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पद्मचरित का परिचय : ३ डॉ० बुलर आदि इसे ईसा की तीसरी शताब्दी के लगभग की या उसके बाद की रचना मानते हैं, क्योंकि उसमें दीनार शब्द का और ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी कुछ ग्रीक शब्दों का उपयोग किया गया है। दो० ब० केशवराव घुष उसे और भी अर्वाचीन मानते हैं । इस ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देश के अन्त में जो गाहिणी, शरम आदि छन्दों का उपयोग किया गया है वह उनकी समझ में अर्वाचीन है । गीति में यमक और सर्गान्त विमल शब्द का आना भी उनकी दृष्टि में अर्चाचीनता का घोतक है ।" डॉ० मिटर निरज, डॉ० लॉयमन आदि विद्वान् वीर नि० ५३० को ही पउमचरिय का रचनाकाल मानते हैं । १२ उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला में जो वि० सं० ८३५ में समाप्त हुई थी, विमल १३ के विमलांक (पउमचरिथ) रवि के ता है इससे निश्चित रूप से इतना तो अवश्य ही सिद्ध होता है कि पउमचरिय वि० सं० ८३५ से पूर्व की रचना है | पं० नाथूराम प्रेमी पद्मचरित को प्राकृत पउमचरिय का पल्लवित छायानुवाद मानते हैं । इसकी पुष्टि के लिए उनके प्रमुख तर्क निम्नलिखित " है ।
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१. दोनों ग्रन्थकर्ताओं ने अपने-अपने ग्रन्थ में रचनाकाल दिया है। उससे स्पष्ट है कि पउमचरिय पद्मचरित से पुराना है ।
२. पद्मचरित में विस्तार और पउमचरिय में संक्षेप पाया जाता है ।
३. दोनों का कथानक बिल्कुल एक है और नाम भी एक है ।
४ पर्वा या उद्देशों के नाम प्रायः एक से हैं ।
५. पउमचरिय के अन्तिम पद्य में विमल और पद्मचरित के पर्व के अन्तिम पद्य में रवि शब्द आता है ।
६. पद्मचरित में जगह-जगह प्राकृत आर्याओं का शब्दश: संस्कृत अनुवाद दिखलाई देता है ।
१०. इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत |
११. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ११ ।
१२. वही, पृ० ११ ।
१३. जारसियं विमलको विमलको तारिसं लहइ अत्यं । अमयम इयं च सरसं सरसं चिय पाइअं जस्स || १४. जेहि कर रमणिज्जे वरंग पउमाणचरियचित्थारे । कण सलाहणिजे ते करणो जड़िय रविसेणौ ॥ - जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८८ ।
१५. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८९-९० ।