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१६ : पनवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति अहिंसा व्रत धारण करते है,३०० महावत रूपी लम्बी चोटी धारण करते है, ध्यान रूपी अग्नि में होम करते हैं तथा शाम्त है और मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर रहते है १२०१ इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरम्भ में प्रयुक्त है, निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं तथा कियाहीन है।०२ वे केवल ब्राह्मण नामधारी ही है, वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें कुछ भी नहीं है । २०२* ऋषि, संयत, घोर, शान्त, दान्त और जितन्द्रिय मुनि ही वास्तविक काह्मण है ।२०५
भृत्यवृत्ति और उसको निन्दा-पद्मचरित के अध्ययन से ऐसा विदित होता है कि उस समय तक भुस्यवृत्ति बहुत ही निन्दित, गहित और दुःखकारक मानी जाने लगी थी। यही कारण है कि नीलांजना के नत्य को देखने के बाद ऋषभदेव के वैराग्य में इस भावना को मूल बतलाया गया है 1 वे कहते हैं कि इस संसार में कोई तो पराधीन होकर दासवृति को प्राप्त होता है और कोई गर्व से स्खलित वचन होता हु उसे आग प्रदान करता
भाभी उस समय ठीक स्थिति नहीं थी इसी कारण उन्हें नीच कार्य करने वाला बतलाकर उनके प्रेष्य आदि अनेक भेद किए गये । २०५ हिंसक जीवों से भरे हुए वन में छोड़कर मीता को दयनीय अवस्था में देख कृतान्तवक्र सेनापति मृत्यति की बहत अधिक निन्दा करता है। उसके अनुसार जिसमें इच्छा के विस चाहे जो करना पड़ता है, आस्मा परतंच हो जाती है और क्षत् मनुष्य ही जिसकी संदा करते हैं ऐमी लोकनिन्ध भुत्यवृत्ति (दासवृत्ति) को धिक्कार है ।३० जो यन्त्र की चेष्टाओं के समान है तथा जिसको आत्मा निरन्तर दुःख उठाती है ऐसे सेवक की अपेक्षा कुक्कुर का जीवन बहुत अच्छा है ।"0" सेवक कपड़ाघर के समान है जिस प्रकार लोग कचड़ाघर में कचड़ा गालकर पीछे उससे अपना चित्त हटा लेते हैं उसी प्रकार लोग सेवक से काम लेकर पीछे उससे चित्त हटा लेते हैं। जिस प्रकार कचड़ाघर निर्माल्य अर्थात् उपभुक्त वस्तुओं को धारण करता
३००. प. १०२।८० ।
३०१. १५.० १.९४८१ । ३०२. वही, १०९।८२ । ३०२.* दही, १०९।८३ । ३०३. बही, १०९।८४ । ३०४. बही, ३१२६५ । ३०५, वही, ३४२५८। ३०६. धिग् भत्यतां जगन्निम्यो यत् किंचन विषामिनीम् ।
परायती कृतास्मान सुदमानयसेषिताम् ॥ पन. ९७॥१४० । ३०७. मन्त्रचेष्टिततुल्यस्य दुःखैकनिहितात्मनः ।
भृत्पस्य जीविताद् दूरं वरं कुक्कुरजीवितम् ।। पन९७।१४।