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१९४ : पचरित लौर उसमें प्रतिपादिन संस्कृति था। अतएव राजोचित सिंहासम के कई उपवर्ग:५९ वर्णित है । जैसे-मंगल, वीर तथा विजय आदि ।
शय्या -शम्पा के लिए दूसरा पान्द शयन' (पा पायनीय) भी आपा है। राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न के अम्भोजकांड नामक पाश्यागृह में स्थित शच्या सुकोमल स्पर्श से युक्त तथा सिंह के समान पायों पर स्थित थी। १२ रानी केकशी की शय्या विशाल, सुन्दर तथा क्षौरसमुद्र के समान थी । उसपर रत्नों के दीपकों का प्रकाश फैल रहा था, रेशमी वस्त्र बिछे हुए थे, यषेष्ट गहा (गल्लक) मिला हुआ था तथा रंग-बिरंगी तकिया (उपधानक) रखी हुई थीं । उसके समीप हाथो दाँत को बनो चौकी रखी यो ।४१३
यद्यपि पद्मचरित में स्थापत्य को अनेक श्रेष्ठ कलाकृतियों के वर्णन मिलते है, तथापि समक्ष कविकल्पना में लिपट होने के कारण उनसे यह पता नहीं चलता कि इन भवनों में कैसी निर्माणसामग्री प्रयुक्त होतो थी। कवि सर्वत्र मणि जटित वातायनों, शिखरों, स्फटिक के फर्शों तथा स्वर्ण-रजत की दीवारों की प्रशंसा में बह गया है। वस्तुतः सोने-चांदी का इतना प्रसर उपयोग तब किया जाता था या नहीं, मह भाज निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर पुरातत्त्वविषयक खुदाई से प्रमाणित होता है कि स्वर्णकार और मणिकार की कलाओं में प्राचीन भारतीयों ने बहुत उन्नति कर ली थी ।
विविध कलायें उक्तिकौशल कला-उक्तिचित्र्य वादविजय और मनोबिनोद की कला है। भामह ने बताया है कि वनोक्ति ही समस्त अलंकारों का मूल है और वक्रोक्ति न हो तो काश्य हो ही नहीं सकता। भामह की पुस्तक पढ़ने से यही धारणा होती है कि कोक्ति का अर्थ उन्होंने कहने के विशेष प्रकार के ढंग को ही समझा था। वे स्पष्ट रूप से हो कह गये है कि 'सूर्य अस्त हुआ, चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा है, पक्षी अपने घोंसलों में जा रहे हैं' इत्यादि वाक्य काव्य नहीं हो सकते, क्योंकि इन कथनों में कहीं वन या भङ्गिमा नहीं है । पद्मचरित में केकया को उक्तिवैचित्र्य की कला में निपुण बतलाया है।
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४५१. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ. २०३ । ४६०. पच० ८३।१०।
४६१. पा. ७१७३, २२४ । ४६२. वही, ६३।१०।
४६३. वही, ७१७१-१७३३ ४६४. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, १० १२० । ४६५. पान० २४॥३५