________________
१९२ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति जाते थे । ४४२ द्वारों पर वस्त्र तथा कदली आदि से शोभा की जाती थी । ४१ कणिकार, मति मुक्तक, कदम्ब, सहकार, चम्पक, पारिजात तथा मदार आदि के फूलों से निर्मित मालाओं से मन्दिर सजाया जाता था । ४४४ रत्नमयी ४५ मालाओं के लगाये जाने का भी उल्लेख मिलता है। चैत्यों में अनेक प्रकार के मणियों के खेल-बटे लगाये जाते थे। ४४१ चैत्यभमि में विस्तत वेदिकायें बनी होती थी। ये वेदिकाय वयं मणिनिर्मित दोवालों तथा हाथी. सिंह आदि के चित्रों से अलंकृत रहती थी। मृदङ्ग, बांसुरी, सुरज, मांझ, नगाड़े तथा शंखों के शब्दों से चैत्यों का वातावरण संगीतमय बनाया जाता पा ।४४७ चंत्य को चैत्यालय भी कहते थे ।४८ कृत्रिम चैत्य के अतिरिक्त भात्रिम ४५ चैत्यों का भी उल्लेख मिलता है।
विमान-भिमान-रचना की दृष्टि से पद्मचरित में पुष्पक विमान का सर्चश्रेष्ठ वर्णन उपलब्ध होता है। अष्टम पर्व के वर्णन के अनुसार पुष्पक विमान अत्यन्त सुन्दर था, शिखर युक्त पा, शिखर में विभिन्न प्रकार के रत्न जड़े थे । वातायन (मरोखे) उसके नेत्र थे। उसमें मोतियों की झालर लगी हुई थी. झालर से निर्मल कान्ति का समूह निकलता था। उसका अगला भाग पामरागमणियों से बना था। कहीं-कहीं इन्द्रनीलमणियों को प्रमा उसपर आवरण कर रही थी। चैत्यालय, बन, मकानों के अग्रभाग, नायिका तथा महल आदि गे युक्त होने के कारण वह किसी नगर के समान ऊँचा जान पड़ता था। यह बहुत ही ऊँचा था तथा देवभवन के समान जान पड़ता पा । ५०
४४२. पद्म० ४०१२-१३ ।
४४३, पप० ६८०१३ । ४४४, वही, ६८०१६-१७ ।
४४५. वही, २३।१५। ४४६. वही, २३।१३ ।
४४७. वही, ४०।३०-३१ । ४४८. वहीं, ३।४५ ।
४४९. वही, ९८१५६ । ४५०. अथ प्रवतित तस्य मनोज बानदाधिपम् ।
प्रत्युप्तरत्नशिखरं वातायनविमोचनम् ।। प० ८।२५३ । मुक्ताजालामुक्तेन समूहेमामलस्विषाम् । समुत्सृजपिवाजसमनु स्वामिवियोगतः ।। पद्मा ८।२५४ । पद्मरागविनिर्माणमग्रदेश पण्ड्रना । ताडनादिव संप्राप्तं हृदयं रमतता पराम् ।। पद्म० ८५२५५ । इन्द्रनीलप्रभाजालकूतप्रावरणं क्वचित् । शोकादिव परिप्राप्त श्यामलत्वमदारतः ।। पन० ८।२५६ ।