________________
१४६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
भरतोबत तालों में धतुरस्त्र अर्थात् च चत्पुट (पश्चत्पुट, चञ्चत्पुट) और व्यस्त अर्थात् चाचपुट (आपपुट) मुख्य हैं । इन दोनों के तीन भेद, ययाक्षर (एककल) द्विकल और वसुष्कल होते हैं ।४२ यथाक्षर से द्विगुण मात्रायें होने के कारण विगुण और वसुगुण मात्रामें होने पर चतुष्कल रूपों का निर्माण होता है ।
तालों का रूप जब ताल के नाम में प्रयुक्त अशरों की स्थिति के अनुसार होता है, तब ये यथाक्षर कहलाते हैं। यथाक्षर चञ्चस्पुट में अन्तिम अक्षर ट प्लत होता है और सायपुट में नहीं । संयुक्त वर्ण से पूर्व वर्ण लस्व होने पर भी दीर्घ या गुरु माना जाता है, फलतः चन्चरपुट शबद में क्रमश: गुरु, गुरु, लघु, प्लुत है। इसलिए यथाक्षर सम्वत्पुट का रूप 'I' और यथाक्षर बाचपुर का रूप '5' है । यथाक्षर चञ्चत्पुट में आठ और मषाक्षर पाषपुट में छ: मात्रायें होती हैं।४४ ___ जाति-रञ्जन और अदृष्ट अभ्युदय को जन्म देते हुए विशिष्ट स्वर ही विशेष प्रकार के सम्भिधेश से युक्त होने पर आति कहे जाते है । दश लक्षणों से मुक्त विशिष्ट स्वर-सन्निवेश जाति कहलाता है।"
जातियाँ श्रुति, ग्रह, स्वर आदि के समूह से जन्म लेती है, इसलिए जातियां कहलाती है, जातियां से रस की तीति उत्पन बारम्भ होती है। श्रयवा
४१. व्यसश्च चतुरस्रश्च स वालो द्विविधः स्मृतः । चतुरसस्तु विज्ञपस्तालश्यम्बू (च) त्पुटेऽम्बुधः ।।
-भरत : नाटधशास्त्र, पृ० ४७६ । ४२. सम्रः स स्वल विज्ञेयस्सालश्चापपुटो भवेत् ।
__ -भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ. ३४३ । ४३. तो चचस्पुट-चाचपुटौ (द्विगुणो) विकलापेक्षया विगुणीकृतौ सन्तौ चतुष्कला
वित्युच्यते । अष्टगुमितो हिकलचम्चत्पृटो द्विगुणीकरय षोडशगुरुसमितः संश्चतुष्कलो भवति । षड्गुरुसम्मितो विकलचाचपुटो द्विगुणीकृत्य द्वादशगुरुसम्मितः संश्वसुष्कलो भवति । -संगीत-रत्नाकर, मल्लिनायकृत टीका, अ० सं०, त्यला, पृ. १
(भरत का संगीतशास्त्र, पृ० २३६) ४४. कैलाशचन्द्र देव वृहस्पति : भरत का संगीत सिद्धान्त, १० २३६ । ४५. तर केमं जाति म ? उच्यते-स्वरा एव विशिष्ट सन्निवेशभाजो महा
ष्टाम्युष्यं च जनयन्तो जातिरित्युक्ताः । कोसो सन्निवेश इति चेत् जातिलक्षणेन दशकेन भवति सन्निवेशः ।
-आचार्य अभिनवगुप्त : भरतकोश, पृ० २२० ।