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२५२ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
की जाती है उसी तरह अनेक व्रत शीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साघु समाधि है । १५०
९. वैयावृत्य-गणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वयावृत्य है ।१९१
१, १२, ११ अदाचाटनानप्रवचनभकि-केवलज्ञान श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारो परहितप्रयण और स्वसमयविस्तार निश्चयज्ञ अर्हन्त आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले मोक्षगहल की सीढ़ी रूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग रखना अर्हद्भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचन भक्ति है ।१९२
१४. आवश्यकापरिहाणि-सामायिक, पतुर्विशतिस्राव, वन्दना, प्रति. क्रमण, प्रत्यास्पान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किार स्वाभाविक क्रम में करते रहना आवश्यकापरिहाणि है । सर्व सावळ योगों को त्याग करना, चित्त को एकाग्ररूप से शान में लगानः मामायिक है। तीर्थरों के गुणों का स्तवन चक्षुपिशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोन्नति और आवर्त पूर्वक धन्दना होती है। कृत दोषों को निवृत्ति प्रतिक्रमण है । भविष्य में दोष न होने देने के लिए मन्नर होना प्रत्याख्यान है। अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । ११३
१५. मार्गप्रभावना-महोपवास आदि सम्यक सपों से तथा सूर्य प्रभा के समान जिनपूजा से सशर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है ।१४
१६. प्रवचन वस्सलत्व-जैसे माय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह रखती है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचन वस्सलस्व है ।१९५
तीर्थ करत्व की प्राप्ति से युक्त जीय बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाता है । पदमचरित में कहा गया है कि जिनेन्द्रदेव के आसनस्थ होने पर देव तिथंच और मनुष्यों से रोवित एक योजन की पृथ्वी स्वर्णमयी हो जाती है। भगवान् के आठ प्रातिहार्य और चौंतीस महातिशय प्रकट होते हैं तथा उनका रूप हजार सूर्यों के समान देदीप्यमान एवं नेत्रों को सुख देने वाला होता है । ५६ सुरेन्द्र असुरेन्द्र,
१९०, तत्त्वार्थबार्तिक ६।२४ की व्याख्या वार्तिक २० ८ । १९१. वही, नातिक, ९ ।
१९२. वही, वातिक, १० । १९३. वही, वार्तिक, ११ । १९४. वही, वार्तिक, १२ ।। १९५. वही, यातिक, १३ ।
१९६, पम. १४२६१, २६२ ।