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कला : १४७
राग आदि के जन्म का कारण होने से विशिष्ट स्वरसमिरवेश जाति को संज्ञा ले लेता है। अथबा ये जातियां मनुष्य की ब्राह्मणत्व आदिवासियों के समान
जातियों के भेद-पद्मचरित में युवती, आर्षभी, षड्ज, षब्जोंदीच्या, मिषादिनी, गान्धारी, षड्जकैकशी, षड्जमध्यमा, गान्धारोंदीच्या, मध्यमपंचमी गान्धारपञ्चमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कारवी, नन्दिनी और कोशिकी ये अठारह आतियाँ कही है। भरतमुनि ने भो जातियों के ये ही अठारह भेद गिनाए है।
धैवती-मारोह में षड्ज और पंचम लंध्य या वज्र्य है। रिध बहुल स्वर हैं । ताल पंचपाणि है । मार्ग, गीति. प्रयोग इत्यादि षाजी लात्ति की तरह होते हैं। मलायें बारह है। इस जाति में चौक्ष, फेशिकी, देशी, सिंहली इत्यादि रागों की छाया है।४५
आर्षभी-इस जाप्ति में गान्धार और निषाद का दूसरे पांच स्वरों के साथ मिलाकर प्रयोग करना पड़ता है। इस जाति में गान्धार और निषादबहुल स्वर है। पंचम अल्प स्वर है। पंचम का लेधन होता है । ताल चञ्चत्पुट (८ अक्षर) है। कलायें आठ है। नैनामिक ध्रया में प्रयोग किया जाता है। इस जाति में देशी मधुकरी की छाया है ।५० .
षड्ज-इसे पाजी भी कहते हैं । इस जाति में. (१) पाठव और मांडवरहित सम्पूर्ण रूप में काकली स्वरों का प्रयोग है। (२) सग सषा जोड़कर प्रयोग करना है. । (३) गान्धार जब अंश होता है तब निषाद का लोप नहीं है । (४) इस जाति के प्रबन्ध में साल है । पंचफाणि में जी षपितापुत्रक नामक वाल का एक भेद है, वाम है । (५) मह ताल एक कला; द्विकाला और चतुष्कला में प्रयुक्त किया जाता है । इस साल के मार्ग में चित्र, वार्तिक तथा दक्षिण का निर्यात हर कला
-.--.. ४६. श्रुतिमहस्वरादिसमूहाज्जायन्त इति जातयः । अतो जातप इत्युध्यन्ते
यस्माज्जायते रसप्रतीतिरारम्यत इति आतय: । अपना सकलस्थ रागादे: मन्महेतुस्वाजातय इति । यद्वा जातय इव जातयः, यथा नराणां ब्राह्मणलादयो जातयः ।
-मतङ्ग : भरतकोश, पृ० २२७ । ४७. पा. २४॥१२-१५ । ४८. भरत : नाटप शास्त्र, (बम्बई संस्करण), पृ० ४३९ । ४९. के. वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ. ५३ ॥ ५०. पही, पृ० ५२ ।