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कला : १४९
गांधारोदीच्या-पूर्ण स्वरूप में अंश के सिवा अन्य स्वर अस्पत्व के हैं। षाहय रूप में भी नि, घ, प तथा गा का अल्पत्व है। रिऔर ष साथ-साप आते हैं। ताल पञ्चत्पुट है । कलायें सोलह है। चौथे दृश्य में चुना गान में इसका प्रयोग है।
मध्यपंचमी (पंचमी)-इस जाति में स ग और म अल्पवस्वर है । रिम और गनि दे प्रयोग साथ-साथ होते है। इस जाति में भी अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है | ऋषभ, अंश रहता है तो औडव रूप नहीं होता। पूर्ण और षाडव मात्र होते है। ताल पञ्चत्पुट है। तीसरे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था । चोक्ष पंचम तथा देशी आघाली की रागच्छायायें इस जाति में है । ___ गांधारपंचमी-इस जाति में गांधारी और पंचमी दोनों जातियों के समान, स्वरों का प्रयोग साथ-साथ होता है। ताल पञ्चस्पुट है। फलायें सोलह है । चौथे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था।
रक्तगांधारी-पज और गांधारी का साथ-साथ प्रयोग होता है । धैवत और निषाद बहुल स्वर है। ताल, गीति और कला पाइजी के ही अनुसार है । तीसरे दृश्य में ध्रुवा गान में इसका प्रयोग होता था।
मध्यमा-इस जाति में षड्ज और मध्यम बहुल स्वर है। इस आति में साधारण स्वर अर्थात् अन्तर काकली स्वरों का प्रयोग है। गांधार और निषाद अल्पस्व स्बर है । ताल चञ्चत्पुट है । कलायें आठ है। इसका प्रयोम दूसरे दृश्य में ध्रुवा गान में होता था। चौक्ष (ख) बाहब और देशी आंधाली इन दोनों की छाया इस जाति में है। ___ आन्ध्री-इस जाति में रि ग घ और नि इन स्वरों को मिला-मिलाकर प्रयोग करना चाहिए । अंशस्वर से म्यासस्वर तक का क्रमसंचार है । अभ्य लक्षण गांधारपंचमी के अनुसार ही है ।१२।
मध्यमोदीच्या (मध्यमोदीच्यका)-इस जाति में अल्पस्व, महत्व और स्वरसंगति गांधारोधीच्या के समान है। ताल चमत्पुट है । मलायें सोलह है । चौथे दृश्य में प्रवा गान में इसका प्रयोग होता था।" ___ कारवी-इस जाति में जो स्वर अंश के नहीं है, वे असरमार्ग प्रयोग के महुत स्वर है। गांधार अति बहुल स्वर है। अंग स्वरों में से दो-दो स्वरों का
५७. वासुदेवशास्त्री, संगीवशास्त्र, पृ० ५४ । ५८. वही, १०५३ ।
५९. वही, पृ० १५ । ६०. वही, पु० ५४ ॥
६१. वही, पृ० ५३ । ६२. वहीं, पृ० ५५ ।
६३. वही, पृ० ५५ ।