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१६८ : पयररित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
गया है कि समुद्र के समान गम्भीर परिखा उसे चारों ओर से घेरे हुई थी । २१७ नगर के अतिरिक्त बड़े-बड़े मन्दिरों के चारों और भी सुरक्षा की दृष्टि से परिखायें खोदी जाती थीं । २१८ ___परिखाओं का खनन एवं वप्र भूमि का निर्माण संयुक्त कार्य है ।२१९ कौटिल्य के अनुसार खाई से चार दण्ड की दूरी पर ६ वण्ड (चौबीस हाथ) ऊँचा नीचे से मजबूत, ऊपर की नाई रे नगुना निस्ता ना (मिट्टी का नारा) इनमः । इन वर्षों को बनाते समय बलों और हाथियों द्वारा भलीभांति खोदवाकर और दवाकर खूब मजबूत कर दें। उस पर कटीली झाड़ियों और विषलो लतायें लगा दें । २२०
प्राकार-प्रकार का साधारण अर्थ उत्तुङ्ग मोटी दीवार है, जो पुर के चारों ओर विन्यस्त को जाती थो । २२१ प्राकारों का विन्यास वनों के ऊपर कराया जाता था । उसको ऊँचाई वन के विस्तार से दूनी होनी चाहिए । इसका निर्माण ईटों या पत्थरों से होता था। ईटों की अपेक्षा पस्थरों का प्राकार प्रशस्त माना जाता था । २२२ पपचरित में अत्यधिक ऊंचे प्राकार बनाने का उल्लेख किया गया है । राजगह नगर का जो प्राकार था वह मानुषोत्तर पर्वत के समान जान पड़ता था । २२३ इसीसे उसकी ऊंचाई का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कौटिल्य के अनुसार प्राकार की नींव का विस्तार इतना होना चाहिए कि उसके ऊपर एक हाथी रथ पर बैठकर यातायात कर सके । २२४ पधचरित में लंका नगरी के प्राकार को महाप्राकार२२५ कहा है। प्राकारों पर पर चढ़कर शत्रुओं को अथवा नगर के बाहर की गतिविधियों की देखरेख को जाती थी । २२१ मायामय कोटों की भी उस समय रचना की जाती थी।२५७ मह कोट विरक्त स्त्री के मन के समान दुष्प्रवेश होते थे ।२२९ उनमें अनेक आकार के मुख होते थे, सबको भक्षण करने की शक्ति होती थो तथा वे देवों के
-- ---. - - -. २१७. पद्म० २।४९।
२१८. पद्मः ४०।२९ । २१९. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०२ । २२०. कौटिलीय अर्थशास्त्र २।३।। २२१. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०३ 1 २२२. कोटिलीय अर्थशास्त्र, पृ० ४८ अधि० २।३ । २२३. पद्म० २।४९ । २२४. कौटिलीय अर्थशास्त्र, पृ० ७८ अधि० २।३ । २२५. पद्म० ५।१५।
२२६. पदम ४६।२१५ । २२७. वही, ५२७
२२८. वहीं, ५२१८