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१५८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
हो गया ।१४ वह निरन्तर शोफ फरने लगा, अत्यन्त लम्ने श्वासोच्छवास छोड़ने लगा, उसका शरीर सूख गया तथा शिथिल शरीर को बह चाहे जहां उपेक्षा से डालने लगा। उसे न रात्रि में नींद आती थी, न दिन में चैन पड़ता था। वह दिन-रात उसीके ध्यान में मग्न रहता था। सन्दर उपचारों से उमे कभी सुख नहीं मिलता था । वह पुष्प, सुगन्धित पदार्थ तथा आहार से द्वेष करने लगा मानो उन्हें विषमय समझता हो 1१५० उसको समस्त घेष्टायें ऐसी हो गई मानो उसे भूत लग गया हो । तदनन्तर बुद्धिमान पुरुषों ने उसकी आतुरता का पता लगाया । ११ नारद के प्रकट होने पर लोगों ने उनसे पूछा-'यह कोई नागकुमार देव की अङ्गना है या पृथ्वी पर आई हुई किसी कल्पवासी देव की स्त्री, किस तरह की देवी है ।१५९ आदि । इसी प्रकार ४०३ पर्व में वंशस्थल पर्वत के शिखर पर शुद्ध दर्पणतल के समान उत्कृष्ट भूमि तैयार कर पांच वर्गों की पूलि से अनेक चित्र बनाए जाने का उल्लेख है। इन्हें स्पष्ट रूप से धूलि-मित्र कहा जा सकता है ।१५३
मूर्तिकला ... का. रायकृष्णदास के अनुसार सोना, चाँदी, तांबा, काँसा, पीतल, अष्टधातु आदि प्राकृतिक तथा कृत्रिम चातु, पारे के मिश्रण, रत्न उपरत्न, कांच, कड़े और मुलायम पत्थर, मसाले, कच्ची या पकाई मिट्टी, मोम, लाख, गंधक, हाथी दांत, शंख, सीप, अस्थि, सींग, लकड़ी एवं कागद के कुट आदि उपादानों को उनके स्वभाव के अनुसार गढ़कर, खोदकर, उभारकर, कोरकर (चारों और
१४७. ताज्ञानात् समालोक्य स्वसारं चित्रगोचराम् ।
हीश्रुतिस्मृतिमुक्तात्मा द्राक् प्रभामण्डलोऽभवत् । पपा २८५२२ । १४८. ततः शोचति निःश्वासान्मुञ्चतेऽत्यम्तमायतान् ।
शुष्यति क्षिपति सस्तं गात्रं पत्रक्वचिद द्रुतम् ।। पम० २८०२३ । १४९. न रात्री न दिवा निद्रां लमले ध्यानतत्परः ।
उपचारेण कान्तन न जातु सुखमश्नुते ।। पप० २८१२४ । १५०. पुष्पाणि गम्घमाहार देष्टि क्ष्यहं पथा भुशम् ।
करोति लोठन भूयः संतापी जलकुट्टिमे ।। पा० २८।२५ । १५१. हतो ग्रहगृहीतस्य सदृशस्तविचेष्टितः ।
जातं तदातुरत्वस्य कारण मतिशालिभिः ॥ प१० २८०२७ । १५२. महोरगाङ्गना किं स्पाद भयेत्' किंवा विमानजा | ___ . मर्त्यलोके समायाता स्वया दृष्टा कथञ्चन ।। पद्मा २८१२।। १५३. पन ४०७ ।