________________
कला : १८७ बॉ० कुमारस्वामी ने भारतीय रोशनदान या खिड़कियों (प्राचीन वातायन १८९, पाली - वातानाम) के विकास का अध्ययन करते हुए बताया है कि शुङ्गकाल और कुषाणकाल में बातापान तीन प्रकार के थे-बेदिका वातापान, जाल वातापाम तथा शलाका वातापान, किन्तु गुप्तकाल की वास्तुकला में सोरणों के मध्य में बने हुए वातायन गोल हो गये हैं। सभी उनका गबाज (बैल गोल) यह अन्वर्थ नाम पड़ा । ३९० विषेण ने निमित स्तावपिहिता बनिताननैः पद्म० २८/१६ ) इनकी सघनता की ओर संकेत किया है । जाल के समान होने के कारण इन्हें जालक भी कहते थे । १९५ इस प्रकार के जो जालक मणियों से युक्त या मणिनिर्मित होते थे, उन्हें 'मणिजालक' कहा जाता था |३९२
की आँख को तरह am मिला
"
क्रीडनक स्थान ११ – ( क्रीडास्थल) पद्मचरित में भरत के ऐसे क्रीडनक स्थान या क्रीडास्थल का वर्णन किया गया है जो निष्यूँ है ( छपरी ) वलभी (अट्टालिका, वङ्ग (शिखर) प्रवण ( देहली) की मनोहर कांति से युक्त पंक्तिबद्ध रचित बड़े-बड़े प्रासादों (महलों) से सुशोभित था, जहाँ के फर्श (कुट्टिम) माना प्रकार के रङ्ग र मणियों से बने हुए थे, जहाँ सुम्दर सुन्दर दीर्घिकायें थीं, जो मोतियों को मालाओं से व्याप्त था, स्वर्णजटित था, जहाँ वृक्ष फूलों से युक्त थे, जो अनेक आश्चर्यकारी पदार्थों से व्याप्त था, समयानुकूल मन को हरण करने वाला था, बाँसुरी (वंश) और मृदङ्ग (सुरज) के खजने का स्थान था, सुम्बरी स्त्रियों से युक्त था, जिसके समीप ही कपोलों से युक्त हाथी विद्यमान थे, जो मद की सुगन्ध से सुवासित था, घोड़ों को हिनहिनाहट से मनोहर था, जहाँ कोमल संगीत हो रहा था, जो नाना रत्नों के प्रकाशरूपी पट से आवृत या तथा देवों के लिए भी रुचिकर था। इस वर्णन को देखकर ऐसा लगता है मानो क्रीडनक स्थान के बहाने रविषेण सुन्दर राजप्रासाद का ही वर्णन कर रहे हों। सुन्दर राजप्रासाद निक्यूँ है, बलभी, शृङ्ग और प्रघण से युक्त होता है । उसमें अच्छा फर्श होता है । स्नान आदि के लिए सुवासित जल से परिपूर्ण दोषिकायें होना तो उस काल के राजप्रासाद की विशेषता ही मानी जाती थी । प्रासाद के अन्त:पुर में सुन्दर स्त्रियों का निवास होता ही था। मुख्य भवन के साथ-साथ उससे
३८९. १० १९। १२२ ।
३९० हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन |
३९१. पद्म० १९ । १२२ ।
३९३. वही, ८३४१-४५ ।
३९२. पद्म० १९११२२ ।