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धर्म भौर दर्शन : २६९
पुदगल-जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और वर्ण पाया जाय वह पुरगल
का सिद्धारा--. :
अना इ ए म से जिसकी आत्मीय शमि. छिप गई है ऐसा यह प्राणी निरन्तर भ्रमण कर रहा है । १४ अनेक लक्ष योनियों में मामा इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले सुख दुःख का सवा अनुभव करता रहता है । १५ कर्मों का जब जैसा तो मन्द या मध्यम उदय प्राता है वैसा रागी द्वेषी अथवा माही होता हुआ कुम्हार के चक्र के समान चतुगंति में घूमता रहता है। इस प्रकार चारों गतियों में घूमने का वर्णन पदमचरित के चौदहवें अध्याय में विस्तृत रूप से किया गया है । १७ यह जीव अशुभ संकल्प से दुःख पाता है, शुभ संकल्प से सुख पाता है और अष्ट कमो के क्षय से मोक्ष प्राप्त करता है ।११८ इस प्रकार इस प्राणी का बन्धु अथवा शत्रु उसका कर्म ही है । १९ इसलिए जिनके साथ अवश्य ही वियोग होता है ऐसे भोगों का त्याग कर देना चाहिए । १५० मैं दीक्षा लेकर पृथ्वी पर कब विहार करूंगा और कब कर्मों को नष्ट कर विद्यालय में पहुँचूंगा, जो निर्मल चित्त का धारी मनुष्य प्रतिदिन ऐसा विचार करता है, कर्म भयभीत होकर ही मानो उसको संगति नहीं करते हैं । कोई-कोई गृहस्थ प्राणी सात आठ भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेते है
और उसम हृदय को धारण करने वाले कितने ही मनुष्य तोषणा तप कर दो तीन भव में ही भुरू हो जाते है ।२५
अष्टकर्म-ऊपर अष्टकमों का निर्देश हुआ है. ये अष्टकर्म निम्नलिखित ११२३.- १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, , मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अंतराय ।
ज्ञानावरण-जो ज्ञान को आवत करे या जिसके द्वारा ज्ञान का आवरण किया जाय वह ज्ञानावरण है।
दर्शनाबरण-जो आत्मा के दर्शन गुण को आवुत करे या जिसके द्वारा दर्शन गुण का आवरण किया जाय वह दर्शनावरण है।
३१४. पण. १४।१८। ३१५. वह्नी, १४।१९।
३१६. वही, १४।२०। ३१७. वही, १४।२१-५०
३१८. वही, १४१५१ । यहाँ कई स्थानों पर तत्त्वापसूत्र के अनुसार वर्णन है । ३१२. पद्म ११२।९० ।
३२०. पद्म ११२२९१ । ३२१. वहीं, ४।२२२-२२४ । ३२२. वही, १४४१८ । ३२३. तत्त्वार्षसूत्र, ८१४, ज्यास्पा सत्त्वार्थवासिक ८।४।२ ।