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२६.: पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
ज्ञानोपयोग-सानोपयोग के मति श्रुत अननि, मनःपर्यय और केवलज्ञान तथा कुपति, कुश्रुत और कुअवधि ये आठ भेद हैं । १०
दर्शनोपयोग-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अषि दर्शन, केवलदर्शन ये चार भेद दर्शनोपयोग के है।
जीव के भेद-जीब के संसारी और मुक्त की अपेक्षा दो भेद है । १२८ संसारी जोव के संज्ञी (मन सहित) और असंझी (मनरहित) भेद से दो प्रकार हैं।२१ जीव शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म और बादर (स्थूल) के भेद से दो प्रकार के है ।२३० इन्हीं जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक (आहारादि को अपूर्णता) की अपेक्षा भी दो भेद है।३१ गति, काय, योग, बंद, लेश्या, कषाय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मुणस्थान, निसर्गज एवं अधिगमज सभ्यग्दर्शन, नामादि निक्षेप और सस, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शग, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहत्व इन आठ अनुयोगों को अपेक्षा जीव तत्व के अनेक भेद होते हैं ।
गति-गतिनामकर्म के उदय से होने वाली जोय की पर्याय को अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को गति कहते है। उसके चार भेद हैं-नरक गति, निर्यगति, मनुष्यगति, देवगति १२३३ पप्रचरित में इन गतियों के दुःखों फा निरूपण किया गया है .२१४
इन्द्रिय-- इन्द्रियों की अपेक्षा जीव के पांच मंद है----एकन्द्रिय, वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पांच इन्द्रिय ।२१५
काय-जाति नाम कर्म के अधिनाभावी ( जाति नाम कर्म के होने पर होने पाले और न होने पर न होने वाले) अस और स्थावरमाम कर्म के उदय से होने वाली आत्मा को पर्याय (अवस्था) को काय कहा है। य" पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु
२२७. पं० पन्नालाल साहिल्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० ३४ । २२८. संसारिणो विमुक्तारम-पद्मचरित १०५।१४८, 'संसारिणो मुक्ताश्च',
-तत्त्वा० २।१०। २२९. सषितविचेतसः-पद्य १०५:१४८ । २३०. सूक्ष्मबादरभेदेन जेमास्ते च धारीरतः-पप० १०५।१४५ । २३१. पर्याप्ता इतरे व पुनस्ते परिकीर्तिताः-पद्म० १०५।१४५ । २३२. पदम २।१५९-१६० । २३३. गोम्मदसार जोनकर, पु. ५९ । २३४, पद्म २११६५, १६६, १४॥३५, २॥१६४, २६७८-९४ । २३५. पप १४॥३७1 २३६. गोम्मटसार जीवकांड गाथा, १८० ।