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कला : १८१
आकाश में स्थित है परन्तु बाद में पैरों के रखने उठाने की क्रिया से निश्चय कर सके कि यह नोचे ही हूं । ३४५ हे विलासिनि ! मुझे मार्ग दिखाओ' इस प्रकार कह कर किसी ३४६ स्तम्भ में लगी शालभंजिका का हाथ पकड़ लिया । सुभट आगे चलकर हाथ में स्वर्णमयी वेत्रलता को धारण करने वाला एक कृत्रिम द्वारपाल दिखाई दिया। उसे किसी सुभट ने पूछा कि शीघ्र ही शान्ति का मार्ग कहो ।
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देता? जब कुछ उत्तर नहीं नहीं है, यह कहकर किसी उसकी अंगुलियाँ चूर-चूर
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परन्तु वह कृत्रिम द्वारपाल क्या उत्तर मिला तो अरे यह अहंकारी युवक कुछ कहता ही सुभट ने उसे एक बंग में थप्पड मार दी, पर इससे हो गई ४८ बाद में हाथ से स्पर्श कर उन्होंने जाना कि यह सचमुच का द्वारपाल नहीं, अपितु कृत्रिम द्वारपाल है। ऐसा तो नहीं है कि कहीं यह द्वार न हो किन्तु महानीलमणियों से निर्मित दीवाल हो, इस प्रकार के संशय को प्राप्त हो उन्होंने पहले हाथ पसारकर देख लिया । ३५० उन सबकी भ्रांति इतनी कुटिल हो गई कि वे स्वयं जिस मार्ग से आए थे उसी मार्ग से निकलने में असमर्थ हो गए, अतः निरुपाय हो उन्होंने शान्ति जिनालय में पहुँचने का ही विचार स्थिर कर दिया । ३५१ पश्चात् किसी मनुष्य को देख उसकी बोली से सचमुच मनुष्य जानकर उससे कहा कि मुझे शान्ति जिनालय (शान्तिहर्म्यस्य) का मार्ग दिलाओ। उसके निर्देश से वे शान्सि- जिनालय में पहुँचे ।
पृथ्वी के भीतर वस्तुयें छिपाकर रखने के लिए गर्भालय बनाए जाते थे । इनका दूसरा नाम भूमिगृह था। एक बार अयोध्या में भरत ने जब भेरी बजवाई तब वहाँ के किसी धनी मनुष्य ने अनिष्ट की आशंका कर अपनी स्त्री से कहा कि ये स्वर्ण और चाँदी के घट तथा मणि और रत्नों के पिटारे भूमिगृह में रख दो। रेशमी वस्त्र आदि से भरे हुए इन गर्भालयों को शीघ्र हो बन्द कर दो और जो सामान अस्त-व्यस्त पड़ा है उसे ठीक तरह से रख दो । १५३
राजभवन को राजालय कहा जाता था । शत्रुदम का बालय अनेक प्रकार के निम्बूद्दों से युक्त था, रङ्ग बिरङ्गी ध्वजाओं से सुशोभित था तथा सफेद मेघाबलो के समान था । ३५४ विभीषणालय के मध्य में श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का मन्दिर था। यह मंदिर रत्नमयी तारणों सहित या स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप
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३४५. पद्म० ७१।३१ ।
३४७. वहो, ७१ ३५ ।
३४९. वही, ७१ ३७ ॥
३५१. वही, ७१।३९ ।
३५३. वही, ६५।१७-१८
३४६. एम० ७१ । ३४ ।
३४८. वही, ७१३६ । ३५०. वही, ७११३८ । ३५२. वही, ७१ ४०
३५४. वही, ३८८२