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द्वारा भी दुर्गम्य होते थे। उनके अग्रभाग संकट से उरकट तथा अत्यन्त तीक्ष्ण करोंती की श्रेणी से घिष्टित होते थे । चंचल सों की तनी हुई फणाओं को फूरकार से यह पाब्दायमान होता था तथा घुयें से युक्त अङ्गारों से दुःसह होता था । २३० शरवीरता के महंकार से उद्धत जो मनुष्य उसके पास जाता था न्ट उसी प्रकार लोटका नटी भाता था जो कि सांप के मुंह से मेंढक । २५१ इस कोट के धेरै को सूर्य के मार्ग तक ऊंचा कहा गया है । इसके अतिरिक्त यह दुनिरीक्ष्य, सग दिशाओं में विस्तीर्ण तथा हिंसामय शास्त्र के समान अत्यन्त पापकर्मा मनुष्यों के द्वारा निर्मित होता था । ३२
__ अट्टाल (अट्टालक)(१)-प्राकार के ऊपर अट्टालक (भवन) बनाए जाते थे । उनका विस्तार और उनकी उच्चता समान रखी जाती थी 1 कौटिल्प अर्थशास्त्र के अनुसार उनकी ऊँचाई के अनुरूप ऐसी सीढ़ी बनाई जानी चाहिए, जो हटाई जा सके । प्रत्येक अट्टालक एक दूसरे से तोस दण्ड (एक सौ बीस हाथ) दूरी पर रहना चाहिए। इस प्रकार बनी प्रस्पेक दो अद्रालिकाओं के बीच में एक ऐसी गलो बनवाना चाहिए जिस पर रप चल सके और अगल-बगल ईटों का दोतल्ला श्वेत भवन (अट्टालक) तथा प्रतोली के मध्य में इन्द्रकोश नाम का स्थान बनवाना चाहिए। वह इतना लावा चौड़ा हो कि उसपर तीन धनुर्धारो सैनिक माराम से रह सकें। उसमें इस प्रकार का काठ का अनेक छिटों से युक्त एक तरूप्ता लगा होना चाहिए जिसकी आड़ में धनुर्धर छिपकर बैठे और उसके सामने आगन्तुक शत्रुसैनिकों को देखकर बाणवर्षा कर सके २१२(२) पदमचरित में नगरिकों के विशाल अट्टालकों से विभूषित होने का उल्लेख किया गया
है।
___ गोपुर ३४ (महाद्वार)-गोपुर शब्द शब्दकल्पदुम के अनुसार गुपु रहाणे धातु से मिष्पन्न हुआ है । २३५ मत एष गोपुर भी नगररक्षण का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है। पद्मचरित में नगर में अनेक ऊँचे-ऊँचे गोपुर बनाने के
२२९. पद्म० ५२।९।
२३०. पद्मः ५२।१०-११ । २३१. वही, ५२।१२।
२३२. वही, ५२।१४ 1 २३२ (१). वही, ३।३१६ । २३२ (२). कौटिलीय अर्थशास्त्र, १० ७८ अधि० २३ । २३३. पद्म ३।३१६ ।
२३४. पदम० ३।३१६ । २३५. भारतीय स्थापत्य, पृ० १०५ ।