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२२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
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विपट आती थीं। अतः
चीखती हुई वहीं फिर पैर रख देती थी |999 वह अपना शरीर तो कठिनता से धारण कर रही थी । वह कभी अपनी निन्दा करती थी तो कभी भाग्य को बार-बार दोष देती थी। लतायें उसके शरीर में ऐसा मालूम पड़ता था कि दया से वशीभूत होकर मानो उसका आलिंगन ही करने लगती थीं । ११२ उसके नेत्र भयभीत हरिणी के समान चंचल थे 1 थकावट के कारण उसके शरीर में पसीना निकल आता था, कोटेदार वृक्षों में वस्त्र उलझ जाता था तो देर तक उसे ही सुलझाती खड़ी रहती थी। उसके पैर रुधिर से लाल लाल हो गये थे, अतः ऐसे जान पड़ते थे मानो लाख का महावर ही उसमें लगाया गया हो । शोकरूपी अग्नि की दाह से उसका शरीर अत्यन्त सविला हो गया था। पत्ता भी हिलता तो वह भयभीत हो जाती थी। उसका शरीर कपिने लगता था, भय के कारण उसकी दोनों जांघें अकड़ जाती थीं और बंद के कारण उनका उटामा कठिन हो जाता था। अत्यन्त प्रिय वचन बोलने वाली सखी उसे बार-बार बैठाकर विश्राम कराती थी। इस प्रकार दुःख से भरी अंजना धीरे-धीरे पहाड़ के समीप पहुँची। वहाँ तक पहुँचने में इतनी अधिक थक गई थी कि शरीर सम्भालना भी दूभर हो गया। उसके नेत्र से आंसू बहने लगे और वह भारी खेद के कारण राखी को बात सुनकर बैठ गई । कहने लगी अब तो मैं एक डग भी चलने के लिए समर्थ नहीं है, अतः यहीं ठहरी जाती हूँ । यदि यहाँ मरण भी हो जाय तो अच्छा है ।११३
१११ तत्र तत्रैव भूदेशे न्यस्यन्ती चरणो पुनः 1
स्तनन्ती दुःखसंभाराद्देहं कृच्छ्रेण बिभ्रती ॥ पद्म० १७ १०० । ११२. निन्दन्ती स्वमुपालम्भं प्रयच्छन्ती मुहुविधेः ।
कारुण्यादिव वल्लीभिः श्लिष्यमाणा खिलाङ्गिका ॥ पद्म० १७।१०२ । प्रस्तसारङ्गजावाशी श्रमजस्वेदवाहिनी | कारुण्यादिव वल्लीभिः श्लिष्यमाणा खिलाङ्गिका ।। क्षतजेनाश्विती पायी लाश्रिताविव बिभ्रती । शोकाग्निदाहसंभूता श्याम दधती पराम् ।। मुविश्रम्यमानाया नितान्त प्रियवाक्यया । गिरेः प्रायोजना मूलं शनकैरिति दुःखिता || तস धारयितुं देहमसक्ता साघुलोचना | अपकर्ण्य सखीवाक्यं महास्वादुपाविशद् ।। जगाद च न शक्नोमि प्रयातुं पदमप्यतः । तिष्ठाभ्यत्रैव देशेऽहं प्राप्नोभि मरणं वरम् ।।
-पद्म० १७।१०२-१०८ १
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