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सामाजिक व्यवस्था : ४७
गुरु पास ही विद्यमान है अतः हम लोग उन्हीं के पास पलें, यही सनातन धर्म है । आचार्य के समीप रहने पर भी जो उनके पास नहीं जाता है और स्वयं उपदेशादि देकर आचार्य का काम करता है वह मूर्ख शिष्यपना को ही छोड़ देता है । १४५ शिष्य और गुरु का बड़ा आत्मिक सम्बन्ध होता है। अपनी विशेष बातों को गुरु से निवेदन कर शिष्य बड़े भारी दुःख से छूट जाता है । १४१ सामान्य शिष्य से लेकर राजपुत्र तक गुरु की सेवा में तत्पर रहते थे गुरु के समक्ष लिया हुआ व्रत भंग करना बहुत दुःख कर माना जाता था । परित्यक्ता सोता कहती है कि निश्चित हो मैंने अन्य जन्म में लेकर भंग किया होगा, जिसका यह फल प्राप्त हुआ है । १४८ भावक भी गुरु का बथायोग्य सम्मान करते थे ११४९
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।
राम द्वारा
गुरु के समक्ष व्रत शिष्य के अभि
घर पर करते
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विद्या प्राप्ति का स्थान — विद्या प्राप्ति कुछ लोग गुरु के थे । कहीं-कहीं विशिष्ट विद्वानों की राजा लोग अपने कर हो रख लिया करते थे। १५१ उस समय के विद्यालय भी विद्या प्राप्ति के उत्तम स्थान थे 1 तापसी लोगों के बड़े-बड़े आश्रमों का भी उल्लेख मिलता है, जिनके घर बहुत से शिष्य विद्याध्ययन करते थे ।
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लिपि - लेखन कला का उस समय विकास हो गया था। पद्मचरित में चार प्रकार की लिपि कही गई है ।
अनुवृत्त १४ – जो लिपि अपने देश में आमतौर से चलती है उसे अनुवृत कहते हैं ।
विकृत १५"
लोग अपने-अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं,
उसे विकृत कहते हैं । सामयिक १५५
-प्रत्यंग आदि वर्णों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामयिक
कहते हैं ।
नैमित्तिक ७ - वर्णों के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपि का ज्ञान
१४५. पद्म० ६/२६२-२६४ । १४७. वही, १००१८१ । १४९. वहीं, ३९/१६३ | १५१. वही, ३९।१६० । १५३. वही, ८३३३, ३३४ ।
१५५. वही, २४ २४ । १५७, मही, २४ २५ २६
१४६. पद्म० १५।१२२-१२३ । १४८. वहो, ९७।१६० ।
१५०, वही, २६५, ६
१५२. वही, ३९/१६२ । १५४. वही, २४१२४ । १५६. वही, २४१२५ ।