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कला : १७३
तथापि शाल-भवनों की अवतारणा में पातुःशाल का प्रथम निवेश है। पतुःशाल उसे कहते हैं जो एक चौकोर, विशाल एन समीत माङ्गण से नुदिन संघालों से निष्पन्न होता है। इसी प्रकार मोटे तौर से आंगन के तीन और संस्थानों से विशाल, दो ओर से विशाल तथा एक ओर से एकशाल भवन विनिर्मित होते है। ये ही चार आदर्श भवन है जिनके संयोजन से पंचशाल, षट्शाल, सप्तशाल, मष्टशाल, नवशाल तथा दशशाल भवन विन्यस्त होते हैं ।२६॥
बार--महल का द्वार के प्राकार से युक्त रहता था। Eार पर संकड़ों देदीप्यमान बेल-बूटे लगाये जाते थे तथा वह इन्द्रधनुष के समान रंगबिरंगे तोरणों से सुशोभित रहता या ।२९" दरवाजों पर पूर्ण कलश रखे जासे ये 1२१९ बरे-बडे द्वार भी बनाये जाते थे। बृहदाकार होने के कारण एक स्थान पर एक द्वार की उपमा सुमेह को गुहा के आकार से दी गई है ।२७० सामाम्यतःद्वार के लिए काष्ठ का अधिक प्रयोग किया जाता है, किन्तु विशेष आकर्षण के लिए किसी विशेष महल आदि के द्वार २७१ रनों, मणियों तथा स्वर्ण आदि से भी निर्मित किये जाते थे ।२५२ इस प्रकार के द्वारों पर मोतियों की मालायें लटकाई जाती यौं ।२७ द्वार की देहली के सम्बन्ध में एक स्थान पर कहा गया है कि किष्कपुर नगर के द्वार की देहलो पदुपराग मणि से निर्मित होने के कारण लाल-साल दौलती थी, इस कारण ऐसी जान पड़ती थी मानों ताम्बूल के द्वारा जिसकी लाली बढ़ गई थी ऐसा ओठ ही धारण कर रही हो। इस प्रकार पद्मपरित में बार का जो वर्णन किया गया है, उससे उसकी छाही साज-सज्जा पर ही विशेष प्रकाश पड़ता है । प्रमुख द्वार दो ही होते थे जिन्हें सम्पन्सर द्वार (मीवरी द्वार) और बाह्य द्वार (भाहरी द्वार) कहा गया है । २७४ वास्तुशास्त्र की शम्दावली के अनुसार पोखट के ऊपर जो लकड़ो अथवा निर्मिति होती है उसे उडुमार कहते हैं। इसी उधुम्बर अथवा सिटल के नीचे द्वार की स्थापना होती है। दोनों दीवारों का यह मध्यायकाश देहली के नाम से पुकारा जाता है। इसका दूसरा माम कपाटाश्रय है। द्वार के अन्य घटकों अर्थात् पल्लों को कपाटयुमल कहते है 1२७५ पद्मचरित में एक कम्प नाम के व्यक्ति का उल्लेख आता है जो कपाट
२६७. मारतीम स्मापत्य, १० १३२ । २६८. पर० ३८1८३ । २७०, यही, ७१८। २७२. वही, ६।१२४ । २७४. वही, ३११७ । २७५. भारतीय स्थापत्य, पृ० १७१ ।
२६९. पन० १२१३६८ । २७१. वही, ७१।८। २७३. वहो, ६।१२७ ।