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कला : १३९
नाट्य-कला भरत मुनि मे कहा कि कोई शान, शिल्प, विद्या, कला, मोग या कर्म ऐसा नहीं है, जो नाट्य में न आता हो। पद्मचरित के अनुसार गीत, नृत्य, वादिन इन तीनों का एक साथ होमा नाय कहलाता है ।" भरत मुनि ने भी कहा है कि नाट्य के प्रयोक्ता को पहले गीत में परिश्रम करना चाहिए, क्योंकि गीत नाट्य की शय्या है । गीत और वाद्य भलीभांति प्रयुक्त होने पर नाट्यप्रयोग में कोई विपत्ति नहीं होती।' नाट्य के सम्पादन के लिए नाट्यशाला और प्रेक्षागृह होना चाहिए । पचरित में एक से एक बढ़कर नाट्यशालाओं और अनेक को संख्या में छमाई गई प्रेक्षकशालाओं (दर्शकगृहों) के होने का उल्लेख किया गया है।
संगीत-कला सम् (सम्यक) और गीत दोनों के मेल से 'संगीत' शब्द बनता है । मौखिक गाना हो गीत है। इसे अभिमक मुप्त ने नाट्य का प्राण कहा है, अतः इसका प्रयोजन नाट्य से भिन्न नहीं है। सम का अर्थ है अच्छा । बारा और नृत्य दोनों के मिलने से गौस अच्छा बन जाता है । अतः वाद्य और नृत्य को गीत के ऊपर अक एवं उत्कर्षविधायक मात्र कहा जाता है।११ पारित में अनेक स्थानों पर संगीत का उल्लेख मिलता है ।१२ यहाँ संगीतशास्त्र के अनेक
४.. न तच्छतं न सा विद्या न स न्यायो न सा कला । न स योगो न तत्कर्म नाटफे यन्न दृश्यते ।।
__ -भरतमुनि : नाटयशास्त्र, प्रथम अध्याय । ५. फलाना तिसृणामासां नाटयमेकी क्रियोच्यते ।। पप० २४।२२ । ६. गीते प्रयत्नः प्रथम तु कार्यः शम्यां हि नाटयस्य वदन्ति गौतम् । गीते च वाद्ये च सुप्रयुक्त नाट्यप्रयोगो न विपत्तिमेति ॥
नाट्यशास्त्र, बम्बई संस्करण, अध्याय २२ ।
८. पन० ९५.६६ । ९. प्राणभूत तावद् ध्रुवागानं प्रयोगस्य ।
-अभिनव मारती, बड़ौदा सं० तृतीय खण्ड, पृ० ३८६ । १०. गोतं वाद्यं च नृत्यं च प्रर्य सङ्गीतमूच्यले ।।
-के. वासुदेवशास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ० १। ११. नृतं वाचानूगं प्रोक्तं वाचं गीतानुवति च ।।
-आचार्य शाङ्ग देव : संगीतरत्नाकर (अयार संस्करण, पृ० १५) १२. पन०६।१४, ३६.९२,४८२, ४०।३० ।
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