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धर्म और दर्शन : २५३
i उनके जन्म
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अमरेन्द्र तथा चक्रवर्ती उनकी कीर्ति का गान करते है । वे शुद्धशील के धारक देदीप्यमान, गवरहित और समस्त संसार रूपी सघन ज्ञेय को गोद के समान तुच्छ करने वाले सेज से सहि क्लेश खड़ी कठिन सन्धन को तोड़ने वाले, मोक्ष रूपी स्वार्थ से सहित अनुपम निर्विघ्न मुख स्वरूप वाले होते हैं लेते ही संसार में सर्वत्र ऐसी शान्ति छा जाती है कि सब रोगों है तथा दाप्ति को बढ़ाती है । उत्तम विभूति से हर्ष से जिनका कि आसन कम्पायमान होता है, आकर मेरु के अभिषेक करते हैं । राज्य अवस्था में वे बाह्य चक्र के तथा मुनि होने पर ध्यान रूपी चक्र के द्वारा अन्तरंग शत्रु को जीतते हैं। १९८ आठ प्रातिहार्य तीर्थकर भगवान् के माठ प्रातिहार्य, जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है, ये हैं१९९
का नाश करती भरें हुए इन्द्र,
युक्त,
शिखर पर भगवान् का
द्वारा बाह्य शत्रुओं को
१. अशोकवृक्ष का होना जिसके देखने से शोक नष्ट हो जाय ।
२. रत्नभय सिंहासन ।
३. भगवान् के सिर पर तीन छत्र फिरना ।
४. भगवान् के पीछे भामण्डल का होना ।
५. भगवान् के मुख से निरक्षरी दिव्यष्वनि का होना ।
६. देवों द्वारा पुष्पवृष्टि होना ।
७. यक्ष देवों द्वारा चौसठ चेवरों का बोला जाना ।
८. दुन्दुभि बाजों का बजना |
चौंतीस अतिशय --- [--आठ प्रातिहार्यो के अतिरिक्त ३४ अतिशयों के होने का भी उल्लेख ऊपर आया हूँ। चौतीस अतिशय निम्नलिखित हैं । इनमें से १० अतिशय जन्म से होते हैं, १० केवलज्ञान होने पर होते हैं और १४ देवकृत होते हैं ।
जन्म के १० अतिशय - १. अश्यन्त सुन्दर शरीर, २. अति सुगम्बमय शरीर ३ पसेवरहित शरीर, ४. मल सूत्र रहित शरीर, ५ हित मित प्रिय वचन बोलना, ६ अतुल्य बल, ७ दुग्ध के समान सफेद रुधिर ८ शरीर में १००८ लक्षण ९. समचतुस्त्र संस्थान शरीर अर्थात् शरीर के अंगों की बनावट स्थिति चारों तरफ से ठीक होना, १०. वज्र वृषभनाराचसंहनन ।
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केवलज्ञान के १० अतिशय २०११. एक सौ योजन तक सुभिक्ष अर्थात्
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१९७. पद्म० ८०११३१-१३३ । १९८ ० ८०।१४- १६ । १९९. बाबू शानचन्द्र जैन (लाहौर) जैन बाल गुटका, प्रथम भाग, पृ० ६८ । २०० ही ० ६५ ६६ / २०१. वहीं, पु०६६, ६८ ।