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तरकस के समान अथवा मद और काम के सौन्दर्य रूपी जल को बढ़ाने वाली नदियों के
पद्मचरित का परिचय : १७
बाँधने के स्तम्भ के समान अथवा समान जान पड़ती थीं । ४
अंजना की मूर्तिमती रात्रि के रूप में कवि की यह कल्पना कितनी सुन्दर और साकार है
'उसकी ( अंजना) की कान्ति नील कमलों के समूह के समान घी, यह मुक्काफल रूपी नक्षत्रों से सहित थी तथा पतिरूपी चन्द्रमा उसके पास विद्यमान भा इसलिए वह मूर्तिधारिणी रात्रि के समान जान पड़ती थी ।४९
सौन्दर्य के विषय में अपना मत व्यक्त करते हुए किसी लेखक ने कहा हैदेखा जाता है कि बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होने पर हमारे जातीय संस्कार तथा वैयक्तिक रुचियों अनजाने ही अपनी मधुकरी वृत्ति से तिल-तिल चुन-चुनकर अनेक वस्तुओं की तिलोत्तमा अथवा आदर्श प्रतिमायें हमारे मानस में बना लेसी है और जो बाहरी वस्तु हमारी बनाई उस ( वस्तु) की मानस प्रतिभा से जितना अधिक सादृश्य रखती हूँ यह हमें उतनी ही सुन्दर तथा प्रिय लगती है क्योंकि उसके रूप रंग आदि हमारे अन्तःकरण के घटक सरच के आनन्दांश को उसके ज्ञानांश की अपेक्षा अधिक उत्तेजित कर देते हैं । वस्तुतः हमारे हृदय का यह आनन्दांश ही सोन्दर्य है जो किसी वस्तु के साक्षात् दर्शन या उसके ध्यान से उबुद्ध होकर हमें तन्मय कर देता है और उस वस्तु पर पड़कर उसे सुन्दर तथा प्रिय बना देता है ।५० सौन्दर्य का यह रूप रविषेण की अंजना में हमें साकार दिखाई देता है
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'बहू (अंजना) ऐसी जान पड़ती थी मानों तीन लोक की सुन्दर स्त्रियों का रूप इकट्ठा कर उसके समूह से ही उसकी रचना हुई थी। उसकी प्रभा नील कमल के समान सुन्दर थी, हस्त रूप गल्लब अत्यन्त प्रशस्त थे, चरण कमल के भीतरी भाग के समान थे, स्तन हाथी के गण्डस्थल के तुल्य धे । उसकी कमर पतली थी, नितम्ब स्थूल थे, जंधायें उत्तम घुटनों से युक्त थीं, उसके शरीर में शुभ लक्षण थे, उसकी दोनों भुजलतायें प्रफुल्ल मालती की माला के समान
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४८. तूणी मनोभुवः स्तम्भ बन्धनं मक्कामयोः ।
सुवृत्तौ विभ्रतीभूरू नदी लावण्यवाहिनी || पद्म० १५।१४४ ।
४९. इन्दीवरावलीकायां युक्तां मुक्ताफलोहुभिः ।
आसक्तां प्रियचन्द्रेण मूत्रमिव विभावरीम् । पद्म० १५।१४५ । ५०. वागीश्वर विद्यालंकार : कालिदास और उसकी काव्य कला, पु० १७३ ।