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पाचरित का सांस्कृतिक महत्त्व : २९९ पनवरित के प्रत्येक एवं के अन्तिम श्लोक में रमि शब्द आता है । हरिवंश पुराण के प्रत्येक सर्ग के अन्त में जिन शब्द आता है ।
पदमचरित और पउमचरिउ कवि स्वयम्भू ने परमचरिउ की रचना की। शा. देवेन्द्रकुमार ने इनका काल आठवीं शताब्दी का प्रथम चरण निर्धारित किया है। कवि की उक्त रचना का आधार आचार्य रविषेण कृत पगचरित है। पतमचरित की पनमो संधि (प्रथम संधि) में कवि में स्वयं इस बात को स्वीकार किया है। पूर्वाचार्यों की परम्परा भी कवि ने वही दी है जो रविषेण ने अपने पक्षचरित में दी है। इतना विशेष है कि उसमें रविषण का नाम जोड़कर ताद में अपने नाम का निर्देश किया है । तदनुसार भगवान् महावीर के मुख पर्वत से निकलकर क्रम में बहती हुई" रामकथा रूपी नदी में क्रमशः आचार्य इन्द्रभूति, गुणों से अलंकृत सुधर्मा, संसार से विरक्तप्रभव, कीर्तिघर, उत्तरवाम्मी, रावण और स्वयम्भू को रामकथा रूपी नदी में अवगाहन करने का अवसर मिला" यहां यह बात उल्लेखनीय है कि रविषण को उत्तरवारमी मुनि के साक्षात् मुख से रामकथा प्राप्त न होकर उनके द्वारा लिखी हुई रामकथा प्राप्त हुई थी । गुरु परम्परा उत्तरवारमी के बहत बाद की है, जो इस प्रकार प्राप्त होती है-इन्द्रगुरु के शिष्य दिवाकरयति थे, उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि घे और लक्ष्मणसेन के शिष्य रविण थे । ** (4) कथानक के लिए तो स्वयम्भू ने पूरी तरह से पमचरित का अनुसरण किया ही ६५. पउमचरित--भाग १ (महाकवि स्वयम्भू) सम्पादक अनु० डा. देवेन्द्रकुमार
जन, (भानपीठ प्रकाशन, १९५७) । ६६. बक्षमाण मूह कुहर चिणिग्गय । रामकहागणइ एह कमागम ।।
-पउममरिख ।१। ६७. एह रामकह सरि सोहन्ती । गणहर देवेहि दिछ वहन्ती ।।
पच्छइ इन्दभूइ आयरिएं । पुण धम्मेण गुणालंकरिए । पुणु पहचे संसाराराएं । कितिहरेण अमुसरवाएं ।। पुणु रविणायरिय-पसाएं । बुद्धिए अषगाहिय काराएं ।।
-पउमचरिउ ११२१६-९ । वर्द्धमानमिनेन्द्रोक्तः सोऽयमों गणेश्वरम् । इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्मधारणीभवम् । प्रभवं कमतः कीर्ति ततोऽनु (न) त्तरपास्मिनम् ।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेयनो यमुद्गतः ।।-पदम० १।४१-४२ । ६७ (म). आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरयतिः शिष्योऽस्य पाहन्मुनिः ।
तस्माल्लक्ष्मणसेनतन्मुनिरवाशिष्यो रविस्तु स्मृतम् ।।