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१८६ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
नृत्य किया कि वे मतक्रिया जिस स्थान में ठहरती श्री, सारी सभा उसी स्थान में अपने नेत्र लगा देती थी। सारी सभा के नेत्र उसके रूप से, कान मधुर स्वर से और मन रूप तथा स्वर दोनों से मजबूत बंध गये थे । सामन्त लोग नर्तकियों को पुरस्कार देते-देसे अलङ्काररहित हो गये थे, उनके शरीर पर केवल पहिनने के वस्त्र ही बाकी रह गये थे ।२७८ सभा का दूसरा नाम सद्स भी मिलता है । सभा रमणीक उद्यान में भी बनाई जाती थीं। ४६३ पर्व में प्रमदवन में अनेक खण्डों से युक्त सभागृह विद्यमान होने का कथन रविषेश ने किया है । ९८०
दीधिका-राजा भरत के क्रीडास्थल (क्रीडनक स्थान) में सुन्दर-सुन्दर दौधिकाओं के होने का कषन ८३वें पर्व में किया गया है । ३८५ दीपिका एक लम्बी नहर होती थी जो राजमहलों के भागों में प्रवाहित होती हुई गृहोद्यान सक जाती थी। दीपिका के बीच में गन्धोदक से पूर्ण क्रीड़ावापियाँ बनाकर कमल, हंस आदि के विहारस्थल बनाये जाते थे । १८२ पनवरित में इस प्रकार की अनेक दीपिकाओं का वर्णन है जो उत्तमोत्तम बगीचों के मध्य में स्थित, अनेक प्रकार के फूलों से सुशोभित, उत्तम सीड़ियों से युक्त एवं क्रीड़ा के योग्य थीं ।३८३
ही बार छठी-पनी 'राटदी के मादों की माला की विशेषता थी । लम्बी होने के कारण इसका नाम दीपिका पड़ा ।३४४
गवाक्ष -रावण के रूप का वर्णन करते हए पचनरित में कहा गया है कि जब वह नगर में गमन करता हुआ आगे जाता था तब उसे देखने के लिए स्त्रियाँ अत्यन्त उस्कण्ठित हो समस्त कार्यों को छोड़कर झरोखों में आ जाती थी। गवाक्षों में झांकते हुए स्त्रीमख गुप्तकाल की विशेषता थी । कालिदास ने लिखा है कि झांकते हुए पुरस्त्रियों के मुखों से गवाक्ष भरे हुए थे । ३९८
३७८, पप्र० ३७.१०९-१११। ३५९. पद्म० ११०१८ । ३८०. बही, ४६११५२।
३८१. बहो, ८३।४२। ३८२. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०६ 1 ३८३. पम० ३८३३४२ । ३८४. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० २०६ । ३८५. पद्मा १२१३७ !
३८६ पय० ११।३२८, ३२९ । ३८७. वासुदेवशरण अप्नवाल : हर्षचरित एक मांस्कृतिक अध्ययन,
__ -पृ० ८५, ८६ । २८८. सान्द्रकुतूहलानां पुरसुन्दरीणां मुखैः गवाक्षाः च्याप्तान्तराः ॥
-रघुवंश ७५:११ ।