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अध्याय ४ कला
कला श्री व सौन्दर्य को प्रत्यक्ष करने का साधन है । प्रत्येक कलात्मक रचना में सौन्दर्य व श्री का निवास रहता है। जिस सृष्टि में भी नहीं वह रसहीन होती है। वहाँ रस नहीं वहीं प्राण नहीं रहता। जिस स्थान पर रस प्राण और श्री तीनों एकत्र रहते है वहीं कला रहती है ।' श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी 'परसनेलिटी' नामक पुस्तक में 'व्हाट इस आर्ट' शीर्षक लेख में ज्ञान के दो पक्ष कला और विज्ञान स्वीकार करते हुए लिखा है कि कला मनुष्य की बाह्य वस्तुओं को अपेक्षा स्वानुभति की अभिव्यक्ति है।
कलाओं का वर्गीकरण-कलाओं की गणना के सम्बन्ध में सबसे अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध संख्या ६४ है। वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में ६४ कलाधों को गिनाया है। शुक्रनीति तथा तन्त्रग्रन्थों में कला की संख्या ६४ ही दी गई है, कहीं-कहीं सोलह, मत्तीस और ६४ कलाओं के नाम दिए गए हैं और कहीं ६४ से भी अधिक । ललितविस्तर में पुरुष-कला के रूप से ८६ नाम गिनाए है और काम-कला के रूप में ६४ नाम है । प्रबन्धकोश में कलाओं की संख्या ७१ लिखी हुई है । क्षेमेन्द्र की रचना 'कला विलास' में सर्वाधिक कलाओं के नाम दिए हुए है इनमें ६४ लोकोपयोगी फलायें है, ३२ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति की और ३२ मात्सर्य, शील, प्रभाव और मान की है। इसके अतिरिक्त ६४ कलामें सुनारों की सोभा चुराने की, ६४ कलाएं वेषमाओं की नागरिकों को मोहित करने की, १० भेषज कलायें और १६ कायस्थों की कलायें है, जिनमें उनके लिखने का कौशल और लेखनकला द्वारा जनता और शासन को धोखा देने की बातें हैं। इनके अतिरिक्त गणकों की कलाओं एवं १०० सार कलाओं का वर्णन है । वात्स्यायन एवं अन्यान्य आचार्यों द्वारा की गई कला-परिगणना पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि तत्कालीन प्राचार्य किसी भी विषय पर कृत्य में निहित कौशल को कला मानते थे। पद्यचरित में भी हमें अनेक कलाओं के दर्शन होते हैं। ये कलायें निम्नलिखित है
१. में वासुदेवशरण अग्रवाल : कला और संस्कृति, पृ० २३० । २. डॉ० रामकिशोर सिंह यादव : प्राचीन भारतीय कला एवं संस्कृति, पृ. ४ । ३. कामसूत्र की देवदत्त शास्त्रीकृत व्याख्या, पृ० ८३, ८४ ।