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१४० : पपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति पारिभाषिक शब्द जैसे स्वर, वृत्ति, मूर्च्छना,१५ लय,१५ ताल," जाति", ग्राम,१९ आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनमें से अनेक का विस्तार से वर्णन भी किया गया है ।
स्वर--षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, घंवत और निषाद ये सात स्वर कहलाते है ।२० भरत मुनि ने भी स्वरों की संख्या में इन्हीं को गिनाया है ।२१ स्वर का निजी अर्थ ग्रन्थों में ऐसा दिया गया है---
श्रुत्यनन्तरभावी यः सब्दोऽनु रणनात्मकः ।
स्वतो रजयते श्रोतुश्चित्तं स स्वर ईर्मसे ।। इस फ्लोक में स्वर का लक्षण ऐसा कहा है२२--
(१) श्रुतिवों को लगातार उत्पन्न करने से स्वर की उत्पत्ति होती है।
(२) शब्द का अनुरणन रूप ही स्वर कहलाता है। अर्थात् प्रत्येक पाद में आहति के बाद होने वाला शब्द, लहरों के क्रम से उत्पन्न होकर फिर क्रम से लीन हो जाता है। इसका नाम अनुरणन है। अनुरणन ही स्वर का मुख्य स्वरूप है, क्योंकि अनुरणन में स्वर श्रुतियों का प्रकाशन होता है ।
(३) प्रत्येक स्वर दूसरे स्वर को सहायता के बिना स्वर्ग रम्यक है।
वृत्ति-पप्रधरित में द्रुता, मध्यमा और विलम्बिता इन तीन वृत्तियों के प्रयोग का उल्लेख किया है ।२३
मूच्र्छना-क्रमयुक्त होने पर सात स्वर मूर्छना कहे जाते है ।२४ मूछना
१३. पं० १७४२७७३
१४. प. १७२७८ । १५. वही, १७।२७८।
१६. वही, २४।९। १७. वही, २४।९।
१८. वही, २४।१५ । १९. वही, ३७।१०८। २०. षड्जर्षभी तृतीयप गान्पारो मध्यमस्तथा ।
पञ्चमो बसश्चापि निषावहत्यमी स्वराः ।। पप० २४।८। २१. षड्जरच ऋषभचंब गान्धारो मध्यमस्तथा । पञ्चमो, धैवतश्च सप्तमध निषापवान् ।।
-नाट पशास्त्र व० सं० अ० २८, पृ० ४३२। २२. संगीतशास्त्र, पृ० १४ । २३. पप०१७।२७८॥ २४. क्रममुक्त स्वराः सप्त मूर्च्छनास्त्यभिसंशिताः ।।
नाट्यशास्त्र, बम्बई से० ३०१२८,१०४३५