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२२६ : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति ली जाती थी । १७ इसके बाद मन्त्रियों से मन्त्रणा को जाती थी । २१८ सोच विचार कर ही कार्य किया जाता था, क्योंकि बिना विचारे कार्य करने वालों का कार्य निम्फल हो जाता है । १९ खोत हार के विषय में भाग्य और पुरुषार्थ दोनों को महत्ता बी जाती थी। केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धि का कारण नहीं है, क्योकि कार्य कागेशले माल का वर्णन मिना क्या सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । एक ही समान पुरुषार्य करने वाले और एक ही समान आदर से पढ़ने वाले छात्रों में से कुछ तो सफल हो आते हैं और कुछ कर्मों की विवशता से सफल नहीं हो पात । १२° पूर्व जन्म के पुण्य के उदय से प्राणियों के लिए पर्वतों को चूर्ण करने वाला बन्न भी फूल के समान कोमल हो जाता है। अग्नि भी पन्द्रमा के समान शीतल विशाल कमल बन हो जाती है और खड्गरूपी लता भी सुन्दर स्त्रियों की सुकोमल भुजलता बन जाती है । २५
अच्छी सेना के लिए आवश्यक समझा जाता था कि उस सेना में न तो कोई मनुष्य मलिन, न दीन, न भूखा, न प्यासा, न कुस्सित वस्त्र धारण करने घाला और न चिन्तातुर दिखाई पड़े । सैनिकों के उत्साहवर्दन हेतु स्त्रियां भी पुरुषों के साथ जाती थीं । २२ युद्ध प्रारम्भ करने से पूर्व, मध्य में और अन्त में बाजे बजाये जाते थे 1 सबसे पहले यन्त्र आदि के द्वारा कोट को अत्यन्त दुर्गम कर दिया जाता था तथा नाना प्रकार की विधाओं के द्वारा नगर को गहरों एवं पाशों से युक्त कर दिया जाता था ।१२३ सच्चे शूरवीर युद्ध में प्राण त्याग करना अच्छा समझते थे पर शत्र के लिए नमस्कार करना अच्छा नहीं समझते
थे।३२४
वाद्यों का प्रयोग-पद्मचरित में अनेक बाधों के नाम आये हैं । ये मुर और विभिन्न माङ्गलिक समारोहों पर बजाये जाते थे। इनकी संख्या निम्नलिखित है
३१७. पन १२।१६३ ।
३१८. प. १२।१६४ । ३१९, वही, १२५१६४ । ३२०. भवत्यर्थस्य संसिवय केवलं च न पौरुषम् ।
कर्षकस्य विना दृष्टया का सिद्धिः कर्मयोगिन: ।। पप० १२।१६५ । समानमहिमानामां पठता च समादरम् ।
अर्थभानो भवास्येके मापरे कर्मणो दशात् ।। पप० १२।१६७ । ३२१. पप० १७।१०४-१०५ । ३२२. पत्र० १०२।१०६-१०७ । ३२३. वही, ४६१२३० ।
३२४. दही, १२।१७७ ।