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१७२ : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
कहानी छिपी हुई है, भले ही बाद में इन भवनों का रूप कितना हो परिवर्तित क्यों न हो गया हो।
शाला-भवन या शाल-भवन-साल-भवनों की परम्परा बहुत प्राचीन है। इसका विविध विकास हुआ। मन्त्रशाला, पाशाला, गजशाला, पाठयाला, अश्वशाला, पाकशाला श्राधि पद इसके परिचायक है। पदमचरित में भी गोपाला५५, यज्ञशाला५५०, आतोद्यपाला२१८ (वावनपाला), प्रेसकशाला२५९, नायगाला २५०, चतुःशाला", चन्द्रशाला। आदि शाला-भवनों के नाम मिलते हैं। मानसार (अध्याय ३६) में शाल-महन की जो व्याख्या वी है, तदनुसार, पाल-भवन में चारों ओर मलिन्द्रों (बरामवी) का विन्यास होना चाहिए । सम्मुन मण्डप भी हो सकता है। इसके ऊपर एक से लगाकर अनेक ममियाँ विनिर्मित हो सकती है और वे चुल्ली (एक प्रकार का भवन) एवं हर्म्य (एक प्रकार का भवन) आदि से मण्डित हो सकती है 1२३३
यज्ञशाला-गमायण के उल्लेख से विदित होता है कि यज्ञशालायें प्रायः अस्थायी रूप में बनाई जाती थी,१४ पर कभी-कभी दे ईंटों की भी बानी होती पीं । पशरथ के अश्वमेघ यज्ञ मे अट्ठारह-अट्ठारह इंटों से छ: गरुणाकार त्रिगुण वैदियों बनायों जाती थीं (१।१४।१८-९)। शुल्मसूत्रों में मी गाड़ाकार बेदी बनाने का विधान है। उस समय के देवालय कैसे बनाये जाते थे, इसका कोई संफेत नहीं मिलता। यज्ञीय यूपों का शिलिएगण कुशलता से निर्माण करते थे उनके अपहलू (अष्टास्त्रयः) होत पे (१।१४।२६)। ब्राह्मण-ग्रन्थों के समय से ही भारती स्थापत्य में आठ पाहल यज्ञोय युपों का निर्माण होता आ रहा है ।२१५
चतुःशाला---पदमचरित के ८३वे पर्व में कहा गया है कि राम तथा लक्ष्मण के पक्के फर्शों से युक्त अत्यास सुम्नदायी चौपाले (चतुःशालाः) थीं । समराङ्गण-सूत्रधार में भी यद्यपि एक से लेकर दश-शाल-भवनों का वर्णन है,
२५६. पद्म० ३।२३१ ।
२५७. पद्मः ३५।२ । २५८. वही, ९५/४६ ।
२५९. वही, ९५।५७ । २६०, वही, ६८।११।
२६१. वही, ८३।१८ । २६२, बही, १४।१३१ २६३. भारतीय स्थापत्य, १० १३२ 1 २६४, पदमः ३५।९। २६५. शान्तिकुमार नानूराम व्यास : रामायणकालीन संस्कृति, पृ० २०८ । २६६. पद्म० ८३।१८ ।