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१९० ; परित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पर्वत (सुमेरु पर्वत), की गुफाओं के समान जिनालयों के विशेष द्वार बनाए जाते थे। वारों पर हार आदि से अलंकृत पूर्ण कलश स्थापित किये जाते थे । ४१५ मन्दिों की स्वर्णमयी लम्दी दौड़ी दीनालों पर मणिमय चित्रों से चित्त को आकर्षित करने वाले चित्रपट फैलाये जाते थे ।४११ स्वर्णमयी दीबालों और मणियों के अभाव में भी उस समय चित्रपट मन्दिर की दीवालों पर फैलाने की परम्परा रही होगी। स्तम्भों के ऊपर अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध मणियों के दर्पण (अथवा सुन्दर दर्पण) लगाए जाते थे और गवाशों (झरोखों) के अनमाग पर स्वच्छ निझर (झरन) के समान अत्यन्त मनोहर हार लटकाये जाते थे। १७ मनुष्यों के जहाँ चरण पड़ते थे, ऐसी भूमियों पर पांच वर्ण के रत्नमय चूर्णों से नाना प्रकार के बेल यूटे खींचे जाते थे।४१८ जिनमें सौ अथवा हजार कलिकायें होती श्री तथा जो लम्बो मण्डी से युक्त होते थे, ऐसे कमल उन मन्दिरों को देहलियों पर रखे जाते थे । ४१९ हाथ से पाने योग्य स्थानों में मत्त स्त्री के समान शब्द करने वाली उज्ज्वल छोटी-छोटी घंटियां लगाई जाती थीं 1४२० दक्षलक्षण पर्व या अन्य समारोहों पर अथवा कहीं-कहीं सदैव इस प्रकार की हांडिया लटका कर शोभा करने की परम्परा अब भी है। सुगन्धि से भ्रमरों को आकर्षित करने वाली, उत्तम कारीगरों से निर्मित नाना प्रकार की मालायें फैलाई जाती थीं । सुन्दर वस्त्रों से द्वार की शोभा की जाती थी तथा कहीं विभिन्न प्रकार की पातुओं के रस से दीवालों को अलंकृत किया जाता था । १२१ ऊपर जिन माकर्षक चित्रपटों के फैलाए जाने का उल्लेख है, उनमें अधिकतर जिनेन्द्र भगवान् के चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले चित्रपट ही फलाए जाते थे । २२ जिनेन्द्रालय के जो वर्णन उपलबन्न होते है, उनसे मात होता है कि इस प्रकार के अधिकांश आलय मन्दिरों का निर्माण आवासगृहों, महलों आदि में होता था। एक ही शान्ति-जिनालय के लिए शान्तिभवन,४२३ शान्ति-गेह,४२४ बान्त्यालय,४२५ शान्ति-हम्मे, २६ शान्तिनाथ-भवन,४२७ (शान्तिनाथ) सदम, १४ शान्तः परमालयम्४२२ शब्दों का प्रयोग यह सूचित करता है कि भवन, गेह, आलय, हम्मे ४१५. पप० ९५।३८1
४१६. पर. ९५१३९ । ४१७. वही, ९५/४० !
४१८, वही, ९५।४१ । ४१९. वही, ९५।४२ 1
४२०. वही, ९५।४३ 1 ४२१. वही, २९।५ ।
४२२, वहो, ५६२१ । ४२३. वही, ७१।३३ ।
४२४. वही, ७१।३५ । ४२५. वही, ७१॥३९ ।
४२६. वहीं, ७१।४१ । ४२७. वही, ७१५४२ ।
४२८, बही, ७१।४४ । ४२९. वही, ७१६४९ ।