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________________ सामाजिक व्यवस्था : ८७ तरङ्गावली नाम से प्रसिद्ध तथा रत्नों से देदीप्यमान रानियों के महलों की पंक्ति थी। बिजली के खम्भों के समान कान्तिबाला अम्भोजकाण्ड नामक शय्याग्रह था, जगते हुए सूर्य के समान उप्सम सिंहासन था, चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान चमर थे । इच्छानुकूल छाया को करने वाला चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त बड़ा भारी छत्र था। सुख मे गमन कराने वाली विषमोचिका नाम को खड़ा थो, अनर्घ्य वस्त्र थे, दिव्य आभूषण धे, दुर्भेद्य कवच था, देवीप्यमान मणिमय कुण्डलों का जोड़ा था, कभी ध्यर्थ नहीं जाने वाले गदा, खड्ग, चक्र, कनक, बाण तथा रणागण में चमकने वाले अन्य बड़े-बड़े वास्त्र थे, पनास यस हल थे, एक करोड़ से अधिक अपने-आप दूध देने वाली गायें थों । अयोध्या नगरी में अत्यधिक सम्पत्ति को धारण करने वाले कुछ अधिक रात्तर करोड़ कुल थे। गृहस्थों के समस्त घर अत्यन्त सफेद, नाना आकारों के शक, अक्षीण खजानों से परिपूर्ण तथा रत्नों से युक्त थे 1 नाना प्रकार के अन्नों से परिपूर्ण नगर के बाट प्रदेश छोटे-मोटे गोल पर्वतों के समान जान पड़ते थे और पक्के फगों से पुक्त भवनों की चौशाले अत्यन्त सुखदायी थीं । उत्तमोत्तम बगीचो के मध्य में स्थित नाना प्रकार के फलों से सुशोभित, उत्तम सीहियों से यक्त एवं क्रीड़ा के योग्य अनेक वापिकायें थीं । ४५ अयोध्या नगरी के बड़े-बड़े विद्यालयों को देखकर यह सन्देह होता था कि ये देवों के क्रीडाञ्चल है अथवा शरद् ऋतु के मेषों का समह है ,५४६ इस नगरी का प्राकार समस्त दिवाओं को देदीप्यमान करने वाला अत्यन्त कैचा, समुद्र की बैदिका के समान तथा बड़े-बड़े शिखरों से सुशोभित था। ये सब वैभव जिनका कि कथन किया गया है बलभद और नारायण पद के कारण उनके प्रकट हुआ। वैसे उनका जो वैभव और भोग था उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ।५४८ जनजीवन-साधारण मनुष्य भी उस समय समृच और सुखी थे । आज की तरह उस समय भी नगर वैभव और समृद्धि के प्रतीक थे। नगर में प्रत्येक प्रकार के व्यक्तियों और प्रत्येक प्रकार के उद्यमों का समवाय था । पदमपरित के द्वितीय पर्व में प्रतिपादित राजगृह नगर इसका सबसे बड़ा प्रतीक है। गांव का जीवन सीधा-सादा था। विशेषकर हस्त-कौशल, खेती और पशुपालन ग्रामीणों की मुख्य आजीविका थी। देश के कुछ भाग ऐसे भी थे जहाँ किन्हीं प्राकृतिक कारणों से लोगों को वार्थिक कठिनाई का सामना करना पड़ता था। एकादश पर्व में रावण का ऐसे देश में जाने का वर्णन है जहाँ जाने पर पृथ्वी अफूष्ट पक्ष्य धान्य ५४५. पद्य० ८३।५-१९ । ५४७. वही, ८३।२९ । ५४६. पप ८३३२८ । ५४८. वहीं, ८३६२-३३
SR No.090316
Book TitlePadmcharita me Pratipadit Bharatiya Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size6 MB
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