १०५।१४७ ।
२२६. वही, ३१ १६