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धर्म और दर्शन : २७९
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रहे उस मस्तक पर प्रचण्ड अग्नि जलाकर आहुति देना चाहिए । १८५ जो कुछ हो चुका है अथवा जो आगे होगा, जो अमृतस्व का स्वामी है और जो अन्नजीबी है वह सब पुरुष ही है। इस प्रकार सर्वत्र जब एक ही पुरुष है तब किसके द्वारा कौन मारा जाता है इसलिए यज्ञ में इच्छानुसार प्राणियों की हिंसा करो ३०७ यज्ञ में यज्ञ करने वाले को उन जीवों का मांस खाना चाहिए क्योंकि देवता के उद्देश्य से निर्मित होने के कारण वह मांस पवित्र माना जाता है । यज्ञविषयक वाद
यज्ञ की पुष्टि में शास्त्र प्रमाण - नारद और संवर्त के विवाद में संवर्त कहता है कि अकर्तृक वेद ही तीनों वर्णों के पदार्थ के विषय में प्रमाण है । उसी में यज्ञ कर्म का कथन किया यश के द्वारा अपूर्व नामक प्रवधर्म प्रकट होता है जो जीव को विषयों से उत्पन्न फल प्रदान करता है । ३० वेदी के होता है वह पाप का कारण नहीं है क्योंकि उसका गया है इसलिए निश्चित होकर यश आदि करना चाहिए की सृष्टि यश के लिए ही की है। इसलिए जो जिस कार्य उस कार्य के लिए उनका विघात करने में दोष १२ नहीं है
के
।
३८५. वही, १९८८-८९ ।
३८६. सर्व पुरुष एवेदं यद्भूतं यद्भविष्यति ।
लिए अतीन्द्रिय
गया है। ३८९ स्वर्ग में इष्ट
मध्य पशुओं का जो बघ निरूपण शास्त्र में किया
वेद के अपौरुषेयत्व का निषेध — ऊपर वेद को जो अकर्तृक कहा गया है उसका लण्डन करते हुए नारद कहता है कि वेद का कोई कर्ता नहीं है, यह बात युक्ति के अभाव में सिद्ध नहीं होती है जबकि वेद का कर्ता है इस विषय में अनेक हेतु सम्भव है । जिस प्रकार दृश्यमान घट पटादि पदार्थ सहेतुक होते है उसी प्रकार वेद सकती है इस विषय में भी अनेक हेतु सम्भव हैं । १९३ चूँकि वेद पद और वाक्यादि रूप हैं तथा विषेय और प्रतिषेध्य अर्थ से युक्त है अत:
257 " ब्रह्मा ने पशुओं
लिए रखे गये हैं
३८७ १५० ११९१ ।
१८९. वही, ११।१६७ । ३९. वहीं, ११।१६९ । १९३. वही, ११।१८९ ।
ईशानो योऽमृतत्वस्य यदन्नेनातिरोहति पद्म० ११.९० । पुरुष एवं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यवनातिरोहति ॥ पुरुष सूक्त — ऋश्वेद | यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुषा ।
यज्ञस्य भूमै सर्वस्य तस्माद यशे वषौऽवषः || मनुस्मृति ५३९ ।
३८८. वहीं, ११।९२ ।
३९०. वही, ११।१६८ । ३९२, वही, ११।१७० ।