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प्राक्कथन
महादेश भारतवर्ष की प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड़, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि विभिन्न प्राचीन एवं मध्ययुगीन भाषाओं में प्राप्त जैन परम्परा का पुराण साहित्य पर्याप्त विपुल, विविध एवं श्रेष्ठ कोटि का है । सुदूर अतीत से ही शिष्ट साहित्यिक भाषा के रूप में संस्कृत का सर्वोपरि महत्त्व रहता आया है और संस्कृत भाषा का भी जन पुराण साहित्य भाषा-सौष्ठव, कायोचित गुणों, आकार-प्रकार आदि किसी भी दृष्टि से अन्य परम्परागों के पुराण साहित्य की अपेक्षा तनिक भी हीनस्तरोय नहीं है।
अद्यावधि उपलब्ध संस्कृत भाषा की और पुरानी कार्य रविषणात पद्मपुराण या पदमचरित सर्वप्राचीन है । सात महाधिकारों, १२३ पों और १८००० श्लोकों में निबद्ध इस महान् पुराण अन्य की रचना आचार्य ने महावीर निर्वाण के छ: मास अधिक १२०३ वर्ष व्यतीत होने पर, अर्थात सन् ६७६ ई. के वैशास्त्र मास के शुक्ल पक्षारम्भ में, सम्भवतया अक्षय तृतीया के दिन, पूर्ण की थी । ग्रन्थ के इस सुनिश्चित रचमाकाल के विषय में किसी भी आधुनिक विद्वान ने कोई शंका नहीं उठाई है। रविषेण दिगम्बर आम्नाय के अनुयायी थे, यह तथ्य निर्विवाद है, किन्तु उस परम्परा के किस संघमाण-गच्छ से वह सम्बद्ध थे, इसकी कोई सूचना नहीं है। केवल यही ज्ञात है कि वह सन्ममि लक्ष्मणसेन के शिष्य थे, जो स्वयं महम्मुनि के शिष्य और दिवाकर पति के प्रशिष्य थे और मह दिवाकर यति इन्द्र गुरु के शिष्य थे।
जन परम्परा में इक्ष्वाकुवंशी अयोध्यापति दाशरथि रामचन्द्र का अपरनाम 'पद्म' विशेष प्रसिस रहा है, अतएव पद्मपुराण या पदमचरित से आशय रामचरित, रामकथा या रामायण का होता है। भारतीय पुराण पुरुषों में श्री राम का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उनका चरित्र या कथानक प्रायः सर्वाधिक लोकप्रिय रहता आया है और उसका प्रभाव देश एवं काल की सोमामों का अतिक्रमण करके अतीक व्यापक रहा है । ब्राह्मण परम्परा में वाल्मीकीय रामायण रामचरित्र का मूलाधार माना जाता है। बौद्ध परम्परा में उसका आधार दशरथजातक है। और जैन परम्परा में केवलिजिन प्रणीत द्वादशांमश्रत के बारहवें अंग दृष्टिप्रवाद के तृतीय विभाग, 'प्रथमानुयोग' में वर्णित प्रेसपालाका पुरुषों का चरित उसका भूल खोत माना जाता है। आचार्य रविषेण के अनुसार पद्मचरित (रामचरित्र) का वह मूल कथानक इन्द्रभूति. सूधर्मा