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कला : १९१
तथा सत्र की रचनाओं में सामान्यतः कोई भेद नहीं माना आता था। प्राचीन काल में निश्चय ही ये या इनमें से अधिकांश शम्द अलग-अलग प्रकार के अपनों के वाचक थे, किन्तु रविषेण के काल तक आते-आते ये शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए थे, ऐसा उपर्युक्त प्रयोगों से सिद्ध होता है । जिनमेश्म शम्द भी जिनेन्द्रालय का वाचक हो गया था, क्योंकि २८ पर्व में जिनवेश्म का जो वर्णन आया है तदनुसार उसमें (रत्नमय) वातायन थे, (स्वर्णमय) हजारों स्तम्भ थे तथा मेरु के शिखर के समान प्रभा थी। महापीठ (भूमिका) बञ-निपञ्च के समान थी। ३१ में सभी विशेषतायें उपरि लिखित आलय में समाहित हो जाती हैं । आगे इसको उपमा रविषेण ने इन्द्र के क्रीड़ागृह तथा नौम्दालय ३२ से दी है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि मालय, गृह तथा वैश्म तोतों में कोई भेद नहीं माना जाता था 1 जिनालयों की शोभा के लिए उस समय उद्यान भी बनाये जाते थे।१४
चैत्य३५-ऊपर जिनालय के जिस रूप का वर्णन किया गया है उसी के बृहद् रूप चैत्य आवासगृहों के माम न होकर स्वतन्त्र रूप से बनाए जाते होंगे । इन चैत्यों में सुदृढ़ स्तम्भ लगाए जाते थे । कहीं-कहीं ये स्तम्भ रत्न और स्वर्ण के बने होते थे ।४३५ चैत्य योग्य चोड़ाई तथा ऊंचाई से युक्त होते थे। पे झरोखें, महल (हर्म्य) परभी (छपरी) आदि की रचना से सुपोमित होते थे।४३ इनमें अनेक शालायें निर्मित होती थो। इनके बड़े-बड़े द्वार तोरणयुक्त होते थे। इनके चारों भोर परिखा खोदी जाती थीं। सफेद और सुन्दर पता. काओं में ये युक्त होते थे। इनके अन्दर बड़े-बड़े घंटा लगाए जाते थे । इनमें सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण की जिनप्रतिमायें सुशोभित होती थी।४३५ ये मन्दिर परम विभूति से युक्त रहते थे ।४४० इनमें झरोखें बने रहते थे । झरोखों में मोतियों की मालायें लटका दी आती थीं ।४४५ ऊँचे-ऊंचे तोरणों तथा बजाओं में छोटी-छोटी घण्टियों से युक्त मोतियों की मालायें, चित्र-विचित्र घमर, मणिमय फानूस, दर्पण तथा वेगेले (बुद्बुदावत्यः) लगाये
- - ४३. पम० २८॥१०॥
४३१. पद्म० २८1८८ । ४३२. वही, २८१९१।
४३३. वही, २८१९२ । ४३४. वही, ६७२१ ।
४३५. वही, ३३.३३३ । ४३६, वही, ७३३८।
४३७, वही, ४०१२८ । ४३८, बही, ४०।२९ ।
४३९. वही, ४०1३२ । ४४०, वही, ६७।१८।
४४१. वही, ३२३३८ ।