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. धर्म धीर दर्शन : २६३ द्रव्य निक्षेप है । जैसे कभी पूजा करने वाले पुरुष को वर्तमान में पुजारी कहना और मषिष्यत् में ग़जा होने वाले राजपुष को राजा कहना ।२५४
भावनिक्षेप-केवल वर्तमान पर्याय को मुख्यता से अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूप कहना भावनिक्षेप है। जैसे काष्ठ को काष्ठ अवस्था में काष्ठ, आग होने पर आग और कोयला हो जाने पर कोयला कहना । २५५
अनुयोग-आगम में सत्, संख्या, थोष, स्पर्शन, काल, अम्तर, भाव, अरूपबहुत्त्व५५ इन आठ अनुयोगों का सामान्य से भागाधान पारमार्गमाओं की अपेक्षा किया जाता है । यहाँ जनका सामान्य निर्देश किया जाता है
सत्-वस्तु के अस्तित्व को सत् कहते हैं । संख्या-वस्तु के परिणामों की गिनती को संख्या कहते हैं । क्षेत्र-वस्तु के वर्तमान काल के निवास को क्षेत्र कहते हैं। स्पर्शन-वस्तु के तीनों काल सम्बन्धी निवास को स्पर्श न कहते हैं । काल-वस्तु के ठहरने की मर्यादा को काल कहते हैं। अन्तर-वस्तु के विरहकाल को अन्तर कहते हैं। भाव-मोपशामिक क्षायिक आदि परिणामों को भाव कहते है। .अल्पबहुत्व-अन्य पदार्थ की अपेक्षा किसी वस्तु को हीनाधिकता वर्णन करने को अल्पबहुम कहते हैं ।
भव्य और अभव्य जीव-जीवों के भव्य और अभव्य इस प्रकार दो भेद और भी हैं। जिस प्रकार सर्द आदि अनाज में कुछ सो ऐसे होते है जो पफ जाते है-सोस जाते है और कुछ तो ऐसे होते हैं कि प्रयत्न करने पर भी नहीं पकते हैं-- नहीं सीमत है । उसी प्रकार जीवों में भी कुछ जीव तो ऐसे होते हैं जो कर्म नष्ट कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो सकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो प्रयत्न करने पर भी सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकते । जो सिद्ध हो सकते हैं के भव्य कहलाते हैं और जो सिद्ध नहीं हो सकते वे अभव्य कहलाते हैं। इस तरह भव्य और अभव्य की अपेक्षा जीव के दो भेद हैं ।२५७ भव्य की सामर्थ्य और अभव्य की असामय का पनचरित में विस्तार से उल्लेख किया गया है । २५६ २५४, पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र, पृ. ६ । २५५. वही, पृ०६। २५६. सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च । तत्त्वार्थसूत्र ११८ ।
सदाचष्ट्रानुयोगच भिद्यते चेतना पुनः ।-पत्र. २।१६० ।
मोक्षशास्त्र (टीका पं० पन्नालाल साहित्याचार्य) पु० ८। २५७. पद्म २११५६, १५७, १०५।२०३ । २५८. पद्मा १०५।२६०,२६१,१०५।२००-२०२; ३११३, १४, ७३१७ ।