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वर्म और दर्शन : २४३ गुप्ति--वचन, मन और काय (शरीर) की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव हो माना अथवा नसमें कोमलता का आ जाना गुप्ति है।“ अज्ञानी जीव जिस कर्म को करोड़ों भवों में क्षीण कर पाता है उसे तीन गप्तियों का धारक ज्ञानी मनुष्य एक मूहूर्त में क्षय कर देता है ।१९
परिषह जय१०० --संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों का क्षय करने के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परिषह है । १०१ ये बाईस है । १०२
अट्ठाईस मूलगुण१०३ मुनिराज पाँच महाव्रत, पांच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, प्रत्माख्यान ये छः मावश्यक, स्नान त्याग, दन्तधावन त्याग, भूमिशमन, केशलोंच, नग्नता धारणा करना, सहे होकर नागर लेता, दिन में एक बार भोजन लेना, ये सात व्रत इस तरह अट्ठाईस मूल गुणों का पालन करते है ।१०४
सात भय१०५ इहलोक भय, परलोक भय, मरण भय वेदना भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय और आकस्मिक भय से सात भय हैं । १०५* मुनि इन सात भयों का त्याग करते हैं।
पाठ मदों का त्याग शान, पूजा (प्रसिष्ठा), कुल, जाति, शक्ति, ऋद्धि (धन सम्पत्ति), तप और
९८. पन १४।१०। २९. बहो, १०५।२०५ । १००. वही, ८७।१२। १०१. 'मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिसोढव्याः परिषहाः' । तत्वार्थ सूत्र ९५८ । १०२. 'क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकमाल्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याक्रोशषधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञा शानी दर्शनानि ।'
-तस्वार्थसूत्र १।९ । १०३. पद्मः ३९११६५ । १०४. आचार्य कुन्थुसागर : मुनिधर्मप्रदीप, पृ. ४ । १०५. पन० १०६।११३ । १०५.* पं० पन्नालाल साहित्याचार्य : मोक्षशास्त्र (हिन्दी टीका), पृ. १३२ । १०६. पन ११९१३० ।