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धर्म और दर्शन : २४९ १३. छत्र, चमर, फम्नस, पताका, दर्पण आदि से जिनमन्दिर सजाना। ५२ १४. गन्ध से जिनेन्द्र भगवान् का लेपन करना ।
१५. सोरण, पताका, घंटा, लम्बूष, गोले, अर्धचन्द्र, चंदोबा, अत्यन्त मनोहर वस्त्र तथा अत्यन्त सुन्दर अन्यान्य समस्त उपकरणों के द्वारा पूजा
करना ।
१६. नवेद्य के उपहारों और उत्तम वर्ण के विलेपनों से पूजा करना । १५॥
दान दान चार प्रकार के होते हैं---१, आहारदान, ५७ अभयदान, १५८ औषधि हाम१५९ तथा शानदान । १०
पात्र और उसके गुण-पात्र की विशेषता से अनेकरूपता को प्राप्त हुए जीय दान के प्रभाव से भोगभूमियों में भोगों को प्राप्त करते हैं। जो प्राणि हिंसा से विरत, परिग्रह से रहित और रागद्वेष से शून्य है उन्हें उत्तम पात्र कहते है । जो तप से रहित होकर भी सम्यग्दर्शन से शुख है ऐसा पात्र प्रशंसनीय है, क्योंकि उसके मिथ्वादृष्टि दाता के शरीर को शुद्धि होती है । १२ जो आपत्तियों से रक्षा करे वह पात्र कहलाता है। 'पातीति पात्रम्' इस प्रकार पात्र शब्द का निरुक्त्यर्थ है । चुकि मुनि सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से लोगों की रक्षा करते हैं अतः वे पात्र है । जो निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक पारित्र से सहित होता है यह उत्सम पात्र कहलाता है । जो मान, अपमान, सुख-सु.ख और तृण कांचन में समान दृष्टि रखता है ऐसा साघु पात्र कहलाता है। जो सब प्रकार के परिग्रह से रहित हैं, महातपश्चरण में लीन है और तत्त्वों के ध्यान में सदा तत्पर है ऐसे श्रमण मुनि उत्तम पात्र कहलाते है ।१६४
प्रशंसनीय दान-जिस प्रकार उत्तम श्रेत्र में बोया हया बीज अत्यषिक सम्पदा प्रदान करता है उसी प्रकार उत्तम पात्र के लिए शुद्ध हृदय से दिया हुवा दान अत्यधिक सम्पदा प्रदान करता है।'६५ जिस प्रकार एक ही तालाब में गाय ने
१५३. पम० ३२११६३ । १५५. वही, ९५।३२, ३३ । १५७. वही, ३२१५४ । १५९. वही, १४१७६ । १६१. वही, १४१५२ । १६३, वही, १४१५५.५७ । १६५. वहो, १४॥६० ।
१५४. पप ३२।१६४ । १५६. वही, ६९।५ । १५८, वही, ३२।१५५ । १६०. वही, ३२११५६ । १६२. वही, १४।५३, ५४ । १६४. वही, १४.५८ ।