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________________ सामाजिक व्यवस्था : ८५ अत्यधिक सूखी माना जाता था। एक स्थान पर ऐसे फुटुम्नियों को उत्तम देवों के समान मुशोभित कहा गया है ।"३" दूध, दही, घी तथा पी से तैयार किए गए अनेक स्वादिष्ट व्यरजन उस समय का प्रमुख भोजन था । ५३९ अन्य उद्यम-कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के अतिरिक्त अन्य अनेक उद्यम थे । इन उद्यमों को करने वाले व्यक्ति विशेन नामों से पुकारे जाते थे । जैसे सेवक, धानुष्क, क्षत्रिय, ब्राह्मण, नृत्यकार, रजक, पुरोहित, शबर, पुलिन्द, लुब्धक, संगीतज्ञ तथा श्रेष्ठ आदि । इन सबका उल्लेख पहले किया जा चुका है। आर्थिक समृद्धि की पराकाष्ठा-आशिक समृद्धि की पराकाष्ठा का रूप यद्यपि तीर्थर की भौगोपभोग सामग्री में मिलता है, किन्तु तीयंबर के पुण्यप्रकर्ष से यह सब देवोपनीत होने से यहां पर उसका विशेष कथन नहीं किया जाता है। भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त करने में दूसरा स्थान चक्रवर्ती का है । चक्रवर्ती की सम्पदा की गणना में भरत चक्रवर्ती की कृषि और पशु सम्पदा का उल्लेख किया जा चुका है। इसके अतिरिक्त उनके पास नव रत्नों से भरी हई अक्षय नौ निधिर.५१° निन्यानरमा भौं । मज को हो शामर ५३८. पन० ८३।२० । ५३९. पा० ३४।१३-१६ । ५४० . आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण में भरत चक्रवर्ती की नौ निधियों में १-काल, २ महाकाल, ३-पाणक, ४-माणच, ५-नौसर्प, ६-सर्वरन्न, ७-शंख, ८-पद्म और ९-पिंगल को गिनाया है। ये सभी निधियां भविनाशी थीं, निधिपाल नामक देवों के द्वारा सुरक्षित थीं और निरम्तर लोगों के उपकार में आती पी। में गाड़ी के आकार की थी, चार-चार भौरों और आठ-आठ पहियों सहित थीं। नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, आठ योजन गहरी बोर वभारगिरि के समान विपाल कृषि से सहित थीं। प्रत्येक को एक-एक हजार देव निरन्तर घेखरेख करते थे । इनमें से पहली कालनिधि में ज्योतिःशास्त्र, निमित्तशास्त्र, न्यायशास्त्र, कलाशास्त्र, व्याकरण शास्त्र एवं पुराण आदि का सद्भाव था अर्थात् कालनिधि से इन सबकी प्राप्ति होती थी । दूसरी महाकाल निधि में विद्वानों के द्वारा निर्णय करने योग्य पंचलोह आदि नाना प्रकार के लोहों का सद्भाव था। तीसरी पाण्छुक निधि में मालि, मोहि, जो आदि समस्त प्रकार की धान्य सथा कड़ए, चरपरे आदि पदार्थों का सद्भाव था । चौथी माणबक निधि कवच, दाल, सलवार, बाण, शक्ति, अनुष तथा चक्र आदि नाना प्रकार के दिव्य वस्त्रों से परिपूर्ण यो। पाँचवीं
SR No.090316
Book TitlePadmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size6 MB
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