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१४८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
की दो, चार और माठ मात्राओं का) प्रयोग होता है । (६) गीति में मारपी, संभाविता और पृथुला इन तीनों का प्रयोग है। (७) नाटक में इस जाति का प्रयोग नष्कामिक वा में पहले दृश्य में किया जाता था । संगीतरत्नाकार-काल के (ई. सन् १२०० के) पराटी राग की छामा इस जाति में थी ।"
षड्जोदीच्या-समनि और ग इन चारों में दो-दो स्वरों का प्रयोग साथसाथ होता है । मइव गाम्पारवहुल स्वर है । षड्ज और ऋषभ अतिबल स्वर हैं। निषाद और गोधार मंश होते हैं तो निषाद का अल्पत्व नहीं होता। गीति, ताल, कला, विनियोग आदि पानी के ही समान है। इसका प्रयोग दूसरे दृश्य में ध्रुवा गान में होता था।५२ __निषादी-स म प घ मल्पत्व स्वर है और नि रिप बहुल स्वर है। विनियोग पाहमी की ही तरह होता है। ताल चम्चत्पुट है। कलायें सोलह है। चौक्ष, साधारित, देशी बेलावली आदि की छाया इस जालि में पाई जाती
गांधारी-स जाति में न्यास, स्वर एवं अंशस्बर अम्य स्वरों के साथ प्रयुक्त किये जाते हैं । रि और घ का साथ प्रयोग किया जाता है। पंचम के अंश होने पर जाति पाइव और औसवरहित अर्थात पूर्ण होती है। नि, स, म, इनमें कोई एक स्वर अंश होता है तो औडव हर नहीं होता । पूर्ण और षास्य रूप हो होते हैं । इसका ताल पचरपट है। प्रत्येक अक्षर की कलायें सोलह है। इसका प्रयोग तीसरे दृश्य में युवा गान में होता था। गांधारपंचमी, देशी बेलावली इन दोनों रागों की छाया इस जाति में है।
षड़ज कैशिकी-ऋषम और मध्यम अल्पत्व स्वर है। ताल चयपुट है। कलायें सोलह है। दूसरे दृश्य में प्रावैशिकी भूषा में इसका प्रयोग होता पा । इस जाति में गांधार पंचम, हिंदोल और देशी पेलावली की छाया है ।
षड्ज मध्यमा इस प्राप्ति में सब अंश स्वरों में से (स रि ग म प ध नि) दो-दो स्वरों का प्रयोग साथ-साथ होता है । इस जाति में अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है। निवाद का अल्पत्व है । गांधारांश न होने पर पाहव-औडव में गांधार और निषाद विवादी स्वर है। गोति, ताल, कला ये पानी की तरह हैं । यह दूसरे दृश्य में ध्रुवा गाम में प्रयुक्त होती है। ५१. के. वासुदेव शास्त्री : संगीतशास्त्र, पृ० ५२१ ५२. वही, पृ० ५४ ।
५३. वही, पृ० ५५ । ५४. बही, पृ० ५२-५३ । ५५. वहीं, पुष ५३ । ५६. वही, पृ० ५४ ।