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________________ धर्म और दर्शन : २३७ तीन गुणव्रत-अनर्थयों का स्याग करना, दिशाओं और विदिशाओं में आवागमन की सीमा निर्धारित करना और भोगोपभोग का परिमाण करना ये तीन गुणनत है ।१० प्रयोजन रहित पापवर्षक क्रियाओं का त्याग करना अनर्थदण्डवत है । मनर्थ दण्ड के पाँच भेद है १. पापोपदेश (हिंसा आदि पाप के कामों का उपदेश देना)। २. हिंसादान (तलवार आदि हिंसा के उपकरण देना) । ३. अपध्यान-दूसरे का धुरा विचारना । ४. दुति-रागद्वेष को बढ़ाने वाले लोटे पाास्त्रों का सुनना । ५. प्रमादचर्या--बिना प्रयोजन यहाँ वहाँ घूमना तथा पृथ्वी आदि का खोदना । भोगोपभोग-जो एक बार भोगने में आने उसे भोग और जो बार-बार भोगने में आये उसे उपभोग कहते हैं । ग्रत और उसकी भावनायें-हिंसा, मूठ, चोरी, कुशोल और परिग्रह इन पांच पापों से विरक्त होने को प्रत कहते है ।" येत भावनाओं से युक्त है। तत्त्वार्थसूत्र में व्रतों की स्थिरता के लिए प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनायें बतलाई है । ४०. प५० १४।१९८ । सस्वार्थसूत्रकारने गुणवतों के अन्र्तगत दिग्वत, देशवत और अनर्थदण्पन्नत ये सीन व्रत गिनाये है। पचरित में देशनत को अलग से न गिनाकर उसके स्थान पर भौगोपभोग का परिमाण करना गिनाया है। इसका मूल कारण यही मालूम पड़ता है कि दिग्नत और देशव्रत में समय की अपेक्षा अन्तर होता है। जीवनपर्यन्त के लिए दिन्नत में भी संकोच करके घड़ी, घण्टा, दिन, माह आदि तक किसी गृह, मुहल्ले आदि तक माना-जाना रखना देशवत है। ४१. पं० पन्नालाल साहित्याचार्य की हिन्दी टीका सहित : मोक्षशास्त्र, पृ० १३१ । ४२. वही, १० १३१ 1 ४३. हिंसामा अनुतात् स्तेयात् स्मरसङ्गात् परिमहात् । विरतितमुद्दिष्टं भावनाभिः समन्वितम् ।। पद्मा १११३८ । हिसानवस्तपाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्वसम् । तत्त्वार्थसूत्र ७१। ४४, तत्त्वार्थसूत्र ७।३ । तत्स्थैर्यार्थ भावना: पंच पंच ।
SR No.090316
Book TitlePadmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size6 MB
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