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________________ २३६ : पद्मपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति दुःख होता है उसी प्रकार दूसरे को भी दुःख होता होगा, ऐसा विचार करना चाहिए ।३१ आन्त तृष्णा का माग- पनी इच्छा का सदा परिमाण करना चाहिए क्योंकि इच्छा पर यदि अंकुश नहीं लगाया गया तो वह महादुःख देती है । ५३ परिग्रही मनुष्य के चित्त में विशुद्धता नहीं होती, जिसमें चित्त की विशुद्धता मूल कारण है ऐसे धर्म की स्थिति परिग्रही मनुष्यों से नहीं हो सकती है । चार शिक्षाशत-प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना. प्रोषधोपचास धारण करना, अतिथिसंविभाग और आयु का भय उपस्थित होने पर सल्लेक्षना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत है । ३४ सामाथिक-मन, वचन, काय और कुत (करना), कारित (कराना), अनुमोषना (करने की प्रशंसा करना), से पांचों पापों का रयाग करना सामायिक प्रोषधोपवास--पहले और आगे के दिनों में एकासन के साथ अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास आदि करना प्रोषधोपचास है।" अतिथि संविभाग—जिसने अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत नहीं दिया है, जो परिग्रह से रहित है और सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त होकर घर भाता है, ऐसा मुनि अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथि के लिए वैभव के अनुसार आदरपूर्वक लोभरहित हो भिक्षा तथा उपकरण आदि देना चाहिए यही अतिथि संविभाग है ।१७ यश का अन्तर्भाव इसी के अन्तर्गत होता है। सल्लेखना-इस लोक अथवा परलोक सम्बन्धी किसी प्रयोजन की अपेक्षा न करके शरीर और कषाय के कृश करने को सस्लेखना कहते है।" ३१. प. १४।१९२ । ३२. प. १४११९४ । ३३. वही, २।१८० । ३४. वही, १४।१९९ । ३५.५० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ० १३१ (हिन्दी टीका) । ३६. वही, पृ० १३१ । ३७. पप १४।२०१, २०० । ३८. पद्म० १११४० । ३९, तत्त्वार्थसूत्रकार (तस्वा० ७।२१) ने चार शिक्षाबत के अन्तर्गत अन्य भेदों के साथ भोगोपभोग परिमाणवत को गिनाया। सहलेखना का कथन यहाँ चार शिक्षाप्रतों के अतिरिक्स, अलग से किया गया है । पद्मचरित में सल्लेखना को अलग से न कहकर भोगोपभोग परिमाणवत के स्थान पर सल्लेखमा को कहा है।
SR No.090316
Book TitlePadmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size6 MB
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