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१८२ : पधचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति स्थित महलों के समूह से मनोहर पा, शेष नामक पर्वत के मध्य स्थित था, स्वर्णमय हजार स्तम्भों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लम्बाई तथा विस्तार से मुक्त था, नाना मणियो के समूह से शोभित था, चन्द्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की वलमियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकते हुए मोतियों के बालों से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त तथा प्रतिसर आदि विविध प्रदेणों से सुन्दर था और पापनाशक था । ५५५
शालमञ्जिकापा-ऊपर शालभञिका पशब्द आया है। डॉ. वासुदेवशरा अप्रपाल ने अपनी हवरित क ति वन' नामक ग्रंथ में इस शब्द पर अच्छा प्रकाश डाला है ! सालमजिका शब्द का इतिहास बहुत पुराना है । आरम्भ में यह स्त्रियों की एक क्रीड़ा थी। सिले हए साल के नीचे एक हाथ से उसकी हाली झुकाकर फूल चुनचुनकर स्त्रियां यह खेल खेलती थीं। पाणिनि की मपटाध्यायी में प्राचां क्रीडायां (६, ७, ७४) निस्य कोडाजी बिकयो: (२, २, १७) और संज्ञायां (३, , १०९) सूत्रों के उदाहरणों में शालभजिका, उबालक पुष्पभजिका आदि कई क्रीडाओं के माम आए हैं, जो पूर्वी भारत में प्रचलित थीं। वारस्यायन को जयमंगला टीका में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है । बुर की माता माया देवी लुम्बिनी उद्यान में इसी प्रकार की शालमजिका मुद्रा में खड़ी थीं, जब बुद्ध का जन्म हुआ था। धीरे-धीरे इस मुद्रा में खड़ी हुई स्त्री के लिए सालजिका शब्द रुढ़ ही गया । सांची, भरहुत ओर मथुरा में तोरण को बंडेरी और स्तम्भ के बीच में तिरछे शरीर से खडी हुई स्त्रियों के लिए तोरणशालभक्षिका शब्द चल गया था। कुषाणकाल में अश्वघोष ने इसका उल्लेख किया है । १५७ इसी मुद्रा में खड़ी हुई स्थी मूर्तियां मथुरा के कुषाणकालीन वेदिका-स्तम्भों पर बहुतायत से मिलती हैं। उनके लिए स्तम्भशालभंजिका शब्द रूप हो गया। खम्भे पर बनी हुई स्त्री मूर्ति के लिए चाहे वह किसी मुद्रा में हो, यह शब्द गुप्तकाल में चल गया था। ३५८ इसी को रविषेण ने 'स्तम्भसभासक्तामगृहीतशालम्ञिकाम्' पद द्वारा व्यक्त किया है । ३५५
३५५. पद्म० ८०६६३-६७ ।
३५६. प. ७१॥३४ । ३५७. अबलम्ब्य गवाक्षपापर्वमरन्या शयिता चापविभुग्नगात्रयष्टिः । विरराज विलम्बिचारहारा रचिता तोरणशालभंजिकक ।।
-युवचरित ५।५२, (हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ०६१) ३५८. वासुदेवशरण भग्नवाल : हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. ६१, ६२ । ३५९. पप०७१।३४ ।