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कला : १७१
निर्देश करने वाले थे
जब कल्पवृक्ष पूर्णरूप से नष्ट हो गये तब पृथ्वी अकृष्टपच्य अर्थात् बिना जोते बोये अपने आप ही उत्पन्न होने वाले धान्य से सुशोभित हुई। इक्षुरस ही उस समय प्रजा का आहार था । १५० पहले सो
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उपदेश दिया । नगरों का
निर्माण की कला प्रजा को कि भवन का प्रथम रूप
इक्षुरस अपने आप निकलता था, पर काल के प्रभाव से अब उसका निकलना बन्द हो गया। लोग बिना बतलाये यन्त्रों के द्वारा ईख पेरने की विधि नहीं जानते थे । २५५ सामने खड़ी हुईं धान को लोग देख रहे थे, पर उसके संस्कार की विधि नहीं जानते थे, इसलिए भूख से पीड़ित हो व्याकुल हो उठे। तय नाभिराज की सलाह से प्रजा के लोग ऋषभदेव की शरण में पहुँचे । ऋषभदेव ने प्रजा को सैकड़ों प्रकार की शिल्पकलाओं का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि के सिखाई । २५० इस विवरण से यह प्रतीत होता है (मॉडेल) वृक्ष था। इस बात की पुष्टि तृतीय पर्व के एक श्लोक के इस मन्तव्य से और अधिक होता है कि ( कुलकर नाभिराज के समय जबकि सब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये थे, तब इन्होंके क्षेत्र के मध्य एक कल्पवृक्ष रह गया जो प्रासाद अर्थात् भवन के रूप में स्थित या और अत्यन्त ऊंचा था । २४ इसका सीधा तात्पर्य यही है कि कल्पवृक्ष हो उस समय प्रासाद होते थे। इन्होंका आगे चलकर विकास हुआ और बड़े-बड़े प्रासाद बनाये जाने लगे । इस वस्तुस्थिति को सम्भवतः बाद में लोग नहीं भूले, या भूल भी गये हों तो भी इस तथ्य को एक अस्पष्ट रूपरेखा उनके मस्तिष्क में रह गई थी । इसलिए प्रासाद को कल्पवृक्ष के रूप में मानकर भी रविषेणाचार्य ने आगे कह दिया कि उनका यह प्रासाद मोतियों की मालाओं से व्याप्त था, स्वर्ण और रत्नों से उसकी दीवाले निर्मित थीं । यह वापी और उद्यान से सुशोभित था तथा पृथ्वी पर एक अद्वितीय ही था । २५५ हो सकता है कि उस वृक्ष की शाखाओं से ही उन्होंने उस वृक्ष के चारों ओर भित्ति बना ली हो । बहुत बाद में लोगों की दीवालें स्वर्णमय और रत्नमय होने लगीं। अतः उन दीवालों के भी स्वर्ण और रत्नमय होने की उन्होंने करूपना कर ली हो । बाल भवन या शाला भवन के निर्माण के पीछे यह
२४८. पद्म० ३।७४ २५०. वही, ३।२३३ ।
२५२. वही, ३४२३५ ।
२५४. अथ कल्पद्रुम नाभेरस्य क्षेत्रस्य मध्यतः ।
२४९ पद्म० ३।२३१ |
२५१. दही, ३।२३४ ।
२५३. वही, ३/२५५ ।
स्थितः प्रासादरूपेण विभात्यश्यन्तमुन्नतः । पद्म० २१८९ ।
२५५. पम० ३।९० ।