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६४ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित सस्कृति
देव की पारण में गये ।२८९ भगवान ऋषभदेय ने हे पुत्र ! इनका हनन मत करो (मा हनन कार्षीः) यह शब्द कहकर इनकी रक्षा को थी इसलिए आगे चलकर ये माहन (ब्राह्मण) इस प्रसिद्धि को प्राप्त हो गये ।२५०
वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं ब्राह्मणादि की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के अनुसार वर्ण व्यवस्था का आधार जन्मना नहीं, प्रत्युत् कर्मणा है, ऐसा सिद्ध होता है। रविर्षण के अनुसार कोई भी जाति निम्दनीय नहीं है, गुण ही कल्याण करने वाले हैं। यही कारण है कि व्रत धारण करने वाले चाण्डाल को भी गणधरादि देव ब्राह्मण कहते हैं । २११ विद्या और विनय ने सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुता मोर पाण्डाल के विषय में पण्डित जन समदर्शी होते है ।२९२ श्राह्मणादि पार वर्ण और चाण्डाल शादि विशेषणों का जितना वर्णन है वह सब आधार भेद से ही संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है । ५५५
जातिवाद का खण्डन-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद के रूप में आति के जो चार भेद कहे है वे अयुक्तिपूर्ण और अहेतुक है। यदि कहा जाय कि बेद वाक्य और अग्नि के संस्कार से दूसरा जन्म होता है, यह भी ठीक नहीं है ।२२४
२८९. पप. ४।११-१२१ २९०, वही, ४१२२ । भाण (ब्राह्मण) की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो कथा यहाँ
दी गई है उसने पधचरित के प्राकृत्त स्रोत का अनुमान होता है, क्योंकि माहण शब्द प्राकृत का है और उसी की एक व्युत्पत्ति प्राकृत उक्ति माहण (मत मारो) से सार्थक बैठ सकती है जैसा कि प्राकृत पउमचरिय में पाया जाता है। संस्कृत में माहण पाब्द को कहीं स्वीकार नहीं किया गया है
और न रविषेण के सम्प्रदाय र परम्परा में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है । इसके विपरीत प्राकृत जैन आगम ग्रन्थों में इस शब्द का महत अधिक प्रयोग पाया जाता है। पपपुराण (सम्पादकीय पृ० ६) भारतीय
ज्ञानपीठ। २९१. पा ११।२०३ ।
२९२. बाही, ११।२०४ । २९३. वही, ११।२०५ । २९४. पद्म ११:१९४ ।
मातुरग्रेऽधिजननं द्वितीयं मौजिबन्धन ।
तृतीयं यज्ञदीक्षायां द्विजस्य श्रुतिचीदमात् ।। मनु० २११६९ सत्र यद् वा ह्मण जन्मास्य माजीबम्धन चिन्हितम् । तत्रास्य माता सावित्री पिता वाचार्य उच्यते ।। मनु० २।१७०