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कला : १९३
नरयान५१-(शिविका ४५२, पालको) नरवान का जो वर्णन पप्रचरित में उपलब्ध होता है उसके मूलद्रव्य (काष्ठ) तथा परिमाण आदि पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, केवल उसके भालंकारिक स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। तदनुसार नरयान के ऊपर पताका फहराई जाती थीं । ७५३ इनको रत्न और स्वर्ण से देदीप्यमान किया जाता था। छोटे-छोटे गोले, दर्पण, फानूस तथा नाना प्रकार के चमरों से उन्हें सुन्दर बनाया जाता था। साथ ही साथ दिव्य कमल (सुन्दर कमल) तथा नाना प्रकार के बेलबूटों से उन्हें सुसज्जित किया जाता था तथा मालाओं से इनकी शोभा बढ़ाई जाती थी ।४५४ वैराग्य होने पर भगवान ऋषभदेव जिस शिविका पर आरूढ़ होकर धन को गये थे वह शिविका रत्नों की कालिने निकायों को करत रही। जग ओर चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान चंबर डुलाये जा रहे थे । पूर्ण चन्द्रमा के समान उस पर दर्पण लगा हुआ था । वह बुबुद् के आकार के मणिमय गोलकों सहित पो । उसकी आकृति अर्द्धचन्द्राकार थी। पताकामों के वस्त्रों से उसकी शोभा बढ़ रही थी। वह दिव्य मालाओं से सुगन्धित थी, मोतियों के हार से विराजमान थी, देखने में सुन्दर थी, विमाम के समान जान पड़ती थी तथा छोटी-छोटी घण्टियां उसमें रुनझुन शब्द करती थीं । ४५५ ।
सिंहासन५६-इसको सिंहविष्टर४५७ भी कहते थे । मानसार के अनुसार सिंहासन ययानाम उस आसन को कहेंगे जिसमें सिंह की प्रतिमा बनी हो । ऋषभदेव की माता ने स्वप्न में ऐसा ही सिंहासन देखा था जो बड़े-बड़े सिंहों से युक्त, अनेक प्रकार के रत्नों से उज्ज्वल, स्वर्णनिर्मित तथा बहुत ऊंचा था। ४५८ सिंहासन सबके बैठने की वस्तु नहीं है, यह केवल राजाओं के लिए ही उचित है । सिंहासनों का विशेषकर राजाओं के अभिषेक के समय प्रयोग किया जाता
पत्यकाननदाद्यालोवाप्यन्तर्भयनादिभिः । सहित नगराकारं नानाशस्त्रकृतक्षतम् ।। पप ८।२५७ । भूत्यैरुवाहृतं तुझसुरप्रासादसग्निभम् ।
विमान पुष्पकं नाम विहायस्तलमण्डनम् ।। पप० ८।२५८ । ४५१. पा० ११३।१९।
४५२. पप्र० ३।२७८ । ४५३. वही, ११३।२१ ।
४५४. वही, ११३।२०-२१ । ४५५. वही, ३१२७५.२७८ । ४५६. वही, २।१११, २०४१। ४५७. वही, ३११७७ ।
४५८, वही, ३।१३५ ।