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आदि फेवलियों और प्रभव आदि श्रुतकेवलियों के माध्यम से प्रवाहित होता हमा अन्ततः अनुत्तरवाग्मी कीर्तिधर नामक आचार्म को प्राप्त हुआ और उक्त कीतिघर के ग्रंथ को देखकर रविषेण ने अपना पद्मपुराण रचा है। रविषण के परवर्ती अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू ने भी अपनी रामायण या पद्मचरित (लगभग ७९० ई०) में यही बात कही है, साथ ही कीतिघर के उपरान्त रविषेण का भी नामोल्लेख किया है। अतः इन दोनों विद्वानों के सम्मुख आचार्य कीर्तिधर का रामचरित्र विद्यमान था, जो अब कहीं उपलब्ध नहीं है। दूसरी ओर, विमलार्य कृत प्राकृत पद्मचरित का जिसका रचनाकाल विभिन्न विद्वान् प्रथम शती ई. से पांचवीं शती ई० पर्यन्त किसी समय रहा अनुमानित करते है, कोई भी नामोल्लेख रविपेण और स्वयंभू ने नहीं किया, यद्यपि उसके साथ इन दोनों के ग्रन्थों की तुलना करने पर अनेक साम्य लक्षित होते हैं। अब या तो जिसे भाज विमल रिकृत पदमचरित्र के रूप में जाना जा रहा है, उसे ही रविषेण और स्वयंभू कोतिधर की कृति के रूप में जानतं थे, अथवा उन तीनों का ही मुल स्रोत वह कोई अन्य ग्रन्थ रहा है जिसके विषय में आज कुछ ज्ञात नहीं है। उन तीनों में भी परस्पर भाषा, शैली, संकोच, विस्तार आदि के अनेक अन्तर है, तथापि वे जैन रामकथा की उस एक घारा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं जो गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराण (त०८५० ई०) में प्राप्त धारा से भिन्न है। परवतों लेखकों में से कुछ ने एक धारा का अनुसरण किया, कुछ ने दुरारी का, तथापि गुणभद्रीय धारा को अपेक्षा रविपणीम धारा ही अधिक लोकप्रिय रही। रामकथा या तत्संबंधी प्रसंगों अथवा प्रकरणविशेषों को लेकर जैन लेखकों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचित साधिक दो सौ रचनाएं उपलब्ध है, उनमें से लगभग डेढ़ सौ का आधार रविषणोय पद्मपुराण ही है।
हमने लगभग तीस वर्ष पूर्व रविषेणकृत पद्मचरित के सन्दर्भ में लिखा था कि वह प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास की जानकारी तथा रामकथा की विभिन्न जैनाजन धाराओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। वस्तुतः प्रत्येक साहित्यकार को कृति में उसके समसामयिक समाज की सभ्यता एवं संस्कृति अल्पाधिक प्रतिबिंबित होती ही है, भले ही उसका वर्ण्य कथानक उससे सैकड़ों या सहस्रों वर्षों पूर्व घटित घटनाओं एवं व्यक्तियों से सम्बन्धिल रहा हो। अतएव इधर विश्वविद्यालयों के शोधछात्रों द्वारा ग्रन्थपरक सांस्कृतिक अध्ययन अनेक किये जा रहे हैं। डॉ. रमेशचन्द जैन का पी-एच. डी० उपाधि के लिए स्वीकृत प्रस्तुत शोध प्रबन्ध 'पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति' भी उसी कड़ी की शोष-ओजपूर्ण कृति है। ई० सन् की छयी-सातवीं शताब्दियों के आसपास की भारतीय संस्कृति, सभ्यता एवं